10 December, 2018

Paper planes and a city of salt


जिस दिन मुझे ख़ुद से ज़्यादा अजीब कोई इंसान मिल जाए, उसको पकड़ के दन्न से किसी कहानी में धर देते हैं।

इधर बहुत दिन हो गए तरतीब से ठीक समय लिखा नहीं। नोट्बुक पर भी किसी सफ़र के दर्मयान ही लिखा। दुःख दर्द सारे घूम घूम कर वहीं स्थिर हो गए हैं कि कोई सिरा नहीं मिलता, कोई आज़ादी नहीं मिलती।
चुनांचे, ज़िंदगी ठहर गयी है। और साहब, अगर आप ज़रा भी जानते हैं मुझे तो ये तो जानते ही होंगे कि ठहर जाने में मुझ कमबख़्त की जान जाती है। तो आज शाम कुछ भी लिखने को जी नहीं कर रहा था तो हमने सिर्फ़ आदत की ख़ातिर रेख़्ता खोला और मजाज़ के शेर पढ़ कर अपनी डायरी में कापी करने लगी। हैंडराइटिंग अब लगभग ऐसी सध गयी है कि बहुत दिनों बाद भी टेढ़ी मेढ़ी बस दो तीन लाइन तक ही होती है, फिर ठीक ठीक लिखाने लगती है।
इस बीच मजाज के लतीफ़े पढ़ने को जी कर गया। और फिर आख़िर में मंटो के छोटे छोटे क़िस्से पढ़ने लगी। फिर एक आध अफ़साने। और फिर आख़िर में मंटो का इस्मत पर लिखा लेख।
उसके पहले भर शाम बैठ कर goethe के बारे में पढ़ा और कुछ मोट्सार्ट को सुना। कैसी गहरी, दुखती चीज़ें हैं इस दुनिया में। कमबख़्त। पढ़ वैसे तो रोलाँ बार्थ को रही थी, कई दिनों बाद, फिर से। "प्रेमी की जानलेवा पहचान/परिभाषा यही है कि "मैं इंतज़ार में हूँ"'। इसे पढ़ते हुए इतने सालों में पहली बार इस बात पर ध्यान गया कि मुझे प्रेम कितने अब्सेसिव तरीक़े से होता है। शायद इस तरह डूब कर, पागलों की तरह प्रेम करना मेरे मेंटल हेल्थ के लिए सही नहीं रहा हो। यूँ कहने को तो मजाज भी कह गए हैं कि 'सब इसी इश्क़ के करिश्मे हैं, वरना क्या ऐ मजाज हैं हम लोग'। फिर ये भी तो कि 'उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ाँ मेरे दिल से, देखूँगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और जियादा'। 

कि मैंने उम्र का जितना वक़्त किसी और के बारे में एकदम ही अब्सेसिव होकर सोचने में बिताया है, उतने में अपने जीवन के बारे में सोचा होता तो शायद मैं अपने वक़्त का कुछ बेहतर इस्तेमाल कर पाती। सोचने की डिटेल्ज़ मुझे अब भी चकित करती है। मैंने किसी और को इस तरह नहीं देखा। यूँ इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि मैं चीज़ों को लेकर इन्फ़िनिट अचरज से भरी होती हूँ। बात महबूब की हो तो और भी ज़्यादा। गूगल मैप पर मैंने कई बार उन लोगों के शहर का नक़्शा देखा है, जिनसे मैं प्यार करती हूँ। उनके घर से लेकर उनके दफ़्तर का रास्ता देखा है, रास्ते में पड़ने वाली दुकानें... कुछ यूँ कि जैसे मंटो से प्यार है तो कुछ ऐसे कि उसके हाथ का लिखा धोबी का हिसाब भी मिल जाए तो मत्थे लगा लें। ज़िंदा लोगों के प्रति ऐसे पागल होती हूँ तो अच्छा नहीं होता, शायद। हमारी दुनिया में ऐसे शब्द भी तो हैं, ख़तरनाक और ज़हरीले। जैसे कि स्टॉकिंग।

मैं एक बेहतरीन stalker बन सकती थी। पुराने ज़माने में भी। इसका पहला अनुभव तब रहा है जब मुझे पहली बार किसी से बात करने की भीषण इच्छा हुयी थी और मेरे पास उसका फ़ोन नम्बर नहीं था। मैंने अपने शहर फ़ोन करके अपनी दोस्त से टेलिफ़ोन डिरेक्टरी निकलवायी और लड़के के पिताजी का नाम खोजने को कहा। उन दिनों लैंडलाइन फ़ोन बहुत कम लोगों के पास हुआ करते थे और हम नम्बरों के प्रति घोर ब्लाइंड उन दिनों नहीं थे। तो नाम और नम्बर सुनकर ठीक अंदाज़ा लगा लिया कि हमारे मुहल्ले का नम्बर कौन सा होगा। ये उन दिनों की बात है जब किसी के यहाँ फ़ोन करो तो पहला सवाल अक्सर ये होता था, 'मेरा नम्बर कहाँ से मिला?'। तो लड़के ने भी फ़ोन उठा कर भारी अचरज में यही सवाल पूछा, कि मेरा नम्बर कहाँ से मिला तुमको। फिर हमने जो रामकहानी सुनायी कि क्या कहें। इस तरह के कुछेक और कांड हमारी लिस्ट में दर्ज हैं।

ये साल जाते जाते उम्मीद और नाउम्मीद पर ऐसे झुलाता है कि लगता है पागल ही हो जाएँगे। न्यू यॉर्क का टिकट कटा के कैंसिल करना। pondicherry की ट्रिप सारी बुक करने के बाद ग़ाज़ा तूफ़ान के कारण हवाई जहाज़ लैंड नहीं कर पाया और वापस बैंगलोर आ गए। पेरिस की ट्रिप लास्ट मोमेंट में कुछ ऐसे बुक हुयी कि एक दिन में वीसा भी आ गया। कि पाँच बजे शाम को पास्पोर्ट कलेक्ट कर के घर आए और फिर सामान पैक करके उसी रात की फ़्लाइट के लिए निकल भी गए। 

कि साल को कहा, कि पेरिस ट्रिप अगर हुयी तो तुमसे कोई शिकायत नहीं करूँगी। जिस साल में इंसान पेरिस घूमने जाए, उस साल को बुरा कहना नाइंसाफ़ी है... और हम चाहे और जो कुछ भी हों, ईमानदार बहुत हैं। फिर बचपन में इसलिए तो प्रेमचंद की कहानी पढ़ाई गयी थी, 'पंच परमेश्वर', फिर किसी कहानी में उसका ज़िक्र भी आया। कुछ ऐसे ही वाक़ई बात मन में गूँजती रहती है, लौट लौट कर। 'बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?'। तो इस साल की शिकायतें वापस। साल को ख़ुद का नाम क्लीयर करने का मौक़ा मिला और २०१८ ने लपक के लोक लिया।

मगर ये मन कैसा है कि आसमान माँगता है? ख़ुशियों के शहर माँगता है। इत्तिफ़ाकों वाले एयरपोर्ट खड़े करता है और उम्मीदों वाले पेपर प्लेन बनाता है। ऐसे ही किसी काग़ज़ के हवाई जहाज़ पर उड़ रहा है मन और लैंड कर रहा है तुम्हारे शहर में। कहते हैं सिक्का उछालने से सिर्फ़ ये पता चलता है कि हम सच में, सच में क्या चाहते हैं। इसलिए पहले बेस्ट औफ़ थ्री, फिर बेस्ट औफ़ फ़ाइव, फिर बेस्ट औफ़ सेवन... और फिर भी अपनी मर्ज़ी का रिज़ल्ट नहीं आया तो पूरी प्रक्रिया को ही ख़ारिज कर देते हैं। 

इक शहर है समंदर किनारे का। अजीब क़िस्सों वाला। इंतज़ार जैसा नमकीन। विदा जैसा कलेजे में दुखता हुआ। ऊनींदे दिखते हो उस शहर में तुम। वहाँ मिलोगे?

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