09 November, 2017

तुम तोड़ोगे, पूजा के लिए फूल?

उसके बाल बहुत ख़ूबसूरत थे। हमेशा से। माँ से आए थे वैसे ख़ूबसूरत बाल। भर बचपन और दसवीं तक हमेशा माँ उसके बाल एकदम से छोटे छोटे काट के रखती। कानों तक। फिर जब वो बारहवीं तक आयी तो उसने ख़ुद से छोटी गूँथना सीखा और माँ से कहा कि अब वो अपने बालों का ख़याल ख़ुद से रख लेगी इसलिए अब बाल कटवाए ना जाएँ।  उन दिनों बालों में लगाने को ज़्यादा चीज़ें नहीं मिलती थीं। उसपर उतने घने बालों में कोई रबर बैंड, कोई क्लचर लगता ही नहीं था। वो कॉलेज के फ़ाइनल ईयर तक दो चोटी गूँथ के भली लड़कियों की तरह कॉलेज जाती रही। पटना का मौसम वैसे भी खुले बाल चलने वाला कभी नहीं था, ना पटना का माहौल कि जिसमें कोई ख़ूबसूरत लड़की सड़क पर बाल खोल के घूम सके। सिर्फ़ बृहस्पतवार का दिन होता था कि उसके बाल खुले रहते थे कि वो हफ़्ते में दो दिन बाल धोती थी तो एक तो इतवार ही रहता था। दिल्ली में एक ऐड्वर्टायज़िंग एजेन्सी में ट्रेनिंग के लिए join किया तो जूड़ा बनाना सीखा कि दो चोटियाँ लड़कियों जैसा लुक देती थीं, प्रोफ़ेशनल नहीं लगती उसमें। जूड़ा थोड़ा फ़ोर्मल लगता है। उन दिनों उसके बाल कमर तक लम्बे थे।

दिल्ली में ही IIMC में जब सिलेक्शन हुआ तो अगस्त के महीने में क्लास शुरू हुयी। ये दिल्ली का सबसे सुहाना सा मौसम हुआ करता था। लड़की उन दिनों कभी कभी बाल खोल के घूमा करती थी, ऐसा उसे याद है। ख़ास तौर से PSR पर। वहाँ जाने का मतलब ही होता था बाल खोलना। बहती हवा बालों में कितनी अच्छी लगती है, ये हर बार वो वहाँ जा के महसूसती थी। दिल्ली में नौकरी करते हुए, बसों में आते जाते हुए फिर तो बाल हमेशा जूड़े में ही बंधे रहते। असुरक्षित दिल्ली में उसके बालों की म्यान में तलवार जैसी छुपी हुआ करती थी कड़े प्लास्टिक या मेटल की तीखी नोक वाली पिन। फिर दिल्ली का मौसम। कभी बहुत ठंध कि जिसमें बिना टोपी मफ़लर के जान चली जाए तो कभी इतनी गरमी कि बाल कटवा देने को ही दिल चाहे। मगर फिर भी। कभी कभी जाड़े के दिनों में वो बाल खुले रखती थी। ऐसा उसे याद है।
बैंगलोर का मौसम भी सालों भर अच्छा रहता है और यहाँ के लोग भी बहुत बेहतर हैं नोर्थ इंडिया से। तो यहाँ वो कई बार बाल खोल के घूमा करती। अपनी flyte चलते हुए तो हमेशा ही बाल खोल के चलाती। उसे बालों से गुज़रती हवा बहुत बहुत अच्छी लगती। वो धीरे धीरे अपने खुले बालों के साथ कम्फ़्टर्बल होने लगी थी। यूँ यहाँ के पानी ने बहुत ख़ूबसूरती बहा दी लेकिन फिर भी उसके बाल ख़ूबसूरत हुआ करते थे। 

इस बीच एक चीज़ और हुयी कि लोगों ने उसके बालों से आती ख़ुशबू पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था। उसके बाल धोने का रूटीन अब ऐसा था कि बुधवार को बाल धोती थी कि शादीशुदा औरतों का गुरुवार को बाल धोना मना है। होता कुछ यूँ था कि ऑफ़िस में उसकी सीट पर जाने के रास्ते में कूलर पड़ता था...सुबह सुबह जैसा कि होता है, बाल धो कर ऑफ़िस भागती थी तो बाल हल्के गीले ही रहते थे...उसे कानों के पीछे और गर्दन पर पर्फ़्यूम लगाना पसंद था। तेज़ी से भागती थी ऑफ़िस तो सीढ़ियों के पास बैठी लड़की बोलती थी, ज़रा इधर आओ तो...गले लगती थी और कहती थी...तुम्हारे बालों से ग़ज़ब की ख़ुशबू आती है...अपने फ़्लोर पर पहुँचती थी तो एंट्री पोईंट से उसकी सीट के रास्ते में कूलर था...कूलर से हवा का झोंका जो उठता था, उसके बालों की ख़ुशबू में भीग कर बौराता था और कमरे में घूम घूम जाता था। सब पूछते थे उससे। कौन सा शैंपू, कौन सा कंडीशनर, कि लड़की, ग़ज़ब अच्छी ख़ुशबू आती है तुम्हारे बालों से। लड़की कहती थी, मेरी ख़ुशबू है...इसका पर्फ़्यूम या शैम्पू से कोई सम्बंध नहीं है। 

लड़की को अपने बाल बहुत पसंद थे। उनका खुला होना भी उतना ही जितना कि चोटी में गुंथा होना या कि जूड़े में बंधा होना। बिना बालों में उँगलियाँ फिराए वो लिख नहीं सकती थी। इन दिनों अपने अटके हुए उपन्यास पर काम कर रही थी तो रोज़ रात को स्टारबक्स जाना और एक बजे, उसके बंद हो जाने तक वहीं लिखना जारी था। इन दिनों साड़ी पहनने का भी शौक़ था। कि बहुत सी साड़ियाँ थीं उसके पास, जो कि कब से बस फ़ोल्ड कर के रखी हुयी थीं। ऐसे ही किसी दिन उसने हल्के जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी तो बालों में फूल लगाने का मन किया। घर के बाहर गमले में बोगनविला खिली हुयी थी। उसने बोगनविला के कुछ फूल तोड़े और अपने जूड़े में लगा लिए। ये भी लगा कि ये किसी गँवार जैसे लगेंगे...सन्थाल जैसे। कोई जंगल की बेटी हो जैसे। ज़िद्दी। बुद्धू। लेकिन फूल तो फूल होते हैं, उनकी ख़ूबसूरती पर शहराती होने का दबाव थोड़े होता है। वो वैसे भी अपने मन का ही करती आयी थी हमेशा। 

बस इतना सा हुआ और ख़यालों ने पूरा लाव लश्कर लेकर धावा बोल दिया...

***

तुम्हें कोई वैसे प्यार नहीं कर सकेगा जैसे तुम ख़ुद से करती हो। Muse तुम्हारे अंदर ही है, बस उसके नाम बदलते रहते हैं। उसकी आँखों का रंग। उसकी हँसी की ख़ुशबू। उसकी बाँहों का कसाव। तुम भी तो बदलती रहती हो वक़्त के साथ। 

कितनी बार, कितने फूलों के बाग़ से गुज़री हो...जंगलों से भी। कितनी बार प्रेम में हुयी हो। चली हो उसके साथ कितने रास्ते। कितने प्रेमी बदले तुमने इस जीवन में? बहुत बहुत बहुत।

लेकिन ऐसा कभी क्यूँ नहीं हुआ कि किसी ने कभी राह चलते तोड़ लिया हो फूल कोई और यूँ ही तुम्हारे जूड़े में खोंस दिया हो? बोगनविला के कितने रंग थे कॉलेज की उन सड़कों पर जहाँ चाँद और वो लड़का, दोनों तुम्हारे साथ चला करते थे। पीले, सफ़ेद, सुर्ख़ गुलाबी, लाल...या कि वे फूल जिनके नाम नहीं होते थे। या कि गमले में खिला गुलाब कोई। कभी क्यूँ नहीं दिल किया उसका कि बोगनविला के चार फूल तोड़ ले और हँसते हुए लगा दे तुम्हारे बालों में। 

कितनी बार कितनों ने कहा, तुम्हारे बाल कितने सुंदर हैं। उनसे कैसी तो ख़ुशबू आती है। कि टहलते हुए कभी खुल जाता था जूड़ा, कभी टूट जाता था क्लचर, कभी भूल जाती थी कमरे पर जूड़ा पिन। खुले बाल लहराते थे कमर के इर्द गिर्द। 

कि क्या हो गया है लड़कों को? वे क्यूँ नहीं ला कर देते फूल, कि लो अपने जूड़े में लगा लो इसे...कितना तो सुंदर लगता है चेहरे की साइड से झाँकता गुलाब, गहरा लाल। कि कभी किसी ने क्यूँ नहीं समझा इतना अधिकार कि बालों में लगा सके कोई फूल? कि ज़िंदगी की ये ख़ूबसूरती कहाँ गुम हो गयी? ये ख़ुशबू। हाथों की ये छुअन। यूँ महकी महकी फिरना?

बहुत अलंकार समझ आता है उसको। मगर फूल समझ में आते हैं? या कि लड़की ही। हँसते हुए पूछो ना उससे, यमक अलंकार है इस सवाल में, 'तुम तोड़ोगे पूजा के लिए फूल?'

शाम में पहनना वाइन रंग की सिल्क साड़ी और गमले में खिलखिलाते बोगनविला के फूल तोड़ लेना। लगा लेना जूड़े में। कि तुम ही जानती हो, कैसे करना है प्यार तुमसे। ख़ुश हो जाओगी किस बात से तुम। और कितना भी बेवक़ूफ़ी भरा लगे किसी को शायद जूड़े में बोगनविला लगाना। तुम्हारा मन किया तो लगाओगी ही तुम। 

फिर रख देना इन फूलों को उसकी पसंद की किताब के पन्नों के बीच और बहुत साल बाद कभी मिलो अगर उससे तो दे देना उसको, सूखे हुए बेरंग फूल। कि ये रहे वे फूल जो कई साल पहले तुम्हें मेरे बालों में लगाने थे। लेकिन उन दिनों तुम थे नहीं पास में, इसलिए मैंने ख़ुद ही लगा लिए थे। अब शुक्रिया कहो मेरा और चलो, मुझे फूल दिला दो...मैं ले चलती हूँ ड्राइव पर तुम्हें। ट्रेक करते हुए चलते हैं जंगल में कहीं। खिले होंगे पलाश...अमलतास...गुलमोहर...बोगनविला...जंगली गुलाब...कुछ भी तो।

ख़्वाहिश बस इतनी सी है कि तुम अपने हाथों से कोई फूल लगा दो मेरे बालों में...कभी। अब कहो तुम ही, इसको क्या प्यार कहते हैं?

***

तुम उसे समझना चाहते हो? समझने के पहले देखो उसे। मतलब वैसे नहीं जैसे बाक़ी देखते हैं। उसकी हँसती आँखों और उसकी कहानियों के किरदारों के थ्रू। उसे देखो जब कोई ना देखता हो।

उसके घर के आगे दो गमले हैं। जिनमें बोगनविला के तीन पौधे हैं। वो उनमें से एक पौधे को ज़्यादा प्यार करती है। सबसे ज़्यादा हँसते हुए फूल इसी पौधे पर आते हैं। ख़ुशनुमा। इस पौधे के फूलों के नाम बोसे होते हैं। गीत होते हैं। दुलार भरी छुअन होती है। इस पेड़ के काँटे उसे कभी खरोंचते भी नहीं।

दोनों बेतरतीब बढ़े हुए पौधे हैं। जंगली। घर घुसने के पहले लगता है किसी जंगल में जा रहे हों। लड़की सुबह उठी। सीने में दुःख था। प्यास थी कोई। कई दिनों से कोई ख़त नहीं आया। दुनिया के सारे लोग व्यस्त हैं बहुत।

सुख के झूले की पींग बहुत ऊँची गयी थी, आसमान तक। लेकिन लौट कर फिर ज़मीन के पास आना तो था ही। कब तक उस ऊँचे बिंदु से देख कर पूरी दुनिया की भर भर आँख ख़ूबसूरती ख़ुश होती रहती लड़की।

मुझे कोई चिट्ठियाँ नहीं लिखता।

दोनों गमलों में एक एक मग पानी डाला उसने। फिर उसे लगा पौधों को बारिश की याद आती हो शायद। लेकिन जो पौधे कभी बारिश में भीगे नहीं हों, उन्हें बारिश की याद कैसे आएगी? जिससे कभी मिले ना हों उसे मिस करते हैं जैसे, वैसे ही?

पौधों के पत्ते धुलने के लिए पानी स्प्रे करने की बॉटल है उसके पास। हल्की नीली और गुलाबी। उसने बोतल में पानी भरा और अपने प्यारे पौधे के ऊपर स्प्रे करने लगी। उसकी आँखें भरी हुयी थीं। अबडब आँसुओं से। इन आँसुओं को सिर्फ़ धूप देखती है या फिर आसमान। बहुत साल पहले लड़की आसमान की ओर चेहरा करके हँसा करती थी। लड़की याद करने की कोशिश करती है तो उसे ये भी याद नहीं आता कि हँसना कैसा होता है। वो देर तक आँसुओं में अबडब पौधे के ऊपर पानी स्प्रे करती रही। बोगनविला के हल्के नारंगी फूल भीग कर हँसने लगे। हल्की हवा में थिरकने लगे। कितने शेड होते हैं फूलों में। गुलाबी से सफ़ेद और नारंगी। पहले फूल भीगे। फिर पत्ते। फिर पौधों का तना एकदम भीग गया।




लड़की देखती रही बारिश में भीग कर गहरे रंग का हो जाना कैसा होता है। प्रेम में भीग कर ऐसे ही गहरे हो जाते हैं लोग। अपने लिखे में। अपनी चिट्ठियों में। अपनी उदासी में भी तो।

उसके सीने में बोगनविला का काँटा थोड़े चुभा था। शब्द चुभा था। अनकहा।
प्यार। ढेर सारा प्यार।

1 comment:

  1. इस तस्वीर ने लेख और जीवंत कर दिया , शुरू में पढ़ के लगा जैसा खुद के उप्पर कुछ लिखा हुआ पढ़ रही हु मुझे लम्बे खुले बाल हमेशा पसंद रहे है कोलेज के दिनों के बारे में जो आपने लिखा वो बहोत अपना सा लगा, मुझे बालों में फुल लगाना पसंद नहीं बस यही एक बात अलग है, मुझे धुले बालों से आने वाले शैम्पू कंडिशनर कि गंध बहोत लुभावनी लगती है.बहोत बहोत बहोतअच्छा लगा आपका ये लेख

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