15 November, 2012

स्मोकिंग अंडरवाटर

एक डूबे हुए जहाज के तल में बैठी हूँ...एक कमरे भर ओक्सिजन है. शीशे के बाहर काली गहराई है. लम्हे भर पहले एक मिसाइल टकराई थी और पूरा जहाज डूबता चला गया है. पानी में कूदने का भी कोई फायदा नहीं होने वाला था...मुझे तैरना नहीं आता. मेरे पास एक पैकेट सिगरेट हैं...मैं लंग कैंसर होने के डर से मुक्त हूँ. देखा जाए तो डर बीमारी का नहीं मौत का था...लेकिन जब मौत सामने खड़ी है तो उससे डर नहीं लग रहा.

एक के बाद दूसरी सिगरेट जलती हूँ...कमरे की ऑक्सीजन को बिना शिकायत हम दोनों आधा आधा बाँट लेते हैं...मेरी पसंदीदा मार्लबोरो माइल्ड्स...सफ़ेद रंग के पैकेट पर लिखी चेतावनी को देखती हूँ...जिंदगी के आखिरी लम्हों में कविता सी लगती है...स्मोकिंग किल्स.

धुएं के छल्ले बनाना बहुत पहले सीख लिया था...छल्ला ऊपर की ओर जाता हुआ फैलता जाता है...मौत बाँहें पसार रही है. शीशे के बाहर कुछ नहीं दिखता...पूरे जहाज़ पर चीज़ें टूट-फूट रही होंगी...खारा पानी शक्ति-प्रदर्शन में लगा होगा. मैं कोई गीत गाने लगती हूँ...विरक्त सा कोई गीत है जो मुझसे कहता है कि दुनिया फानी है...न सही.

दोपहर एक दोस्त को फोन किया था डाइविंग जाने के पहले...कुछ जरूरत थी उसे...समझाया था ढंग से...फिर बिना मौसम की बात की थी...चिंता मत कर...पुल से कूदने के पहले तुझे फोन कर लूंगी. बचपन की दोस्त की याद ऐसे आती है  कि दरवाजा खोल कर समंदर में घुल जाने का दिल करने लगता है. मोबाईल में एक एसएमएस पड़ा है...तुम्हें समझ नहीं आता...नहीं कर सकता बात मैं तुमसे...व्यस्त हूँ. सोचती हूँ...मैं वाकई कितनी बेवक़ूफ़ हूँ कि मुझे समझ नहीं आता. देवघर का घर...झूला...मम्मी का बनाया हुआ केक याद आता है.

मुझे विदा कहना नहीं आता...जिंदगी एक्सीडेंट ही है...मौत का इतना तमाशा क्यूँ हो?

मैं उससे पहली बार मिली तो जाना था हम किसी के लिए बने होते हैं...जिन परीकथाओं के बारे में सोचा नहीं था उन पर यकीन करने का दिल किया था. मैं उसके बारे में नहीं लिखती...कभी नहीं...उसका नाम इतना पर्सनल लगता है कि धड़कनों को भी उसका नाम तमीज से लेने की हिदायत दे रखी है. उससे मिलने के बाद जाना था किसी के लिए जीना किसे कहते हैं...मेरे लिए हमेशा वो ही है...एक बस वो.

पूरी पूरी जिंदगी मौत के तैय्यारी हो या जीने का जश्न...फैसला हमेशा हमारे हाथ में नहीं होता...कमरे में ऑक्सीजन कम हो गयी है...सांस लेने में तकलीफ होने लगी है अब...ये आखिरी कुछ लम्हे हैं...मुझे सब याद आता है...उसकी जूठी सिगरेट...उससे कोई एक फुट छोटा होना...उसका कहना कि हंसती हो तो दिखता कैसे है...तुम्हारी आँखें इतनी छोटी हैं. आज बड़ी शिद्दत से वो दिन याद आ रहा है जब उससे पहली बार मिली थी. हर छोटी छोटी चीज़...खुशबुएँ...दिल्ली का कोहरा...मैगी...कॉफ़ी...फर का वो भूरा कोट...मेरा शॉल जो उसने भुला दिया.

सब कुछ रिवाईंड में चलता है...जिंदगी...इश्क...बचपना...और फिर सब कुछ भूल जाना...

5 comments:

  1. उफ़ …………ज़िन्दगी रिवाइंड भी होती है तो कब?

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  2. काश जिन्दगी ऐसे ही छल्लों सी उड़ जाती, सागर की तलहटी में, लहरों से दूर..

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