06 November, 2017

प्यार। पहला।

पहला प्यार। कि जो होता कम है, क्लास के दोस्त लोग बोल बोल के करवा ज़्यादा देते हैं। बिहार के छोटे शहरों, क़स्बों का प्यार होता कहाँ है। ख़यालों की उड़ान होती है। दरसल सबसे ज़्यादा कहानियाँ तो वहीं से शुरू होती हैं। मैंने आज तक अपने लिखे में कभी उस पहले प्यार के बारे में नहीं लिखा कि जहाँ से छायावाद के पहले बीज पनपे थे। एक छोटा सा क़स्बा था हमारा, देवघर। वहाँ के कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ा करते थे हम, सेंट फ़्रैन्सिस स्कूल, जसिडीह...स्कूल घर से सात किलोमीटर दूर था। बस से जाते थे वहाँ। वो हमारे क्लास में पढ़ता था। और हमारी बस से जाता था। गाल में बहुत ही गहरे गड्ढे पड़ते थे, डिम्पल। कि हम बस, उसी गड्ढे में गिर कर अपना हाथ, पैर, दिल...सब तुड़वाए हुए बैठे थे। 

7th में हमारे हिंदी के सर ने कह तो दिया था कि डाइअरी लिखो। लेकिन भई, उन दिनों बिहार में, इन फ़ैक्ट अभी भी...प्राइवसी नाम की कोई चिड़िया कहीं देखी नहीं जाती थी। और जो अगर कहीं ग़लती से दिख जाए और आप उसको चारा चुग्गा डाल कर अपनी डाइअरी में घोंसला बनाने दिए तो बाबू, बूझ लो...कोई दिन प्राइवसी चिरैय्या का टंगड़ी फ्राय बनेगा और आपकी कुटाई भी लगे हाथों फ़्री में। डाइअरी के पन्ने कोई भी पढ़ सकता है, लेकिन आपकी क़िस्मत ज़्यादा ख़राब हुयी, जैसे कि मेरी, तो सबसे पहले उनको मम्मी पढ़ लेगी। और फिर, बस, सत्यानास! यही सब फ़ालतू वाहियात चीज़ लिखने का शौक़ चढ़ा है तुमको। ई उमर पढ़ने लिखने का है कि यही सब प्यार मोहब्बत में पढ़ कर बर्बाद होने का है। रुको अभी तुम्हारे माथा से सब प्यार का भूत उतारते हैं। और ज़ाहिर तौर से इस भूत को उतारने के लिए कोई ओझा गुणी का ज़रूरत नहीं होता था...छोटे भाई को भेज कर गुलमोहर का छड़ी तुड़वाया जाता था छत से और बस। सट सट पड़ता था हाथ में कि ज़िंदगी में कभी कविता तो क्या कवि तक से तौबा कर लें हम। कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि भाई है नहीं जगह पर या हमारे धमकाने के कारण आ नहीं रहा है तो मम्मी हमी को भेज दी है छत से छड़ी लाने के लिए। लेकिन हुआ ये कि इसी कॉन्स्टंट पिटाई से एक ख़ास ब्रीड का जन्म हुआ, कि जिसको कहते हैं, थेत्थर। जो कि अक्सर लतख़ोर के कॉम्बिनेशन में पाया जाता है। हमारे बिहार में ऐसा कोई बच्चा नहीं हुआ है जो लड़कपन की दहलीज़ पर जा के थेत्थर ना घोषित हुआ हो। उसमें हम तो और ख़तरनाक थे, कि हमारा नाम था, 'टुपलोर' ज़रा सा कुछ हुआ नहीं कि आँख से ढल ढल आँसू। मार उर खा के चुपचाप कोने में टेसुआ बहाते रहते थे। 

लेकिन ऐसा दर्दनाक घटना कै बार घटे, समय के साथ होशियार होना ज़रूरी था। तो हम पहली बार अपनी ज़िंदगी के कोड साहित्य से उठाए। अपना पर्सनल कोडेड लिखायी कि जिसमें किसी लड़के का कहीं ज़िक्र है ही नहीं। कि हमने पूरी घटना लिखी, सिवाए उस एक चीज़ के कि जिसका हमारे दिल पर सबसे ज़्यादा असर हुआ है। सब कुछ इतने डिटेल में कि आज भी वो डाइअरी मिल जाए तो शब्द के बदले शब्द रिप्लेस करके बता दें कि उस दिन हुआ क्या था। आवश्यकता आविष्कार की जननी है, वहीं पता चला था हमको। बिना इंटर्नेट के युग में कौन सिखाएगा कि इस क़िस्म के कोड को Substitution Cipher कहते हैं। तो हर चीज़ के लिए एक शब्द था। उसके मुस्कुराने के लिए आसमान का रंग नीला था। जैसे कुछ परम्पराओं के पीछे की वजह हमें नहीं मालूम, हम बस वो करते चले आते हैं सवाल पूछे बिना...ये कुछ वैसा ही था। जिस किसी भी दिन, वो हमको देख कर मुस्कुराया हो। भले किसी घटिया जोक पर या कि उसके बैग को वापस देते समय। या ऐसा कोई भी और कारण तो उस दिन डाइअरी में एंट्री यही होती थी। 'आज आसमान का रंग नीला था'। अब ये लिखने के लिए तो पिटाई नहीं होती ना कि आसमान का रंग नीला था। हमको लगता है आज भी हमको नीला रंग इसलिए पसंद है, कि पहले प्यार की दहलीज़ पर जब हम रंग समझ रहे थे, हमने ख़ुशी का रंग नीला चुना था। 

इसी तरह नोर्मल दिन की कई घटनाओं को रिप्लेस करके लिखा गया प्रकृति के उपमानों से। नए वाक्यांश बनाए, मुहावरे जैसा कुछ लिखने की कोशिश की। 'आज चापकल से पानी बहुत मीठा आया। ख़ुद से चलाना भी नहीं पड़ा'। ग़ौर करने की बात ये है कि सोचने चलती हूँ कि क्या क्या खो गया तो उसमें बचपन के बहुत से ऐसे लम्हे हैं जो तकनीक ने हमसे छीन लिए। कि जैसे चापाकल था स्कूल में पानी पीने के लिए। अब चापाकल एयर ले लेता था तो उसके मुँह को हाथ से दबाए रखना होता था, जब तक कि दूसरा कोई हैंडिल चलाए। फिर जा के पानी आता था और दो लोग बारी बारी पानी पीते थे। क्लास से अगर पानी पीने बाहर जाना है तो अकेले नहीं जा सके, चापाकल चलाने के लिए भी तो कोई चाहिए। तो हम कई बार चापाकल के पानी की मिठास या कि कितने देर चलाना पड़ा पर भी लिखते रहते थे। क्लास में डांट खाने की अलग उपमा हुआ करती थी। कि जिसको तो दुबारा पढ़ के भी पेट भर जाता था। 

1998-99 की मेरी डाइअरी में दुनिया की जितनी ख़ूबसूरत चीज़ों का ज़िक्र आया है, वो चाहे गुलाब की कलियाँ हों...आसमान का रंग हो... हल्ला गला हो। कविता की महाघटिया घसीटन लाइनें हों। ये सब उस एक के लिए ही था कि जो मेरी नज़रों में दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत लड़का था। उन दिनों में प्यार कोई दुनिया को दिखाने की नहीं, दुनिया के छिपाने की चीज़ हुआ करती थी। मैं किसी को क्या बताती कि मुझे उसकी हैंड राइटिंग बहुत पसंद है। प्रेम में कुछ नहीं हो पाते हम, तो उस जैसे हो जाते हैं। हमारा नाम भी एक ही अक्षर से शुरू हुआ करता था, तो मैं अपना सिगनेचर एकदम उसके जैसा करती थी। उसके जैसे मोतियों वाले अक्षर लिखने के सपने देखती थी। उसके कमाल के सेन्स औफ़ ह्यूमर से कितना तो हँसती थी। उन दिनों लगता था, प्यार सिर्फ़ साथ में हँसना ही तो है। स्कूल बस से घर जाते हुए रास्ते में जो बातें करते रहते थे, बिना जाने समझे...उतना काफ़ी था। कि उन दिनों DDLJ आयी कहाँ थी और ना शाहरुख़ ने बेड़ा गरक किया था ये कह के कि 'प्यार दोस्ती है'। उन दिनों आयी थी 'दिल तो पागल है', और कि हर लड़की कि जिसका नाम पूजा था, अपने आपको माधुरी दीक्षित से कम कहाँ समझती थी। और राहुल, तो पूछो मत! 

10th के आख़िरी महीनों में हमें समझ आने लगता है बहुत ज़ोर से कि ये शहर छूट जाएगा। उन दिनों छूटना, सच में छूट जाना होता था। ये नहीं कि फ़ेस्बुक और whatsapp पर टच में रह लिए। फ़ोन पर बात कर लिए। ऐसा कुछ नहीं था। उन दिनों लैंडलाइन बहुत कम घरों में होता था और लैंडलाइन पर फ़ोन करने पर मम्मियाँ फ़ोन उठा लेती थीं फिर हलक सूखते आवाज़ नहीं निकलती थी, '____ से बात करनी है', उधर से सवाल आता, तुम कौन? और क़सम से, ये तुम कौन तो हमें अपना पूरा होना भुला देता था। कितना भी सोच के जाएँ कि फ़ोन पर किसी दोस्त का नाम लेंगे, उस समय हड़बड़ा जाते थे और कंठ सूख जाता था। ऐसा कोई दोस्त था भी नहीं जिसको साथ ले जा सकें फ़ोन करवाने के लिए, कि कोई लड़का बुला रहा है तो ज़्यादा पूछपाछ नहीं होती थी। ख़ैर, ये सब हसीन चीज़ें हमारी क़िस्मत में नहीं बदी थीं कि हमारे पास फ़ोन नम्बर ही नहीं था और ना इतनी हिम्मत कि फ़ोन कर सकें। 

दोस्त लोगों ने सुबह शाम चिढ़ा चिढ़ा के कन्फ़र्म ज़रूर कर दिया था कि हमको तो उससे प्यार है ही। हाँ, उसको है या नहीं ये पूछने का कोई तरीक़ा नहीं था। सिवाए हिंदी फ़िल्मों के। कि जो शाहरुख़ खान सिखा के गया था DDLJ में, जी हाँ। The one and only final proof of love... 'पलट' :) उफ़! आज भी वो लम्हा सोचती हूँ तो दिल की धड़कन बढ़ जाती है। क्या था कि उसके बस स्टॉप पर भतेरे लोग उतरते थे। जब तक सारी जनता उतरती रहती थी, हम बस के उधर की ही खिड़की पर टंगे रहते थे। वो बहुत मुश्किल से कभी मुड़ के देखता था। बहुत मुश्किल से ही कभी। स्टॉप से उसके घर को सीधी सड़क जाती थी, कोई पचास मीटर की। एक दिन हमने बहुत हिम्मत करके सोच ही लिया, आज तो मन में सवाल सोच के ही रहेंगे, चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए। उस दिन डर इतना लग रहा था जितना कभी फिर ज़िंदगी में किसी को प्रपोज़ करने में भी नहीं लगा। लड़का जैसे ही बस स्टॉप से उतर कर अपने घर की ओर चला, हमने अपने मन में सोचा, 'अगर ये तुमसे ज़रा भी प्यार करता है, यू नो, ज़रा भी, ['ज़रा' पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दे रहे थे मन में] तो ये पलट कर देखेगा। [और भगवान क़सम, दिल में एक ये शब्द बोलने के पहले कितना घबराए थे], पलट!', वो ठीक उसी समय मुड़ा। देखा। मुस्कुराया। और वापस घर चला गया। बस इतना ही हुआ था। लेकिन उसका ठीक उस समय मुड़ना, मुझे इस बात का इतना पक्का यक़ीन करा गया था कि वो मुझसे प्यार करता है कि जितना दुनिया में किसी लड़के के प्यार पर कभी नहीं हुआ। लोग अपना दिल हथेली पे लिए, कविताओं में रच रच कर इश्क़ बयान करते रहे और मुझे यक़ीन नहीं हुआ कि जो उस उम्र में उसके एक लम्हे में पलट जाने पर हुआ था। कल्पना की उड़ान वही थी। मन में सोचा हुआ प्यार वैसा ही। कि उन दिनों अपने हिस्से का ही नहीं, उसके हिस्से का प्यार ख़ुद से भी कर लेते थे हम। इकतरफ़ा प्यार अपने आप में पूरा था। इसमें किसी और की जगह नहीं थी, ज़रूरत नहीं थी। 

स्कूल ख़त्म हुआ। हम लड़े झगड़े। अलग शहर में आ गए। फ़ोन पर ख़ूब ख़ूब बातें कीं। इश्क़ का इजहार किया। ब्रेक अप हुआ। चिट्ठी लिखी उसे। लम्बी। ऐसी कि उसके सारे दोस्तों ने पढ़े वो चार पन्ने। हम स्कूल के reunion में सब लोगों के साथ मिले। अजीब से कुछ। बातें भी नहीं कीं। आउट औफ़ टच रहे हमेशा। कभी जो मुश्किल से कहीं फ़ोर्मल से बात-चीत हो गयी सो हो गयी। 

स्कूल और प्यार के ख़त्म हुए कोई १८ साल हुए। वीकेंड हम लोग एक नॉस्टैल्जिया ट्रिप पर घूम रहे थे। स्क्रैप बुक। स्कूल के क्रश। उसके डिम्पल। उसकी हँसी। जाने क्या क्या कि पहला प्यार कोई किसी को दिखा के शो ऑफ़ करने के लिए तो करता नहीं है। चुपचाप ही करता है। अपने दिल की डाइअरी के लिए। 

स्कूल के दोस्त ने पूछा फिर, 'तुम उससे आख़िरी बार कब मिली थी'। लड़की हँसी इस ओर, और कहा, 'कभी नहीं'।





कि ज़िंदगी की तमाम सच्चाइयों में एक बात ये है कि जो स्कूल का पहला प्यार था...ज़िंदगी का...कि जिसके बारे में अपनी बेस्ट फ़्रेंड को रो रो कर कहा था, मैं उसको ज़िंदगी भर कभी नहीं भूल पाऊँगी...कभी नहीं। मैं उससे कभी नहीं मिली थी। कभी इत्मीनान से आमने सामने बैठ कर उससे बातें नहीं की थीं। कि मैं वाक़ई, उसे बिलकुल भी जानती नहीं थी...बिलकुल नहीं...

मैं तो सिर्फ़, उससे प्यार करती थी। 

02 November, 2017

मौसम के नाम, प्यार

मौसम उनके बीच किसी किरदार की तरह रहता। किसी दोस्त की तरह जिसे उनकी सारी बातें पता होतीं। उन्हें कहना नहीं आता, लेकिन वे जिस मौसम का हाल पूछते थे वो किसी शहर का मौसम नहीं होता। वो किसी शहर का मौसम हो भी नहीं सकता था। वो मन का मौसम होता था। हमेशा से। 

कि पहले बार उसने क्यूँ भेजी थीं सफ़ेद सर्दियाँ? और लड़की कैसे थी ऐसी, गर्म पानी का सोता...लेकिन उसे ये कहाँ मालूम था कि ये गर्म पानी नहीं, खारे आँसू हैं...उसकी बर्फ़ ऊँगली के पोर पर आँसू ठहरता तो लम्हे भर की लड़ाई होती दो मौसमों में। दुनिया के दो छोर पर रहने वाले दो शहरों में भी तो। मगर अंत में वे दोनों एक सम पर के मान जाते। 

बीच के कई सालों में कितने मौसम थे। मौसम विभाग की बात से बाहर, बिगड़ैल मौसम। मनमानी करते। लड़की ज़िद करती तो लड़के के शहर में भी बारिश हो जाती। बिना छतरी लिए ऑफ़िस गया लड़का बारिश में भीग जाता और ठिठुरता बैठा रहता अपने क्यूबिकल में। 'पागल है ये लड़की। एकदम पागल...और ये मौसम इसको इतना सिर क्यूँ चढ़ा के रखते हैं, ओफ़्फ़ोह! एक बार कुछ बोली नहीं कि बस...बारिश, कोहरा...आँधी...वो तो अच्छा हुआ लड़की ने बर्फ़ देखी नहीं है कभी। वरना बीच गर्मियों के वो भी ज़िद पकड़ लेती कि बस, बर्फ़ गिरनी चाहिए। थोड़ी सी ही सही।' कॉफ़ी पीने नीचे उतरता तो फ़ोन करता उसे, 'ख़ुश हो तुम? लो, हुआ मेरा गला ख़राब, अब बात नहीं कर पाउँगा तुमसे। और कराओ मेरे शहर में बारिश' लड़की बहुत बहुत उदास हो जाती। शाम बीतते अदरक का छोटा सा टुकड़ा कुतरती रहती। अदरक की तीखी गंध ऊँगली की पोर में रह जाती। उसे चिट्ठियाँ लिखते हुए सोचती, ये बारिश इस बार कितने दिनों तक ऐसे ही रह जाएगी पन्नों में। 

***

ठंढ कोई मौसम नहीं, आत्मा की महसूसियत है। जब हमारे जीवन में प्रेम की कमी हो तो हमारी आत्मा में ठंढ बसती जाती है। फिर हमारी भोर किटकिटाते बीतती है कि हमारा बदन इक जमा हुआ ग्लेशियर होता है जिसे सिर्फ़ कोई बाँहों में भींच कर पिघला सकता है। लेकिन दुनिया इतनी ख़ाली होती है, इतनी अजनबी कि हम किसी को कह नहीं सकते...मेरी आत्मा पर ठंढ उतर रही है...ज़रा बाँहों में भरोगे मुझे कि मुझे ठंढ का मौसम बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। 

लड़की की सिसकी में डूबी आवाज़ एक ठंढी नदी होती। कि जिसमें पाँव डाले बैठे रहो तो सारे सफ़र में थरथराहट होगी। कि तुम रास्ता भूल कर अंधेरे की जगह रौशनी की ओर चले जाओगे। एक धीमी, कांपती रौशनी की लौ तक। सिगरेट जलाते हुए जो माचिस की तीली के पास होती है। उतनी सी रौशनी तक। 

बर्फ़ से सिर्फ़ विस्की पीने वाले लोग प्यार करते हैं। या कि ब्लैक कॉफ़ी पीने वाले। सुनहले और स्याह के बीच होता लड़की की आत्मा का रंग। डार्क गोल्डन। नीले होंठ। जमी हुयी उँगलियाँ। तेज़ आँधी में एक आख़िरी बार तड़प कर बुझी हुयी आँखें।

वो किसी संक्रामक बीमारी की तरह ख़तरनाक होती। उसे छूने से रूह पर सफ़ेद सर्दियाँ उतरतीं। रिश्तों को सर्द करती हुयीं। एक समय ऐसा भी होता कि वो अपनी सर्द उँगलियों से बदन का दरवाज़ा बंद कर देती और अपने इर्द गिर्द तेज़ बहती बर्फ़ीली, तूफ़ानी नदियाँ खींच देती। फिर कोई कैसे चूम सकता उसकी सर्द, सियाह आँखें। कोई कैसे उतरते जाता उसकी आत्मा के गहरे, ठंढे, अंधेरे में एक दिया रखने की ख़ातिर।

लड़की कभी कभी unconsolable हो जाती। वहाँ से कोई उसे बचा के वापस ला नहीं पाता ज़िंदगी और रौशनी में वापस। 
हँसते हुए आख़िरी बात कहती। एक ठंढी हँसी में। rhetoric ऐसे सवाल जिनके कोई जवाब नहीं होते।
'लो, हम मर गए तुम पर, अब?'

***
'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'

सबको इस बात पर आश्चर्य क्यूँ होता कि लड़की के पास बहुत से अनकहे शब्द हुआ करते। उन्हें लगता कि जैसे उसके लिए लिखना आसान है, वैसे ही कह देना भी आसान होता होगा। ऐसा थोड़े होता है।

कहने के लिए आवाज़ चाहिए होती है। आवाज़ एक तरह का फ़ोर्स होती। अपने आप में ब्लैक होल होती लड़की के पास कहाँ से आती ये ऊर्जा कि अपने ही प्रचंड घनत्व से दूर कर सके शब्द को...उस सघनता से...इंटेन्सिटी से...कोई शब्द जो बहुत कोशिश कर के बाहर निकलता भी तो समय की टाइमलाइन में भुतला जाता। कभी अतीत का हिस्सा बन जाता, कभी भविष्य का। कभी अफ़सोस के नाम लिखाता, कभी उम्मीद के...लेकिन उस लड़के के नाम कभी नहीं लिखाता जिसके नाम लिखना चाहती लड़की वो एक शब्द...एक कविता...एक पूरा पूरा उपन्यास। उसका नाम लेना चाहती लेकिन कहानी तक आते आते उसका नाम कोई एक अहसास में मोर्फ़ कर जाता।

लड़की समझती सारी उपमाएँ, मेटाफर बेमानी हैं। सब कुछ लिखाता है वैसा ही जैसा जिया जाता है। कविताओं में भी झूठ नहीं होता कुछ भी।

सुबह सुबह नींद से लड़ झगड़ के आना आसान नहीं होता। दो तीन अलार्म उसे नींद के देश से खींच के लाना चाहते लेकिन वहाँ लड़का होता। उसकी आँखें होतीं। उसकी गर्माहट की ख़ुशबू में भीगे हाथ होते। कैसे आती लड़की हाथ छुड़ा के उससे।

सुबह के मौसम में हल्की ठंढ होती। जैसे कितने सारे शहरों में एक साथ ही। सलेटी मौसम मुस्कुराता तो लड़की को किसी किताब के किरदार की आँखें याद आतीं। राख रंग की। आइना छेड़ करता, पूछता है। आजकल बड़ा ना तुमको साड़ी पहनने का चस्का लगा है। लड़की कहती। सो कहो ना, सुंदर लग रही हूँ। मौसम कहता, सिल्क की साड़ी पहनो। लड़की सिल्क की गर्माहट में होती। कभी कभी भूल भी जाती कि इस शहर में वो कितनी तन्हा है...वो लड़का इतना क़रीब लगता कि कभी कभी तो उदास होना भी भूल जाती।

कार की विंडो खुली होती। उसका दिल भी। दुःख के लिए। तकलीफ़ के लिए। लेकिन, सुख के लिए भी तो। सुबह कम होता ट्रैफ़िक। लड़की as usual गाड़ी उड़ाती चलती। किसी रेसिंग गेम की तरह कि जैसे हर सड़क उसके दिल तक जाती हो। गाना सुनती चुप्पी में, गुनगुनाती बिना शब्द के।

लड़की। इंतज़ार करती। गाने में इस पंक्ति के आने का। अपनी रूह की उलझन से गोलती एक गाँठ और गाती, 'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'


और कहीं दूर देश में अचानक उसकी हिचकियों से नींद खुल जाती...ठंढे मौसम में रज़ाई से निकलने का बिलकुल भी उसका मन नहीं करता। आधी नींद में बड़बड़ाता उठता लड़का। 'प्यार करने की तमीज़ ख़ाक होगी, इस पागल लड़की को ना, याद करने तक की तमीज़ नहीं है'

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...