03 August, 2018

a rose is a rose is a rose*

मेरा मन सिर्फ़ उस कल्पना से टूटता है जो कभी सच नहीं हो सकता और मैं सिर्फ़ इसलिए लिखती हूँ कि बहुत सारा कुछ एक कहानी में सच होता है। 

***
'तुम बिना चप्पल के चल सकते हो?'
'हाँ, इसमें कौन सी बड़ी बात है, कौन नहीं चल सकता है बिना चप्पल के!' तुम्हारे अचरज पर मैं हँसती हूँ तो चाँदनी में मेरी हँसी बिखर जाती है। तुम्हारी आँखों में जो उजला उजला चमकता है वो मेरी हँसी ही है ना

तुम्हें क्या ना जाने समझ कर बुला लायी हूँ देवघर। फिर हम अपनी एनफ़ील्ड से सौ किलोमीटर दूर अपने गाँव जाने को निकले हैं। रास्ते में हनमना डैम पड़ता है। मैं वहाँ रूकती हूँ। कैक्टस पर इस साल भी फूल आया है। तुम उसे छूने को अपना हाथ बढ़ाते ही हो कि मैं ज़ोर से तुम्हारा हाथ पकड़ कर खींच लेती हूँ तुम्हें अपनी ओर...'रे बुद्धू, कैक्टस के फूल में भी बहुत काँटे होते हैं। एकदम महीन काँटे। ख़ून में मिल जाएँगे और उम्र भर दुखेंगे जाने किधर किधर तो।' तुम मुझे अचरज से देखते हो, मैं जानती हूँ तुम सोच रहे हो कि मेरे लहू में कैक्टस के कितने काँटे हैं जो कभी घुलते नहीं। कितना दुखते हैं मुझे जो मुझे ये बात मालूम है। संगमरमर का फ़र्श है और गोल संगमरमर के ऊँचे खम्भे। एकदम सफ़ेद। हम दूर तक फैला हुआ बाँध का पानी देखते हैं। झींगुरों की आवाज़ रही है और चम्पा की बहुत हल्की फीकी गंध हम आमने सामने के खम्बों पर पीठ टिकाए बैठे हैं। पैर हल्के हल्के हिला रहे हैं। कभी एक दूसरे को कुछ कहना होता है तो पैर से ही गुदगुदी करते हैं। मैं कोई धुन गुनगुनाने लगती हूँ, तुम पूछते हो, 'क्या गा रही हो'...मैं गाने के स्थाई की पंक्तियाँ गुनगुनाती हूँ और तुम उसी धुन में बहते हो। 

हम गाँव की ओर चल पड़े हैं तो शाम होने को आयी है। जब तक मासूमगंज आते हैं लगभग अँधेरा हो चुका होता है। गाँव के टूटे फूटे रास्ते में धीरे धीरे एनफ़ील्ड चलाते हुए आते हैं। कहीं कहीं जुगनू दिख रहे होते हैं। तुमने पकड़ रखा है मुझे पर तुम्हारी पकड़ हल्की है। तुम्हें मेरे बाइक चलाने से डर नहीं लगता है। हम शिवालय के पास पहुँच जाते हैं। यहाँ से आगे बाइक चला कर ले जाएँगे तो पूरा गाँव उठ जाएगा। एकदम ही सन्नाटा है। लाइट कटी हुयी है। एकदम ही चाँदनी रात है। हवा में कटे हुए पुआल की गंध है। ऊँघते घरों से कोई आवाज़ मुश्किल से रही है। कहीं कहीं शायद टीवी चल रहा हो। कोई फ़ोन पर बात कर रहा है किसी से, सिग्नल ख़राब होने की शिकायत। 

गाँव में मेरा घर सबसे आख़िर में है। मैं एक घर पहले तुमसे जूते उतरवा देती हूँ और चहारदिवारी में बाहर की ओर बने ताखे पर रखवा देती हूँ। एक ज़माने में यहाँ लोग खेत से लौट कर आने पर लोटा रखा करते थे। 

घर में सब लोग सो गए हैं, आठ बजे से ही। हम बिना चप्पल के एकदम दबे पाँव चलते हैं। घर के बरामदे पर मेरे चाचा सोए हुए हैं। डर के मारे मेरा दिल इतनी तेज़ धड़क रहा है कि लगता है उसकी ही आवाज़ सबको सुनायी पड़ जाएगी। मैंने तुम्हारा हाथ ज़ोर से पकड़ रखा है। यहाँ एकदम अँधेरा है। मैं पहली बार तुम्हारे हाथ की पकड़ पर ग़ौर करती हूँ। हम दोनों दीवाल से टिके हुए हैं। सामने लकड़ी का उढ़का हुआ किवाड़ है जिसके पल्लों के बीच से एक व्यक्ति एक बार में जा सकता है। तुम्हारी साँस से पता चल रहा है कि तुम्हारी धड़कन भी बढ़ी हुयी है। तुम मेरी हथेली अपने सीने पर रखते हो। मेरी हथेली तुम्हारी धड़कन की बदहवासी में वही पागलपन पहचानती है जिसके कारण हम आज यहाँ आए हुए हैं। वही पागलपन जो हमें जोड़ता है। धीरे धीरे तुम्हारे दिल की धड़कन भी थोड़ी सम्हलती है और मैं भी थोड़ा सा गहरी साँस लेती हूँ। किवाड़ की फाँक में एक पैर रखने के पहले ईश्वर से मनाती हूँ कि फाँक और मोटापे की लड़ाई में फाँक जीत जाए। ईश्वर इस छोटी मनौती को मान लेता है और मैं दरवाज़े के उस पार होती हूँ। इस तरफ़ कर मैं तुम्हारे माथे पर हाथ रखती हूँ ताकि तुम झुक कर अंदर आते वक़्त छोटे दरवाज़े की चौखट से टकरा जाओ। अंदर आँगन भर चाँदनी है। हम खड़े आँगन देख रहे होते हैं कि ठीक एक बादल का टुकड़ा चाँद के आगे जाता है और सब तरफ़ गहरा अँधेरा हो जाता है। तुलसी चौरे पर जलता दिया एक छोटा सा पीलापन लिए मुस्कुराता है, जैसे उसने ही मेरी चोरी पकड़ ली है। आंगन में अब भी निम्बू लगा हुआ है। मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर बैठती हूँ ईंट की बनी सीढ़ी पर। तुम देखते हो दायीं तरफ़ का पूजाघर और उससे लगा हुआ चौका। तुम देखते हो वो खंबा। जब मैं पैदा हुयी थी तो पापा दादी को ख़बर सुनाने यही आँगन लाँघ कर पूजा घर की ओर बढ़े थे। इसी खम्बे के पास खड़ी दादी पूजा के बाद अपने हाथ धो रही थीं। पापा ने कहा, ‘पोती हुयी है दादी बहुत ख़ुश हुयी, ‘कि बेटा बहुत अच्छा ख़बर सुनाए, एकदम पूजा करके उठे हैं, पोती का नाम पूजा ही रख दो 

तुम मेरा हाथ पकड़ कर उस आधी चाँदनी वाली धुँधली रात में आगे बढ़ते हो। ठीक वहाँ खड़े होते हो जहाँ पापा खड़े थे। उस लम्हे को जीते हुए। तलवों ने कई दिन बाद मिट्टी महसूसी है। हवा चल रही है हल्की हल्की। बादल पूरी तरह हट गया है और चाँद एकदम से भौंचक हो कर झाँक रहा है आँगन में। धमका रहा है एक तरह से। बाबू देखा ना कोई तो पीटेगा नहीं, सीधे गाँव से उठा कर बाहर फेंक देगा। फिर ओसारा ज़िंदगी भर भूल जाना। 

हमारे हाथ एक दूसरे को जाने कौन सी कथा कह रहे हैं। मैंने देखा नहीं है, पर जानती हूँ। आँगन में आँसू गिरे हैं। मेरी आँख से, तुम्हारी आँख से भी। हम एकदम ही चुप वहाँ से ठीक वैसे ही वापस आते हैं। जूते पहनते हैं और गाँव से बाहर शिवालय तक तेज़ चलते आते हैं। एनफ़ील्ड स्टार्ट और इस बार तुम्हारी पकड़ से मैं जानती हूँ कि तुम्हें कितना डर लग रहा है। 
लगभग दो घंटे में हम देवघर पहुँच गए हैं। इतने थके हैं कि सोचने की हिम्मत नहीं बची है। जिसकी चाभी हाथ में आयी है, उसके कमरे का दरवाज़ा खोले हैं और सीधे बेड पर पड़ के बेहोश सो गए हैं। 

सुबह नींद साथ में खुली है। तुम्हें ऊनींदी देख रही हूँ। तुम्हारी आँखों की धूप से कमरा सुनहला है। मैं जानती हूँ कि तुम सच में हो फिर भी तुम्हें छूना चाहती हूँ। मगर इस लम्हे के बाद, ज़िंदगी है। होटल की केटली में पानी गरम करके दो कप कॉफ़ी बनाती हूँ। एक अजीब सा घरेलूपन है हमारे बीच। जैसे हम एक ही गाँव के बचपन वाले हैं। तुम मेरे गाँव एक बार जा के मेरे हो गए हो। 

तुम अब मुझे कहानी सुनाते हो कि क्यूँ तुम्हें ठीक उस जगह होना था जहाँ मेरा नामकरण हुआ था। देवघर के ही एक पंडा जी ने तुम्हारे बचपन में तुमसे एक बार कहा था कि तुम्हारी ज़िंदगी मेंअक्षर बहुत प्रेम लेकर आएगा। ज़िंदगी भर तुम्हारा इस नाम से कोई रिश्ता नहीं रहा। ना तुम पानीपत, पटना, पटियाला, प्रयाग जैसे शहरों में कभी रहे, ना कभी तुम्हें नाम से शुरू होने वाली किसी लड़की से कभी प्रेम हुआ, यहाँ तक कि शादी भी जिससे हुयी, उसके नाम में कहीं भी ये अक्षर नहीं था। जब तक तुम मुझसे नहीं मिले थे तुम भूल भी चुके थे तुम्हारे बचपन में ऐसी कोई बात कभी किसी ने कही थी। मुझसे मिलना तुम्हें कई चीज़ों के बारे में दुबारा सोचने को मजबूर करता है। शादी। घर। गिरहस्थी। प्रेम। भविष्यवाणी। देवघर के पंडे। 

तुम उस जगह खड़े होकर उस एनर्जी को महसूसना चाहते थे जो तुम्हें इस बेतरह अफ़ेक्ट करती है। कि ठीक उसी लम्हे मैं तुमसे जुड़ गयी थी, तुम्हारे जाने बिना। तुम हँसते रहे हो हमेशा, कि मेरे नाम में जाना लिखा है और तुम दुखते रहे हमेशा कि मैं लौट लौट कर आती रही। कि मैं तुम्हारे पागलपन से कभी घबराती नहीं, ना सवाल पूछती हूँ। कि मैंने जाने कौन सा प्रेम तुम्हारे हिस्से का जोग रखा है। 

प्रेम अपने शुद्ध स्वरूप में निश्छल और निर्दोष होता है। मैं हँसती हूँ तुम्हें देख कर। 
अब पंडाजी का ख़बर भी लेने चलोगे?’
नहीं रे। तुमको देख कर बोल दिया कि यही है अक्षर वाली, तो मैं बाल बच्चों वाला आदमी इस धर्मसंकट में मर ही जाऊँगा। इतना काफ़ी है  कि मेरा दिल जानता है।
क्या जानता है?’
कि एक अक्षर भर का प्रेम जो मेरे नाम लिखा था। तुम्हारे नाम से शुरू होकर, तुम पर ही ख़त्म होगा।
इतने से में जी लोगे तुम?’
मुझे बहुत की ख़्वाहिश कभी नहीं रही। और ये, इतना सा नहीं, है काफ़ी है
यूँ भी, सब मोह माया है
नहीं, मोह से ज़्यादा है रे। प्यार है, तुमको भी, हमको भी। लेकिन हाँ, तुम्हारे इस प्यार पर हक़ है मेरा। और कि तुमसे दूर जाने का तकलीफ़ उठाना बंद कर देंगे अब
बाबा नगरी में के तुमरा बुद्धि खुल गया
रे पागल लड़की, सुनो। तुम अपना नाम कभी मत बदलना
कौन सा नाम? पूजा
नहीं। पागल
***
*by Stein


31 July, 2018

चुनना पलाश

तुमने कभी ग़ौर किया है कि अब हमारी बातों में, गीतों में, फ़िल्मों में...फूलों का ज़िक्र कितना कम आता है?

तुमने आख़िरी बार किसी फूल को कब देखा था ग़ौर से...मतलब वैलेंटायन डे पर फूल देने की जेनेरिक रस्म से इतर। कि गुलाब के सिवा कितने और फूलों के नाम पता हैं तुम्हें? कोई पूछ ले कि तुम्हारा पसंदीदा फूल कौन सा है तो कह सकोगे? कि तुम्हें फूल पसंद ही नहीं हैं...या कि तुम तो लड़के हो, तुम्हें कभी किसी ने फूल दिए ही नहीं तो तुम्हें क्या ही करना है फूलों का?

माना कि गमले में फूल उगाना और मौसमों के साथ उनकी ख़ुशबू चीन्हना सबके क़िस्मत में नहीं होता। लेकिन फूलदान में लगे फूलों की तासीर पहचानने के लिए किसी लड़की की ज़रूरत क्यूँ रही तुम्हें? कितनी सारी ख़ूबसूरती तुम्हारी आँखों के सामने रही और तुमने कभी देखा नहीं। फिर फ़ालतू का उलाहना देते फिरोगे कि ये दुनिया बहुत ही बदसूरत जगह है।

तुम जानते हो कि लैवेंडर किस रंग का होता है? या कि ठीक ठीक लैवेंडर की ख़ुशबू ही? तुम्हें लगता है ना कि तुम मुझसे बहुत प्यार करते हो कुछ इस तरह कि मेरे बारे में सब कुछ ही मालूम है तुम्हें…तो बताओ मुझे कौन कौन से फूल पसंद हैं और क्यूँ? नहीं मालूम ना तुम्हें…

चलो, कुछ फूलों को याद करते हैं फिर से…मेरे बचपन में बहुत फूल थे…बहुत रंगों के…

सबसे पहले एक जंगली फूल का नाम, पुटुश…ये फूल मैंने पूरी दुनिया के जंगलों में देखे हैं। हम जब बच्चे हुआ करते थे तो ये फूल सबसे ज़्यादा दिखते थे आसपास। ये एक छोटे छोटे फूलों का गुच्छा होता है जिसके काले रंग के फल होते हैं। फूलों को निकाल कर चूसने से हल्का मीठा मीठा सा स्वाद आता है। बचपन से लेकर अब तक, मैं अक्सर ये काम किया करती हूँ। इसकी गंध के साथ इतनी सारी यादें हैं कि तुम सुनोगे तो पागल हो जाओगे, लेकिन ख़ैर। कोई फूल हमारी ज़िंदगी में कैसे रचा-बसा-गुंथा होता है ये हम बचपन में कहाँ जानते हैं। दिल्ली गयी थी तो अपने छोटे शहर को बहुत मिस कर रही थी। इतनी इमारतों के बीच रहने की कभी आदत नहीं रही थी। IIMC, JNU कैम्पस का हिस्सा है। पहले ही दिन से PSR की कहानियाँ सुनने लगते हैं हम। मैं उस लड़के को जानती भी नहीं थी, उन दिनों। बस इतना कि वो मेरी एक दोस्त का दोस्त है। उसने JNU से फ़्रेंच किया था। अगस्त की हल्की बारिश की एक शाम उसने पूछा, PSR देखने चलोगी…हम चल दिए। JNU की सड़कों से होते हुए जब PSR पहुँचे तो पुटुश की झाड़ियों के बीच से एक पगडंडी जाती थी। बारिश हुयी थी थोड़ी देर पहले, एकदम फुहारों वाली। तेज़ गंध थी पुटुश के पत्तों की…मीठी और जंगली…दीवानी सी गंध…जैसी की मनमर्जियों की होती है। बेपरवाहियों की भी। पुटुश मुझे कई जगह मिलता रहा है। अलग अलग सफ़र में। अलग अलग क़िस्सों के साथ। बस। मीठा होता है इसके इर्द गिर्द होना, हमेशा। जंगल के इर्द गिर्द का पुटुश मुझे बेहद पसंद है। लेकिन देखो, बुद्धू। मेरे लिए पुटुश तोड़ कर मत लाना, काँटे होते हैं इसकी झाड़ियों में। तुम्हारे हाथ ज़ख़्मी हुए तो क़सम से, दिल मेरा दुखेगा।
दसबजिया/नौबजिया फूल: छोटे छोटे फूल जो सुबह सुबह खिल जाते थे और बहुत रंग में आते थे। बहुत आसानी से उगते थे और देर तक रहते थे। (कभी कभी सोचती हूँ ये एक घंटे का अंतर किसी अमेरिकन टाइम टेबल के हिसाब से होगा। DST अजस्ट करने के लिए)

गुलदाउदी: उन दिनों मेहनत करने वाले लोगों के बाग़ में बड़े बड़े गुलदाउदी खिला करते थे। बाक़ी लोगों के यहाँ छोटे छोटे अक्सर सफ़ेद या पीले जिसमें से जाड़ों की धूप, ऊन वाले स्वेटर और रात के अलाव की की ख़ुशबू आती थी।

रजनीगंधा: मेरे घर में कुआँ था और घर से कुआँ जाने के रास्ते में दोनों तरफ़ रजनीगंधा लगा हुआ था। जब ये फूलता था तो रास्ते में छोटा छोटे भुकभुकिया बल्ब जैसा लगता था। घर के हर शादी, फ़ंक्शन में गजरा के लिए सबको रजनीगंधा की लड़ियाँ ही मिलती थीं। जब पहली बार घर से बाहर अकेले रहना शुरू किए तो बिजलरी की बोतल में रखने के लिए पहली बार बेर सराय से ख़रीद कर रजनीगंधा का एक स्टिक रखे। पहला फूलदान ख़रीदे तो उसमें एक रजनीगंधा की स्टिक और एक लाल गुलाब रखा करते थे। इन दिनों रजनीगंधा कभी नहीं ख़रीदते कि वो एक कमरा इतना याद आता है कि दुखने लगता है। ये उस वक़्त की ख़ुशबू है जब जीवन में कोई दुःख नहीं था। 

कारनेशंस: मैं उस लड़के से प्यार करती थी। वो मुझे सोलमेट कहता था। हम बहुत दूर के शहरों में रहते थे। उसके शहर का समंदर मुझे उसकी याद दिलाता था, गीतों में नमकीन होता हुआ। उसने एक बार मुझे फ़ोन किया, उसे अपने किसी दोस्त के जन्मदिन पर फूल देने थे। मैंने पूछे, कौन से…उसने कहा, कारनेशंस…मैंने पूछा, कौन से रंगे के…उसने कहा सफ़ेद। मैंने पहली बार कारनेशंस का गुलदस्ता बनवाया और उसके उस दोस्त के लिए डेस्क पर रखा। गुलदस्ते की एक तस्वीर खींच कर भेजी उसे। उसका मेसेज आया, ‘ब्यूटिफ़ुल, जस्ट लाइक यू’। फूल सिर्फ़ बहाना था। उसे कहना था मुझे कि मैं कारनेशंस की तरह ख़ूबसूरत हूँ। वो रक़ीब है तुम्हारा। उतना प्यार तुम मुझसे कभी नहीं कर सकोगे। फिर उसने कभी मेरे लिए फूल नहीं ख़रीदे…तो सुनो, मेरे लिए कारनेशंस कभी ख़रीद कर मत लाना। 

लिली: वही लड़का, उफ़। मतलब क्या कहें तुमसे। जादू ही था। पहली बार उसने लिली ख़रीदी थी, सफ़ेद। मेरी कलीग की सीट पर रखा था एक काँच के गिलास में। लिली का बंद फूल, कली यू नो। एक पूरे हफ़्ते नहीं खिली वो। मुझे लगा नहीं खिलेगी। वो रोज़ उसका पानी बदलता। वीकेंड आया। मैं कमरे में आयी तो एक अनजान ख़ुशबू आयी। मैं ये गंध नहीं पहचानती थी। कमरे में आयी तो उसे देखा। धूप देखी। उसकी आँखें देखी। उसने कहा, देखो, तुम आयी ना, अभी अभी लिली खिली है। ये वाक़या झूठ है हालाँकि। मैंने ख़ुद के लिए कई बार सफ़ेद लिली ख़रीदी। मुझे उसकी गंध इतनी पसंद थी जितना वो लड़का। लेकिन फिर प्यार भी बहुत ज़्यादा था और लिली की गंध भी कुछ ज़्यादा ही सांद्र। तो बर्दाश्त नहीं होता अब। तो देखो, मेरे लिए लिली मत लाना। 

बोगनविला: लहक के खिलते पूरे JNU के वसंत में कि जैसे मेरे जीवन का आख़िर वसंत हो। मैं हैंडीकैम लिए बौराती रहती सड़क दर सड़क। सोचती कि रख लूँगी आँख भर बोगनविला के सारे शेड्स। मुहब्बत की कितनी मिठास तो। बेलौस धुन कोई। उड़ता रहेगा दुपट्टा यूँ ही आज़ाद हवा में और मेरे दिल को नहीं आएगा किसी एक का होकर रहना। बहुत साल बाद बोगनविला से दुबारा मिली तो जाना कि जंगली ही नहीं ज़िद्दी पौधा भी है। घर के दरवाज़े पर लगा बोगनविला मुहब्बत की तरह पुनर्नवा है। दो महीने में पूरा सूख कर दो महीने में फिर से लौट भी आता है। इक शाम साड़ी पहन मुहब्बत में डूबी इतराते हुए चली तो जूड़े में बोगनविला के फूल लगा लिए। इस अफ़ोस के साथ कि उम्र भर इतने ख़ूबसूरत बाल रहे लेकिन तुम्हारे जैसे नालायक लड़कों से दुनिया भरी है कि किसी ने कभी बालों में लगाने के लिए फूल नहीं ला के लिए। बोगनविला अगर तुमने लगा रखे हों घर में, तो ही लाना मेरे लिए बोगनविला के फूल। वरना रहने दो। मुझ बेपरवाह औरत के घर में हमेशा खिला रहता है बोगनविला। बाक़ी समय किताबों में बुक्मार्क हुये रहते हैं रंग वाले सूखे फूल। सफ़ेद बोगवानविला पसंद हैं मुझे। उनपर फ़ीरोज़ी स्याही से तुम्हारा नाम लिख के सबिनास की प्रेम कविताओं की किताब में रख दूँगी। अगर जो तुम्हें याद रहे तो

ट्युलिप: बहुत्ते महँगा फूल है। आकाशकुसुम जैसा। पहली बार देखे थे तो छू कर तस्दीक़ किए थे कि सच का फूल है। मैंने आज तक कभी ख़ुद के लिए ट्युलिप नहीं ख़रीदे। एक बार बीज देखे थे इसके। लेकिन इसलिए नहीं ख़रीदे कि यहाँ उगाने बहुत मुश्किल होंगे। तुमसे तो उग जाते हैं लेकिन। पता है, न्यू यॉर्क के सेंट्रल पार्क में तुम अपने किसी प्यारे व्यक्ति के नाम पर ट्यूलिप्स लगवा सकते हो। इसके लिए मेरे मरने और मेरी क़ब्र पर ट्युलिप लगाने जैसी मेहनत नहीं है। ना तो मैं अभी मर रही, ना मेरी क़ब्र होगी। तो रहने दो। कॉफ़ी मग में एक छोटा सा ट्युलिप मेरे नाम पर उगा दो ना!

मुझे ज़रबेरा पसंद हैं। सिम्पल ख़ुश फूल। कुछ ज़्यादा नहीं चाहिए उन्हें। बहुत महँगे भी नहीं होते। मैं हमेशा तीन ज़रबेरा ख़रीदती हूँ। अक्सर दो पीले और एक सफ़ेद। या कभी दो सफ़ेद, एक पीला। मूड के हिसाब से सफ़ेद और पिंक या कभी लाल और पीले भी। पिछले दस साल से एक ही दुकान से ले रही हूँ। सोचती हूँ, अब जो मैं नयी लोकैलिटी में शिफ़्ट हो रही हूँ…उस दुकान का एक रेग्युलर कस्टमर कम हो जाएगा। जीवन में कितने दुःख हैं। 

और पलाश। कि जीवन में सबसे रंगभरा, सुंदर, और मीठा जो फूल है वो है पलाश। एक इश्क़ की याद कि जो अधूरा है लेकिन टीसता नहीं, सुलगता है मन के जंगल में। गहरा लाल रंग। फूलता है टेसु और जैसे हर महीना ही मार्च हुआ जाता है। मिज़ाज फागुन, और गाल गुलाल से रंगते लाल, पीले, हरे…कोई होता है लड़का गहरे डिम्पल वाला जिसकी हँसी में डूब जाती हूँ। सच का होता तो साँस अटक जाती, क़सम से! इनावरण में हुआ करता था पलाश का जंगल जो कि होली में लहकता था ऐसे जैसे कि कोई दूसरा साल या वसंत कभी आएगा ही नहीं। उसी से मिल कर पता चला, सपनों के राजकुमारों के मोटरसाइकल रेसिंग स्कूल होते हैं, उसका वो नम्बर वन रेसर था। बाइक ऐसी तेज़ चलाता था कि उतनी तेज़ बस दिल धड़कता था। इक दिन जाना है उसके छूटे हुए शहर और वापसी में पूरे रास्ते रोपते आना है पलाश के पौधे कि कभी वो मुझ तक लौटना चाहे तो मार्च में लौटे, वसंत से गलबहियाँ डाले हुए। उसे चूमना वायलेंट हो कि होठों के किनार पर उभर आए ख़ून का गहरा लाल रंग। वो होंठ फिरा कर चखे बदन में दौड़ते ख़ून का स्वाद और मुस्कुराते हुए पूछे, इश्क़? मेरी आँखों में मौसम बदल कर हो जाए सावन और मैं कहूँ, अफ़सोस। मगर वो बाँहों में भरे ऐसे कि मन कच्चा हरा होता जाए, पलाश की कोंपल जैसा। वो कह सके, तुम या तो एक बार काफ़ी हो या उम्र भर भी नहीं। 

तुम ठीक कहते हो कि मेरी बातें कभी ख़त्म नहीं होंगी। जितनी लम्बी फूलों की लिस्ट है, इतना तो प्यार भी नहीं करते हो तुम मुझसे। उसपे कुछ ज़्यादा ही मीठी हूँ मैं। ये तुम्हारी उम्र नहीं इतने मीठे में ख़ुद को इंडल्ज करने की। हमसे इश्क़ करोगे तो कहे देते हैं, डाइअबीटीज़ से मरोगे तुम!

10 July, 2018

सोना बदन और राख दिल वाली औरतों का होना

कोई नहीं जानता वे कहाँ से आती थीं
सोना बदन और राख दिल वाली औरतें
कविताओं से निष्कासित प्रेमिकाएँ?
डेथ सर्टिफ़िकेट से विलुप्त नाम?
भ्रूण हत्या में निकला माँस का लोथड़ा?
बलात्कार के क्लोज़्ड केस वाली स्त्रियाँ?

उन्हें जहाँ जहाँ से बेदख़ल किया गया
हर उस जगह पर खुरच कर लिखतीं अपना नाम
अपने प्रेमियों की मृत्यु की तिथि
और हत्या करने की वजह
वे अपने मुर्दा घरों की चौखट लाँघ कर आतीं
अंतिम संस्कार के पहले माँगती अंतिम चुम्बन

किसी अपशकुन की तरह चलता उनका क़ाफ़िला
वे अपनी मीठी आवाज़ और साफ़ उच्चारण में पढ़तीं
श्राद्धकर्म के मंत्र। उनके पास होती माफ़ी
दुनिया के सारे बेवफ़ा प्रेमियों के लिए।

वे किसी ईश्वर को नहीं मानतीं।
सजदा करतीं दुनिया के हर कवि का
लय में पुकारतीं मेघ, तूफ़ान और प्रेम को
और नामुमकिन होता उनका आग्रह ठुकराना।

कहते हैं, बहुत साल पहले, दुःख में डूबा
कवि, चिट्ठियों के दावानल से निकला
तो उसकी आँखों में आग बची रह गयी
उस आग से पिघल सकती थी
दुनिया की सारी बेड़ियाँ।

उन्हीं दिनों
वे लिए आती थीं अपना बदन
कवि की आँखों में पिघल कर
सोना बन जाती थीं औरतें
उनके बदन से पैरहन हटाने वाली आँखें
उम्र भर सिर्फ़ अँधेरा पहन पाती थीं।

औरतें
लिए आतीं थीं अपना पत्थर दिल
कवि की धधकती आँखें, उन्हें
लावा और राख में बदल देतीं
उनसे प्रेम करने वाले लोग
बन जाते थे ज्वालामुखी

बढ़ती जा रही है तादाद इन औरतों की
ये ख़तरा हैं भोली भाली औरतों के लिए
कि डरती तो उनसे सरकार भी है
नहीं दे सकती उन्हें बीच बाज़ार फाँसी।

सरकारी ऑर्डर आया है
सारे कवियों को, धोखे से
मुफ़्त की बँट रही मिलावटी शराब में
शुद्ध ज़हर मिला कर
मार दिया जाए।

इस दुनिया में, जीते जी
किसी को कवि की याद नहीं आती।

ना ही उसके बिन बन सकेंगी
सोना बदन और राख दिल वाली औरतें
कि जो दुनिया बदल देतीं।

ये दुनिया जैसी चल रही,
चलती रहनी चाहिए।
तुम भी बच्चियों को सिखाना
कविता पढ़ें, बस
न कि अपना दिल या बदन लेकर
कवि से मिलने चली जाएँ।

औरतों को बताएँ नियम
कवि से प्रेम अपराध है
बनी रहें फूल बदन, काँच दिल
बनी रहें खिलता हुआ हरसिंगार
बनी रहें औरतें। औरतें ही, बस।

26 June, 2018

हँसना, मुहब्बत और दीवानगी में

अपनी ख़ुशी के साथ मेरा ग़म भी निबाह दो
इतना हँसो कि आँख से आँसू निकल पड़ें
- अज्ञात (मतलब गूगल करके भी नाम नहीं मिला हमको)

मैं बैंगलोर में पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का बहुत कम इस्तेमाल करती हूँ। पैदल, स्कूटी, एनफ़ील्ड, कार और पैदल। इनमें से जो ठीक रहे दूरी के हिसाब से। ऑटो वाले मुझे कहीं ले नहीं जाते और टैक्सी में मेरा दम घुटता है और सेफ़ भी फ़ील नहीं होता। लेकिन पिछले कुछ दिनों से जहाँ मुझे जाना हो ड्राइव करने का मन नहीं करता और तबियत का भी ये हाल है कि डर लगता है अचानक बिगड़ जाए तो गाड़ी ठोक ना दूँ। फिर इत्तिफ़ाक़न ऐसा है कि जहाँ जाना होता है वो मेट्रो रूट पर होता है। तो मेट्रो से जा रही हूँ।
आज का क़िस्सा ये है कि दोपहर में बहुत अच्छा मौसम था। कभी कभी मुझे लगता है कि मेरे मन का मौसम मेरे जूड़े में बँधा होता है। जिस दिन शैम्पू करती हूँ और बाल खुले रखती हूँ, उस दिन मौसम ख़ास बहुत अच्छा लगता है। तेज़ हवा में बाल कभी बाँधना, कभी खोलना बहुत अच्छा लगता है मुझे। बैंगलोर को ग़ौर से कभी देखा नहीं था, वो भी है। मेट्रो में मैं सिर्फ़ दिल्ली और न्यू यॉर्क में घूमी हूँ और ये दोनों शहर मेरे महबूब शहर हैं। 

अगर मन यादों में खोया हुआ है तो सारे मेट्रो एक ही जैसे महसूस होते हैं। मैं बैंगलोर में घूमती हुयी मन से दिल्ली या न्यूयॉर्क होती हूँ। छोटी छोटी चीज़ों में। फिर मेट्रो के ट्रैक पिलर्ज़ पर लगे हैं और इस ऊँचाई से शहर बहुत सुंदर दिखता है। स्टेशन से उतर कर कोई एक डेढ़ किलोमीटर गंतव्य तक पैदल गयी। लौट कर आयी और थोड़ी शॉपिंग के लिए ट्रिनिटी सर्कल पर उतर गयी। कुछ कपड़े ख़रीदे और सोचा कि घर लौट जाऊँगी। लेकिन आज दिन भर लैप्टॉप लिए घूमी हूँ तो मेट्रो स्टेशन आ कर लगा कि चर्च स्ट्रीट वाले स्टारबक्स में बैठूँ थोड़ी देर। थक भी गयी थी। अब चलने में दूरी का अंदाज़ा ग़लत हो गया। ऐप्प दिखा रहा है कि मैं आज कुल मिला कर 8.2 किलोमीटर चली हूँ। 

स्टारबक्स में अपनी आइस्ड अमेरिकानो पी कर साढ़े आठ बजे क़रीब निकली। बहुत दिन से कैसीओ की ब्लैक G-शॉक लेने का मन था। आज सोचे कि ख़रीद ही लेंगे। लेकिन दुकान बंद थी, जबकि बंद होने का वक़्त नौ बजे था। वापस लौटते हुए देखा एक इकतारा वाला इकतारा बजा रहा है। उससे एक इकतारा ख़रीदा आज। ख़रीदते हुए एक दोस्त की याद आयी, जिसे ऐसी चीज़ें बहुत पसंद हैं। सोचा कि उसे भेज दूँगी, ठीक से पैक करके। कुरियर। 

मेट्रो स्टेशन आयी तो देखा ट्रेन दो मिनट में आने वाली है। भाग के सीढ़ियाँ चढ़ीं। प्लैट्फ़ॉर्म पहुँची तो देखा मेट्रो लगी हुयी है, काफ़ी दूर में। मेरे आगे एक लड़का दौड़ रहा था ट्रेन की ओर। ऐसी कोई हड़बड़ी नहीं थी मुझे, लेकिन आँख के सामने मेट्रो कैसे छोड़ देती, तो मैं भी दौड़ गयी मेट्रो की ओर…एक तो भाग कर सीढ़ियाँ चढ़ी थीं, फिर भाग कर मेट्रो पकड़ी। डिब्बे भरे हुए थे लगभग। अंदर पहुँच कर साँस स्थिर हो ही रही थी कि अगला स्टेशन आ गया। क़ब्बन पार्क। और मैं जाने कितने ज़ोर से बोली, ‘shit’. और पागलों की तरह हँसने लगी। इतना भाग कर मैंने ग़लत ट्रेन पकड़ ली थी। दूसरे प्लैट्फ़ॉर्म की। कुछ याद आ गया और हँसी रुक ही नहीं रही थी। जनरल डिब्बे में चढ़ी थी, उतरने को हुयी तो लोगों ने इशारा किया कि दरवाज़े दूसरी तरफ़ खुले हैं। मैं हँसते हुए ही बाहर निकली। डिब्बे के सारे लोग भी हँस रहे थे साथ में। दो चार क़दम चली होऊँगी तो लगा कि कोई पुकार रहा है पीछे से…मेट्रो आगे बढ़ते हुए हवा पर उड़ता हुआ शोर आया, गुडबाय मैडम। मेट्रो आगे बढ़ चुकी थी, वरना मैं पक्के से घूम कर हाथ हिला कर बाय करती। 

क़िस्सा ये था कि एक बहुत प्यारा दोस्त है मेरा। जब नयी नयी ‘तीन रोज़ इश्क़’ आयी थी तो हम सब बहुत उत्साहित थी। ये उन्हीं किन्हीं दिनों की बात है। वो बता रहा था कि सुबह सुबह मेरी किताब पढ़ने में इतना खोया कि पढ़ते हुए मेट्रो में चढ़ गया और गेट जब उसकी ओर खुले तो उसका ध्यान गया कि उलटे साइड की मेट्रो में आ गया है। आठ साल से उसी मेट्रो से ऑफ़िस जा रहा था और ये पहली बार हुआ था उसके साथ। 

जब उसकी बात सुनी थी तो मेट्रो देखा नहीं था, उसे भी नहीं देखा था। जब मिली और मेट्रो पर गयी तो उसने दिखाया, देखो इधर वाली मेट्रो पकड़ ली थी। मैं आज उलटे दिशा की मेट्रो से उतरते हुए यही सोचती आयी। दूसरी मेट्रो पर भी पागलों की तरह दाँत चियारते चढ़ी। ज़िंदगी का शुक्रिया अदा किया, कि माना अब ऐसे दोस्तों का नहीं होना बहुत दुखता है लेकिन कितनी अच्छी रही है ना ज़िंदगी कि ऐसे कुछ लोग रहे ज़िंदगी में। ऐसे कुछ शहर कि जिनसे इश्क़ हो। फिर ऐसी कुछ छोटी घटनाएँ हों जो ज़िंदगी को कितना ही रंगभरा बना दें।

तो ज़िंदगी। इन छोटी नियामतों के लिए शुक्रिया। 

मुहब्बत।

17 May, 2018

वो कौन सी स्त्री है जो गहरे लाल रंग की साड़ी में मिलने आती है अभिशप्त दोपहरों में?

कवि अपनी पुरानी कविताओं से विलगाना चाहता है अपनी पूर्व प्रेयसियों के देह-बिम्ब।

हँसुली से उठती है आम्र मंज़रों की तीखी गंध…एक भँवर उठता है वहाँ जिसमें डूब जाने को कवि की आत्मा तड़पती है। वो कौन सी स्त्री है जो गहरे लाल रंग की साड़ी में मिलने आती है अभिशप्त दोपहरों में। कवि रोकना चाहता है उसे चौखट पर लेकिन स्त्री है कि साड़ी का आँचल कमर में खोंस कर भन्सा की इकलौती सीढ़ी चढ़ जाती है और चूल्हे पर पानी चढ़ा देती है खौलाने को। उसने ही लगाया है आंगन में निम्बू का पेड़ कि जो स्त्री के मर्ज़ी के दिन ज़रूर खिलाता है भीनी गंध वाले फूल या कि एकदम ही पीला निम्बू। हँसुए से निम्बू की फाँकें करती स्त्री देखती है कवि को ठिठके हुए…कवि सोचता है मृत्यु इतनी सुंदर ही हो सकती है। गरमी में स्त्री के चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया है, वो आँचल कमर से निकालती है और माथे का पसीना पोंछती है। उसके बाल चेहरे पर जहाँ तहाँ चिपक गए हैं। उसका छोटा गोल चेहरा और काली आँखें सब आग की बनी लगती हैं। गहरी लाल साड़ी के बीच से उसकी एकदम गोरी कमर चौंध जाती है। कवि आँगन के कुएँ पर जाता है और एक बालटी पानी भर कर अपने सिर से ढाल लेता है। एकदम ठंढा पानी उसके सीने में जलती आग बुझाने की नाकाम कोशिश करता है।

भन्सा पर पीढ़े पर बैठी हुयी है वो। दहका हुआ उसका चेहरा। हाथों में स्टील का गिलास है। सामने एक और पीढ़ा है। बदन से पानी टपकाते आता है वो। पीढ़े पर बैठता है। औरत ठीक पीछे खड़ी होकर अपने आँचल से उसके माथे के बाल रगड़ने लगती है। उसे लगता है उसके आँचल से चिंगारियाँ छूट रही होंगी। उसका माथा जलने लगा है। वो स्टील का गिलास उठाता है, गरमी उसकी हथेलियों को झुलसाती है। उसके मन में स्त्री की चंद्रमा की तरह सफ़ेद और ठंढी पीठ को छूने का बिम्ब उभरता है। उसे लगता है अगर वो अपने हथेलियों में उसका चेहरा भरेगा तो शायद फफोले पड़ जाएँगे, उसके साँवले हाथों में कोयलों का ताप है। स्त्री के इर्द गिर्द पसीने और चंदन की गंध का दावानल है। वो उसे हाथ पकड़ कर बिठाता है सामने पीढ़े पर। उसकी पसीजी मुट्ठियों में साड़ी का भिंचा हुआ आँचल होता है। उसकी आँखों से प्यास झरती है। उसके होठों से विष। कवि उसे किसी पुरानी कविता में जा कर पुनः चूमना चाहता है। इस चाहने भर से अस्फुट शब्द बुदबुदाने लगता है। कविता बेसब्र है।

काग़ज़ छूने से शायद आग लग जाए उसमें। कवि वहीं पड़ा हुआ स्लेट उठाता है और खड़िया से लिखता है। शब्द लय में लहक रहे हैं। सुख में उसके बदन का ताप बढ़ता जाता है। आग से लिखी कविता है।

देह बिम्ब विरह की आग में जल कर भस्म हो गए हैं…प्रेमिका से एक हाथ दूर के विरह में…खड़िए के चूरे और भस्म में लिपटे हुए कवि के हृदय से आसक्ति ख़त्म हो जाती है। प्रेमिका उसका हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाती है और ख़ुद साँकल चढ़ा देती है। प्रेम अशरीरी है, कविताओं की तरह।

11 May, 2018

फिर कभी…

यातना शिविर के नाज़ी गार्ड पागल हो रहे थे। हवा की सुगबुगाहट पर जैसे कोई उम्मीद की धुन उड़ती आ रही थी। ‘ज़दीकिम निस्तारिम…ज़दीकिम निस्तारिम’। एक लोककथा ये थी कि जब तक इस दुनिया में ३६ भले लोग बचे रहेंगे, चाहे बाक़ी दुनिया कितनी भी बर्बर और क्रूर हो जाए, ईश्वर इस दुनिया को ख़त्म नहीं करेगा। छत्तीस लोगों की अच्छाई इस दुनिया को बचाए रक्खेगी। दो हफ़्ते पहले की घटना थी, एक क़ैदी फ़रार हो गया था और नियम के अनुसार उसके बंकर के दस लोगों को भूखा मार देने के लिए सेल में भेजा जाना था। दस चुने हुए लोगों में एक रोने और चीख़ने लगा, ‘मेरे बीवी बच्चों का क्या होगा’। उसी बंकर में एक पादरी भी था, वो पादरी आगे आया और उसने अफ़सर से कहा, उसकी जगह मैं मरना चाहता हूँ। अफ़सर ने इस अदला बदली की इजाज़त दे दी।

दो हफ़्ते में बाक़ी ९ लोग तो मर गए थे लेकिन पादरी अभी भी जीवित था। आख़िर ज़हरीला इंजेक्शन देना पड़ा ताकि वो मर सके और उसी कालकोठरी में किसी और क़ैदी को डाला जा सके। जब से पादरी के मृत होने की ख़बर यातना शिविर में फैली थी, क़ैदी लोक कथा ‘ज़दीकिम’ की बात करने लगे थे। जिन लोगों के होने से दुनिया बची रहेगी। ये फुसफुसाहट हर ओर सुनायी देने लगी थी। नींद में, भूखे मरते लोगों के आख़िरी शब्दों में, चीख़ में, चुप्पी में। कुछ ऐसा करना ज़रूरी हो गया था कि क़ैदी चुपचाप मर जाया करें। रोज़ रोज़ लोगों को गोली मारते मारते फ़ाइअरिंग स्क्वॉड भी थक रही थी। नए तरीक़े इजाद करना ज़रूरी था।

अपना मन लगाए रखने के लिए भी ज़रूरी था कोई नया कौतुक शुरू हो। दो एसएस गार्ड्ज़ में शर्त लग गयी कि क्या एक गोली से दो लोगों को मारा जा सकता है। सुबह के नाश्ते के पहले रोल-कॉल के लिए क़ैदी लाइन में लगे हुए थे। गार्ड्ज़ ने पब्लिक अनाउनसेमेंट सिस्टम पर क़िस्सा सुनाया, ‘बात सुनने में आ रही इसी श्रम शिविर में ज़दीकिम निस्तारिम हैं - छुपे हुए भले लोग - इसलिए हम उन्हें बाहर निकालेंगे - देखते हैं दुनिया कब तक बचाए रखते हैं भले लोग’। यहूदी पवित्र संख्या ३० और ६ वाले दो क़ैदी तलाशे गए। यहीं पास में वो ख़ूनी दीवार थी जिसकी ओर मुँह कर के क़ैदियों को गोली मारी जाती थी।

एक कमसिन पोलिश लड़की और एक युवा पोलिश लड़का एक दूसरे के आमने सामने खड़े थे। वे अपना नाम तो कई दिनों पहले भूल चुके थे। उनकी पहचान अब उनकी कलाई में बने टैटू वाली संख्या ही थी। मरने के पहले वे ठीक एक दूसरे के सामने खड़े थे।

लड़का इस शिविर में आने के पहले एक छोटे से स्कूल में संगीत सिखाया करता था। एक पहाड़ी पर उसका छोटा सा गाँव था जहाँ पाँच भाई बहनों वाला उनका ख़ुशहाल परिवार रहता था। उसके पिता दूर के शहर में एक बैंक में काम करते थे और हर इतवार घर आया करते थे। उसे कैम्प में आए कितने दिन हुए थे उसे याद नहीं। बहुत पहले की धुँधली याद में उसने पूरा चाँद देखा था, लेकिन वो इसलिए कि उस दिन ऊँचे वाले बिस्तर के क़ैदी की मौत हो गयी थी और वो ऊपर वाले बिस्तर पर सोने चला गया था। निचले बिस्तर पर पानी का जमाव रहता था और माँसाहारी चूहे काट खाते थे। ऊपर वाले बिस्तर से छत पर का छेद दिखता था जिससे बर्फ़ गिरती थी। जिस पहली रात वो ऊपर के बिस्तर पर गया था, भूख के कारण उसे नींद नहीं आ रही थी और थकान के कारण उसका बदन टूट रहा था। उसी समय उसने देखा कि छत पर के छेद के पीछे पूरा गोल चाँद है। बहुत समय तो उसे चाँद को पहचानने में लग गया। इन दिनों उसे हर चीज़ सिर्फ़ खाने के लिए चाहिए होती थी लेकिन किसी तरह वो चाँद को पहचान गया। उस दिन बहुत दिन बाद उसने एक लोकगीत के बारे में सोचा।

लड़की चार भाइयों के बाद मन्नतों से माँगी हुयी इकलौती बहन थी। माँ पिता की आँखों का तारा। नीली आँखों वाली लड़की। नदी किनारे शहर में रहती थी। बहुत ऊँचे क़िले के पास छोटा सा घर था उनका। माँ नर्स थी और पिता चमड़े के कारख़ाने में काम करते थे। उसके भाई बहुत पढ़े-लिखे और समाज में सम्मानित व्यक्ति थे। उसका सबसे बड़ा भाई तो विदेश के कॉलेज में वक्तव्यों के लिए बुलाया भी जाता था। उससे ठीक बड़ा भाई एक हीरों के व्यापारी के यहाँ काम करता था। कहते थे उसके हाथ में बहुत हुनर था। लेकिन एक वक़्त पर इन सारी चीज़ों पर उनका धर्म भारी पड़ गया। जब उनके पूरे परिवार को ट्रेनों में भर कर कैम्प भेजा जा रहा था, ठीक उसी वक़्त ट्रेन स्टेशन से दौड़ता हुआ उसका बड़ा भाई लौटा था। उसे वहीं गोली मार दी गयी थी उसकी पत्नी और बच्चे के साथ। लड़की उसी समय भूल गयी थी कि उसने अपने हीरे के झुमके कहाँ रखे हैं। वो चाहती थी कि भूल जाए कि उसे अंधेरी कोठरी से रौशनी में क्यूँ लाया जाता था। कि दिन भर बाक़ी क़ैदियों के साथ काम करने के बाद वो बाक़ी औरतों की तरह सो क्यूँ नहीं सकती थी। कि गार्ड्ज़ सिर्फ़ बलात्कार नहीं करना चाहते थे, वे उसकी चीख़ भी सुनना चाहते थे। कि जिस रात उसने चीख़ना बंद करने की कोशिश की वो पहली रात थी जब वो बेहोश हो गयी थी और मालूम नहीं कितनी देर बाद होश में आयी थी। कि वो दिन भर एक शब्द नहीं कहती थी ताकि रात को चीख़ने के लिए अपनी आवाज़ और अपनी ऊर्जा बचा के रख सके। उसे गूँगे हो जाने का डर सताता था।

उन्होंने एक दूसरे की आँखों में देखा। उन्हें बात करने के लिए शब्दों की ज़रूरत नहीं थी। वे एक दूसरे को सुन सकते थे, पढ़ सकते थे। मृत्यु के पहले सारी इंद्रियाँ बहुत तेज़ हो जाती हैं।

‘ओह, इसकी आँखें कितनी नीली हैं। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार आसमान कब देखा था।’
‘ओह, इसकी आँखों में इतना ख़ालीपन क्यूँ है। कोई तो दुःख होना चाहिए था। क्या इस लड़के ने कभी प्रेम नहीं किया’

‘इसके माथे पर ये नीला निशान क्यूँ है? क्या किसी ने इसका सिर दीवार पर दे मारा था?’
‘इसके होंठ कैसे नीले पड़ गए हैं। ये ज़रूर अपनी बैरक में ऊपर वाले बिस्तर पर सोता है। क्या इसके बिस्तर के ऊपर भी कोई सुराख़ है। क्या कल पूरी रात की बर्फ़बारी में उसके बदन पर बर्फ़ गिरी है?’  

‘इसकी आँखों में रौशनी टिमटिम करती है। काश मैं एक बार इसे अपना उकेलेले सुना पाता। जब बहुत तेज़ तेज़ नाचती तो इसके गाल कितने दहकने लगते और आँखों में एक गर्माहट का गोला घूमने लगता।’
‘अगर ये मुझे पिछले साल मेले में मिला होता तो मैं उस बेवक़ूफ़ टिम की जगह इसे चूम रही होती। शायद अब तक हमारी शादी हो चुकी होती। [लड़की की आँखें पनियाती हुयीं] ओह, नहीं…हमारे बच्चे को नाज़ियों ने मार दिया होता। और इस समय इसकी आँखें सुख में होतीं।

‘ये लड़की क्यूँ रो रही है। क्या उसे मौत से डर लग रहा है? क्या इसे अपने किसी पूर्व प्रेमी की याद आ रही है? क्या कोई उम्मीद है इसकी ज़िंदगी में, जिसके लिए इसका थोड़ा और जीने का मन है?’
‘मेरी आँखों में आँसू देख कर लड़के की आँखें थोड़ी कोमल हो आयी हैं। इसे मेरे मरने की चिंता हो रही है क्या?’

‘क्या इस लड़की को स्ट्रॉबेरीज़ पसंद होंगी? काश मैं इसे अपनी नानी के बग़ीचे वाली स्ट्रॉबेरीज़ खिला पाता। उनसे मीठी स्ट्रॉबेरीज़ दुनिया में कहीं नहीं होती हैं। हम दोनों नानी की आँख बचा कर चुपचाप बग़ीचे में घुस जाते और लड़की की फ़्रॉक में हम ख़ूब से स्ट्रॉबेरीज़ तोड़ लाते और बाद में क्रीम के साथ खाते’।
‘मैं इस लड़के के लिए ख़ूब गहरे नीले रंग का ऊन का मफ़लर बनाती। करोशिये का उतना सुंदर काम गाँव भर की किसी लड़की के बस का नहीं था। लड़का अपने गले में मफ़लर डालता और मेरे हाथ चूम लेता। उसके दोस्तों की गर्लफ़्रेंड्ज़ मुझसे सीखना चाहतीं कि कैसे बनाते हैं इतना सुंदर मफ़लर। मैं ढिठाई से हँसती और कहती, “प्रेम से” ’

‘माँ मुझे इस लड़की से शादी करने के लिए तुरंत हाँ कह देती। माँ को नीले रंग की आँखों वाली लड़कियाँ कितनी पसंद हैं’
‘मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि इस लड़के की आँखों में कोई धुन बह रही है। क्या इसे कोई वाद्ययंत्र बजाना आता है? मेरे भाइयों को एक उकेलेले बजाने वाले की कितनी ज़रूरत थी। अगर ये उकेलेले बजाता तो मेरे भाइयों के साथ मेले में जा सकता था। मैं इनकी धुनों पर कितना ख़ुश होकर नाचती’।

‘मैं इस लड़की के साथ वसंत देखना चाहता हूँ. कौन से फूल पसंद होंगे इसे। जब इसके बाल लम्बे होंगे तो मैं उनमें फूल गूँथ दूँगा’
‘क्या इस लड़के को चेरी वोदका पसंद होगी? गरमी के दिनों में हम कभी कभी स्कूल से भाग कर विस्तुला में नहाने चले जाते और फिर गर्म घास पर लेटे हुए एक दूसरे को चूमते और चेरी वोदका पीते। दीदियाँ कहती हैं वोदका पीने के बाद चूमने का स्वाद अलौकिक होता है’

‘जीवन में पहली बार प्रेम हुआ और वो भी इतने कम वक़्त के लिए’
‘प्रेम जीवन के आख़िरी लम्हे तक रहा। ये बुरा तो नहीं’

‘शादी के तोहफ़े में दादी इसे अपनी सबसे पसंदीदा नीले हीरों का झुमका देती। बचपन से हम सब भाई बहन लड़ते रहे कि दादी वो किसे देगी’
‘धूप वाली खिड़की में बैठ कर माँ मेरे लिए शादी का जोड़ा बना रही होती। उसके गले से कितना मीठा लोकगीत फूटता है। मैं बैठे बैठे रोने लगती तो मेरे भाई मेरी चोटियाँ खींचते और इस लड़के को भद्दी गालियाँ दे देकर चिढ़ाते, मैं उन्हें मारने के लिए उनके पीछे पीछे कितना दौड़ती’

‘अगर मेरी कोई बेटी हो तो एकदम इस लड़की जैसी हो, ऐसी नीली आँखों वाली’
‘__ ___ __ __ __ __’ [लड़की चुप रही। अजन्मे बच्चे का नाम सोच रही थी शायद]

[सैनिक अब आपस में बहस कर रहे थे कि बंदूक़ की नली किसके सर पर रखी जाए और दोनों को एक ही गोली से मारने के लिए बेहतर क्या होगा, वे एक दूसरे के सामने खड़े रहें, अग़ल-बग़ल खड़े रहें, या पीठ से पीठ टिका कर]

“__ __ __ __ __ __ __ __” [लड़के के देखने में चुप्पी थी। जैसे उसके सोचने में भी शब्द ख़त्म हो गए हों। वो बस चाहता था कि सैनिक जल्दी गोली चलाएँ और वह मर जाए। अब सोचना थका देने वाला था। दुखा देने वाला भी]
‘चाहे मैं मर जाऊँ। पर काश ये लड़का बच जाए। दुआ में ज़्यादा वक़्त कहाँ माँग सकती हूँ। लेकिन काश कि मुझे इसका मृत शरीर ना देखना पड़े। भले ही मुझसे एक लम्हा ज़्यादा जी सके।’

‘मैं इस लड़की को मरा हुआ नहीं देख सकता हूँ। अगर मैं अभी विद्रोह कर दूँ तो क्या सैनिक मुझे गोली मार देंगे? लेकिन ऐसा तो नहीं कि वे फिर इस खेल की जगह कोई और मनोरंजन तलाशने लगें? अगर उन्हें मेरी आँखों में इस लड़की के प्रति प्रेम दिख गया तो वे मेरी आँखों के सामने इसका बलात्कार करेंगे। बार बार। और बहुत तड़पा के मारेंगे मुझे। नहीं नहीं। मेरे चेहरे पर कोई भाव नहीं आना चाहिए’।

[लड़की उसका कठोर होता चेहरा देखती है]
‘ओह। शायद ये ख़ुद को मज़बूत कर रहा है ताकि मृत्यु से ना डरे। मैं एक बार इसके बाल सहलाना चाहती हूँ। अगर मैं ऐसा करूँ तो क्या होगा? शायद सैनिकों को नया कौतुक मिल जाए। फिर वो मेरी आँखों के सामने इसे तड़पा कर मारेंगे। ओह। नहीं। मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए। मृत्यु जितनी जल्दी आ जाए, बेहतर है। शायद मुझे भी अपना चेहरा एकदम कठोर कर लेना चाहिए।’

[लड़का उसके चेहरे की खिंचती नसें देखता है]
‘ओह। ये लड़की मेरा कठोर चेहरा देख कर कठोर होने की कोशिश कर रही है। शायद इसे लगे कि मैं मृत्यु से डर रहा हूँ। और ये मुझे संबल देने की कोशिश कर रही है।’
‘___ ___ ___ ___ ___’

[सैनिकों ने तय कर लिया है। लड़के के सिर के पीछे बंदूक़ की नली रखते हैं।
वे दोनों बहुत धीरे धीरे और एक साथ अपनी आँखें बंद करते और खोलते हैं।
दोनों एक आख़िरी बार एक दूसरे की आँखों में देखते हैं।]

‘फिर कभी’
‘फिर कभी’

गोली चलती है और दोनों के सिरों के पार निकलती हुयी दीवार में जा के धँस जाती है। उनके बदन एक साथ गिरते हैं। उन्होंने आख़िरी लम्हे में एक दूसरे का हाथ पकड़ लिया था। गार्ड्ज़ बहुत कोशिश करते हैं पर लाशों की मुड़ी हुयी उँगलियाँ उलझ गयी हैं, हड्डियाँ खुलती नहीं। उन्हें एक साथ ही जलती भट्ठी में फेंकना पड़ता है।

एक उलझे हुए प्रेम से बची रह जाती है दुनिया। वक़्त से हारी हुयी लड़ाई से। एक ‘काश’ से। उस छुपे हुए प्रेम से जो मृत्यु की आँख में आँख डाल कर देख सकती है और बिना इजाज़त, बिना इकरार के मिट भी सकती है।


उम्मीद की मीठी धुन पर गुनगुनाती है…जीवन के संजीवन मंत्र…प्रेम, आना, फिर कभी। 

26 April, 2018

तुमसे बात करना
बारिश में भीगना था
पोर पोर से उड़ती थी
ललमटिया देहगंध
छम छम हँसता था
आम का बौर 

तुमसे बात करके
धुल जाती थी कविताएँ
दिखते थे नए, चमकीले बिम्ब
तुम हँसते थे, और
पिकासो का नीला अवसाद
धुल जाता था आत्मा से

तुमसे बात किए बिना
मैं उजड़ता हुआ किला हूँ
टूटती मुँडेरों वाला
जिस पर दुश्मन या दोस्त
कोई भी आक्रमण कर सकता है

बरसों बीते तुमसे बात किए हुए
मैं इन दिनों,
तलवार की सान तेज़ करती हूँ
दुर्गा कवच पढ़ती हूँ
जिरहबख़्तर पहन के सोती हूँ
डरती हूँ

अपने टूटे हुए दिल से खेलती
सोचती हूँ अक्सर
जाने तुम मेरे हृदय का कवच थे
या तुमने ही मेरा कवच तोड़ा है।

09 April, 2018

अनुगच्छतु प्रवाहं

अगर हम ज़िंदगी को किसी कहानी की तरह देखें, तो कभी कभी हमारी ज़िंदगी में एक 'point of no return' आता है। जैसे कि हर लम्बी कहानी के किरदार के साथ होता है, उस पोईंट पर हमें एक निर्णय लेना पड़ता है, और उस निर्णय के साथ होने वाले cause-effect के लिए तैय्यार रहना पड़ता है।

मैं अपनी ज़िंदगी में ऐसे ही एक क्षण पर खड़ी हूँ कि लगता है यहाँ से कोई एकदम ही अलग दिशा बनानी पड़ेगी।

जो दो चीज़ें मुझे बहुत ज़्यादा परेशान करती हैं वो हैं १. नैतिकता - नीति - शील - morality vs आज़ादी : कि जीने का नहीं, लेकिन क्या लिखने वाले की कोई नैतिकता होती है। जब मैं अपनी कल्पना के घोड़ों को खुला छोड़ती हूँ तो उनकी आज़ादी की कोई सीमारेखा है? क्या जीवन जीने के जो मानक नियम हैं, जो समाजिकता है...वही लेखन पर भी लागू होती है क्या लेखन का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है जिसे समाज के नियमों से बँधने की ज़रूरत नहीं है। लिखते हुए मैं सीमा कहाँ बनाती हूँ, कहाँ बनानी चाहिए। लिखते हुए जो डर मुझे परेशान किए रहते हैं, दुनिया के खड़े किए हुए डर...ये वे ही डर हैं जो मुझे जीने नहीं देते। तो मेरी क़लम इनसे कितनी बग़ावत कर सकती है। मैं जिन विषयों पर लिखना चाहती हूँ, मैं जैसे किरदार रचना चाहती हूँ...मेरे किरदारों को जिस तरह के भीषण दुःख देना चाहती हूँ...उनके पहले ये कौन सी सेल्फ़-सेन्सर्शिप लगा रखी है मैंने। उस लेखक का क्या हुआ जिसने किताब लिखने के बाद कहा था, सबसे ही, मैं आपके किसी सवाल का जवाब दूँ, आप इसका हक़ नहीं रखते। मेरा जो मन करेगा मैं लिखूँगी, आप मेरी ज़िंदगी को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं, मेरे लेखन को नहीं।

२. शब्द - व्यक्ति - दोस्त - रिश्ते - बातें : मेरे जीवन में मेरे अधिकतर क़रीबी मित्र लेखन से जुड़े हैं। कुछ यूँ कि मेरी गहरी दोस्ती उन लोगों से हुयी जो लिखते रहे हैं और जिससे मेरी गहरी दोस्ती रही, उसे मैं कभी ना कभी लिखने की दिशा में धकियाया ज़रूर। तो चाहे वे लिखें या ना लिखें, वे पढ़ते ख़ूब ख़ूब हैं। मैं अपने इन क़रीबी दोस्तों से सबसे ज़्यादा बात करते हुए लिखने-पढ़ने का बहुत सारा कुछ साथ लिए आती हूँ। हमारे बीच पसंद की किताबें होती हैं। ईमेल होते हैं। चिट्ठियाँ होती हैं। कहने का मतलब ये, कि मुझे शब्दों की बहुत ज़रूरत पड़ती है और ये शब्द मेरे क़रीबी दोस्तों से मिलते हैं मुझे।
पिछले कुछ सालों से लेकिन पैटर्न ये रहा है कि किसी से दोस्ती होने, उस मित्रता को पनपने और ठीक वहाँ पहुँचने जहाँ बात कहने के साथ ही कॉंटेक्स्ट देने की ज़रूरत ना पड़े...इसमें ठीक ठीक दो साल लगते हैं। फिर ठीक इसी बिंदु पर पहुँच कर वे दोस्त छूट जाते हैं। कभी ज़िंदगी ऐसे हालात खड़े कर देती है, कभी कुछ यूँ ही हम अलग अलग दिशाओं में चल देते हैं। मतलब, कारण मालूम नहीं रहता, लेकिन ऐसा हो जाता है - हमेशा। मुझे हर समस्या का हल खोजने की आदत है, इसलिए ये दिक़्क़त मुझे बहुत परेशान करती है। तो अब ये वक़्त आ गया है कि मैं इस समस्या को हल करने की ज़िद छोड़ दूँ और समझ जाऊँ कि कुछ चीज़ें मुझे समझ नहीं आतीं...कुछ चीज़ों पर मेरा बस नहीं चलता।
मुझे हमेशा लगता रहा है कि लोगों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। मैं किसी से बात करने के किसी भी मौक़े को जाने नहीं देती। मुझे लोगों से बात करना बहुत अच्छा लगता है। मैं हमेशा चिट्ठियाँ और जवाबों से लम्बे जवाब दिया करती हूँ। तो ऐसे में लगता है, कि दोस्त ना सही, जो सेकंड सर्कल औफ़ फ़्रेंड्ज़ होते हैं, वो होनी चाहिए। ऐसे लोग जो दोस्त नहीं हों, लेकिन जिनसे गाहे बगाहे बात की जा सके। लिखने पढ़ने पर या कि उनकी ज़िंदगी में होती घटनाओं पर भी।
फिर मुझे लगता है कि इस समस्या का इकलौता और अंतिम समाधान है चुप्पी। लेकिन ओढ़ी हुयी नहीं, थोपी हुयी नहीं...ऐसी चुप्पी नहीं जो अंदर तक जला दे...बल्कि एक शांति...तो ऐसे में सही शब्द होता है - मौन।
मेरे जैसे धुर वाचाल का मौन धारण करना मेरे स्वभाव के एकदम विपरीत है और अगर मैं इस स्टेप को ठीक से हैंडल नहीं करती तो मैं घुट के मर जाऊँगी। मुझे इस मौन के साथ सामंजस्य बिठाना होगा क्यूँकि ये अंतिम सत्य है।

तो मैं ज़िंदगी के इस पोईंट औफ़ नो रिटर्न पर खड़ी ये सोच रही हूँ कि पूर्ण स्वतंत्रता - आज़ादी और गहरा मौन - शांति, इनको जीवन में शामिल करूँ तो कैसे और इस मुश्किल रास्ते को आसान कैसे करूँ। कि मेरे अंदर बहुत ही ज़्यादा छटपटाहट भर गयी है और मैं ऐसे जी नहीं सकती हूँ।

जब जाने का मन करता है तो एक जगह से जाने का मन नहीं करता...सारी जगहों से जाने का मन करता है...बात नहीं करनी होती है तो किसी से भी बात नहीं करनी होती है।

तो कुछ महीने सारी बातें बंद कर के मैं सिर्फ़ अपने एकांत में, अपनी चुप्पी में और अपने मन के अंदर की आज़ाद दुनिया में उतरना और रहना चाहती हूँ।

चाहती हूँ।
करूँगी तो क्या ये तो ब्रह्मा भी नहीं जानते!

14 March, 2018

सपने में एक नदी बहती थी

मेरे सपनों में कुछ जगहें हमेशा वही रहती हैं। बहुत सालों तक मुझे एक खंडहर की टूटी हुयी दीवाल का एक हिस्सा सपने में आता रहा। उन दिनों मैं बिलकुल पहचान नहीं पाती थी कि ये कहाँ से उठ के आया है। आज पहली बार उस बारे में सोचते हुए याद आया है कि पटना में नानीघर जाने के रास्ते रेलवे ट्रैक पड़ता था। रेलवे ट्रैक के किनारे किनारे दीवाल बनी हुयी थी। वो ठीक वैसे ही टूटी थी जैसे कि मैं सपने में देखती आयी रही थी, कई साल। हाँ सपने में वो हिस्सा किसी क़िले की सबसे बाहरी चहारदिवारी का हिस्सा होता था।

इन दिनों जो सपने में कई दिनों से देख रही हूँ, लौट लौट कर जाते हुए। वो एक मेट्रो स्टेशन है। मैं हमेशा वही एक मेट्रो स्टेशन देखती हूँ। काफ़ी ऊँचा। कोई तीन मंज़िल टाइप ऊँचा है। और मैं हमेशा की तरह सीढ़ियों से चढ़ती या उतरती हूँ। इसे देख कर कुछ कुछ कश्मीरी गेट के मेट्रो की याद आती है। वहाँ की ऊँची सीढ़ियों की। मैं कब गयी थी किसी से मिलने, कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन पर उतर कर? याद में सब भी कुछ साफ़ कहाँ दिखता है हमेशा। या कि अगर दिखता ही हो, तो हमेशा जस का तस लिख देना भी तो बेइमानी हुआ। वो कितने कम लोग होते हैं, जिनका नाम हम ले सकते हैं। किसी पब्लिक फ़ोरम पर। ईमानदारी से। फिर ऐसे नाम लेने के बाद लोग एक छोटे से इन्सिडेंट से कितना ही समझ पाएगा कोई। हर नाम, हर रिश्ता अपनेआप में एक लम्बी कहानी होता है। छोटे क़िस्से वाले लोग कहाँ हैं मेरी ज़िंदगी में।

इस मेट्रो स्टेशन के पास नानी की बहन का घर होता है। स्टेशन से कुछ डेढ़ दो किलोमीटर दूर। हमेशा। मैं जब भी इस मेट्रो स्टेशन पर होती हूँ, मेरे प्लैंज़ में एक बार वहाँ जाना ज़रूर होता है।

आज रात सपने में में इस मेट्रो स्टेशन से उतर कर तुम्हारे बचपन के घर चली गयी। शहर जाने कौन सा था और मुझे तुम्हारा घर जाने कैसे पता था। और मैं ऐसे गयी जैसे हम बचपन के दोस्त हों और तुम्हारे घर वाले भी जानते हों मुझे अच्छे से। तुम घर के बरांडे में बैठ कर कॉमिक्स पढ़ रहे थे। हम भी कोई कॉमिक्स ले कर तुमसे पीठ टिकाए बैठ गए और पढ़ने लगे। आधा कॉमिक्स पहुँचते हम दोनों का मन नहीं लग रहा था तो सोचे कि घूमने चलते हैं।

हम घूमने के लिए जहाँ आते हैं वहाँ एक नदी है और मौसम ठंढा है। नदी में स्टीमर चल रहे हैं। जैसे स्विट्ज़रलैंड में चलते थे, उतने फ़ैन्सी। हम हैं भी विदेश में कहीं। मैं स्टीमर जहाँ किनारे लगता है वहाँ एक प्लाट्फ़ोर्म बना है। तुम कहते हो तैरते हैं पानी में। मैं कहती हूँ, पानी ठंढा है और मेरे पास एक्स्ट्रा कपड़े नहीं हैं। तभी प्लैट्फ़ॉर्म शिफ़्ट होता है और मैं सीधे पानी में गिरती हूँ। पानी ज़्यादा गहरा नहीं है। तुम भी मेरे पीछे जाने बिना कुछ सोचे समझे कूद पड़ते हो। फिर तुम तैरते हुए नदी के दूसरे किनारे की ओर बढ़ने लगते हो। मुझे तैरना ठीक से नहीं आता है पर मैं ठीक तुम्हारे पीछे वैसे ही तैरती चली जाती हूँ और हम दूसरे किनारे पहुँच जाते हैं। ये पहली बार है कि मैंने तैरते हुए इतनी लम्बी दूरी तय की है। हम पानी से निकलते हैं और सीढ़ियों पर खड़े होते हैं। इतना अच्छा लग रहा है जैसे लम्बी दौड़ के बाद लगता है। पानी साफ़ है। थोड़ा आगे सीढ़ियाँ बनी हुयी हैं और दूसरी ओर पहाड़ हैं। मैं कहती हूँ, आज मुझे तुम्हारे कपड़े पहनने पड़ेंगे। थोड़ी देर घूम भटक कर वापस जाने का सोचते हैं। उधर रेस्ट्रांट्स की क़तार लगी हुयी है नदी किनारे। हम उनके पीछे नदी की ओर पहुँचते हैं तो देखते हैं कि उनकी नालियों से नदी का पानी एकदम ही गंदा हो गया है। कोलतार और तेल जैसा काला। वहाँ से पानी में घुसने का सोच भी नहीं सकते। हम फिर तलाशते हुए नदी के ऊपर की ओर बढ़ते हैं जहाँ पानी एकदम ही साफ़ है। तुम होते हो तो मुझे पानी में डर एकदम नहीं लगता। हम हँसते हैं। रेस करते हैं। और नदी के दूसरे किनारे पहुँच जाते हैं। तुम्हारी सफ़ेद शर्ट है उसका एक बटन खुला हुआ है। मैं अपनी हथेली तुम्हारे सीने पर रखती हूँ। पानी का भीगापन महसूस होता है।

हम किसी डबल बेड पर पड़े हुए एक स्टीरियो से गाने सुन रहे हैं। एक किनारे मैं हूँ, लम्बे बाल खुले हुए हैं और बेड से नीचे झूल रहे हैं।एक तरफ़ तुम दीवार पर टाँग चढ़ाए सोए हुए हो। घर में गेस्ट आए हैं। तुम्हारी दीदी या कोई किचन से चिल्ला के पूछ रही है मेरे घर के नाम से मुझे बुलाते हुए...ये मेरा पटना का घर है...और स्टीरियो प्लेयर वही है जो मैंने कॉलेज के दिनों में ख़ूब सुना था। कूलर पर रख के, कमरे में अँधेरा कर के, खुले बाल कूलर की ओर किए, उन्हें सुखाते हुए। तुम मेरे इस याद में कैसे हो सकते हो। इतनी बेपरवाही से।

***
सपने में चेहरे बदलते रहे हैं, सो याद नहीं कितने लोगों को देखा। पर जगहें याद हैं और पानी की ठंढी छुअन। फिर मेरे पीछे तुम्हारा पानी में कूदना भी। सुकून का सपना था। जैसे आश्वासन हो, कि ज़िंदगी में ना सही, सपने में लोग हैं कितने ख़ूबसूरत।

तेज़ बुखार में तीन दिन से नहाए नहीं हैं, और सपना में नदी में तैर रहे हैं! 

07 March, 2018

अलविदा के गीत

कुछ फ़िल्में हमें बहुत बुरी तरह अफ़ेक्ट करती हैं। हम नहीं जानते कौन सा raw nerve ending touch हो जाता है। कुछ एकदम कच्चा, ताज़ा, दुखता हुआ ज़ख़्म होता है। रूह में गहरे कहीं। हम उन दुखों के लिए रो देते हैं जो हमारे अपने नहीं हैं। रूपहले परदे पर की मासूमियत कैसा कच्चा ख़्वाब तोड़ती है। कौन से दुःख की शिनाख्त कराती है? क्या कुछ दुःख यूनिवर्सल होते हैं? जैसे बचपने की मृत्यु।

हम कितनी चीज़ें फ़ॉर ग्रंटेड लेते हैं। आज़ादी। प्रेम। दोस्ती।
किसी को प्रेम करने का अधिकार।

फ़िल्म सिम्फ़नी फ़ॉर ऐना का एक सीन भुलाए नहीं भूलता है मुझे...स्कूल के बच्चे हैं, कुछ चौदह साल के आसपास की उम्र के...उनके साथ ही पढ़ने वाले एक लीडर की गोली मार के हत्या कर दी गयी है। बच्चे उसके कॉफ़िन को हाथों में ले कर चल रहे हैं। यह दृश्य श्वेत श्याम में फ़िल्माया गया है। सब बच्चों की आँखों में आँसू हैं। उन्होंने आँखें झुका रखी हैं। वे रो रहे हैं। लेकिन जैसे जैसे क़ाफ़िला उनके पास आता है, वे हाथ उठा कर V का सिम्बल बना रहे हैं। विक्टरी का। जीत का। अपने साथी को विदा कहते हुए भी वे कहते हैं कि हम जीतेंगे। Ever onward, to victory! ऐना इस सीन को नैरेट कर रही होती है। वो कहती है कि उस दिन के बाद हम सब बदल गए। हम बड़े हो गए।

मैं इस फ़िल्म को देखने के बाद देर तक रोती रही थी। चौदह पंद्रह साल के बच्चे...उनके हिसाब के क्रांति के उनके आदर्श। चे ग्वारा के नारे लगाते। लड़ते एक बेहतर दुनिया के लिए। जिस उम्र में उन्हें ठीक से दुनिया समझ भी नहीं आती, उस उम्र में उन्हें अरेस्ट कर लिया जाता है और फिर वे 'गुम' हो जाते हैं। फ़िल्म में कहती है इसा, तुम 'अरेस्ट' कर ली गयी, क्यूँकि उन दिनों हमारे पास 'disappear' शब्द नहीं था। बच्चे जो ग़ायब कर दिए गए। मार दिए गए। लम्बे समय तक टॉर्चर किए गए। इनसे सत्ता को कितना ख़तरा हो सकता था।

फ़िल्म के ट्रेलर में एक गीत होता है जो मैं पहचान नहीं पाती हूँ। youtube पर एक कमेंट में सवाल पूछा है जिसका कल जवाब आया है। मैं देर तक उसी गाने को सुनती रही हूँ। वो एक इतालवी युद्ध गीत है, एल पासो देल एबरो एक लोकगीत...जो कई सालों से गाया जाता रहा है। युद्ध चिरंतर हैं।

कल रात मैं देर तक अर्जेंटीना के इस स्टेट टेररिज़म के बारे में पढ़ती रही। इसे डर्टी वार कहा गया है। गंदा युद्ध। इसमें विरोधी राजनीतिक ख़याल रखने वालों लोगों को, जिनमें बच्चे, छात्र, औरतें थीं, मारा गया, अपहृत किया गया और ग़ायब कर दिया गया। इस जीनोसाइड में लगभग तीस हज़ार लोग मारे गए। औस्वितज से गुज़रना आपको ज़िंदगी भर के लिए बदल देता है। कुछ ऐसे कि उस समय भी मालूम नहीं होता है। किसी भी क़िस्म की जीनोसाइड के साथ एक मृत्युगंध चली आती है। उँगलियों में, हथेलियों में, बर्फ़ पड़ते सीने में और मैं एक मानवता के बेहद स्याह पन्ने तक पहुँच जाती हूँ। पढ़ते हुए जानती हूँ कि जो बच्चे ग़ायब कर दिए गए, उन्हें याद रखे रखने के लिए की गयी कोशिशें हैं। उनकी माएँ टाउन स्क्वेयर जाती हैं, अब भी, हर बृहस्पतिवार और अपने ग़ायब किए गए बच्चों के बारे में जानकारी माँगती हैं। अर्जेंटीना के इस ग्रूप का नाम Mothers of the Plaza de Mayo है। 

अलविदा। कैसा दुखता शब्द है। फ़िल्म के आख़िरी फ़्रेम में कुछ विडीओ रेकॉर्डिंज़ हैं जो उस समय की गयी थीं जब Ana, Lito और Isa एक समंदर किनारे गए हैं और ख़ुश हैं। प्रेम में हैं। मुझे अलविदा के कुछ लम्हे याद आते हैं।

आख़िरी बात कहता है वो मुझे, 'Au revoir' कहते हैं फ़्रेंच में। इसका मतलब होता है, फिर मिलेंगे। मैं नहीं जानती मैं उसे कब मिलूँगी फिर। दुनिया बहुत बड़ी है और तन्हाई इतनी कि दुनिया भर में बिखर जाए और पूरी ना पड़े। हम फिर कब मिलेंगे?

दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर उसे आख़िरी बार देखा था। ट्रेन के मुड़ जाने तक। उस दिन को बारह साल हुए। मैंने उसकी एक तस्वीर भी नहीं देखी है। वो कहता है मुझसे उम्र भर नहीं मिलेगा। मैं नहीं जानती ज़िंदगी कितनी लम्बी है। मैं नहीं चाहती मेरे मर जाने के बाद उसे इस बात का अफ़सोस हो कि मुझे एक बार मिल लेना चाहिए था।

सुनते हुए मैं Bella Ciao तक पहुँचती हूँ। जंग के समय एक व्यक्ति अपनी ख़ूबसूरत महबूबा को अलविदा कह रहा है, यह कहते हुए कि अगर मैं मर गया तो मुझे उस पहाड़ी पर दफ़नाना और वहाँ पर एक ख़ूबसूरत फूल उगेगा मेरी क़ब्र पर तो सब कहेंगे कि कितना ख़ूबसूरत फूल है।

सुनते हुए मैं hasta siempre तक पहुँचती हूँ। चे ग्वेरा के फ़िदेल को लिखे आख़िरी ख़त जिसमें वो कहते हैं 'Until victory, always' के जवाब में गाया गाया ये गीत अपने कमांडर को अलविदा कहता है 'until forever'. चे की मृत्यु के बाद क्यूबा की क्रांति में ये गीत बहुत महत्वपूर्ण रहा। इसे सुनते हुए अपना इंक़लाब ज़िंदाबाद याद आता है।

चीज़ों के समझने का हमारा अलगोरिदम लॉजिकल नहीं होता। यादों के साथ कहाँ कौन सा रेशा जुड़ेगा हम नहीं जानते। मेरी परवरिश एक नोर्मल मिडल क्लास परिवार में हुयी। हमारे परिवार में राजनीति के लिए जगह नहीं रही। पापा ने अपने समय में जेपी आंदोलन में हिस्सा लिया, चाचा शाखा में जाते हैं मगर ये बात अब समझ में आयी। बचपन में बस ये याद है कि चाची उनके हाफ़ पैंट पहनने पर ग़ुस्सा करती थी। मैंने कभी कार्ल मार्क्स की किताबें नहीं पढ़ीं। हाँ, मोटरसाइकल डाइअरीज़ ज़रूर पढ़ी है...लेकिन उसमें चे सिर्फ़ ख़ुद को तलाशते और समझते एक घुमक्कड़, सहृदय, युवा डॉक्टर की तरह दिखे हैं मुझे।

युद्ध से मेरी पहली मुलाक़ात महाभारत में हुयी। दूसरी, पानीपत के युद्ध में और फिर गॉन विथ द विंड पढ़ते हुए। इतिहास हमें इतने बोरिंग तरीक़े से पढ़ाया जाता है कि किसी को अच्छा नहीं लगता। अगर पढ़ाई का तरीक़ा बदल दिया जाए तो इतिहास झूठी कहानियों से बहुत ज़्यादा रोचक लगेगा। इतनी बड़ी दुनिया में इतनी सारी चीज़ें मुझे नहीं समझ आती हैं। मैं थोड़ा थोड़ा सब कुछ समझने की कोशिश करती हूँ। मेरे दिल में प्रेम के बाद की बची हुयी जगह में एक बहुत बड़ा ख़ाली मैदान है।  वहाँ अलग अलग बंजारा ख़याल डेरा डालते हैं। इन दिनों कला की प्रदर्शनी उठ गयी है और टेक्नॉलजी और युद्ध अपने खेमे डाल रहे हैं।
Screenshot from Symphony for Ana

मैं तुम्हारी अधूरी चिट्ठियाँ जला देना चाहती हूँ।
मैं तुम्हारी आवाज़ मिस करती हूँ।
और तुम्हें।

अलविदा के शब्दों को लिख रखा है। आख़िरी बार कहूँगी तुमसे। कितनी भाषाओं में गुनगुनाते हुए...अलविदा।

Hasta Siempre
Bella Ciao
Au revoir

*ये लेख तथ्यात्मक रूप से ग़लत हो सकता है। यहाँ इतिहास की घटनाएँ मेरी याद्दाश्त में घुलमिल गयी हैं, और फिर विकिपीडिया पर बहुत ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। 

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