कवि अपनी पुरानी कविताओं से विलगाना चाहता है अपनी पूर्व प्रेयसियों के देह-बिम्ब।
हँसुली से उठती है आम्र मंज़रों की तीखी गंध…एक भँवर उठता है वहाँ जिसमें डूब जाने को कवि की आत्मा तड़पती है। वो कौन सी स्त्री है जो गहरे लाल रंग की साड़ी में मिलने आती है अभिशप्त दोपहरों में। कवि रोकना चाहता है उसे चौखट पर लेकिन स्त्री है कि साड़ी का आँचल कमर में खोंस कर भन्सा की इकलौती सीढ़ी चढ़ जाती है और चूल्हे पर पानी चढ़ा देती है खौलाने को। उसने ही लगाया है आंगन में निम्बू का पेड़ कि जो स्त्री के मर्ज़ी के दिन ज़रूर खिलाता है भीनी गंध वाले फूल या कि एकदम ही पीला निम्बू। हँसुए से निम्बू की फाँकें करती स्त्री देखती है कवि को ठिठके हुए…कवि सोचता है मृत्यु इतनी सुंदर ही हो सकती है। गरमी में स्त्री के चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया है, वो आँचल कमर से निकालती है और माथे का पसीना पोंछती है। उसके बाल चेहरे पर जहाँ तहाँ चिपक गए हैं। उसका छोटा गोल चेहरा और काली आँखें सब आग की बनी लगती हैं। गहरी लाल साड़ी के बीच से उसकी एकदम गोरी कमर चौंध जाती है। कवि आँगन के कुएँ पर जाता है और एक बालटी पानी भर कर अपने सिर से ढाल लेता है। एकदम ठंढा पानी उसके सीने में जलती आग बुझाने की नाकाम कोशिश करता है।
भन्सा पर पीढ़े पर बैठी हुयी है वो। दहका हुआ उसका चेहरा। हाथों में स्टील का गिलास है। सामने एक और पीढ़ा है। बदन से पानी टपकाते आता है वो। पीढ़े पर बैठता है। औरत ठीक पीछे खड़ी होकर अपने आँचल से उसके माथे के बाल रगड़ने लगती है। उसे लगता है उसके आँचल से चिंगारियाँ छूट रही होंगी। उसका माथा जलने लगा है। वो स्टील का गिलास उठाता है, गरमी उसकी हथेलियों को झुलसाती है। उसके मन में स्त्री की चंद्रमा की तरह सफ़ेद और ठंढी पीठ को छूने का बिम्ब उभरता है। उसे लगता है अगर वो अपने हथेलियों में उसका चेहरा भरेगा तो शायद फफोले पड़ जाएँगे, उसके साँवले हाथों में कोयलों का ताप है। स्त्री के इर्द गिर्द पसीने और चंदन की गंध का दावानल है। वो उसे हाथ पकड़ कर बिठाता है सामने पीढ़े पर। उसकी पसीजी मुट्ठियों में साड़ी का भिंचा हुआ आँचल होता है। उसकी आँखों से प्यास झरती है। उसके होठों से विष। कवि उसे किसी पुरानी कविता में जा कर पुनः चूमना चाहता है। इस चाहने भर से अस्फुट शब्द बुदबुदाने लगता है। कविता बेसब्र है।
काग़ज़ छूने से शायद आग लग जाए उसमें। कवि वहीं पड़ा हुआ स्लेट उठाता है और खड़िया से लिखता है। शब्द लय में लहक रहे हैं। सुख में उसके बदन का ताप बढ़ता जाता है। आग से लिखी कविता है।
देह बिम्ब विरह की आग में जल कर भस्म हो गए हैं…प्रेमिका से एक हाथ दूर के विरह में…खड़िए के चूरे और भस्म में लिपटे हुए कवि के हृदय से आसक्ति ख़त्म हो जाती है। प्रेमिका उसका हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाती है और ख़ुद साँकल चढ़ा देती है। प्रेम अशरीरी है, कविताओं की तरह।
हँसुली से उठती है आम्र मंज़रों की तीखी गंध…एक भँवर उठता है वहाँ जिसमें डूब जाने को कवि की आत्मा तड़पती है। वो कौन सी स्त्री है जो गहरे लाल रंग की साड़ी में मिलने आती है अभिशप्त दोपहरों में। कवि रोकना चाहता है उसे चौखट पर लेकिन स्त्री है कि साड़ी का आँचल कमर में खोंस कर भन्सा की इकलौती सीढ़ी चढ़ जाती है और चूल्हे पर पानी चढ़ा देती है खौलाने को। उसने ही लगाया है आंगन में निम्बू का पेड़ कि जो स्त्री के मर्ज़ी के दिन ज़रूर खिलाता है भीनी गंध वाले फूल या कि एकदम ही पीला निम्बू। हँसुए से निम्बू की फाँकें करती स्त्री देखती है कवि को ठिठके हुए…कवि सोचता है मृत्यु इतनी सुंदर ही हो सकती है। गरमी में स्त्री के चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया है, वो आँचल कमर से निकालती है और माथे का पसीना पोंछती है। उसके बाल चेहरे पर जहाँ तहाँ चिपक गए हैं। उसका छोटा गोल चेहरा और काली आँखें सब आग की बनी लगती हैं। गहरी लाल साड़ी के बीच से उसकी एकदम गोरी कमर चौंध जाती है। कवि आँगन के कुएँ पर जाता है और एक बालटी पानी भर कर अपने सिर से ढाल लेता है। एकदम ठंढा पानी उसके सीने में जलती आग बुझाने की नाकाम कोशिश करता है।
भन्सा पर पीढ़े पर बैठी हुयी है वो। दहका हुआ उसका चेहरा। हाथों में स्टील का गिलास है। सामने एक और पीढ़ा है। बदन से पानी टपकाते आता है वो। पीढ़े पर बैठता है। औरत ठीक पीछे खड़ी होकर अपने आँचल से उसके माथे के बाल रगड़ने लगती है। उसे लगता है उसके आँचल से चिंगारियाँ छूट रही होंगी। उसका माथा जलने लगा है। वो स्टील का गिलास उठाता है, गरमी उसकी हथेलियों को झुलसाती है। उसके मन में स्त्री की चंद्रमा की तरह सफ़ेद और ठंढी पीठ को छूने का बिम्ब उभरता है। उसे लगता है अगर वो अपने हथेलियों में उसका चेहरा भरेगा तो शायद फफोले पड़ जाएँगे, उसके साँवले हाथों में कोयलों का ताप है। स्त्री के इर्द गिर्द पसीने और चंदन की गंध का दावानल है। वो उसे हाथ पकड़ कर बिठाता है सामने पीढ़े पर। उसकी पसीजी मुट्ठियों में साड़ी का भिंचा हुआ आँचल होता है। उसकी आँखों से प्यास झरती है। उसके होठों से विष। कवि उसे किसी पुरानी कविता में जा कर पुनः चूमना चाहता है। इस चाहने भर से अस्फुट शब्द बुदबुदाने लगता है। कविता बेसब्र है।
काग़ज़ छूने से शायद आग लग जाए उसमें। कवि वहीं पड़ा हुआ स्लेट उठाता है और खड़िया से लिखता है। शब्द लय में लहक रहे हैं। सुख में उसके बदन का ताप बढ़ता जाता है। आग से लिखी कविता है।
देह बिम्ब विरह की आग में जल कर भस्म हो गए हैं…प्रेमिका से एक हाथ दूर के विरह में…खड़िए के चूरे और भस्म में लिपटे हुए कवि के हृदय से आसक्ति ख़त्म हो जाती है। प्रेमिका उसका हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाती है और ख़ुद साँकल चढ़ा देती है। प्रेम अशरीरी है, कविताओं की तरह।
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