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मेरा दोस्त कहता है मुझे भुला दिया जाने का मेनिया है। मैं हँसती हूँ। जबकि मेरा फूट फूट कर रोने का जी चाहता है। भूलना मेरे लिए सर्वाइवल मेकनिज़म है। कई साल पहले माँ गुजर गयी। उसे याद करते, रोते बिलखते, ख़ुद को गुनहगार समझते, सर्वाइवर गिल्ट से जूझते रहे। अकेले…अपने देश में किसी भी मानसिक रोग का इलाज करना करवाने की बात सोचना भी भयावह है। हमें सिर्फ़ पागलखाना मालूम होता है। मैं उस वक़्त पागलखाने में भर्ती होने से डरती थी। तो मैंने उसकी सारी यादें कहीं दिल के तहख़ाने में रख दीं। उसे कभी कभार कहानियों में तलाश लेती थी। छू लेती थी। उसकी साड़ियों वाली अलमारी का पल्ला खोल कर फूट-फूट रोयी हूँ। वहाँ वे साड़ियाँ काग़ज़ में लपेट कर रखी हुयी हैं अब भी, जो मुझे शादी में मिलनी थीं। मैं उसे भूलती नहीं तो मर जाती। मैं उसे भूल गयी, तो मैं जानती हूँ भुलाया जा सकता है किसी को भी। फिर मैं तो किसी की ज़िंदगी में उस गहराई से शामिल ही नहीं होती। आसान ही होता होगा मुझे भूलना।
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लिखने के लिए थोड़ा सा ख़ुद से प्यार करना ज़रूरी है। मैं इसलिए जब लिखने जाती हूँ तो अच्छे से साड़ी पहन कर स्टारबक्स जाती हूँ। मुंबई में साड़ी पहनी थी, काले रंग की। मुझे समंदर किनारे साड़ी पहन के टहलना था। बारिश के मौसम में। रिमझिम गिरे सवाल वाली मौसमी चैटरजी की तरह। बहुत देर तक समंदर किनारे खड़ी रही, सिर्फ़ समंदर देखते हुए। सोचते, कि बॉम्बे से प्यार होना कितना आसान है। कि जहाँ समंदर हो, सुकून रहता है सीने में। मैं कुछ साल बाद बॉम्बे में बसना चाहूँगी। समंदर किनारे फोटोग्राफर थे, उन्होंने फ़ोटो खींचने के लिए पूछा तो मैंने तस्वीर खिंचा ली। सेल्फ़ी में मज़ा नहीं आ रहा था। फिर उनकी रोज़ी रोटी भी तो चलनी चाहिए। वो तस्वीर भेजी तो उनका मेसेज आया। तुम बहुत सुंदर हो। मैंने बिना इफ़-बट किए इस बात को मान लिया कि जैसे बहुत साल पहले उस बात को मान लिया था कि किसी के सिर्फ़ शब्द पढ़ कर उससे बहुत गहरा प्यार होना मुमकिन है। और कि इस तिलिस्म का दरवाजा दो तरफ़ खुलता है।
या कि दो तिलिस्मों के बीच…कि जैसे दो जिस्मों के बीच…शब्दों का एक दरवाज़ा है। इक उसका ही जादू नहीं है, मेरा भी है।
कि ये जादू कुछ देर का खेल नहीं है, तमाशा नहीं है। ये जादू वैसा है कि जैसे चाँद घटता बढ़ता है हर रात। कि जैसे गंध खींचती है कोई वक़्त में बहुत पीछे, कि जैसे आस खींचती है कोई वक़्त में बहुत आगे। कि जैसे जुलाई का महीना कि जब बिछड़े हुए छह महीने से ऊपर हो जाते हैं और दुबारा मिलने में पाँच महीने से कम का वक़्त होता है। कि मिलने का वक़्त करीब होता हुआ लगता है।
लोग जो मुझे जानते कम हैं, पर चाहते कितना सारा हैं।
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मुझे एक समय में भुला दिया जाने का बहुत डर था। अब नहीं है। एक किताब छपी है। एक ऐप पर नोवेला है। और पिछले कई सालों का लिखा जाने क्या कच्चा पक्का उपन्यास पब्लिशर के पास पड़ा है। आज न कल छप ही जाएगा। ब्लॉग पर जाने कितने सालों का लिखा हुआ है। फ़ेस्बुक पर तो इतना है कि डॉक्युमेंट नहीं कर पा रहे। कोई इफ़ बट नहीं है ज़िंदगी में। मैं चीज़ों को आसान करते गयी हूँ।
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You can forget me. It’s okay.