11 March, 2019

बौराने वाले मौसम के लिए

पता है, किसी लड़के से दोस्ती करने के लिए ज़रूरी है कि लड़का थोड़ा कम ख़ूबसूरत हो और लड़की भी थोड़ी कम प्यारी हो। कि दो ख़ूबसूरत लोग कभी आपस में दोस्त तो हो ही नहीं सकते। कि मन ही अंदर से गरियाना शुरू हो जाता है, 'धिक्कार है...डूब मरो, ऐसे लड़के से कोई दोस्ती करता है!'। ये क्या क़िस्से कहानियाँ बक रही हो... कविता सुनाओ। लेकिन समय पर कविता याद थोड़े आती है। कि ख़ूबसूरत लड़कियों के साथ भी तो प्रॉब्लम होती है... ज़िंदगी में कभी फ़्लर्ट किया हो तो जानें... मतलब, बस एक नज़र देखना भर होता था और दुनिया भर के लड़के क़दमों में बिछे मिलते थे... क़सम से, कोई बढ़ा चढ़ा के नहीं बोल रहे हैं। अब ऐसे में क्या ही जाने लड़की कि कोई लड़का अच्छा लग रहा है तो क्या कहें उससे। तारीफ़ करें? उसकी आवाज़ की, उसकी हँसी की, उसके ड्रेसिंग सेंस की? ज़्यादा डेस्प्रेट तो नहीं लगेगा? कि क्या ज़माना आ गया है, तारीफ़ करने में डर लगने लगा है। उफ़! वाक़ई उमर हो गयी है अब... ये सब सूट नहीं करता इस उमर को। ग़ालिब ने कोई शेर लिखा होगा, कि कोई लड़का अच्छा लगने लगे तो क्या कहते हैं उसे… उन्हूँ… परवीन शाकिर ने पक्का लिखा होगा। वो क्या था, “बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की, चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी”… हाँ लेकिन भरी दुपहरिया बोलने में कैसा तो लगेगा, एकदम फ़ीलिंग नहीं आएगी। उसपे लड़के ने पूछ दिया कि जमाल कौन है तो हे भगवान, क्या ही समझाऊँगी उसको! ये लड़कियाँ इतना कम क्यूँ लिखती हैं रोमांटिक.. अंग्रेज़ी में तारीफ़ करने से जी ही नहीं भरता, वरना लाना डेल रे का गाना चला देती, कुछ बातें तो समझ आ जातीं शायद। लेकिन, उफ़, वहाँ भी तो लेकिन है। अंग्रेज़ी गाना कभी भी एक बार में एकदम शब्द दर शब्द समझ भी तो नहीं आता। थोड़ा समय तो ऐक्सेंट खा ही जाता है। दिमाग़ किताबों के पन्ने पलट रहा है, कुछ तो चमकेगा ही कहीं, परवीन का शेर है, धुँधला रहा है, छूट रहा है पकड़ से। आपसे किसी लड़की ने कहा है कभी, कोई ख़ूबसूरत लड़का पास में बैठा हो तो याद में जो किताब के पन्ने पलटते हैं हम, वो कोरे होते जाते हैं? हाँ, याद आया, एकदम से माहौल पर फ़िट, ‘अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ…इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ’, उफ़, आपा ने बचा लिया। फिर वो भी तो याद आ रहा है साहिर और अमृता का प्ले, एक मुलाक़ात, मतलब शेखर सुमन कितने अदा से कहता था, ‘ये हुस्न तेरा, ये इश्क़ मेरा, रंगीन तो है बदनाम सही, मुझपर तो कई इल्ज़ाम लगे, तुझ पर भी कोई इल्ज़ाम सही’। साथ वाली फ़ोटो में ये शेर लिख के टैग कर दूँ तो क्या ही स्कैंडल होगा। वो रहने दो, अब तो वो भी याद आने लगा, ‘जब भी आता है तेरा नाम मेरे नाम के साथ, जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं’। मगर इस शेर के साथ एक पुराने दोस्त की महबूब सी याद जुड़ी हुयी है। इसे छू नहीं सकते। इश्क़ में इतनी ईमानदारी तो रखनी ही चाहिए कि पुराने प्रेमियों वाले शेर नए वाले प्रेमियों के लिए न इस्तेमाल करें। लेकिन ये इश्क़ थोड़े है, ये तो ज़रा सी हार्म्लेस फ़्लर्टिंग है। ज़रा सा नशा जैसे। हल्का वाला, मारियुआना। इसमें तो थोड़ी ब्लेंडिंग चलनी चाहिए। नए पुराने का कॉक्टेल।

इस फीके से शहर में दुनिया की सबसे अच्छी कॉफ़ी मिलती है। फ़िल्टर कॉफ़ी। एकदम कड़क, ख़ूब ही मीठी। कुछ कुछ उन नए लोगों की तरह जो पहली बार में अच्छे लगते हैं। हाँ, बहुत अच्छे नहीं। पहली बार में बहुत अच्छे लगने वाले लोगों से ऐसा ख़तरनाक क़िस्म का इश्क़ होता है कि कुछ भी भूलना पॉसिबल नहीं होता है उनके बारे में। मुझसे पूछो तो मेरे मेमरी कार्ड में यही अलाय बलाय इन्फ़र्मेशन भरा हुआ है। किसी की आँखों का रंग, किसी के कपड़ों का रंग। कहीं बजता हुआ किसी दूसरी भाषा का गीत जिसका एक शब्द भी समझ नहीं आता। कोई रैंडम सी कोरियन फ़िल्म जिसमें लड़की मुड़ कर अंतिम अलविदा कहती है, ‘सायोनारा’ और सब्टायटल्ज़ पढ़ती हुयी लड़की के दिल में एकदम से बर्छी धंसी है… उसे ये शब्द पता है। वो सुन कर जानती है कि अब वो लौट कर नहीं आएगी। पियानो की धुन है, बहुत तेज़, बहुत तीखी। जानलेवा।

वो लड़के को एक कहानी सुनाना चाहती है। इस उलझन के लिए लेकिन कहानियों में कविताएँ उतरती हैं। उसे लगता है चुप रहना बेहतर होगा। वो मुस्कुराती है किसी पुराने दोस्त को याद करके। उसे शहर घुमाने का वादा जाने कब पूरा होगा।

सुबह सुबह सोच रही है कि लो मेंट्नेन्स होना कोई इतनी अच्छी बात नहीं है, ऐसे वही लोग होते हैं जिनका कॉन्फ़िडेन्स थोड़ा कम होता है। पहले उसे ऐसा बिलकुल नहीं लगता था लेकिन अब वो सोचती है कि डिमैंडिंग होना चाहिए। कि हक़ की लड़ाई सबसे पहले पर्सनल लेवल पर होती है। आप अगर अपने अपनों से अपने हिस्से का अटेन्शन नहीं माँगेंगे तो बाहर किसी से अपना हक़ कैसे माँगेंगे। कि कोई आपको इतना टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड क्यूँ ले हमेशा। कि आपके पास लौट आने को एक रास्ता क्यूँ हो। कि पुल जलाने ज़रूरी होते हैं, इसलिए कि उन पुलों पर से चल कर जो महबूब आते हैं उनके हाथ में ख़ंजर होता है। वे आपका गला रेत कर आपको मरने के इंतज़ार में छोड़ सकते हैं… ये तो तब, जब आपके महबूब रहमदिल हुए तो, वरना तो इंतज़ार एक धीमी मौत है सो है ही।

कभी कभी लगता है, कितना नेगेटिव हो सकते है हम। अच्छे खासे प्यारे लड़के से बात शुरू होकर जलते हुए पुल और मौत तक आ गयी है। कितना मुश्किल होता है कॉफ़ी के लिए पूछना। कि बेवजह वक़्त बिताना। किसी से थोड़ा सा वक़्त माँगना। कि सब कुछ ग़दर कॉम्प्लिकेटेड है। कि हम हर छोटी सी बात के आगे पीछे हज़ार दुनियाएँ बनाते हुए चलते हैं। इन हज़ारों ख़्वाहिशों वाली हज़ारों दुनिया में कोई एक दुनिया होती है जिसमें हम किसी एक शहर में रहते हैं। अक्सर मिला करते हैं चाय कॉफ़ी पे और साथ में लिखते हैं कहानियाँ। कि हम कई बार एक दूसरे से की जाने वाली बातें किरदारों के थ्रू करते हैं। कि धीरे धीरे हम दोनों किसी कहानी के किरदार हो जाते हैं।

2 comments:

  1. वाह मज़ा आ गया । ये जो भी है, कमाल का लिखा है आपने, काश मैं भी ऐसा लिख पाता।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल को शुभकामनायें : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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