31 May, 2010

मैसेज इन अ बॉटल

बहुत सालों बाद अकेले सफ़र कर रही थी. बंगलोर से बॉम्बे, फ्लाईट तीन बजे की थी और फिर बॉम्बे जा के साढ़े सात की ट्रेन पकडनी थी नासिक के लिए. वक्त कम था फ्लाईट लैंड करने और ट्रेन के छूटने में. ऐसे में समय जितना बच सके. अधिकतर फ्लाईट थोड़ा बहुत लेट हो ही जाती है. तो मैंने सोचा कि सामान सारा हैण्ड बैगेज में ही ले लूं. ट्रोली थी तो कोई चिंता नहीं थी, घुड़काते हुए ले जा सकती थी. 

फ्लाईट बोर्ड करने के लिए सारे लोग लाइन में लग चुके थे, जब मैंने उसे पहली बार देखा. उसमें कुछ तो था जो पूरी भीड़ में वो अलग नज़र आ रहा था. ऐसा होता है कि कई लोगों के बीच आप एक चेहरे पर फोकस हो जाते हैं, और अचानक से लोगों के बीच बार बार उसपर नज़र पड़ जाती है. सांवले रंग का, लगभग ५'११ के लगभग लम्बा होगा...पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि मैं उसे पहले से जानती हूँ. कहीं देखा है पहले...एक कनेक्शन सा लगा. ये भी लगा कि वो आर्मी या एयर फ़ोर्स में रहा है. उसकी आँखों के पास चोट का निशान था, कालापन था आँखों के इर्द गिर्द. उसने शोर्ट्स डाल रखे थे और बैग्पैक लेकर कतार में खड़ा था.

मैं सोच ही रही थी कि कहाँ देखा है पर याद नहीं आया. बस में चढ़ते वक़्त उसने सनग्लास्सेस लगा लिए थे...बस आई, हम चढ़े...और फिर प्लेन पर चढ़ी. मेरी सीट आगे से दूसरे नंबर पर ही थी. मेरा बैग थोड़ा ज्यादा भारी हो गया था और कोशिश करने पर भी अपने सर के  ऊपर वाले कम्पार्टमेंट पर नहीं डाल पा रही थी मैं. मैंने गहरी सांस ली और सोचा कि एक बार चढ़ा ही दूँगी...उस वक़्त कई लोग और भी चढ़े थे फ्लाईट पर, मेरे रस्ते में खड़े होने से जाने में दिक्कत भी हो रही होगी सबको पर किसी ने एक मिनट रुक कर नहीं कहा कि मैं चढ़ा देता हूँ. और किसी से मदद माँगना शायद मेरी शान के खिलाफ होता...पता नहीं, पर किसी से मदद मांगने में मुझे बड़ी शर्म आती है. 

सोचा तो था कि फ्लाईट अटेंडेंट होते हैं, उनको कह दूँगी, पर कोई दिखा नहीं...तो सोचा खुद ही करती हूँ. जैसे ही बैग उठाया, पीछे से आवाज आई, कैन इ हेल्प यू , मैंने बिना मुड़े कहा...यॉ प्लीज और मुड़ के देखती हूँ तो देखती हूँ वही है जिसे देखा था अभी थोड़ी देर पहले. एक सुखद आश्चर्य हुआ और अच्छा लगा...मेरे थैंक यू बोलने पर उसने एकदम आराम से मुस्कुराते हुए कहा, चीयर्स :) बात छोटी सी थी, बहुत छोटी पर मुझे बहुत अच्छा लगा. 

भले लोगों से कम ही भेंट होती है, पर जब होती है बड़ा अच्छा लगता है. जैसे जाड़ों के मौसम में कॉफ़ी से गर्माहट आ जाती है, वैसे ही कुछ अच्छे लोगों से मिल कर जिंदगी खुशनुमा सी लगने लगती है. उस अजनबी और उसके जैसे और लोग जिन्होंने मेरी मदद की है, उनसे कुछ कहने के लिए मैंने एक टैग बनाने कि सोची है "message in a bottle" जानती हूँ ये लोग कभी आके मेरा ब्लॉग नहीं पढेंगे पर ये मेरा तरीका है शुक्रिया बोलने का. 

"दोस्त, मैं तुम्हें जानती नहीं, पर तुम्हारी एक छोटी सी मदद से काफी देर मुस्कुराती रही मैं...शुक्रिया". 
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इन्टरनेट पर एक साईट है जहाँ आप जाकर अजनबियों के लिए अपने मैसेज छोड़ सकते हैं, मुझे काफी अलग सी लगी ये साईट. मुझे लगा कि ऐसी किसी चीज़ की सच में जरूरत है. आप भी देख आइये, किसी को कुछ कहना है तो कह दीजिये. साईट का नाम है -ब्लॉक, आई सॉ यू देयर...एंड आई थॉट यानि मैंने तुम्हे देखा और सोचा. देख के आइये :)

26 May, 2010

ट्रैफिक जाम के बहाने कुछ फंडे

'परम शान्ति' या 'zen' अवस्था में पहुँचने के लिए सबके अलग अलग तरीके हैं. मेरा भी अपना तरीका है, इश्वर को ढूँढने का, तन मन से शांत होने का. ये और बात है कि मैंने इसकी तलाश नहीं की कभी, अपितु परम ज्ञान की तरह ये खुद मेरे सामने चल कर खड़ा हो गया.
मेरा नया ऑफिस घर से १० किलोमीटर दूर है, आना जाना बाइक से करती हूँ. बंगलोर की सडकें एकदम महीन हैं, महँगी साड़ी की कशीदाकारी जैसी, मजाल है कि एक टांका इधर से उधर हो. जाने बनाने वाले ने ऐसी सडकें बनायीं कैसे...उसपर कहीं पर भी स्पीडब्रेकर...ये दर्द वही समझ सकते हैं जो बंगलोर में रह रहे हों, इसलिए बंगलोर में कभी भी दूरी किलोमीटर में नहीं घंटे में बताई जाती है.
तो मेरा ऑफिस लगभग पैंतालिस मिनट से एक घंटे की दूरी पर है. सुबह लगभग पौने नौ में घर से निकलती हूँ और अधिकतर साढ़े नौ बजे के लगभग पहुँच जाती हूँ. ट्राफिक में चलते कुछ मुझे कुछ दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हुआ...सोचा आपको भी बताती चलूँ.
  • ट्राफिक में बाइक वाले और ऑटो वालों का कोई इमान धरम नहीं होता, ये कभी भी किसी भी दिशा में, कितनी भी तेजी से मुड़ सकते हैं. इनमें भी बाइक पर तो फिर भी थोड़ा भरोसा किया जा सकता है क्योंकि सड़क दिखती है आगे की, और थोड़ा अनुमान लगाया जा सकता है कि किस दिशा में बाइक मुड़ने वाली है. ऑटो वाला किसी इंसान को देख कर, अचानक से बायें मुड़ सकता है...या फिर कभी भी दायें कट सकता है. अब इसमें आप उसको ठोक के तो देखिये, जरा सा रगड़ खा जाने पर ऐसी ऐसी बातें सुनने को मिलेंगी कि बस(अगर उसको पता चल जाता है कि आपको कन्नड़ नहीं आती तो आपको हिंदी में भी गरिया सकता है) नानी, दादी, अम्मा, बाबूजी, सारे यार दोस्त एक साथ याद आ जायेंगे.
  • ऑटो वाला आपको कभी भी साइड नहीं देगा, चाहे कितना भी होर्न बजा लें, आपके पास गलत तरफ से ओवेर्टेक करने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. और ऐसे में जब आप ओवेर्टेक कर रहे हो, वो अचानक से बायें भी मुड़ सकता है. कहीं से रुके हुए से अचानक चल सकता है और चलते के साथ एकदम राईट लेन में आ सकता है.
  • कुछेक बाइक में रियर व्यू मिरर नहीं होते, ऐसा क्यों होता है मुझे कोई अंदाजा नहीं पर ये वो लोग होते हैं जो किसी भी लेन के नहीं होते, कुछ कुछ कॉलेज के रोमियो की तरह, किसी एक से नहीं बंध सकते. कुछ पैंतालिस डिग्री के कोण पर झुकते हुए ये हर गाड़ी को ओवेर्टेक करते हुए चलते हैं.
  • सरकारी बस अपने बस में नहीं रहती...अधिकतर सबसे राईट वाली लेन में चलती है. इसका भी कोई ठिकाना नहीं...इसके ब्रेक लाईट, इंडिकेटर वगैरह के चलने की उम्मीद होना बेमानी है...अगर चलते भी हैं तो गाड़ी के चलने से उनका कोई वास्ता नहीं होता. ये ट्राफिक जाम होने का मुख्य कारण होती है. इससे हमेशा दूर ही रहने की कोशिश करनी चाहिए.
  • टाटा सुमो/सफारी/बोलेरो/इत्यादि सवारी गाड़ियाँ, ये टैक्सी सर्विसेस होती हैं. अक्सर इतनी तेज और ऐसे चलती हैं जैसे इन्हें पहुँचने में थोड़ी देर हो गयी तो शहर कहीं भाग जाएगा. इन्हें लगातार होर्न बजाने की बीमारी है, अगर आपने साइड दे दी तो आके आगे वाले से आगे जाने के लिए बजायेंगे.
  • पैदल आदमी...ये अपनी जान हथेली पर और मोबाइल हाथ में लेकर चलता है...इनका मोबाइल अक्सर कान के आसपास पाया जाता है. ये प्राणी अक्सर वन वे रोड में दूसरी तरफ देखता हुआ चलता है, सड़क पार करते हुए भी मोबाइल कान से चिपका हुआ रहता है. ये लोग शायद 'व्हाट अन आइडिया सरजी' को बहुत सीरियसली लेते हैं...वाल्क एंड टॉक के चक्कर में किसी दिन चल बसेंगे...
  • साइकल वाले...ये या तो भले आदमी होते हैं या गरीब. ये किसी को परेशान नहीं करते, अपनी गति से चलते रहते हैं. इन्हें परेशान करने को सारा कुनबा जुटा रहता है क्या कार, क्या बाइक...सभी इनको होर्न बजा बजा के अहसास दिलाते रहते हैं कि 'सड़क तुम्हारे बाप की नहीं है, हमारे बाप की है'.
ये सब तो हैं इस ड्रामे के किरदार...कोई अगर रह गया तो कृपया याद दिलाएं.
इन सबों के साथ सुबह का सफ़र ऐसे कटता है कि क्या कहें. शुरू के एक हफ्ते जब २० मिनट के रस्ते में एक घंटा लगता था तो बड़ी कोफ़्त होती थी. पर हर रोज का ट्रैफिक देख कर बहुत कुछ ध्यान आता है.
जैसे कि 'भगवान' नाम का कुछ तो है कहीं पर...और ये सब मायाजाल उसी का फैलाया हुआ है. संसार की नश्वरता और अपना छोटापन भी ट्रैफिक को देख कर समझ आता है. मैं तो वाकई मोह माया से ऊपर उठ जाती हूँ, कि कुछ कर लो ऑफिस लेट होना ही होना है...दुनिया की कोई ताकत नहीं है जो टाइम पर ऑफिस पहुंचा दे. ट्रैफिक के महासागर में बस, कार, ट्रक, SUV, MUV, इन सबके बीच हम क्या हैं, एक तुच्छ बाइक पर बैठे छोटे इंसान...जायेंगे जब चल देगा रास्ता.

जिस दिन हमको ये अहसास हो गया कि ट्रैफिक का चलना मेरे हाथ में नहीं है, किसी बड़ी ताक़त के हाथ में है, मेरा तन मन आपस में हारमोनियम बजाने लगा...यानि कि आपस में शांति से रहने लगे दोनों. भगवान भरोसे चलना कभी कभी बड़ा आसान कर देता है चीज़ों को.

अब बंगलोर में १० किलोमीटर के रास्ते में अगर एक भी जगह रेड ट्रैफिक लाईट ना मिले तो भगवान् पर भरोसा तो हो ही जाता है. :)

21 May, 2010

कुणाल के लिए

यकीन करो मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है...कई बार तो इस बेतरह कि ऑफिस में बैठे आँखें भर आती हैं अचानक से. पर ये पिछली ऑफिस कि तरह नहीं है कि बाइक उठाये और मिलने चल दिए. ५ मिनट में तुम्हारे ऑफिस के नीचे खड़े हैं और फ़ोन कर रहे हैं, नीचे आ जाओ...तुमको देखने का मन कर रहा है.

वैसे पिछले ऑफिस से इसी तरह पिछले बार जब आये थे हम तो तुमने बहुत डांटा था, कि ऐसे बिना बताये कहीं आया जाया मत करो...चिंता होती है हमको. हम उस बार बिना कुछ बोले वापस आ गए थे, पर हम बहुत रोये थे, चुप चाप ऑफिस के बाथरूम में जाके...फिर आँख पर पानी का छींटा मारे और हमेशा की तरह हंसने और हल्ला करने लगे. क्या करें, हम ऐसे ही हैं...हंसने का दिखावा नहीं होता हमसे...सब कुछ अन्दर रख कर भी आराम से हँस लेते हैं हम.

आजकल तुमको बहुत काम रहता है, इन फैक्ट तुमको पिछले काफी दिनों से बहुत काम रहता है...सुबह, शाम रात, वीकडे वीकेंड हमेशा. पता नहीं कौन सी बात करनी है हमको तुमसे कि बात जैसे दिल के आसपास कहीं फिजिकली फंसी हुयी लगती है. बात से जैसे खून का अवरोध रुक जाता है और दिल को बहुत मेहनत करनी पड़ती है नोर्मल तरीके से चलने के लिए. आखिर शारीर के बाकी हिस्से भी तो अपने हिस्से का खून मांगते हैं.

मुझे आजकल भूख लगने पर भी खाने का मन नहीं करता दिन भर खाली आलतू फालतू बिस्किट, चोकलेट खाती रहती हूँ...क्या मैंने तुमको बताया है कि आजकल हमको डेरी मिल्क अच्छा नहीं लगता है? खाना पता नहीं क्यों हलक के नीचे नहीं उतरता मैंने शायद बहुत दिन से मन भर अच्छे से खाना नहीं खाया है. मुझे हर वक़्त दिल के आसपास एक दर्द जैसा होता रहता है...चुभता, टूटता हुआ दर्द. सांस भी ठीक से नहीं ली जाती है हमसे.

तुम बहुत देर रात को आते हो वापस और उस वक़्त मैं लगभग आधी नींद में होती हूँ, सुबह जब मैं ऑफिस के लिए आती होती हूँ तुम आधी नींद में होते हो. ये आधी आधी बंटी हुयी नींद ना सोने देती है ठीक से ना जगने देती है. मुझे पता नहीं क्यों साहिबगंज का मेरा घर याद आता है, उस घर में बहुत ऊंची छत थी या ऐसा भी हो सकता है कि ढाई साल की बच्ची के हिसाब से वो छत बहुत ऊंची हो. जब मैं वहां रहती थी तो पापा को बहुत कम देख पाती थी, पापा देर रात आते थे और सुबह सुबह चले जाते थे. मुझे उस छोटी उम्र में उस बड़े घर में पापा की बहुत याद आती थी और पापा को देखने का मन करता था.

शाम को ऑफिस से जल्दी घर आ जाती हूँ, आठ बजे से लगभग दस बजे तक कालोनी में यूँ ही टहलती रहती हूँ, घर में लाईट नहीं रहती ना अक्सर इसलिए...उस समय कुछ दोस्तों से बात भी करती हूँ फ़ोन पर, कभी घर भी बात करती हूँ...पर सच में मुझे उस समय तुमसे बात करने का बहुत मन करता है...थोड़ी सी देर के लिए भी. पर उस समय तुम्हारी कॉल होती है तो तुम एक मिनट भी मुझसे बात नहीं कर पाते हो. मुझे उस वक़्त बड़ी शिद्दत से इस बात का अफ़सोस होता है कि मैं एक लड़की हूँ...नहीं तो मैं सिगरेट पीती...वहीँ एक पनवाड़ी की दुकान भी है. पर सिगरेट पीने वाली लड़कियों को 'ईजी' समझ लेते हैं लोग. और मुझे मेरी शाम की वाक् में कोई लफड़ा नहीं चाहिए.
कहा जा सकता है कि सिगरेट पीने कि इत्ती इच्छा है तो घर में क्यों नहीं पी लेते हैं. पर नहीं, सिगरेट पीने का मन नहीं है...मन है कि अँधेरे सुनसान जैसे रास्तों पर टहलते हुए कोई गीत सुनते हुए सिगरेट पी जाए. इस इच्छा का अपने पूरेपन में वजूद है, बाकी एलिमेंट्स के बिना नहीं.

मुझे सच में पूरी जिंदगी कम लगती है तुम्हारे साथ बिताने के लिए. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ. बहुत.

18 May, 2010

सपने में नास्तिक होना संभव नहीं होता

समंदर सूरज पर कमंद फेंक कर  
आसमान पर चढ़ बैठा है 
लहर लहर बारिश हो रही है 

शहर अँधेरे पानी में डूब गया है
इसी पानी में सूरज भी घुला था 
पर उसकी रौशनी कहीं भी नहीं पहुंची है 

सारे घर लंगर डाले बैठे हैं 
किसी की नींव उठाई नहीं जा सकती अब 
थपेड़ों में अचल, शांत, अमूर्त 

मोमबत्ती की बुझने वाली लौ में 
जलाई जा रही है आखिरी सूखी सिगरेट 
जिसके कश लेकर मरना चाहता है कवि 

प्रलय के इस वक़्त भी वह नास्तिक है
इश्वर से जीतने पर गर्वोन्मत्त 
इच्छा, आशा, क्या प्रेम भी? से मुक्त 

गरजते बादल में कौंधती है बिजली 
एक क्षण. काली आँखें. रोता बच्चा 
कवि को गुजरती बारात याद आती है 

जल विप्लव सी सांझ वो काली आँखें 
सिन्दूरी सूरज सा लाल जोड़ा 
भयावह शोर नगाड़ों का, प्रलय. 

नींद टूटती है तो उसके हाथ जुड़े होते हैं 
सपने में नास्तिक होना संभव नहीं होता 
वो कल्कि अवतार का इंतज़ार करने लगता है  

11 May, 2010

विदा

ट्रेन खुल रही है स्टेशन से और आस पास का सारा मंजर धुंधला पड़ता जा रहा है. तेज रफ़्तार में धुंधला होने जैसा धुंधला, मुझे अचनक से याद आता है कि मैं तो खड़ा हूँ स्टेशन पर. दूर जाती हुयी एक खिड़की है, उसमें बैठी जिंदगी हाथ हिला कर मुझे विदा कर रही है...मैं बस देख रहा हूँ. इतना नहीं होता कि रोक लूं...गाड़ी बहुत आगे बढ़ चुकी है. जिंदगी अब गाड़ी के दरवाजे पर खड़ी है उसके दुपट्टे की महक प्लेटफोर्म को गार्डेन में तब्दील कर गयी है. निजामुद्दीन के आगे पटरी घूमती है, गाड़ी मुड़ती है वहां से. 

मुझे यहाँ से वो नहीं दिखती है पर उसकी आँखें यही रह गयी हैं उसी तरह जैसे उसका अहसास रह गया है, मेरे जिस्म, मेरी रूह में अभी भी...दिल्ली के भरे हुए प्लेटफोर्म पर किसी को पहली बार तो ट्रेन पर चढाने नहीं आया हूँ पर जिंदगी को यूँ कभी विदा भी तो नहीं किया है. उसने फ़ोन भी तो 'आखिरी वक्त' में किया था...मुझे अकेले जाने में डर लग रहा है मुझे स्टेशन पर छोड़ने आ जाओगे प्लीज...वो अब फोर्मल भी होने लगी थी. 

ट्रेन पर चढ़ कर हर एक मिनट में उसने फ़ोन किया था...कहाँ पहुंचे...अभी तक नहीं पहुंचे...किधर से आ रहे हो...दिल्ली के उस भरे प्लेटफोर्म में दुनिया की भीड़ को परे हटाते पहुंचना कुछ आग का दरिया पार करना ही जैसा था, दौड़ता हांफता मैं पहुंचा था साँस फूल रही थी...वो एक हाथ से बोगी का दरवाजा पकड़ के झाँक रही थी, बेचैनी अजीब सी थी उसके चेहरे पर उस दिन. सांस काबू में भी नहीं आई कि वो दौड़ के गले लग गयी, जैसे कहीं नहीं जायेगी जैसे मैं रुकने को कहूँगा तो बिना जिरह किये लौट आएगी. उसका मेरी बाहों में होना ऐसा था जैसे एक लम्हे में मेरी जिंदगी समा गयी हो...दिल्ली के उस भरे प्लेटफोर्म पर हो सकता है लोग देख रहे होंगे, हँस रहे होंगे...उसने कहा नहीं पर कहा कि मुझे लौटा लो...कि मैं नहीं जाना चाहती, कि एक बार कहो तो. 

ट्रेन ने आखिरी हिचकी ली सिग्नल हो गया...सब कुछ रफ़्तार पकड़ रहा था...धुंधला होता जा रहा था. उसे मुझे बहुत कुछ कहना था पर उसने कुछ नहीं कहा, उसकी आँखों में इतना पानी था कि कुछ दिखाई नहीं पड़ा...खट खट करती ट्रेन का शोर उसकी हंसी, उसके आँसू सब आपस में मिला दे रहा था. यमुना ब्रिज पर जाती ट्रेन...पल पल दूर जाती हुयी जिंदगी...

वो आखिरी ट्रेन थी या नहीं पता नहीं...पर प्लेटफोर्म एकदम खाली हो गया था. एकदम. मेरे जैसा. 

09 May, 2010

मिस यू माँ

दर्द में डूबे डूबे से कुछ लम्हे हैं. अख़बारों पर बिखरी पड़ी मदर्स डे की अनगिन बधाईयाँ हैं...मुस्कुराती हुयी माँ बेटी की तसवीरें देख रही हूँ सुबह से. एक उम्र के बाद हर बेटी अपनी माँ का अक्स हो जाती है. मैंने भी पहले कभी नोटिस नहीं किया था, घर पर सब हमेशा कहते थे की मेरी शकल एकदम पापा जैसी है.

गुजरते वक़्त के साथ आज जब मम्मी मेरे साथ नहीं है, मैं देखती हूँ की वाकई मैं धीरे धीरे अपनी मम्मी का चेहरा होती जा रही हूँ. किन्ही तस्वीरों में, या कभी आईने में खुद को देखती हूँ तो मम्मी दिख जाती है. कभी हंसती हूँ तो लगता है मम्मी भी ऐसे ही हंसती थी. कभी अपनी बातों में अचानक से उसके ख्यालों को पाती हूँ. जा कर भी मम्मी कहीं नहीं गयी है, वो मेरे जैसी थी मैं उसके जैसी हूँ.

मेरी मम्मी मेरी बेस्ट फ्रेंड थी, एक ऐसी दोस्त जिससे बहुत झगडे होते थे मेरे...पर उससे बात किये बिना मेरा दिन कभी पूरा नहीं होता था. कॉलेज से आती थी तो मम्मी से बात करने की इतनी हड़बड़ी रहती थी की खाना नहीं खाना चाहती थी, जब तक उसको दिन भर की कमेंट्री नहीं दे दूं खाना नहीं खाती, ऐसे में मम्मी मेरे पीछे पीछे प्लेट ले के घूमती रहती थी और कौर कौर खिलाती रहती थी. दिल्ली आके भी मम्मी कभी बहुत दिन दूर नहीं रही मुझसे, हर कुछ दिन में अकेले ट्रेन का टिकट कटा के मिलने चली आती थी. और जब वो नहीं रहती थी तो फ़ोन पर दिन भर की कहानी सुना देती थी उसको.

मुझे अपनी मम्मी के जैसा कुछ नहीं आता, ना वैसा खाना बनाना, ना वैसे स्टाइल से बाल बांधना, ना वैसे सिलाई, कढाई, बुनाई...ना बातें...ना उसके जैसा परिवार को एक जैसा समेट के रखना. मैं अपनी मम्मी की परछाई भी नहीं हो पायी हूँ. और सोचती हूँ की अब वो नहीं है हमको सब सिखाने के लिए तो और दुःख होता है. ऐसा कितना कुछ था जो खाली उसको आता था, मैंने किसी और को नहीं देखा करते हुए. उसकी खुद की खोज...वो सब मैं कैसे सीखूं. मैं मम्मी जैसी समझदार और intelligent कैसे हो जाऊं समझ नहीं आता.

किसी भी समस्या में फंसने पर मम्मी के पास हमेशा कोई ना कोई उपाय रहता था, उसकी बातों से कितनी राहत मिलती थी. कभी ये नहीं लगा की अकेले हैं हम. अब जब वो नहीं है तो समझ नहीं आता है की किस्से पूछूं की जिंदगी अगर अजीब लगती है तो ये वाकई ऐसी है या सिर्फ मेरे साथ ऐसा होता है.

जिंदगी में कितनी भी independent हो जाऊं, सब कुछ खुद से कर लूं, महानगर में अकेले जी लूं पर मम्मी तुम्हारी जरूरत कभी ख़तम नहीं होगी. तुम्हारे बिना जीना आज भी उतना ही मुश्किल और तकलीफदेह है.
तुम बहुत याद आती हो मम्मी.

06 May, 2010

कन्फ्यूज्ड सूरज







सूरज बादलों में उलझ के
घर जाने का रास्ता भूल गया है
कंफ्यूज्ड सा सोच रहा है
पश्चिम किधर है

जिस पेड़ से पूछता है
हड़का देता है, जम्हाई लेते हुए
सोने का टाइम हो रहा है
ऊंघ रहे हैं सारे पेड़

रात छुप के खड़ी है
क्षितिज की ओट में
सूरज के कल्टी होते ही
दादागिरी करने आ जायेगी

शाम लम्बी खिंच गयी है 
पंछी ओवरटाइम के कारण
भुनभुनाते लौट रहे हैं
ट्रैफिक बढ़ गया है आसमान का

चाँद बहुत देर से
आउट ऑफ़ फोकस था
सीन में एंट्री मारा
फुसफुसा के सिग्नल दिया

डाइरेक्शन मिलते ही
सूरज सर पे पैर रख के भागा
अगली सुबह हाँफते आएगा
बदमाश पेड़ को बिफोर टाइम जगाना जो है. 

05 May, 2010

जिंदगी...रिपीट...जिंदगी

बस आज मेरी बातें ख़तम हो गयीं. मैंने सारी कहानियां सुना दी तुमको, हर कविता लिख डाली. जिंदगी की हर याद का पोस्टमार्टम कर डाला. अब कुछ नहीं बचा है कहने को.

और जिंदगी तू ऐसे तंग करना बंद कर, ये तेरी हर वक़्त की खिट खिट से परेशान हो गयी हूँ मैं. अकेला छोड़ दो मुझे...मुझे किसी की बात नहीं सुननी, कोई किताब नहीं पढनी, कोई फिल्म नहीं देखनी...कुछ समझ नहीं आता है मुझे. और इस ना समझने से सर में दर्द हो रहा है और बहुत झुंझलाहट भी हो रही है.
कहीं, कुछ तो नया हो...कोई रंग, कोई पर्दा कोई रास्ता, कोई मौसम. वही सूरज रोज जिदियते धकियाते डुबा देती हूँ की जाओ, बला टली...जिंदगी का एक दिन और कटा.

एक ही दिन में अचानक कभी जिंदगी बहुत लम्बी लगती है तो कभी बहुत छोटी लगती है. किसी भी केस में हड़बड़ी उतनी ही रहती है इस जिंदगी से निकलने की. आध्यात्म मेरे पल्ले कभी नहीं पड़ा, ये उस दुनिया की बातें अधिकतर समझ नहीं आती. मैं अपनेआप को बेहद अकेला और परेशान महसूस करती हूँ. घर लौटते हुए भीगी हुयी बाइक के स्पीड मीटर पर अटका गुलमोहर के फूल की पंखुड़ी सा...अकेला, बेमकसद.

बेसिकली मैं अपनी जड़ें तलाश रही हूँ. हर इंसान का एक घर होता है...ये घर ईट, पत्थर दीवारों से बना हो जरूरी नहीं...कभी कभी किसी की बाहों से भी बना होता है...कभी किसी की आँखों में भी बना होता है. पर एक घर होता है...और इस घर का फिजिकली होना बहुत जरूरी है. ये घर हमारी सोच में या कल्पना में नहीं हो सकता. इस घर में जाने की ख्वाहिश है तो है, उस समय इस घर को वहां होना चाहिए...कैसे होना चाहिए, या होना प्रक्टिकल नहीं है ये सारी बातें मुझे समझ नहीं आती.

आजकल मैं अक्सर थकी और बीमार रहती हूँ.और मुझे ना थकी रहने की आदत है ना बीमार रहने की. मुझे मेरे सवालों के जवाब भी नहीं आते. एक क्वेस्चन पेपर है जिंदगी और मुझे फेल होना है ऐसा एक्साम के बाद लग रहा है. मैंने ऐसा कोई एक्जाम नहीं दिया जिसमें फेल हो गयी हूँ, या फेल होने का डर लगा हो. सबसे परेशानी की बात ये है की मुझे पता भी नहीं है की सवालों के सही जवाब क्या हैं तो मैं अपना स्कोर भी नहीं कैलकुलेट कर पा रही हूँ. अगली जिंदगी की प्रेपरेशन के लिए जाने कितनी देर हो गयी है. क्या लाइफ का भी री-एक्जाम होता है?


जीना बड़ा मुश्किल है यार...जाने लोग कैसे पूरी जिंदगी जी जाते हैं, हमको तो पहाड़ लगती है बची हुयी जिंदगी. बैठे ठाले, चले जा रहे हैं चले जा रहे हैं. थक गए उफ्फ्फ...

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