26 July, 2017

कैसे तो दिन। कैसे तो लोग।

कुछ किताबें आपको दिन भर पढ़ती रहती हैं, चुपचाप। ये किताब कोई बहुत अच्छी नहीं है। इसमें चमत्कृत करते बिम्ब नहीं हैं। अद्भुत घटनाएँ भी नहीं हैं। कोई ऐसा किरदार नहीं कि जो आपने कहीं देखा ना हो। 

अपनी सादगी में कितने ख़ूबसूरत और उतने ही छोटे और मासूम लमहों को बेतरतीब रख देने वाली किताब है। कोई एक किताब कैसे कितने सारे लोगों का सच हो जाती है, उनके सपने हो जाती है इसे पढ़ कर पता चलता है। ये सब बिना गर्वोनमत्त हुए, विनम्रता से। ये तो मेरा फ़र्ज़ है जैसी कोई चीज़ को जीते हुए। 

कितना सहज है सब कुछ। कितना मार्मिक। कितना गहरे अंदर दुखता हुआ। या कि अंदर ख़ुद से दुःख रहा है, ये किताब सिर्फ़ उस ज़ख़्म पर ऊँगली रख पा रही है कि ख़ालीपन कहाँ तकलीफ़ दे रहा है। 

इसे पढ़ते हुए मन तरल हुआ जाता है। नदी। समंदर। 

हम किताबों को नहीं चुनते, किताबें हमें चुनती हैं। ज़िंदगी के अलग अलग मोड़ों पर वे हमारा हाथ थामे चलती हैं। सहारा देते हुए। साथ देते हुए। राह दिखाते हुए भी तो कभी कभी। टुकड़ों टुकड़ों में याद होती गयी है ये किताब। लड़कपन की दहलीज़ पर किया गया पहला प्यार और छूटा हुआ पहला अधूरा चुम्बन जैसे। 

मुझे वे रिश्ते बहुत पसंद आते हैं जो प्रेम से इतर होते हैं। प्रेम चीज़ों को एकरंग कर देता है। सबसे ज़्यादा इंटेंस भी। 

पेज नम्बर ८० पर एक छोटा सा वाक्य लिखा है। पिछले पेज पर एक गाइड और उसकी विदेशी पर्यटक डान्स कर रहे हैं। मगर यूँ ही, मन किया तो। उन्होंने पूरे कपड़े पहन रखे हैं, भारी ओवरकोट और मफ़लर भी। कुछ ऐसा ही लेखक कहता है कि हमें ऐसे कोई नाचते हुए देखता तो पागल ही समझता। लेकिन कोई है नहीं। 
***
वह विस्मय मेरे लिए भी नया था। पूरे दिन कुछ नहीं हुआ था जिसे हम 'घटना' कह सकें। वह महज़ समय था - अपने में ख़ाली और घटनाहीन - लेकिन एक बिंदु पर आकर वह ख़ुद-ब-ख़ुद एक 'होने के सुख' में बदल गया था। हम धीमी गति से घूम रहे थे और हमारे साथ एक-एक चीज़ घूम रही थी - अंधेरे पर सरकते हुए सिनेमा -स्लाइड्स की मानिंद - टापू पर नीला झुरमुट, पवेलियन की छत, पुल पर जलते लैम्पपोस्ट...वे अलग थे, अपने में तटस्थ। सिर्फ़ एक चीज़ उनमें तटस्थ नहीं थी - वह अदृश्य थी और हमसे बँधी हुयी...एक वॉल्स ट्यून। 
- वे दिन, निर्मल वर्मा
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न्यूयॉर्क में मेरा एक ही दोस्त है। पहले कभी इस शहर के प्रति कोई लगाव नहीं रहा लेकिन अब जैसे जानने लगी हूँ उस शहर को थोड़ा थोड़ा। कुछ शहर ज़िंदा हो जाते हैं, उनमें रहने वाले किसी एक के होने से।
मैं पिछले दो साल से देख रही हूँ अपने कुछ दोस्तों को कि पुस्तक मेले में 'धुंध से उठती धुन' ज़रूर तलाशते हैं। मुझे निर्मल कभी पसंद नहीं आए। इस साल जनवरी में अंतिम अरण्य पढ़ा और डूब गयी। पिछले कुछ दिनों में निर्मल की लगभग सारी किताबें ख़रीद ली हैं amazon से। 
गूगल कमाल है। दिखा देता है कि न्यू यॉर्क की लाइब्रेरी में धुंध से उठती धुन रखी हुयी है। मैं  उससे कहती हूँ, अच्छा एक बात बताओ, लाइब्रेरी से अगर एक किताब ग़ायब हो जाए तो क्या होगा। वो कहता है, क्या ही होगा, कुछ नहीं होगा। हम अजेंडा सेट करते हैं कि न्यू यॉर्क आएँगे और वहाँ की लाइब्रेरी से धुंध से उठती धुन चुराएँगे। फिर उसको पूछते हैं, तुम मेरे पार्ट्नर इन क्राइम बनोगे? वो हँसता है, और कहता है, 'Deal'। इस तरह से हम लोग डील इज डन करते हैं।
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कुछ किताबें सिर्फ़ किताबें नहीं होतीं। ज़िंदा लोगों की तरह घुल मिल जाती हैं पूरे दिन में। आधी रात में और कितनी बात में भी तो। कब से धुंध से उठती धुन के लिए परेशान हो रही हूँ। बहुत मुश्किल से एक ऑनलाइन कापी मिली है। लेकिन ज़िद है कि पढ़ने को तो हाथ में भी चाहिए। स्टूडेंट एरिया में कोई प्रिंटर खोजना होगा। बाइंडिंग की दुकान खोजनी होगी। 

फिर किसी ने कहा है कि वो भेज देगा पढ़ने के बाद। मैं इंतज़ार कर रही हूँ कि उसके पढ़ने के बाद आए मेरे हाथ कभी। मैं चीज़ों को लेकर बहुत इमपेशेंट हो जाती हूँ। अब Newyork जाने का सिर्फ़ इसलिए हड़बड़ी है कि ये किताब हार्ड कापी में देखनी है। चुरानी है। 

एक किताब के क़िस्से सिर्फ़ उसके अंदर छपे नहीं होते। उसके इर्द गिर्द साँस लेते हुए भी होते हैं। 
नज़र चाहिए बस। 

5 comments:

  1. बहुत सही कहा,महसूस करने वाला हो तो किस्से सास लेते हुये भी महसूस होंगे, शुभकामनाएं.
    रामराम
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-7-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2679 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 18वां कारगिल विजय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  4. @एक किताब के क़िस्से सिर्फ़ उसके अंदर छपे नहीं होते। उसके इर्द गिर्द साँस लेते हुए भी होते हैं.........शायद वे ही अक्षरों का रूप ले लेते हों !

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