02 November, 2018

काँच की चूड़ियाँ

मेरी हार्ड डिस्क में अजीब चीज़ें स्टोर रहती हैं। अवचेतन मन कैसी चीज़ों को अंडर्लायन कर के याद रखता है मुझे मालूम नहीं। 

मुझे बचपन से ही काँच की चूड़ियों का बहुत शौक़ था। उनकी आवाज़, उनके रंग। मम्मी के साथ बाज़ार जा के चूड़ियाँ ख़रीदना। कूट के डब्बे में लगभग पारदर्शी सफ़ेद पतले काग़ज़ में लपेटी चूड़ियाँ हुआ करती थीं। जब पटना आए तो वहाँ एक चूड़ी वाला आता था। उसके पास एक लम्बा सा फ़्रेम होता था जिसमें कई रंग की चूड़ियाँ होती थीं। प्लेन काँच की चूड़ियाँ। वे रंग मुझे अब भी याद हैं। नीला, आसमानी, हल्दी पीला, लेमन येलो, गहरा हरा, सुगरपंखी हरा, टस लाल, कत्थई, जामुनी, काला, सफ़ेद, पारदर्शी, गुलाबी, काई हरा, फ़ीरोज़ीलड़कियों को भर हाथ चूड़ी पहनना मना था तो सिर्फ़ एक दर्जन चूड़ियाँ मिलती थीं, दोनों हाथों में छह छह पहनने को। मेरे चूड़ी पहनने के शौक़ को देख कर मम्मी अक्सर कहती थी, बहुत शौक़ है चूड़ी पहनने का, शादी करा देते हैं। पहनते रहना भर भर हाथ चूड़ी। 

मम्मी रही नहीं। शादी के बाद बहुत कम पहनीं मैंने भर भर हाथ चूड़ियाँ। लेकिन चूड़ी ख़रीदने का शौक़ हमेशा रहा। उसमें भी प्लेन काँच की चूड़ियाँ। पटना का वो चूड़ीवाला मुझे अब भी याद आता है। उस समय हाथ कितने नरम हुआ करते थे। दो-दो की चूड़ियाँ आती थीं। प्लेन जॉर्जेट के सलवार कुर्ते पहनती थी और बेपरवाही से लिया हुआ दुपट्टा। हाँ, चूड़ियाँ एकदम मैच होती थीं कपड़े से और नेल पोलिश। माँ के जाने के साथ मेरा लड़कीपना भी चला गया बहुत हद तक। मैं सँवरती इसलिए थी कि मम्मी आए और पूछे, इतनी सुंदर लग रही हो, काजल लगाई हो कि नहीं। नज़रा देगा सब। 

आजकल साड़ी पहनती हूँ, लेकिन चूड़ी नहीं पहनती। चूड़ियों की खनक डिस्टर्ब करती है। मैं जिन शांत जगहों पर जाती हूँ, वहाँ खनखन बजती चूड़ियाँ अजीब लगती हैं। मीटिंग में, कॉफ़ी शॉप में, लोगों से मिलनेऐसा लगता है कि चूड़ियाँ पहनीं तो सारा ध्यान उनकी आवाज़ में ही चला जाएगा। 

मुझे काँच बहुत पसंद है। शायद इसके टूटने की फ़ितरत की वजह सेकुछ इसकी ख़ूबसूरती से और कुछ इसके पारदर्शी होने के कारणफिर काँच का तापमान थोड़ा सा फ़रेब रचता है कि गरम कॉफ़ी पीने में मुँह नहीं जलता। हैंडब्लोन काँच के बर्तन, शोपीस वग़ैरह के बनाने की प्रक्रिया भी मुझे बहुत आकर्षित करती है और मैं इनके ख़ूब विडीओ देखती हूँ। भट्ठी में धिपा के लाल किया हुआ काँच का गोला और उसे तेज़ी से आकार देते कलाकार के ग्लव्ज़ वाले हाथ। 

आज मैसूर क़िले के सामने एक बूढ़े बाबा चूड़ियाँ बेच रहे थे। मेटल की चूड़ियाँ थीं। नॉर्मली मैं नहीं ख़रीदती, लेकिन आज ख़रीद लीं। पाँच सौ रुपए की थींख़रीदी तो पहन भी ली, सारी की सारी दाएँ हाथ में। मेटल चूड़ियों की आवाज़ उतनी मोहक नहीं होती जितनी काँच की चूड़ियों की। मुझे चूड़ियाँ और कलाई में उनकी ठंडक याद आती रही। गोरी कलाइयों में कांट्रैस्ट देता काँच की चूड़ियों का गहरा रंग। लड़कपन। भर हाथ चूड़ी पहनने की इच्छा। 

यूँ ही सोचा कि देश में काँच की चूड़ियाँ कहाँ बनती हैं और अचरज हुआ कि मुझे मालूम था शहर का नाम - फ़िरोज़ाबाद। क्या फ़ीरोज़ी रंग वहीं से आया है? मुझे क्यूँ याद है ये नाम? कि बचपन से चूड़ियों के डिब्बे पर पढ़ती आयी हूँ, इसलिए? कि कभी खोज के फ़िरोज़ाबाद के बारे में पढ़ा हो, सो याद नहीं। गूगल किया तो देखती हूँ कि याद सही है। हिंदुस्तान में काँच की चूड़ियाँ फ़िरोज़ाबाद में बनती हैं। 


ख़्वाहिशों की फेरहिस्त में ऐसे ही शहर होने थे। मैं किसी को क्या समझाऊँ कि मैं फ़िरोज़ाबाद क्यूँ जाना चाहती हूँ। कि मैं वहाँ जा कर सिर्फ़ बहुत बहुत से रंगों की प्लेन काँच की चूड़ियाँ ख़रीदना चाहती हूँ। कि मेरे शहर बैंगलोर में जो चूड़ियाँ मिलती हैं उनमें वैसे रंग नहीं मिलते। ना चूड़ी बेचने वालों में वैसा उत्साह कि सिर्फ़ एक दर्जन चूड़ियाँ बेच कर ख़ुश हो गए। एक दर्जन चूड़ी अब बीस रुपए में आती है। बीस रुपए का मोल ही क्या रह गया है अब। 

मैं कल्पना में फ़िरोज़ाबाद को देखती हूँ। कई सारी चूड़ियों की दुकानों को। मैं लड़कपन के पक्के, गहरे रंगों वाले सलवार कुर्ते पहनती हूँ मगर सूतीदुपट्टा सम्हाल के रखती हूँ माथे पर, धूप लग रही है आँखों मेंऔर मैं भटकती हूँ चूड़ियाँ ख़रीदने के लिए। कई कई रंगों की सादे काँच की चूड़ियाँ। 

मैं लौटती हूँ शहर फ़िरोज़ाबाद सेलकड़ी के बक्से में चूड़ियाँ और एकदम ही भरा भरा, कभी भी टूट सकने वाला, काँच दिल लेकर। 

25 October, 2018

सितम



फ़िल्म ब्लैक ऐंड वाइट है लेकिन मैं जानती हूँ कि उसने सफ़ेद ही साड़ी पहनी होगी। एकदम फीकी, बेरंग। अलविदा के जैसी। जिसमें किसी को आख़िरी बार देखो तो कोई भी रंग याद ना रह पाए। भूलना आसान हो सफ़ेद को। दरवाज़े पर खड़े हैं और उनके हाथ में दो तिहायी पी जा चुकी सिगरेट है। मैं सोचती हूँ, कब जलायी होगी सिगरेट। क्या वे देर तक दरवाज़े पर खड़े सिगरेट पी रहे होंगे, सोचते हुए कि भीतर जाएँ या ना जाएँ। घर को देखते हुए उनके चेहरे पर कौतुहल है, प्रेम है, प्यास है। वे सब कुछ सहेज लेना चाहते हैं एक अंतिम विदा में। 

मिस्टर सिन्हा थोड़ा अटक कर पूछते हैं। 'तुम। तुम जा रही हो?'। वे जानते हैं कि वो जा रही है, फिर भी पूछते हैं। वे इसका जवाब ना में सुनना चाहते हैं, जानते हुए भी कि ऐसा नहीं होगा। ख़ुद को यक़ीन दिलाने की ख़ातिर। भूलने का पहला स्टेप है, ऐक्सेप्टन्स... मान लेना कि कोई जा चुका है। 

मेरा दिल टूटता है। मुझे हमेशा ऐसी स्त्रियाँ क्यूँ पसंद आती हैं जिन्होंने अपने अधिकार से ज़्यादा कभी नहीं माँगा। जिन्होंने हमेशा सिर्फ़ अपने हिस्से का प्रेम किया। एक अजीब सा इकतरफ़ा प्रेम जिसमें इज़्ज़त है, समझदारी है, दुनियादारी है और कोई भी उलाहना नहीं है। उसके कमरे में एक तस्वीर है, इकलौता साक्ष्य उस चुप्पे प्रेम का... अनकहे... अनाधिकार... वो तस्वीर छुपाना चाहती है। 

बार बार वो सीन क्यूँ याद आता है हमको जब गुरुदत्त वहीदा से शिकायती लहजे में कहते हैं, 'दो लोग एक दूसरे को इतनी अच्छी तरह से क्यूँ समझने लगते हैं? क्यूँ?'। 

इंस्ट्रुमेंटल बजता है। 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम'। यही थीम संगीत है फ़िल्म में हीरोईन का। मुझे याद आता है मैंने तुमसे एक दिन पूछा था, 'कौन सा गाना सुन रहे हो?', तुमने इसी गाने का नाम लिया था... और हम पागल की तरह पूछ बैठे थे, कौन सा दुःख है, किसने दिया हसीं सितम तुम्हें। तुम उस दिन विदा कह रहे थे, कई साल पहले। लेकिन मैं कहाँ समझ पायी। 

जिस लम्हे सुख था, उस दिन भी मालूम था कि ज़िंदगी का हिसाब बहुत गड़बड़ है। लम्हे भर के सुख के बदले सालों का दुःख लिखती है। कि ऐसे ही दुःख को सितम कहते हैं। फिर हम भी तो हिसाब के इतने ही कच्चे हैं कि अब भी ज़िंदगी पूछेगी तो कह देंगे कि ठीक है, लिखो लम्हे भर का ही सही, सुख। 

तकलीफ़ है कि घटने की जगह हर बार बढ़ती ही जाती है। पिछली बार का सीखा कुछ काम नहीं आता। बस, कुछ चीज़ें हैं जो जिलाए रखती हैं। संगीत। चुप्पी। सफ़र। 

इन दिनों जल्दी सो जाती हूँ, लेकिन मालूम आज क्यूँ जागी हूँ अब तक? मुझे सोने से डर लग रहा है। कल सुबह उठूँगी और पाऊँगी कि दिल तुम्हें थोड़ा और भूल गया है। फ़ोन पड़ा रहेगा साइलेंट पर कहीं और मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। कि मैं अपने लिखे में भी तुम्हारा अक्स मिटा सकूँगी। कि मैं तुम्हें सोशल मीडिया पर स्टॉक नहीं करूँगी। तुम्हारे हर स्टेटस, फ़ोटो, लाइक से तुम्हारी ज़िंदगी की थाह पाने की कोशिश नहीं करूँगी। कि तुमसे जुड़ा मोह का बंधन थोड़ा और कमज़ोर पड़ेगा। दिन ब दिन। रात ब रात। 
अनुभव कहता है तुम्हें मेरी याद आ रही होती होगी। दिल कहता है, 'चल खुसरो घर अपने, रैन भए चहुं देस'। अपने एकांत में लौट चल। जीवन का अंतिम सत्य वही है।
आँख भर आती है। उँगलियाँ थरथराती हैं। कैसे लिखूँ तुम्हें। किस हक़ से। 
प्यार।

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