22 October, 2018

कहानी के हिस्से का प्यार

दो तरह की दुनिया है। एक तो वो, जो सच में हैऔर एक वो जो हमारे मन में बनी हुयी होती है। एक बाहरी और एक भीतरी दुनिया। पहले मैं सिर्फ़ बाहरी दुनिया की सच्चाई पर यक़ीन करती थी। मेरे लिए सच ऐंद्रिक था। आँखों देखा, कानों सुना, जीभ से चखा हुआ स्वाद, हाथ से छुआ हुआ शहर, लोगइन सबको मैं सच मानती थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में मैंने पाया कि मेरे मन की जो दुनिया है, वो भी उतनी ही सच है। मैंने जो सोचा, जो मैंने जियादुनिया के नियमों से इतरवो भी उतना ही सच है। कि मेरे मन में जो दुनिया बनी हुयी है, तर्क और समझ से परे, वो भी सच है। 

तुमसे कई दिनों से बात नहीं हुयी है। महीनों से। तुमने त्योहार पर मेरे लिए थोड़ा वक़्त नहीं रखा। तुमने मेरी तबियत का हाल नहीं पूछा। तुमने अपने शहर की शाम के रंग नहीं भेजे। लेकिन मन को ऐसा लगता है कि तुम्हारे जीवन में, तुम्हारे मन में मेरी जो जगह हैवो अब भी है। मुझे वहाँ से निष्कासित नहीं किया गया है। ऐसा भी तो लगे कभीकि बस, अब तुम्हारे मन में हमारे लिए कुछ नहीं है। क्योंकि ऐसा होता है तो महसूस होने लगता है। कल ऐसा लगा कि तुम मेरे बारे में भी पूरी तरह निश्चिन्त हो। कि किसी रोज़ बस लौट कर आओगे और कहोगे, इस वजह से फ़ोन नहीं कर पाया, या कि जुड़ा नहीं रह पाया, और हम बस, कहेंगे ठीक है। कोई उलाहना नहीं देंगे। समझ जाएँगे। सवाल नहीं करेंगे। 

अजीब चीज़ों में तुम्हारी याद आती है। महामृत्युंजय मंत्र पढ़ते हुए लगता है कि जैसे मृत्यु से विलग होने की इच्छा की गयी हैहम प्रेम में वैसा ही कोई विलगना माँगते हैं। कि जैसे ककड़ी वक़्त आने पर ख़ुद ही टूट कर अलग हो जाती है, उसे दुःख नहीं होता। वैसे ही मैं तुमसे टूट कर विलग जाऊँ। कभी। एकदम स्वाभाविक हो ये। मुझे दुखे ना, कुछ आधा अधूरा टूटा हुआ मेरे अंदर ना रह जाए तुम्हारे इंतज़ार में। 

तुम पता नहीं कहाँ हो। कैसे हो। ख़ुश होगे, इतना यक़ीन है। बस, साथ चलते चलते ऐसा कैसे हो गया कि तुम्हारी ज़िंदगी में मेरी ज़रा सी भी जगह नहीं बची, मालूम नहीं। इन दिनों मैं ठीक हूँ। मेरा मन शांत है। मैं एक लम्बे दर्द और दुःख की लड़ाई से उबरी हूँ। कभी कभी मेरा मन तुम्हारी हँसी सुनने को हो आता है। लेकिन प्रारब्ध में लिखा है कि मुझे ऐसा दुःख भोगना है। तो बिना शिकायत इसके साथ रहने की कोशिश कर रही हूँ। ऐसा पहले भी हुआ है कि किसी की सिर्फ़ एक ज़रा सी आवाज़ चाही थी मगर वो इतना रूखा था कि उसे मेरी फ़िक्र नहीं थी। या उसे अहसास नहीं था कि मेरी ज़रूरत कितनी बेदर्दी से मुझे तोड़ रही हैतोड़ सकती है। मुझे आवाज़ों की आदत और ज़रूरत है। ज़िंदा आवाज़ों की। मैं इन दिनों पाड्कैस्ट सुनती हूँ। कभी कभी रेडीओ भी। 

कभी कभी लगता है, मैं मायका तलाशते रहती हूँ। अनजान शहरों में, लोगों में। यहाँ तक की पेंटिंग्स में भी तो। तुम देख सकते हो पौलक की पेंटिंग को जब जी चाहे... मैं उन रंगों को बस आँख में सहेज के रख सकती हूँ। वैन गो की स्टारी नाइट देखने जाओगे कभी, किसी के साथ तो सही... मैं थी तो वहाँ, सोचती कि कैसे पूरी दुनिया घूमती सी दिखती है। कैसे रात सिर्फ़ दिखती नहीं, दुखती होगी वैन गो को। कि क्या है इन रंगों में कि मन भर आया है। 

पापा आए हैं आजकल। मैं कहती हूँ पापा से... ज़िंदगी में थोड़े और लोग होने चाहिए थे। इतना प्यार किसके हिस्से में लिखें। कि शहर इतना अकेला कैसे हो सकता है। कि हम ही अपने मन के कपाट बंद कर लिए हैं और कह रहे हैं कि लोग नहीं हैं जीवन में। 

मन की दुनिया का सच ये है कि अगर निर्दोष प्रेम हो सकता है, निष्कलुष - तो वैसा प्रेम है तुमसे, बिना किसी चाह केतुमसे किसी और जन्म का रिश्ता है। आत्मा का। मन का। बाहर की दुनिया का सच ये है कि तुम्हें मिस करती हूँ बेतरह। कभी मन किया तो तुम्हें एक तस्वीर भेज देने भरपसंद के किसी गीत की रिकॉर्डिंग भेज देने भरया कि जैसी सुबह आज हुयी है..धूप की सुनहली गर्माहट भेज देने भर। तुम्हारे हिस्से की चिट्ठियाँ अधूरी रखी हुयी हैं। तुम्हारे लिए ख़रीदी किताब भी। 

ये दोनों सच दुखते हैं। मैं इनके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही हूँ। वक़्त लगेगा, हो जाएगा लेकिन। तुम फ़िक्र मत करना। 


ढेर सारा प्यार। 

14 October, 2018

कविता पढ़ते हुए
उसके काग़ज़ी होंठ
नहीं मैच करते उसकी आवाज़ से।
थिर हो पढ़ता है कविता 
आवाज़ रह जाती है
सुनने वाले की चुप्पी में आजीवन। 
जी उठते हैं उसके होंठ
चूमने की हड़बड़ाहट में
छिनी जा रही होती है उम्र।
नहीं पड़ते हैं निशान
कि लौटानी भी तो होती है
उधार पर लायी प्रेमिका।
उसके प्रेम में उलझी स्त्रियों की
नश्वर देह में भी जीता है
उसका कालजयी कवि मन।
वो कविता पढ़ते हुए
कुछ और होता है
चूमते हुए कुछ और।
***
***
जाते हुए वह नहीं रुकता
शब्दों से, कविता से, या किताबों से ही
वो रुकता है सिर्फ़ देह पर।
इसलिए पिछली बार उसके जाते हुए
मैंने उसे लंघी मार दी
वो देहरी पर ऐसा गिरा कि कपार फूट गया
और कई कविताएँ बह गयीं टप टप उसके माथे से बाहर।
उस बार वह कई दिन रुका रहा था
शाम की सब्ज़ी, सुबह की चाय, और
दुनिया के सबसे अच्छे कवि कौन हैं
पर बक-झक करते हुए।

03 October, 2018

ऑल्टर्नेट दुनिया का अलविदा

नामा-बर तू ही बता तू ने तो देखे होंगे
कैसे होते हैं वो ख़त जिन के जवाब आते हैं
~ क़मर बदायुनी

हमने कितनी फ़ालतू चीज़ें सीखीं अपने स्कूल में। किताबों की वो कौन सी बात है जो काम आती है बाद की ज़िंदगी में। वे पीले हरे रिपोर्ट कार्ड जो सीने से लगाए घर आते और उसमें लिखे रैंक - 2nd, 5th, 7th दिखा कर ख़ुश होते। हर बार वही बात सुनते, कि ध्यान से पढ़ो। ये सोशल स्टडीज़ में सिर्फ़ ७० काहे आए हैं। हाइयस्ट कितना गया, वग़ैरह।

हमें चिट्ठियाँ लिखनी सिखायी गयीं, प्रिन्सिपल को छुट्टी के लिए आवेदन देने को, सांसद को शहर की किसी मुसीबत के बारे में बताने को, पिता को पैसे माँगते हुए चिट्ठी। हमें किसी ने सिखाया होता कि प्रेम पत्र कैसे लिखते हैं, माफ़ी कैसे माँगते हैं, अलविदा कैसे कहते हैं। चिट्ठी लिखते हुए हिंदी उर्दू के कितने सारे सम्बोधन हो सकते हैं… ‘प्रिय’ के सिवा… कि मैं किसी चिट्ठी की शुरुआत में, ‘मेरे ___’ और आख़िर में सिर्फ़ ‘तुम्हारी___’ लिखना चाहती हूँ तो ये शिष्टाचार के कितने नियम तोड़ेगा। आख़िर में क्या लिखते हैं? सादर चरणस्पर्श या आपका आज्ञाकारी छात्र के सिवा और कुछ होता है जो हम किसी को लिख सकें… प्रेम के सिवा जो पत्र होते हैं, वे कैसे लिखते हैं।

हमने उदाहरण में अमृता प्रीतम के पत्र क्यूँ नहीं पढ़े? निर्मल वर्मा, रिल्के, प्रेमचंद, दुष्यंत कुमार या कि बच्चन के पत्र ही पढ़े होते तो मालूम होता कि चिट्ठियों के कितने रंग होते हैं। तब हम शायद तुम्हें चिट्ठी लिखने की ख़्वाहिश के अपराधबोध में डूब डूब कर मर नहीं रहे होते। मंटो ने जो ख़त खोले नहीं, पढ़े नहीं, उनमें क्या लिखा था?

मैंने पिछले कुछ सालों में जाने कितने ख़त लिखे। मैंने जवाब नहीं माँगे। ख़त दुआओं की तरह होते रहे। हमने दुआ माँगी, क़ुबूल करने का हिस्सा खुदा का था। हमने कभी दूसरी शर्त नहीं रखी कि जवाब आएँ तो ही ख़त लिखेंगे। लेकिन जाने क्यूँ लगा, कि तुम मेरे ख़तों का जवाब लिख सकोगे। लेकिन शायद तुमने भी स्कूल में नहीं पढ़ा कि वे लोग जो सिर्फ़ दोस्त होते हैं, दोस्त ही रहना चाहते हैं, उन्हें कैसी चिट्ठी लिखते हैं। तुम नहीं जान पाए कि मुझे क्या लिखा जा सकता है चिट्ठी में। ‘हाले दिल यार को लिखूँ क्यूँकर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।

तुम्हें पता है, अगर आँख भर आ रही हो तो पूरा चेहरा आसमान की ओर उठा लो और गहरी गहरी सांसें लो तो आँसू आँखों में वापस जज़्ब हो जाते हैं। बदन में घुल जाते हैं। टीसते हैं आत्मा में लेकिन गीली मिट्टी पर गिर कर आँसुओं का पौधा नहीं उगाते। आँसुओं के पौधे पर उदासियों का फूल खिलता है। उस फूल से अलविदा की गंध आती है। उस फूल को किताब में रख दो और भूल जाओ तो अगली बार किताब खोलने के पहले धोखा होता है कि पन्नों के बीच कोई चिट्ठी रखी हुयी है। लेकिन हर चीज़ की तरह इसका भी एक थ्रेशोल्ड होता है। उससे ज़्यादा आँसू हुए तो कोई ट्रिक भी उन्हें मिट्टी में गिरने से रोक नहीं सकती, सिवाए उस लड़के के जिसकी याद में आँखें बौरा रही हैं...वो रहे तो हथेलियों पर ही थाम लेता आँसू को और फिर आँसू से उसके हथेली में सड़क वाली रेखा बन जाती...उस सड़क की जो दोनों के शहरों को जोड़ती हो।

क्या तुम सच में एकदम ही भूल गए हो हमको? मौसम जैसा भी याद नहीं करते? साल में एक बार? क्या आसान रहा हमको भूलना? तुम्हें वे दिन याद है जब हम बहुत बात किया करते थे और मैं तुमसे कहती थी, जाना होगा तो कह के जाना। मैं कोई वजह भी नहीं पूछूँगी। मैं रोकूँगी तो हरगिज़ नहीं। लेकिन तुम भी सबकी ही तरह गुम हो गए। क्या ये मेरी ग़लती थी कि मैंने सोचा कि तुम बाक़ियों से कुछ अलग होगे। हम कैसे क्रूर समय में जी रहे हैं यहाँ DM पर ब्रेक ऑफ़ कर लेते हैं लोग। घोस्टिंग जैसा शब्द लोगों की डिक्शनरी ही नहीं, ज़िंदगी का हिस्सा भी बन गया है। ऐसे में अलविदा की उम्मीद भी एक यूटोपीयन उम्मीद थी? क्या किसी पर्फ़ेक्ट दुनिया में एक शाम तुम्हारा फ़ोन आता और तुम कहते, देखो, मेरा ट्रैफ़िक सिग्नल तुमसे पहले हरा हो गया है, मैं पहले जाऊँगा… मुड़ के देखूँगा भी, पर लौटूँगा नहीं… तुम मेरा इंतज़ार मत करना। सिग्नल ग्रीन होने पर तुम भी चले जाना शहर से, फिर कभी न लौटने के लिए।

या कि टेलीग्राम आता। एक शब्द का। विदा…
मैं समझ नहीं पाती कि विदा के आख़िर में तीन बिंदियाँ क्यूँ हैं। लेकिन उस काग़ज़ के टुकड़े से रूह में उस दिन को बुक्मार्क कर देती और तुम्हें भूल जाती। अच्छा होता ना?

देखो ना। मेरी बनायी ऑल्टर्नट दुनिया में भी तुम रह नहीं गए हो मेरे पास। तुम जा रहे हो, बस 'विदा' कह कर। बताओ, जिस लड़की की ख़्वाहिशें इतनी कम हैं, उन्हें पूरा नहीं होना चाहिए?

01 October, 2018

वयमेव याता:

जिन चीज़ों को गुम हो जाना चाहिए…

१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।

वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।

२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।

फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।

मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।

३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।

४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।

५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।

कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।

६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।

मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir! 

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