22 September, 2018

परदे पर मंटो

मंटो। इसके पहले कि टाइम्लायन लोगों के रिव्यू से भर जाए, मुझे ख़ुद फ़िल्म देखनी थी। कि मंटो तो महबूब मंटो है। फिर इसलिए भी कि ट्रेलर देख कर लगा भी कि नवाज़ बेहतरीन हैं मंटो के रूप में। मंटो का रिव्यू लिखना मुश्किल है मेरे लिए। इसलिए फ़िल्म देख कर जो लगा, वो लिख रही हूँ। 


फ़िल्म से मंटो के हर चाहने वाले ने अलग क़िस्म की उम्मीद की होगी। हम मंटो को जीते जागते जब देखें तो कौन सी बातें हैं जो जानना चाहेंगे। उसके कपड़े, रहन सहन, बात करने का तरीक़ा। उसके दोस्त, परिवार। लेकिन मुझे अगर कुछ जानना था सबसे ज़्यादा तो उसकी लेखन प्रक्रिया। समाज का उसपर पड़ता असर। उसका लिखने का ठीक ठीक तरीक़ा। 

मुझे मंटो से इश्क़ है। गहरा। किसी और लेखक से इस तरह मन नहीं जुड़ता जैसे मंटो से जुड़ता है। उसके छोटे छोटे क़िस्से, उसकी बतकही, यारों के साथ उसका जीना, उठना, बैठना। सब कुछ ही मैं ख़ूब ख़ूब पढ़ रखा है। तो ज़ाहिर है, मेरे मन में मंटो की कोई इमेज होगी। फ़िल्म देखते हुए मन में ये सवाल लेकर नहीं गयी थी कि नवाज़ मंटो के रूप में कैसा दिखेगा। मैं इस फ़िल्म को निष्पक्ष होकर देख ही नहीं सकती थी। एक पॉज़िटिव बायस मन में था। गुलाबी चश्मा या कि प्रेम में अंधा होना। दोनों सिलसिले में, मैं बहुत ज़्यादा सवाल नहीं करती। बहुत चीज़ों को ख़ारिज नहीं करती। फ़िल्म अच्छी लगती, हर हाल में।

मैं ख़ुश थी। मंटो को ऐसे जीते जागते हुए अपने सामने पा कर। मैं सारे वक़्त बस उसे ही देखना चाहती थी। मंटो - एक लेखक के रूप में। जिन वाक़यों ने उसे बनाया, उन्हें। फ़िल्म में मंटो और सफ़िया के इर्द गिर्द है। मंटो का पारिवारिक जीवन ज़्यादा दिखाया गया है, उसके लेखकीय जीवन की तुलना में। मंटो के मेंटल ब्रेकडाउन के हिस्सों पर भी ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया गया। 

फ़िल्म में मंटो के क़िस्सों को जिस तरह शामिल किया गया है वो अच्छा लगा है। किरदार मंटो की ज़िंदगी से घुले मिले दिख रहे हैं। लेकिन फ़िल्मांकन में वो करारी चोट, वो हूक, वो तड़प, नहीं पायी है जो मंटो को पढ़ कर आती है। खोल दो जैसी छोटी कहानी जिस पढ़ते हुए मन में धँस जाती है, लेकिन फ़िल्म में वही कहानी का क्लाइमैक्स खो जाता है। इज़ारबंद खोलने का दृश्य उतना मज़बूत नहीं हो पाया है। थोड़ा ड्रैमटिज़ेशन बेहतर होना चाहिए था। कैमरा ऐंगल और म्यूज़िक थोड़ा बेहतर बुना जाता तो शायद वैसी कचोट को जीवंत कर सकता जो कहानी के अंत में महसूस होती है। ठंढा गोश्त भी ठीक ठीक वैसा नहीं लग सका है जैसे कहानी में था। फ़िल्म देखते हुए लेकिन जो ख़ाली जगहें थीं, वो हमने अपने मन से भर दीं। टोबा टेक सिंह का फ़िल्मांकन बहुत अच्छा है। पढ़ने से ज़्यादा हूक इसे देख कर उठी। बूढ़ा अपनी दयनीयता में, अपने पागलपन में और अपनी लाचारी में जी उठता है और लिखे हुए से ज़्यादा तकलीफ़ देता है। बाक़ी कहानियाँ मेरी इमेजरी से मैच नहीं करतीं, इंडिपेंडेंट्ली अच्छी हैं लेकिन जिन्होंने मंटो को नहीं पढ़ा है, शायद वे फ़िल्म देख कर नहीं जान पाएँ कि मंटो कैसा लिखता था। कहानी पढ़ते हुए हम अपने मन में एक इमेज लेकर चलते हैं, फ़िल्म उस इमेज में फ़िट हो भी नहीं सकती है कि सबने अपने अपने तरीक़े से कहानियों को इंटर्प्रेट किया होगा। 

फ़िल्म में सबसे अच्छी चीज़ ये लगी है कि कई बार नवाज़ पूरी तरह मंटो हो जाते हैं। अपनी डाइयलोग डिलिवरी में नहीं लेकिन बॉडी लैंग्विज में। उनके कपड़े, उनका चलना, ठहरना, दारू पीना, चलते हुए किसी कोठे वाली को अपनी सिगरेट दे देनायहाँ वे एकदम मंटो लगते हैं। डाइयलोग काफ़ी बेहतर हो सकते थे इस फ़िल्म के। मंटो ने इतना कुछ लिख रखा है, उसमें से कई अच्छे डाइयलॉग्ज़ उठाए जा सकते थे। उनका ना होना अखरता है। जैसे कि मंटो का ये कहना, ‘यदि आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये समाज ही नाकाबिले बर्दाश्त हो चला है। मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है फहशी के मुक़दमे में इस डाइयलोग की कमी ख़ूब अखरती है।  

फ़िल्म उस मूड को बुनने में कामयाब होती है जो मंटो के इर्द गिर्द होगा। उस हताशा को ठीक दिखाती है। लो लाइट वाले शॉट्स से। किरदारों से। ये लो लाइट लेकिन कुछ ज़्यादा हो जाती है कि कई बार हम मंटो के चेहरे का एक्स्प्रेशन देखना चाहते हैं जो नहीं दिखता। वैसे में झुँझलाहट भी होती है। मैं मंटो से आयडेंटिफ़ाई कर सकती हूँ बहुत दूर तक। आसपास का माहौल उसे किस तरह अंदर से तोड़ रहा है, इसे मंटो डाइयलोग के माध्यम से नहीं चुप्पी से और अपनी बॉडी लैंग्विज से कहता है। पैसों की क़िल्लत, ख़ुद्दारी, और शराब की लत। मंटो के बच्चियों के साथ के दृश्य बहुत प्यारे हैं, ठीक वैसे ही जैसे मंटो अपने लिखने के बारे में कहता है कि बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं और इनके बीच मैं लिख रहा होता हूँ। 

मंटो और इस्मत के कुछ और सीन साथ में होने चाहिए थे। उनकी आपस में बातचीत, उनका एक दूसरे की ज़िंदगी में क्या जगह थी, वग़ैरह। इस्मत को थोड़ा और फ़ुटेज मिलता तो अच्छा रहता। बॉम्बे के कुछ और दृश्य भी होते तो अच्छे रहते। 

फ़िल्म में कितना कुछ चाहते हैं हम। कि ये हमारे महबूब मंटो की फ़िल्म है। ये सब हमारी चाह थी। लेकिन ये हमारी फ़िल्म नहीं, नंदिता की फ़िल्म है, नवाज़ की फ़िल्म है और उन्होंने अपने हिसाब से क़िस्से चुने हैं, कहानी बुनी है। फ़िल्म देखते हुए हम इतना कुछ सोचते नहीं। हम मंटो के साथ तड़प रहे होते हैं। मंटो, कि जिसे पिता, माँ और पहले बेटे की क़ब्र हिंदुस्तान में है। मंटो जो कि इस बँटवारे में बँटा हुआ है। कि जिसे इस बात से बेहद तकलीफ़ होती है कि उसके अफ़साने को फहश कहा जा रहा है। कि फ़ैज़ ने उसके अफ़साने को लिटरेचर नहीं कहा। हम मंटो के दो दुनिया में बँटे हुए दुःख को जीते हैं। उसके साथ तड़पते हैं। शाद जब उसे हर जगह से खींच कर शराब पीने ले जाता है तो हम तकलीफ़ में होते हैं कि ऐसे दोस्तों के कारण इतनी कम उम्र में मर गया मंटो। फ़िल्म देखते हुए हम उस तकलीफ़ को समझते हैं जो मंटो को महसूस होती थी, उसकी पूरी भयानकता में। ये इस फ़िल्म की कामयाबी है। नवाज़ जब फ़र्श पर बैठ कर पेंसिल से काग़ज़ पर लिख रहे होते हैं, वे मंटो होते हैं। जब अपने अफ़साने की क़ीमत के लिए लड़ रहे होते हैं, हम समझते हैं कि उन्हें पैसों की कितनी सख़्त ज़रूरत रही होगी। दुनिया जैसी है उसे वैसा लिख पाने की जिस तकलीफ़ से लेखक - मंटो गुज़रता है, हम उसे जी रहे होते हैं। ये काफ़ी दुर्लभ है इन दिनों। और इसलिए ऐसी फ़िल्में बननी चाहिए। हमारे तरफ़ लोग अक्सर कहते हैंराम नाम टेढ़ो भला तो मंटो पर बनी कोई फ़िल्म हमें ख़राब तो लग ही नहीं सकती है। मंटो जैसे किरदार पर ख़राब फ़िल्म बनायी भी नहीं जा सकती। नामुमकिन है। आप मंटो को प्यार करते हैं तो फ़िल्म ज़रूर देखिए। आप मंटो को जानना चाहते हैं तो फ़िल्म ज़रूर देखिए। हाँ, उसके बाद मंटो की कहानियाँ पढ़िएमंटो वहीं मिलेगा, ख़ालिस। 

मंटो के बारे में एक क़िस्सा पढ़ा था। कि एक ताँगे पर चलते हुए सवारी ने बात बात में कहा कि मंटो मर गया। ताँगेवाले ने घोड़े की लगाम खींच ली, ताँगा रुक गया, फिर उसने अचरज मिले दुःख में पूछा, ‘क्या, मंटो मर गया! साहब अब ये ताँगा आगे नहीं जाएगा। आप कोई दूसरा देख लो फ़िल्म ख़त्म हुयी है। मैं बस ये सोच रही हूँ। मैं अगर फ़िल्म बनाती तो यहाँ ख़त्म करती।

महबूब मंटो है। हम उसे अपने अपने तरीक़े से प्यार करने के लिए आज़ाद हैं। मंटो को अपनी नज़र से देखने और दुनिया को उससे मिलवाने के लिए भी। शुक्रिया नंदिता। शुक्रिया नवाज़। मंटो को यूँ परदे पर ज़िंदा करने के लिए। कि मंटो ने ठीक ही तो कहा था, सादत हसन मर गया पर मंटो ज़िंदा है। 

20 September, 2018

हसरतों के शहर

वक़्त उड़ता चला जाता है, हमें ख़बर नहीं होती। इन दिनों कुछ पढ़ लिख नहीं पा रही। एक पैराग्राफ़ से ज़्यादा दिमाग़ में कुछ अटकता ही नहीं। कितनी किताबें पढ़ पढ़ के रख दीं, आधी अधूरी। सब में कोई ना कोई दिक़्क़त लग रही है। कविताएँ भी उतनी पसंद नहीं आ रही हैं जितनी आती थीं। 

दरअसल दो महीने से ऊपर होने को आए घर में रहते हुए। हमारे जैसा घुमक्कड़ इंसान घर में रह नहीं सकता इतने दिन। टैक्सी पर निर्भर रहना। मुश्किल से कहीं जाना। फ़िल्म वग़ैरह भी बंद है।

कल बहुत दिन बाद काग़ज़ क़लम से लिखे। बहुत अच्छा लगा। धीरे धीरे ही सही, लौट आएँगे सारे किरदार। लिखना भी इसलिए। कि धीरे धीरे धुन लौटेगी। किसी धुंध के पीछे से ही सही।

निर्मल को पढ़ती हूँ फिर से...लगता है उनके सफ़र में कितना कुछ सहेजते चलते थे वो। इन दिनों अक्सर ये ख़याल आता है कि जेंडर पर बात कम होती है लेकिन कितनी चीज़ें हैं जो पुरुषों के लिए एकदम आसान है लेकिन एक स्त्री होने के कारण उन्हीं चीज़ों को करना एक जंग लड़ने से कम नहीं होता हमारे लिए। सबसे ज़रूरी अंतर जो आता है वो सफ़र से जुड़ा हुआ है। अपने देश में सोलो ट्रिप आज भी किसी औरत के लिए प्लान करना बहुत मुश्किल है। चाहे वो उम्र के किसी पड़ाव पर रही हो। अकेले सफ़र करना, होटल के कमरे में अकेले रहना या के अकेले घूमना ही। सुरक्षा सबसे बड़ी चीज़ हो जाती है। सड़कें, शहर, रहने की जगहें...'अकेली लड़की खुली तिजोरी के समान होती है' के डाइयलोग पर लोग हँसे बहुत, लेकिन ये एकदम सच है। इससे हम कितने कुछ से वंचित रह जाते हैं। मेरी जानपहचान में जितने लड़के हैं, इत्तिफ़ाक़ से वे कुछ ऐसे ही घुमक्कड़ रहे हैं। मैं देखती हूँ उन्होंने कितनी जगहें देख रही हैं कि सफ़र उनके लिए हमेशा बहुत आसान रहा। चाहे देश के छोटे शहर हों या विदेश के अपरिचित शहर।

मुझे आज ये बात इस तरह इसलिए भी साल रही है कि पिछले साल इसी दिन मैं न्यू यॉर्क गयी थी। मेरा पहला सोलो ट्रिप। मैं अकेली गयी थी, अकेली होटल में ठहरी थी, अकेली घूमी थी शहर और म्यूज़ीयम। उस ट्रिप ने मुझे बहुत हद तक बदल दिया। मैं ऐसे और शहर चाहती हूँ अपनी ज़िंदगी में। ऐसे और सफ़र। कि मुझे दोस्तों और परिवार के साथ घूमना अच्छा लगता है लेकिन मुझे अकेले घूमना भी अच्छा लगता है। ऐसे कई शहर हैं जो मैं अकेली जाना चाहती हूँ।

१. फ्नोम पेन (Phnom Penh) कम्बोडिया की राजधानी। जब से In the mood for love देखी है इस शहर जा कर अंगकोर वात देखने की तीव्र इच्छा जागी है। मैं अकेले जाना चाहती हूँ ताकि फ़ुर्सत में देख सकूँ, ठहर सकूँ और कैमरा से तस्वीरें खींच सकूँ। 

२. कन्नौज। बहुत दिन पहले एक सुंदर आर्टिकल पढ़ी थी मिट्टी अत्तर के बारे में। कन्नौज तब से मेरी सोलो ट्रिप की लिस्ट में है। मैं यहाँ अकेले जाना चाहती हूँ और इस इत्र को बनाने वाले लोगों से मिलना चाहती हूँ। ये इत्र गरमियों में बनता है, इस साल तो जाने का वक़्त बीत चुका है। अगले साल देखते हैं। कन्नौज में घुमाने के लिए एक दोस्त ने वोलंटियर भी किया है कि उसके घर के पास है शहर। 

३. पौंडीचेरी. मैं बैंगलोर से कई बार जा चुकी हूँ लेकिन हमेशा दोस्तों या परिवार के साथ। मैं वहाँ अकेले जा कर कुछ दिन रहना चाहती हूँ। अपने हिसाब से शहर घूमना चाहती हूँ और लिखना चाहती हूँ। 

४. न्यू यॉर्क। कई कई बार। मैं वहाँ कोई राइटर फ़ेलोशिप लेकर कुछ दिन रहना चाहती हूँ और उस शहर को जीना चाहती हूँ। कि बेइंतहा मुहब्बत है न्यू यॉर्क से। 

५. दिल्ली। मैं दिल्ली जब भी आती हूँ अपने ससुराल में रहती हूँ। मैं कुछ दिन किसी हॉस्टल में रह कर दिल्ली को फ़ुर्सत से देखना चाहती हूँ। लिखना चाहती हूँ कुछ क़िस्से। 

६. मनाली। बचपन में मनाली गयी थी तो हिडिंबा देवी के मंदिर जाते हुए सेब के बाग़ान इतने सुंदर लगे थे। फिर ऊँची पहाड़ी से नीचे देखना भी बहुत ही सुंदर लगा था। 

७. केरल बैकवॉटर्ज़। हाउसबोट में रहना और लिखना। 

कई और शहर हैं जिनके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं है। पर सोचना चाहती हूँ। रहना चाहती हूँ। जीना चाहती हूँ थोड़ा और खुल कर।

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