24 March, 2025

जादू टूटता भी तो है।

There are monsters inside my heart. Every couple of days or months I need to go on a holiday to let them lose in the wilderness of solitude. They graze upon silent hours and come back to their cell, voluntarily. When I fail to do so, they keep ramming against the bars of my heart. I live, anxiously. Afraid the bars are not strong enough, and maybe, not even my heart. 


Everyone tells me I should be thankful and grateful to the universe that has given me everything. I am, eternally grateful. Yet, I don’t understand the insane desire to get away. क्या इसे ही मन से आवारा होना कहते हैं। क्या एक सुंदर घर बसाना मुझे कभी नहीं आयेगा? क्या हम सुख से भाग रहे हैं?


मन इतना अशांत क्यों होता है?


आज मन बहुत विरक्त हुआ है सुबह से ही। स्विमिंग नहीं गए। वरना थोड़ा यह सोच कर अच्छा लगता है कि मन का कोई इलाज नहीं है लेकिन एक घंटा तैर लेने के कारण शरीर होता बेहतर रहेगा। एड्रेनलिन पंप हो जाता है तो एनर्जी लेवल ठीक रहता है दिन भर। लेकिन गए नहीं। हाई बीपी की दवाई चलनी शुरू हुई है। जैसे ही ये दवाई शुरू होती है, दो चीज़ें होती हैंमन एकदम शांत हो जाता है, इतना कि जैसे आइलैंड के आसपास का समंदर होता हीउसमें कोई लहरें नहीं उठतीं। और दूसरी चीज़ कि बहुत नींद आती है, इतनी थकान और आलस कि दिन भर सोने के सिवाये कोई काम करने का मन नहीं करता। कोई किताब पढ़ने का का कहीं घूमने या घर का और कोई भी काम करने का। Procrastination मोड में चला जाता है। 


हम जो हमेशा फाइट या फ्लाइट के मोड में रहते हैं, दिमाग़ एक तरह से हार मान जाता हैऔर कुछ भी नहीं करता। 


गाहे बगाहे यूँ भी होता है कि दिल में दर्द उठने लगता है। मुझे समझ नहीं आता कि क्यों। डेढ़-दो साल पहले कार्डियोलॉजिस्ट को दिखाया था, उस समय सब कुछ ठीक था। फिर ऐसे रहे-रहे दर्द और हॉट-फ़्लैश क्यों होते हैंऐसा लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है, लेकिन ठीक-ठीक समझ नहीं आता कि कहाँ। क़ायदे से, हॉस्पिटल जा के फुल-बॉडी चेक-अप कराना चाहिए, लेकिन हम जानते हैं कि हमको एक लंबी छुट्टी चाहिए। सोच ये भी नहीं पा रहे कि अकेले जायें या किसी दोस्त के साथ। 


अजीब उलझन है। समझ नहीं आता। अकेले रहना है या किसी दोस्त के साथ। घर पर बच्चों को छोड़ कर सोलो ट्रिप पर जाते हैं तो भयंकर गिल्टी भी फील होता है। मॉम-गिल्ट से कैसे पार पाती हैं औरतें पता नहीं। इतना ज़्यादा सेंसिटिव क्यों ही होनाफिर ये भी तो है कि ख़ुद को एकदम से विरक्त कर भी पाते तो क्या कर ही लेते। 


मुझे फिक्शन के टुकड़े लिखने में सबसे ज़्यादा खुशी मिलती थी। कोई एक किरदार, यूँ सामने नज़र से गुज़र गया। जितना सा उस समय दिख पाया, उतना सा ही लिख पाये। पिछले कुछ सालों में ढूँढ ढूँढ कर अपने पसंद की औरतों के लिखने के किस्से पढ़े। कि शायद कोई रास्ता मिले, लेकिन उन्होंने लिखा नहीं है इस बारे में। इस्मत की काग़ज़ी है पैरहन पढ़ते हुए दो चीज़ों को जाने की हुलस थी, वो कैसे लिखती हैं और लिखते हुए जो जीवन में सवाल आते हैं इस इमेजिनरी के लिए, उसके लिए ख़ुद को कैसे तैयार या डिफेंड करती हैं। उनके लिखे में ये दोनों नहीं मिला मुझे। एलिस मुनरो अच्छी लगती रहीं, उनकी कहानियों का ट्विस्ट, उनकी कहानियों के किरदारलेकिन जब से जाना कि उन्होंने अपनी नाबालिग बेटी के सेक्सुअल असॉल्ट को कहानी में बरता लेकिन अपने उस पति के साथ रहीं और बेटी को भी नहीं बचायातब से चाहने के बावजूद उनकी कहानियाँ नहीं पढ़ पा रही। लेखन और लेखक का जीवन अलग होता है, लेकिन जब लेखक का कोई fatal flaw इस तरह से उजागर होता है तो फिर हम उस लगाव के साथ उसे नहीं पढ़ पाते। नेरूदा के बारे में जान कर ऐसा ही कुछ हुआ था। अब भी उनका लिखा पसंद आता है लेकिन फिर भी उससे मन उस तरह से नहीं जुड़ पाता। जैसे बाहर की हवा लगने के बाद मूढ़ी थोड़ा मेहा जाता है, उसका खनक चला जाता है तो खाने में उतना मजा नहीं आता। लेखक ऐसा ही होता हैएकदम खनकता हुआ होना चाहिए। ये लाइन कहाँ खींची जानी चाहिए, भगवान जानेकुछ लोगों को ये भी बहुत बुरा लगता है कि कोई लेखक सिगरेट-शराब पीता है या किसी ख़ास राजनीतिक विचारधारा का है या उसके कई प्रेम-संबंध रहे। मेरे लिए ये सब मायने नहीं रखताअधिकतर किसी की कला को उसके व्यक्तित्व से अलग रख कर देखने की कोशिश करते हैं। यह भी तो है कि ग़लतियाँ और गुनाह तो सबके होते हैं। 


यूँ भी गलती के हिसाब से सज़ा बराबर की होती है, ना माफ़ी।  


आज एकदम कहीं मन नहीं लग रहा था। मॉल में स्टारबक्स में बैठी हूँ। सामने एस्कलेटर लगे हुए हैं। कोई बच्चा नीचे आने वाले एस्कलेटर पर ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है। उसे मजा रहा एक-एक सीढ़ी ऊपर चढ़ने पर भी नीचे आने में। हम भी अक्सर ऐसा ही करते हैं नासमय का एस्कलेटर हमें फ्यूचर में ले जा रहा होता है और हम समय की उलट दिशा में, अतीत में पीछे जा रहे होते हैं। जानते हुए कि ये ख़तरनाक है। कि हमें चोट लग सकती है। और ये भी कि आख़िर को हमें आगे ही जाना पड़ेगा। हम छोटे से बच्चे हैं। बहुत तेज दौड़ने वाले धावक नहीं कि एस्केलेटर की दुगुनी स्पीड से चढ़ाई पर दौड़ सकें और ऊपर जा सकें। उस स्थान पर जहाँ एक एस्कलेटर ऊपर रहा, एक नीचे की ओर जा रहा है। 


सुबह एडोलोसेंस देखने की कोशिश की। थोड़ी देर देखने के बाद हिम्मत नहीं हुई। छोटे बच्चों को एक्टिंग में देखना दुखता है। मालूम है ये एक्ट कर रहे हैं, फिर भी। क्यूंकि एक्टिंग करना किसी और के जिए हुए को थोड़ी देर को ही सही, जीना होता है। 


लिखते हुए थोड़ी देर को हम किसी किरदार का ग़म-ख़ुशी अपने भीतर महसूस कर रहे होते हैं। बहुत साल पहले जब इश्क़ तिलिस्म लिख रही थी तो उसमें दादी सरकार का किरदार था। एक रोज़ ऐसे ही स्टारबक्स में उसका एक चैप्टर लिख रही थी जब इतरां अपने ब्लैक-आउट से जूझने के लिए तिलिसमपूर जा रही थी। उस रोज़ आज की तरह ही स्टारबक्स में बैठे थे। ये इंदिरानगर ब्रांच था, यहाँ फर्स्ट फ्लोर पर ऊंची टेबल थी और आगे रेक्टैंगयुलर टेबल। बाहर कांच से शहर दिख रहा था। भागता हुआ। तभी अचानक से तिलिसमपूर के गाँव का वो आँगन दिखा जहाँ रूद्र दादी सरकार को बताने आया है कि वो इतरां को इलाज के लिए शहर ले कर जा रहा है। ठीक वहीं बड़ी सरकार ने देखा भय और उनके प्राण छूट गएयह मेरी आँखों के सामने घटा था। मैंने अपने जीवन में मृत्यु को इतने क़रीब से एक ही बार देखा था। यह काल्पनिक मृत्यु थी लेकिन जैसे सीने के बीच कोई तलवार घुंप गई। मैं फूट-फूट के रो पड़ी थी, जैसे किसी ने मेरे किसी अपने की मृत्यु का समाचार दिया हो। यह मेरे उपन्यास के प्लॉट में था ही नहीं। यह चैप्टर कहीं था ही नहीं। लेकिन मैं अपने किरदारों के हाथ इतनी बेबस थी कि चाह कर भी यह चैप्टर मूल उपन्यास से डिलीट नहीं कर सकती थी। मैंने उस चैप्टर को पूरा लिखा। उसके आगे का उपन्यास भी लिखा। लिखते हुए कितना कुछ भीतर महसूस होता है, हम इसे ठीक ठीक बता भी नहीं सकते। समझा नहीं सकते। कि उपन्यास ख़त्म करना एक लंबे रिश्ते को तोड़ कर आगे बढ़ जाना होता है। लेकिन ये ब्रेक-अप आसान नहीं होता। उपन्यास के किरदार आपके इर्द-गिर्द बने रहते हैं। 


और एक दिन अचानक से वे आपको छोड़ कर चले जाते हैं। मैं स्टेज पर थी। दिल्ली में। जो मेरा दुनिया का सबसे प्यारा शहर है। मैं अपनी कहानी पूरी तरह भूल गई। एकदम ब्लैंक। ऐसा कुछ दोस्तों के साथ एग्जाम टाइम में होता था कि पढ़े हुए सवाल दिमाग़ से उड़ गए। मेरे साथ कभी नहीं होता था। मुझे भूलना आता ही नहीं था। फिर मेरे बनाए किरदार तो मेरे भीतर रहते हैं, यहाँ से जाएँगे कहाँ। 


मैंने कहानी सुनानी शुरू कीऔर लगा जैसे मेले में हाथ छूट गया हो किसी का। इतरां, रुद्र, मोक्ष, दादी सरकारसब एक पानी की दीवार के पीछे थे। मुझे कुछ याद नहीं था। यह अब मेरी कहानी थी ही नहीं। मुझे हमेशा लगता था लिखना जादू है। की वाक़ई सरस्वती का आशीर्वाद है। वरना अच्छा-बुरा, कोई कहानी नहीं लिख सकते थे हम। लिखने से ज़्यादा मज़ा मुझे सिर्फ़ कहानी सुनाने में आता था। This was my forte, this was who I always was, a phenomenal storyteller. मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ हो कि मैं कोई क़िस्सा-कहानी सुना रही हूँ और सुनने वाले का ध्यान भटक जाये। एक जादू था जो मेरे भीतर रौशन हो जाता था। हम ख़ुद एक तिलिस्म, एक जादू, एक अचरज बन जाया करते थे। उस लड़की से मुझे बहुत प्यार था जो स्टेज पर कहानी सुनाने आती थी। 


उस रोज़ वो जादू टूट गया। 

कि जैसे बदन एक जादू भरा मर्तबान था और मेरे हाथ से गिर कर टूट गया और सारा जादू हवा हो गया। 


जादू तलाशना होता तो मुझे मालूम था कि कहाँ जा के खोजते हैंलेकिन जादू होना फिर से कैसे सीखते हैं। यह तो ख़ुद-बख़ुद होता था। मुझे यह करना नहीं आता। 


हम जादूगर नहीं थे, जादू थे। 


जादू करना सीख लेते, जादू होना कैसे सीखें। कहाँ से सीखें। मालूम नहीं। 


मुझे यह भीतर-भीतर खा रहा है। चाह के भी हम कुछ कर नहीं पा रहे। लिखने का मन करता है और कहीं दूर भाग जाने का। खूब घूमने का। दरिया किनारे। गंगा-किनारे। किसी मंदिर के फर्श पर बैठना सर टिकाये हुए। गाड़ी चलाते जाना, तेज और तेज।  पता नहीं, ये कभी फिर से होगा या नहीं। 


लेकिन काश कि हो पाये। 


कोई पुराना इंटरव्यू सुन रहे थे कहीं, आनंद बख्शी काउनकी एक कविता के अंत में आती है लाइन। यही उनकी किताब का शीर्षक भी हैपर लगता है, शायद यही दुआ हो आख़िर भी


मैं जादू हूँ, मैं चल जाऊँगा

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