23 February, 2024

झूठे क़िस्से - १ हमारे लिए इंतज़ार की यूनिट इन्फ़िनिटी होती है।

हम बहुत छोटे होते हैं जब हमने पुनर्जन्म को महसूस लिया होता है। साहिबगंज में गहरे गुलाबी बोगनविला वाला वो घर और वहाँ की सीढ़ियों से गुजरते हुए एकदम बचपन में भी ऐसा लगता था जैसे हम ये सब जी चुके हैं, पहले भी। 

बचपन से ही हम अपने आसपास पुनर्जन्म के क़िस्से सुनते-सीखते-समझते बड़े होते हैं। इससे हमें ये तो समझ जाता है कि ज़िंदगी में सब कुछ अभी ही जी लेने की हड़बड़ी नहीं है। कुछ चीज़ें हम अगले जन्म के लिए भी छोड़ सकते हैं। 


ख़ास तौर से मुहब्बत। 


कि बात जब कई जन्मों तक जा सकती है तो हम एक लम्बा इंतज़ार जी लेने में सहज होते हैं। कि हमारे लिए इंतज़ार की यूनिट इन्फ़िनिटी होती है। 


***


उसका हाथ 

अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा 

दुनिया को 

हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए। 

केदारनाथ सिंह 


कविताएँ सबसे अच्छी वो होती हैं, जो सुनायी जाएँ। बहुत साल पहले, जब एक वर्चूअल दोस्त से पहली बार मिली थी, तो उसी के मुँह से कवि केदार की ये सुंदर कविता सुनी थी। उस वक्त मुझे लगा था कि यह कविता एक hyperbole है। अतिशयोक्ति अलंकार। किसी का हाथ इतना सुंदर थोड़े हो सकता है कि उसका हाथ थामते हुए हम पूरी दुनिया को उसके हाथों जैसा बना देना चाहें। 


हमारी दोस्ती लगभग दो दशक पुरानी थी। 

हमारे बीच कुछ नहीं था। चंद आवाज़ों, चिट्ठियों, खामोशियों और एक लम्बे बिछोह के सिवा। 

जिनसे हम बहुत कम मिले हों, उनकी बहुत ज़्यादा याद कैसे आती है, मालूम नहीं।  याद का सारा हिसाब किताब गड़बड़ ही है। 


सर्दियों की एक शाम हम मिले तो चाँद लगभग नया ही था। दिल्ली के पुराने बागों में मंजर की भीनी सी ख़ुशबू थी। सूखे हुए पत्तों पर चलने की चरमराहट और गंध साथ महसूस होती थी। मेरे हिस्से इस महबूब शहर की रातें लगभग कभी नहीं आयी थीं। इसलिए ये ख़ास था। उसके साथ चलते हुए डर नहीं लगता था। ज़िंदा का, मरे हुए का। मैं उसे हॉरर नॉवल के बारे में सुना सकती थी। वो मेरी बेवक़ूफ़ी पे हँस सकता था। 


उसकी गाड़ी में धूप और सिगरेट के धुएँ की गंध होती थी। Smoke and sunshine. गर्म दोपहरों की। या शायद ये उसकी ख़ुशबू थी। वो मेरे प्रति बहुत उदार था। सदय। मैंने काइंड शब्द का इस्तेमाल उसी से सीखा था। बसंत की किसी शाम उसने मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाया। मैंने सोचा कि उसे जो चाहिए, वो कहता क्यूँ नहींसिगरेट, लाइटर, पानी की बोतल। आख़िर उसे क्या चाहिए। 


मैंने आने के पहले कहा था, मैं तुम्हारे रोज़मर्रा का ज़रा सा हिस्सा होना चाहती हूँ। तो मैं वही थी। उसके कॉफ़ी कप से ब्लैक कॉफ़ी चखती। उसके ब्रैंड की सिगरेट पीती। उसके इर्द गिर्द रहती, जैसे मेरे इर्द गिर्द मेरे शहर का मौसम रहता है। जाने मेरा शहर कौन सा है। जिसमें मैं रहती हूँ, या जो मेरे भीतर बसता है। 


उसने जब मेरा हाथ थामा, तो इतनी बड़ी जिंदगी में मुझे पहली बार महसूस हुआ। कुछ कविताएँ अतिशयोक्ति अलंकार नहीं होतीं। कि ये figurative नहीं, literal कविता थी। कि इतना सुंदर भी किसी का हाथ होता है! नर्म, ऊष्मा से भरे। सफ़ेद, गुदगुदे, जैसे गूँथे हुए आटे की लोई के बने हों। मैंने अपनी ज़िंदगी में इतने सुंदर हाथ कभी भी नहीं देखे थे। छुए नहीं थे। महसूसे नहीं थे। ये कमाल बात थी। 


मैं देर तक सोचती रही, एक आदमी में कितना कुछ होता है जो हम एकदम ही नहीं जानते। कि यारी दोस्ती के इतने साल हुए, मैंने कभी सड़क पार करते हुए भी कभी उसका हाथ नहीं थामा है। इतना इंडिपेंडेंट क्यूँ हैं हम 


कि क्या हाथ मिलाने और हाथ थामने में अंतर होता है? कि हम किसी बिछोह से डरते हैं


मुझे ख़ूब डर लगता है। ख़ूब रोना आता है। 

इतना कि दिल्ली गयी तो इस बार मेले के पहले दिन तो यह यक़ीन करते गुजर गया कि ये जो इतने लोग मेरे इर्द-गिर्द हैं, मैं सपना नहीं देख रही। कि मैं सच में झप्पियों वाले इस शहर में हूँ। जो सालों साल मेरी दुखती आत्मा पर मरहम रखता है। 


***

इश्क़ तिलिस्म में एक हिस्सा है, कि जब इतरां और मोक्ष निज़ामुद्दीन की मज़ार पर जाते हैं।संगमरमर की जाली पर मन्नत का लाल धागा बांधते हुए इतरां ने महसूसा कि मोक्ष साथ में है तो और कुछ माँगने की इच्छा ही नहीं है। फ़िलहाल को हमेशा में बदलने की कोई ख्वाहिश भी नहीं।

***

सपना था सब। बसंत था। हवा में खुनक थी। पीले फूल थे, तैरते और पैरों तले कुचले जाते हुए भी। क़व्वालियों में मुहब्बत थी। सुकून था। मैंने मज़ार के संगमरमर पे सर रखा। आँखें बंद कीं और पीर से कहा, “मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। कुछ भी नहीं।


***


इन दिनों मेरे पास कहानियाँ हैं ही नहीं। मेरे किरदार ज़िंदगी से लुका-छिपी खेल रहे हैं। 


***

उसने पूछा, “कुछ कहना बाक़ी तो नहीं रह गया।

हम क्या कहते उसको। कि इस शहर में हमको दारू चढ़ जाती है पानी पीते हुए भी। कि हम थोड़े से टिप्सी हैं। कि हमको घर के दरवाज़े तक छोड़ दो। कि हम जिस रोज़ से आए हैं दिल्ली, एक ही गाना लूप में सुन रहे हैं, “अभी जाओ छोड़ के, कि दिल अभी भरा नहीं। कि दिल भरा-भरा सा है और ख़ाली ख़ाली भी। कि शुक्रिया। तुम्हारी ज़िंदगी में इतना सा शामिल करने के लिए। ज़रा सी सिगरेट बाँटने के लिए। अपनी ड्रिंक से एक घूँट पी लेने देने के लिए। 


कि लौट कर बहुत दुखेगा। लेकिन अभी ठीक है। 

कि हम फिर कब मिलेंगे?

कि पिछले बार जब तुम मेरे शहर से लौट रहे थे तो तुमने मेरा माथा चूमा था। तब से ग़म मेरी आँखों का रुख़ करते डरते हैं। 


क्या कहूँ उससे। क्या क्या। और कितना?


***


उस रात मेरी नींद टूटी तो मेरा दिल बार बार खुद को समझा रहा था। कि गलती हो गयी। माफ़ी माँग रहा था। सब कुछ गड्ड-मड्ड था। सच। सपना। नींद। मृत्युतीत। 


Indefinite goodbyes. 

The stupid heart doesn’t even know. 

If it wants to you love you a little less. Or love you a little more. 


***

My heart is the absolute unit of idiocy. 

My head is a cacophony…a memory of my French classes taken long ago. A group of people trying to learn the right way to say, “I am very sorry”. It’s a soft chorus, everyone wants to feel it right too. They mumble and keep repeating, “Très désolé, Très désolé, Très désolé.”

It’s 4:30 am. I see a slightly foggy Delhi night from the balcony. My eyes are hurting. It’s a soul ache. 

I’m up because my heart has become the same cacophonous class, softly mumbling to comfort itself. 
Très désolé, I am in love. 
‘I am very sorry, I am in love.’


***


बहुत देर से मिले हो तुम। 

लेकिन बहुत सब्र है मुझमें। मिलना फिर। किसी जन्म। लेकिन अगली बार इतनी देर से मत मिलना। और अगली बार इतनी कम देर के लिए मत मिलना। ज़्यादा ज़्यादा मिलना। रहना। रुकना। 


बस। 


***


अगर मुहब्बत कोई मौसम है, तो तुम मेरा बसंत हो। 

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