27 October, 2013

रात का इन्सट्रुमेंटल वेपन दैट किल्स इन साइलेंस

पिछली पोस्ट से आज तक में दस ड्राफ्ट पड़े हुए हैं. ऐसा तो नहीं होता था. अधूरेपन के कितने सारे फेजेस में रखे हुए हैं. सलामत. स्नोवाइट की तरह. गहरी नींद में. सेब का एक टुकड़ा खा लेने के कारण शापित.
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कितनी सारी कहानियां हैं अधूरी. बचपन के किस्से कुछ. टूटे हुए कविता की पंक्तियाँ कहीं. किसी अनजान शहर से आती आवाज़ तो कहीं समंदर किनारे की आवाज़. पॉकेट में मुट्ठी भर भर के रेत है. ये कुछ भी बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े हैं. जेबों में यूँ तो समंदर से उठा कर दो मुट्ठी खारा पानी भरा था मगर जाने क्या हुआ कि पानी तो सारा समंदर में वापस चला गया बस ये किचकिच करती रेत रह गयी है. समंदर कितना निष्ठुर हो गया है. एक मुट्ठी पानी से उसमें कौन सा अकाल पड़ जाता. क्या मिला मेरे हिस्से का थोड़ा सा पानी वापस मांग के.

मुझे दुनिया में जो सबसे वाहियात काम लगता है वो है अपने लिखे को वापस पढ़ना. हालत ऐसी थी कि एक्जाम में कभी पेपर रिविजन तक नहीं कर पाती थी. जितने मार्क्स काटने हैं कट जायें. पर्फेकशनिष्ट की एक ये भी किस्म होती है मेरे जैसी. जिसको अपना किया कुछ कभी अच्छा ही नहीं लगता...कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी बेमानी लगती है. इसी अफरातफरी में इतना कुछ लिखा भी जाता है. जैसे एक कदम आगे चलके दो कदम पीछे चलना.

मुझे एक महीने की छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. समंदर जरूरी है. दिमाग का ये ज्वारभाटा कहीं उतरता नहीं है. हालाँकि इतने सालों में मुझे आदत पड़ जानी चाहिए. नवम्बर. दिसंबर. जाड़ों के ये सर्द दिन बुखार के होते हैं. हरारत के. बिना नींद आँखों वाली बेचैन रातों के. मगर आदत है कि गलत चीज़ों की पड़ती है. अच्छी चीज़ों की पड़ती नहीं. दो किताबें पढ़ीं. इतनी बुरी लगीं...वाकई इतनी बुरीं कि आग लगा देने का मन किया. पापा से बात कर रही थी तो पापा कह रहे थे दुनिया में हर तरह की चीज़ होती है...तुम इतना एक्सट्रीम क्यूँ सोचती हो. पिछले सन्डे ऐसी ही एक किताब में बर्बाद कर दी थी. उम्मीद बड़ी कमबख्त चीज़ होती है. पूरी किताब ये सोच कर पढ़ गयी कि कमबख्त कुछ तो अच्छा होगा आखिर इतने सारे लोग क्या गधे हैं. इसके बाद तौबा कर ली...अपनी पसंद की किताब पढूंगी...और जो किताब शुरू में अच्छी नहीं लग रही उसे छोड़ देने में ही भलाई है. देवघर में होती तो शायद वाकई एक धामा उठा कर लाती और किताबों में आग लगा देती. यहाँ दीवारें काली हो जायें शायद. खतरनाक किस्म की अजीब इंसान हूँ शायद. वक़्त बर्बाद होने पर सबसे ज्यादा कोफ़्त होती है.

मगर फिर कहीं कोई खुदा है कि जो बैलेंस बरक़रार रखता है. कुछ लोग होंगे जिनकी दुआओं का टोकन अप्रूव्ड हो जाता होगा. एक बेहतरीन फिल्म देखी 'सिनेमा पैराडिसो', तब से लगातार उसका ही थीम स्कोर सुन रही हूँ. इस अद्भुत दुनिया में जितना जानो उतना ही मालूम चलता है कि कुछ नहीं आता...अभी तो कुछ नहीं देखा. कई सारी ख्वाहिशों में एक ये भी थी कि कलर लेंस लगाऊं. टु डू लिस्ट से एक आर्टिकल कटा. नीले लेंस ख़रीदे थे. अपनी ही आँखों पर फ़िदा हुयी जा रही थी. चूँकि मेरी आँखें गहरी काली हैं इसलिए लेंस भी ऐसा था कि जिसमें रेखाएं थीं कि काले से मिलजुल कर ही रंग आया था आँखों का. गहरा नीला. कन्याकुमारी से दूर दीखते समंदर के रंग जैसा. फ़िल्मी. ड्रामेटिक.

एकदम खाली. निर्वात. बारिश के बाद के बाढ़ जैसा बाँध तोड़ने वाला उफान. अबडब. कुछ बीच में नहीं कि गंभीर नदी की तरह तयशुदा रास्ते पर चलते रहे नियमित. तमीजदार. उम्र के इस सिरे पर भी बचपना बहुत सा और जिंदगी से अजीब दीवाने किस्म की मुहब्बत. कभी कभी तो ऐसा भी लगा है कि लिखना छूट गया है अब शायद कभी नहीं लिख पाउंगी. मौसम की तरह होता है न सब. फेज. गुजरने वाला. कलमें हैं. जाने कितने रंगों की सियाही खरीद कर लाइन लगा रखी है. कभी कभी उपरवाले से बहुत झगड़ा करने का मन करता है. खुश हो न तुम...तुम्हें मुझसे क्या मतलब. अच्छी खासी चल रही थी जिंदगी. चले आये मुंह उठा कर. मेरी बला से. हुंह. मैं नहीं बात कर रही तुमसे. कभी. मगर याद रखना एक दिन मेरी याद इतनी आएगी न कि इंसान बन कर धरती पर मिलने आओगे मुझसे.

नींद आ रही है. कमरे में सारी किताबें करीने से लगी हुयी हैं आजकल. उनकी कतार देख कर बड़ा सुकून होता है. लगता है कि दुनिया में कहीं कुछ बहुत अच्छा है. लगता है कहीं और रह रही हूँ आजकल. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसी हूँ मैं. कोई नब्ज़ पहचान कर मर्ज़ बताये. दवा बताये न सही चलेगा. जीने के लिए कुछ चीज़ें बेइन्तहा जरूरी होती हैं. ऊपर वाली तस्वीर मेरी डेस्कटॉप की है आजकल. टोनी की तस्वीर लगी है. थोड़ी धुंधली सी. मुझे हमेशा ऐसा महसूस होता है कि इसी दीवार के उस तरफ कोई परफेक्ट दुनिया है. इससे टिक कर एक सिगरेट पी लेने भर से कुछ दिन और जी लेने का हौसला आ जाता है. ऑफिस में एक पैकेट सिगरेट है. ब्लू डनहिल्स. साल भर में कोई दो सिगरेट पी होगी बमुश्किल मगर उस डब्बी का वहीं, वैसे ही, बिना बदले पड़ा होना अजीब सुकून देता है. इजाजत के इस सीन की तरह. 'सब कुछ वही तो नहीं, पर है वहीं'.

लिखने को इतना कुछ हो जाता है. जीने को इतना कुछ कि चौबीस घंटे बहुत कम पड़ते हैं. बहुत कम. इतने में तो तमीज से एक तरकारी, भुनी हुयी रहर की दाल और भात तक नहीं बना के खा सकती रोज. कहाँ से चुराऊं थोड़ा सा और समय. थोड़ा दोस्तों से मिलने को. थोड़ी चढ़ी हुयी विस्की उतारने को. थोड़ी लिखी हुयी को फिर पढ़ने को. नीली आँखों में जो झांकती है वो कोई और है, मैं नहीं. मगर कसम से...कितना प्यार करती हूँ मैं उससे. कितना सारा.
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परसों तुम्हें गए हुए छः साल बीत जायेंगे. मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ. काश कि तुम्हारे जैसी हो पाती जरा जरा भी. तुम्हारी खुशबू मुट्ठी से बिसरती जा रही है मगर तुम कहीं नहीं बिसरती. इस जिंदगी में तो तुम्हारे बिना जीना नहीं आएगा रे.
I love you. Still. More than yesterday and less than tomorrow. 

06 October, 2013

इतवारी डायरी: सुख

ऑफिस के अलावा फ्री टाइम जो भी मिलता है उसमें मुझे दो ही चीज़ें अच्छी लगती हैं. पढ़ना या फिर लिखना. कभी कभी इसके अलावा गाने सुनना शामिल होता है. घर के किसी काम में आज तक मेरा मन नहीं लगा. कपड़े तार पर फैलाना जरा सा अच्छा लगता है बस. इस सब के बावजूद, फॉर सम रीजन मैं खाना बहुत अच्छा बनाती हूँ, पंगा ये है कि खाना बहुत कम बनाती हूँ. उसमें भी मन से खाना बनाना बहुत ही रेयर ओकेजन होता है. कल दुर्गा पूजा शुरू हो गयी. पहली पूजा थी तो सोचा कि कुछ अच्छा करूँ. कुक आई तो नींद के मारे डोल रही थी सो उसे वापस भेज दिया. 


शायद त्योहारों के कारण होगा कि खाना बनाने का मूड था. उसपर घर में अब दस दिन प्याज लहसुन नहीं बनेगा तो खाना बनाना अपने घर जैसा लगता है. सब्जी के नाम पर खाली सीम था घर में. पहले सोचे कि पूड़ी सब्जी बनाएं फिर लगा कि पराठा बनाते हैं. पराठा के साथ बाकी चीज़ खाने का भी स्कोप होता है. फिर तेल में जीरा नहीं डाले बल्कि पचफोरना डाले. खाली फोरन अलग डालने से स्वाद का कितना अंतर आ जाता है ये देखने का दिन भी कभी कभी बनता है. सब सब्जी का बनते हुए अलग गंध होता है, हमको उसमें सीम का बहुत ज्यादा पसंद है. कल लेकिन बिना पूजा किये खा नहीं सकते थे तो खाली सूंघ के ही खुश हो लिए. सीम और छोटा छोटा कटा आलू, फिर मसाला डाल के भूने. फिर टमाटर डाल के और भूने. फिर ऐसे ही मन किया तो एक चम्मच दही डाल दिए. सरसों पीसने का बारी आया तो फिर कन्फ्यूज, हमको कभी नहीं याद रहता कि काला सरसों किसमें पड़ता है और पीला सरसों किसमें, काला सरसों पीसे मिक्सी में और थोड़ा सा सब्जी में डाले. लास्ट में नमक. 

तब तक देखे कि नीचे एक ठो सब्जी वाला है, उसके पास पालक था. उसको रुकने को बोले. भागते हुए पहले शॉर्ट्स चेंज किये. तमीज वाला पजामा पहने फिर नीचे गए तो देखे कि एक ठो बूढ़े बंगाली बाबा हैं साइकिल पर. बंगाली उनके टोन से बुझा गया. पता नहीं काहे...दुर्गा पूजा था इसलिए शायद. बहुत अच्छा लगा. घर जैसा. फिर पलक ख़रीदे, धनिया पत्ता, पुदीना, हरा मिर्ची...जितना कुछ था, सब थोड़ा थोड़ा ले लिए. अब ध्यान आया कि कितना अंतर आया है पहले और अब में. पन्नी लेकर आये नहीं थे, और अब दुपट्टा होता नहीं था कि उसी में बाँध लिए आँचल फैला कर. खैर. मुस्कुराते हुए आये तो लिफ्ट लेने का मन नहीं किया. फर्लान्गते हुए चार तल्ला चढ़ गए. ऊपर आये तो देखे गनीमत है कुणाल सो ही रहा है. 

फिर दाल में पालक डाल के चढ़ा दिए. धनिया पत्ता एकदम फ्रेश था तो सोचे चटनी बना देते हैं. फिर उस बूढ़े बाबा के बारे में सोच रहे थे. कहीं तो कोई कहानी पढ़े थे कि अपने अपने घर से सब बाहर निकलते जाते हैं, नौकरी के लिए, अंत में आखिर क्या मिलता है हाथ में. वही दो रूम का फ़्लैट खरीद कर रहते हैं लोग. पापा अपने गाँव से बाहर निकले. हम लोग देवघर से बाहर निकले. कल को हमारे बच्चे शायद किसी विदेश के शहर में सेटल हो जायें. रिफ्यूजी हैं हम लोग. अपने शहर से निकाले हुए, वही एक शहर हम अपने दिल में बसाए चलते हैं. खाना बनाते हुए पुराने गाने सुन रहे थे. बिना गाना बजाये हम कोई काम नहीं कर सकते. या तो पुराना गाना बजाते हैं, किशोर कुमार या रफ़ी या फिर सोनू निगम. इसके अलावा कोई पसंद नहीं आता हमें. 

कहते हैं त्यौहार के टाइम के खाना में बहुत टेस्ट होता है. कल खाना इतना अच्छा बना था कि क्या बताएं. दाल वैसी ही मस्त, चटनी एकदम परफेक्ट और सब्जी तो कालिताना था एकदम. कुणाल कितना सेंटी मारा कि रे चोट्टी, इतना बढ़िया खाना बनाती है, कभी कभी बनाया नहीं जाता है तुमको. आज बनायी है पता नहीं फिर अगले महीने बनाएगी. इतना अच्छा सब चीज़ देख कर उसको चावल खाने का मन करता है, तो भात चढ़ा दिए कूकर में. वो खाना बहुत खुश हो कर खाता है. हमको खाने से कोई वैसा लगाव नहीं रहा कभी. कभी भी खाना बनाते हैं तो यही सोच कर कि वो खा कर कितना खुश होगा. वही ख़ुशी के मारे खाना बना पाते हैं. 

कल कैसा तो मूड था. पुरानी फिल्मों टाईप. साड़ी पहनने का मन कर रहा था. परसों बाल कटवाए थे रात को तो कल अच्छे से शैम्पू किये. कंधे तक के बाल हो गए हैं, छोटे, हलके. अच्छा लगता है. चेंज इज गुड टाइप्स. भगवान को बहुत देर तक मस्का लगाए कल. शुरू शुरू में पूजा करने में एकदम ध्यान नहीं लगता है, बाकी सब चीज़ पर भागते रहता है. बचपन में नानाजी के यहाँ जाते थे हमेशा दशहरा में. आरती के टाईम हम, जिमी, कुंदन चन्दन सब होते थे. हम और कुंदन शंख बजाते थे, जिमी और चन्दन घंटी. आरती का आखिरी लाइन आते आते बंद आँख में भी वो ओरेंज कलर वाला मिठाई घूमने लगता था. इतने साल हो गए, अब भी आरती की आखिरी लाइन पर पहुँचती हूँ तो मिठाई ही दिखती है सामने. अजीब हंसने रोने जैसा मूड हो जाता है. शंख फूंकना अब भी दहशरा का मेरा पसंदीदा पार्ट है. 

खाना का के मीठा खाने का मन कर रहा था तो कल खीर भी बना लिए. गज़ब अच्छा बना वो भी. खूब सारा किशमिश, काजू और बादाम डाले थे उसमें. शाम को घूमने निकले. फॉर्मल सैंडिल खरीदने का मन था. वुडलैंड में गए तो माथा घूम गया. पांच हज़ार का सैंडिल. बाप रे! फिर कल एक ठो रे बैन का चश्मा ख़रीदे. बहुत दिन से ताड़ के रखे थे. हल्का ब्लू कलर का है. टहलते टहलते गए थे. दो प्लेट गोलगप्पा खाए कुणाल के साथ. फिर पैदल घर. मूड अच्छा रहता है तो रोड पर भी गाना गाते रहते हैं, थोड़ा थोड़ा स्टेप भी करते रहते हैं. कुणाल मेरी खुराफात से परेशान रहता है और मेरा हाथ पकड़े चलता है कि किसी गाड़ी के सामने न आ जाएँ हम. 

आज सुबह उठे सात बजे. धूप खाए. बड़ा अच्छा लगा. फिर सोचे कि दौड़ने चले जायें. अस्कतिया गए. रस्सी कूदने का महान कार्य संपन्न किये. ५०० बार. अपना पीठ ठोके. नौट बैड. ऐब क्रंचेस. १६ के तीन सेट. अब हम आज के हिस्से का खाना बाहर खाने लायक कैलोरी जला लिए हैं. काम वाली तीन दिन के छुट्टी पर गयी है. सुबह से कमर कसे कि बर्तन धोयेंगे. अभी जा के ख़तम हुआ है सारा. किचन चकचका रहा है. अब झाडू पोछा मारेंगे. फिर पूजा करेंगे और निशांत लोग के साथ बाहर खाने जायेंगे. कल एक नया शर्ट ख़रीदे थे लाल रंग का. आज वही पहनने का मूड है. नया कपड़ा पहनने के नामे मिजाज लहलहा जाता है. 

इतना काम करके बैठे हैं. देह का पुर्जा पुर्जा दुखा रहा है. एक कप कॉफ़ी पीने का मन है मगर अनठिया देंगे अभी. तैयार होके निकलना है. सोच रहे हैं सुख क्या होता है. कभी कभी घर का छोटा छोटा काम भी वैसा ही सुख देता है जैसे मन में आई कोई कहानी कागज़ पर उतार दिए हों. अभी दो ठो कहानी आधा आधा पड़ा है ड्राफ्ट में. उसको लिखेंगे नहीं. आराम फरमाएंगे. भर बैंगलोर भटक कर एगो व्हाईट शर्ट खरीदेंगे. कुणाल का माथा खायेंगे. बचा हुआ सन्डे आराम करेंगे. बहुत सारा केओस है पूरी दुनिया में. कितना कुछ बिखरा हुआ है. बहुत सी फाइल्स हार्ड डिस्क से कॉपी करनी हैं रेड वाले लैपटॉप में. एक फॉर्मल सैंडिल खरीदनी है. कपड़े धोने हैं. मगर अभी. मैं कुछ नहीं कर रही.

मैं खाना खाती हूँ तो वो बड़े गौर से देखता है. कल चिढ़ा रहा था कि मेरे इतना खाते वो किसी लड़की को नहीं देखा. उससे भी ज्यादा मैं खाती हूँ तो मुझे कोई गिल्ट फील नहीं होता. बाकी लड़कियां खाते साथ गिल्ट फील करने लगती हैं. वो अब भी ऐसे देखता है मुझे जैसे समझने की कोशिश कर रहा है कि कैसी आफत मेरे मत्थे पड़ गयी है. वो अब भी मुझे देख कर सरप्राइज होता है. एक फिल्म है 'पिया का घर' उसमें सादी सी साड़ी पहने गाना गाती है 'ये जीवन है, इस जीवन का, यही है, यही है, यही है रंग रूप...थोड़े गम हैं, थोड़ी खुशियाँ भी...यही है, यही है, यही है जिंदगी'. बस ऐसे ही किसी जगह हूँ आज. किसी फिल्म में जैसे. कैसी कैसी तो है जिंदगी. पल पल बदलती. मगर जैसी भी है जिंदगी. बहुत प्यार है इससे. 

01 October, 2013

आवाज़ में भँवरें हैं. दलदल है. मरीचिका है. खतरे का निशान है. मेरे सिग्नेचर जैसा.

लड़की हमारे एक रात के क़त्ल का इलज़ाम तुम्हारे सर.
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गिटार बजता है शुरू में...कहीं पहले सुना है. ठीक ऐसा ही कुछ. बैकग्राउंड में लेकिन चुभता हुआ कुछ ऐसे जैसे टैटू बनाने वाली सुई...खून के कतरे कतरे को सियाही से रिप्लेस करती हुयी...दर्द में डुबो डुबो कर लिखती जाती एक नाम. प्यास की तरह खींचती रूह को जिस्म से बाहर.

गीत के कई मकाम होते हैं...सुर बदलता है जैसे मौसम में हवाओं की दिशा बदलती है और तुम्हारे शहर का मौसम मेरे शहर की सांस में धूल के बवंडर जैसा घूमने लगता है. गहरे नीले रंग का तूफ़ान समंदर के सीने से उठा है हूक की तरह, मुझे बांहों में भरता है जैसे कहीं लौट के जाने की इजाजत नहीं देगा. आवाज़ में भँवरें हैं. दलदल है. मरीचिका है. खतरे का निशान है. मेरे सिग्नेचर जैसा.
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इधर कुछ दिन पहले शाम बेहद ठंढी हो गयी थी. जाने कैसे मौसम बिलकुल ऐसा लग रहा था जैसे दिसंबर आ गया है. जानते हो, दिसंबर की एक गंध होती है, ख़ास. जैसे परफ्यूम लगाते हो न तुम, गर्दन के दोनों ओर. तुमसे गले मिलते हुए महसूस होती है भीनी सी...खास तौर से वो जो तुम ट्यूसडे को लगाते हो. मेरी कहानियों में दिसंबर वैसा ही होता है...नीली जींस और सफ़ेद लिनन की क्रिस्प शर्ट पहने हुए, कालरबोन के पास परफ्यूम का हल्का सा स्प्रे. जानलेवा एकदम. दाहिने हाथ में घड़ी. लाल स्वेड लेदर के जूते. आँखें...हमेशा लाईट ब्राउन...सुनहली. उनमें हलकी चमक होती है. गहरे अँधेरे में भी तुम्हारी आँखों की रौशनी से तुम तक पहुँच जाऊं...घुप्प अँधेरे में दूर किले की खिड़की में इंतज़ार के दिए जैसी अनथक लौ.
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देर रात जाग कर लिखने के मौसम वापस आ रहे हैं. दिल पर वही घबराहट का बुखार तारी है. दिल के धड़कने की रफ़्तार लगता है जैसे ४०० पार कर चुकी हो. मेरी कहानियों का इश्क एक ख़ास एक्सेंट में बोलता है. मेरा नाम भी लेता है तो लगता है कोई पुरानी ग्रीक कविता पढ़ कर सुना रहा हो बर्न के फाउंटेन में भीगते हुए. कभी मिले तुमसे तो उससे पाब्लो नेरुदा की कविता सुनना. मूड में होगा तो पूछेगा तुमसे, तुमने ये कविता सुनी है...सुनी भी होगी तो कहना नहीं सुनी...पढ़ी भी होगी तो कहना नहीं पढ़ी है...फिर वो तुम्हें अपना लिखा कुछ सुनाएगा...उस वक़्त मेरी जान खुद को रोक के रखना वरना समंदर में कूद कर जान दे देने को दिल चाहेगा. खुदा न खास्ता उसका गाने का मूड हो गया तब तो देखना कि धरती अपने अक्षांश पर घूमना बंद कर देगी. रेतघड़ी में रुक जाएगा सुनहले कणों का गिरना. तुम्हारे इर्द गिर्द सब कुछ रुक जाएगा. सब कुछ. खुदा जैसा कुछ होता है इसपर भी यकीं हो जाएगा. सम्हलना रे लड़की उस वक़्त.
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देखना उसकी तस्वीर को गौर से रात के ठहरे पहर. ऐतबार करना इस बात पर कि हिचकियों ने उसे सोने नहीं दिया होगा रात भर. खुश हो जाना इस झूठ पर और आइस क्यूब्स में थोड़ी और विस्की डाल लेना. पागल लड़की, बताया था न, ऐसी रात कभी भी लिख दूँगी तुम्हारी किस्मत में...फिर अपनी पसंद की सिगरेट खरीद कर क्यूँ नहीं रखी थी? मत दिया करो लोगों को अपनी सिगरेट पीने के लिए. देर रात तलब लगने पर कार लेकर एयरपोर्ट चली जाना. ध्यान रहे कि स्पीड कभी भी १०० से कम नहीं होनी चाहिए. दिल करे तो १२० पर भी चला सकती हो और अगर बहुत प्यार आये तो १३० पर. न, जाने दो. बड़ी प्यारी कार है, ऐसा करना १०० से ऊपर मत चलाना. कहीं किसी एक्सीडेंट में खुदा को प्यारी हो गयी तो इश्क का क्या होगा.
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उससे जब भी मिलना ऐसे मिलना जैसे आखिरी बार मिल रही हो. उसका ठिकाना नहीं है. एक बार जिंदगी में आये फिर ऐसा भी होता है कि ताजिंदगी इंतज़ार कराये और दुबारा कभी नज़र भी न आये. तुमने उसे देखा नहीं है ना लेकिन, पहचानोगी कैसे? तो ऐसा है मेरी जान...इश्क आते हुए कभी पहचान नहीं आता. सिर्फ उसके जाते हुए महसूस होता है कि वो जा चुका है. उसके जाने पर ऐसा लगेगा जैसे समंदर ने आखिरी लहरें वापस खींच ली हों...दिल ने पम्प कर दी है खून की आखिरी बूँद...लंग्स कोलाप्स कर रहे हों ऐसा निर्वात है चारों ओर. उसके जाने से चला जाता है जिंदगी का सारा राग...रात की सारी नींद...भोर का सारा उजास.
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सामान बांधना और चले जाना नार्थ पोल के पास के किसी गाँव में रहने जहाँ तीन महीने लगातार दिन होता है और फिर पूरे साल रात ही होती है एक लम्बी रात. रात को नृत्य करते हुए लड़के दिखेंगे. गौर से देखना, उसकी खुराफाती आँखें दिखेंगी मेले में ही कहीं. सब कुछ बदल जाता है, उसकी आँखें नहीं बदलतीं. बाँध के रख लेती हैं. गुनाहगार आँखें. पनाह मांगती आँखें. क़त्ल की गुज़ारिश करती आँखें.
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वो कुछ ऐसे गले लगाएगा जैसे कई जन्म बाद मिल रहा हो तुमसे. बर्फ वाले उस देश में औरोरा बोरियालिस तुम्हें चेताने की कोशिश करेगा...पल पल रंग बदलेगा मगर तुम उसकी आँखों में नहीं देख पाओगी खतरे का कोई भी रंग. वो डॉक्टर के स्काल्पेल को रखेगा तुम्हारी गर्दन पर और जैसे आर्टिस्ट खींचता है कैनवास पर पहली रेखा...जैसे शायर लिखता है अपनी प्रेमिका के नाम का पहला अक्षर...जैसे बच्चा सीखता है लिखना आयतें...तीखी धार से तुम्हारी गर्दन पर चला देगा कि मौत महसूस न हो.
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सफ़ेद बर्फ पर लिखेगा तुम्हारे लहू के लाल रंग से...आई लव यू...तुम्हारी रूह मुस्कुराएगी और कहेगी उससे...शुक्रिया.

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