पिछली पोस्ट से आज तक में दस ड्राफ्ट पड़े हुए हैं. ऐसा तो नहीं होता था. अधूरेपन के कितने सारे फेजेस में रखे हुए हैं. सलामत. स्नोवाइट की तरह. गहरी नींद में. सेब का एक टुकड़ा खा लेने के कारण शापित.
---
कितनी सारी कहानियां हैं अधूरी. बचपन के किस्से कुछ. टूटे हुए कविता की पंक्तियाँ कहीं. किसी अनजान शहर से आती आवाज़ तो कहीं समंदर किनारे की आवाज़. पॉकेट में मुट्ठी भर भर के रेत है. ये कुछ भी बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े हैं. जेबों में यूँ तो समंदर से उठा कर दो मुट्ठी खारा पानी भरा था मगर जाने क्या हुआ कि पानी तो सारा समंदर में वापस चला गया बस ये किचकिच करती रेत रह गयी है. समंदर कितना निष्ठुर हो गया है. एक मुट्ठी पानी से उसमें कौन सा अकाल पड़ जाता. क्या मिला मेरे हिस्से का थोड़ा सा पानी वापस मांग के.
मुझे दुनिया में जो सबसे वाहियात काम लगता है वो है अपने लिखे को वापस पढ़ना. हालत ऐसी थी कि एक्जाम में कभी पेपर रिविजन तक नहीं कर पाती थी. जितने मार्क्स काटने हैं कट जायें. पर्फेकशनिष्ट की एक ये भी किस्म होती है मेरे जैसी. जिसको अपना किया कुछ कभी अच्छा ही नहीं लगता...कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी बेमानी लगती है. इसी अफरातफरी में इतना कुछ लिखा भी जाता है. जैसे एक कदम आगे चलके दो कदम पीछे चलना.
मुझे एक महीने की छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. समंदर जरूरी है. दिमाग का ये ज्वारभाटा कहीं उतरता नहीं है. हालाँकि इतने सालों में मुझे आदत पड़ जानी चाहिए. नवम्बर. दिसंबर. जाड़ों के ये सर्द दिन बुखार के होते हैं. हरारत के. बिना नींद आँखों वाली बेचैन रातों के. मगर आदत है कि गलत चीज़ों की पड़ती है. अच्छी चीज़ों की पड़ती नहीं. दो किताबें पढ़ीं. इतनी बुरी लगीं...वाकई इतनी बुरीं कि आग लगा देने का मन किया. पापा से बात कर रही थी तो पापा कह रहे थे दुनिया में हर तरह की चीज़ होती है...तुम इतना एक्सट्रीम क्यूँ सोचती हो. पिछले सन्डे ऐसी ही एक किताब में बर्बाद कर दी थी. उम्मीद बड़ी कमबख्त चीज़ होती है. पूरी किताब ये सोच कर पढ़ गयी कि कमबख्त कुछ तो अच्छा होगा आखिर इतने सारे लोग क्या गधे हैं. इसके बाद तौबा कर ली...अपनी पसंद की किताब पढूंगी...और जो किताब शुरू में अच्छी नहीं लग रही उसे छोड़ देने में ही भलाई है. देवघर में होती तो शायद वाकई एक धामा उठा कर लाती और किताबों में आग लगा देती. यहाँ दीवारें काली हो जायें शायद. खतरनाक किस्म की अजीब इंसान हूँ शायद. वक़्त बर्बाद होने पर सबसे ज्यादा कोफ़्त होती है.
मगर फिर कहीं कोई खुदा है कि जो बैलेंस बरक़रार रखता है. कुछ लोग होंगे जिनकी दुआओं का टोकन अप्रूव्ड हो जाता होगा. एक बेहतरीन फिल्म देखी 'सिनेमा पैराडिसो', तब से लगातार उसका ही थीम स्कोर सुन रही हूँ. इस अद्भुत दुनिया में जितना जानो उतना ही मालूम चलता है कि कुछ नहीं आता...अभी तो कुछ नहीं देखा. कई सारी ख्वाहिशों में एक ये भी थी कि कलर लेंस लगाऊं. टु डू लिस्ट से एक आर्टिकल कटा. नीले लेंस ख़रीदे थे. अपनी ही आँखों पर फ़िदा हुयी जा रही थी. चूँकि मेरी आँखें गहरी काली हैं इसलिए लेंस भी ऐसा था कि जिसमें रेखाएं थीं कि काले से मिलजुल कर ही रंग आया था आँखों का. गहरा नीला. कन्याकुमारी से दूर दीखते समंदर के रंग जैसा. फ़िल्मी. ड्रामेटिक.
एकदम खाली. निर्वात. बारिश के बाद के बाढ़ जैसा बाँध तोड़ने वाला उफान. अबडब. कुछ बीच में नहीं कि गंभीर नदी की तरह तयशुदा रास्ते पर चलते रहे नियमित. तमीजदार. उम्र के इस सिरे पर भी बचपना बहुत सा और जिंदगी से अजीब दीवाने किस्म की मुहब्बत. कभी कभी तो ऐसा भी लगा है कि लिखना छूट गया है अब शायद कभी नहीं लिख पाउंगी. मौसम की तरह होता है न सब. फेज. गुजरने वाला. कलमें हैं. जाने कितने रंगों की सियाही खरीद कर लाइन लगा रखी है. कभी कभी उपरवाले से बहुत झगड़ा करने का मन करता है. खुश हो न तुम...तुम्हें मुझसे क्या मतलब. अच्छी खासी चल रही थी जिंदगी. चले आये मुंह उठा कर. मेरी बला से. हुंह. मैं नहीं बात कर रही तुमसे. कभी. मगर याद रखना एक दिन मेरी याद इतनी आएगी न कि इंसान बन कर धरती पर मिलने आओगे मुझसे.
नींद आ रही है. कमरे में सारी किताबें करीने से लगी हुयी हैं आजकल. उनकी कतार देख कर बड़ा सुकून होता है. लगता है कि दुनिया में कहीं कुछ बहुत अच्छा है. लगता है कहीं और रह रही हूँ आजकल. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसी हूँ मैं. कोई नब्ज़ पहचान कर मर्ज़ बताये. दवा बताये न सही चलेगा. जीने के लिए कुछ चीज़ें बेइन्तहा जरूरी होती हैं. ऊपर वाली तस्वीर मेरी डेस्कटॉप की है आजकल. टोनी की तस्वीर लगी है. थोड़ी धुंधली सी. मुझे हमेशा ऐसा महसूस होता है कि इसी दीवार के उस तरफ कोई परफेक्ट दुनिया है. इससे टिक कर एक सिगरेट पी लेने भर से कुछ दिन और जी लेने का हौसला आ जाता है. ऑफिस में एक पैकेट सिगरेट है. ब्लू डनहिल्स. साल भर में कोई दो सिगरेट पी होगी बमुश्किल मगर उस डब्बी का वहीं, वैसे ही, बिना बदले पड़ा होना अजीब सुकून देता है. इजाजत के इस सीन की तरह. 'सब कुछ वही तो नहीं, पर है वहीं'.
लिखने को इतना कुछ हो जाता है. जीने को इतना कुछ कि चौबीस घंटे बहुत कम पड़ते हैं. बहुत कम. इतने में तो तमीज से एक तरकारी, भुनी हुयी रहर की दाल और भात तक नहीं बना के खा सकती रोज. कहाँ से चुराऊं थोड़ा सा और समय. थोड़ा दोस्तों से मिलने को. थोड़ी चढ़ी हुयी विस्की उतारने को. थोड़ी लिखी हुयी को फिर पढ़ने को. नीली आँखों में जो झांकती है वो कोई और है, मैं नहीं. मगर कसम से...कितना प्यार करती हूँ मैं उससे. कितना सारा.
---
परसों तुम्हें गए हुए छः साल बीत जायेंगे. मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ. काश कि तुम्हारे जैसी हो पाती जरा जरा भी. तुम्हारी खुशबू मुट्ठी से बिसरती जा रही है मगर तुम कहीं नहीं बिसरती. इस जिंदगी में तो तुम्हारे बिना जीना नहीं आएगा रे.
I love you. Still. More than yesterday and less than tomorrow.
---
कितनी सारी कहानियां हैं अधूरी. बचपन के किस्से कुछ. टूटे हुए कविता की पंक्तियाँ कहीं. किसी अनजान शहर से आती आवाज़ तो कहीं समंदर किनारे की आवाज़. पॉकेट में मुट्ठी भर भर के रेत है. ये कुछ भी बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े हैं. जेबों में यूँ तो समंदर से उठा कर दो मुट्ठी खारा पानी भरा था मगर जाने क्या हुआ कि पानी तो सारा समंदर में वापस चला गया बस ये किचकिच करती रेत रह गयी है. समंदर कितना निष्ठुर हो गया है. एक मुट्ठी पानी से उसमें कौन सा अकाल पड़ जाता. क्या मिला मेरे हिस्से का थोड़ा सा पानी वापस मांग के.
मुझे दुनिया में जो सबसे वाहियात काम लगता है वो है अपने लिखे को वापस पढ़ना. हालत ऐसी थी कि एक्जाम में कभी पेपर रिविजन तक नहीं कर पाती थी. जितने मार्क्स काटने हैं कट जायें. पर्फेकशनिष्ट की एक ये भी किस्म होती है मेरे जैसी. जिसको अपना किया कुछ कभी अच्छा ही नहीं लगता...कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी बेमानी लगती है. इसी अफरातफरी में इतना कुछ लिखा भी जाता है. जैसे एक कदम आगे चलके दो कदम पीछे चलना.
मुझे एक महीने की छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. समंदर जरूरी है. दिमाग का ये ज्वारभाटा कहीं उतरता नहीं है. हालाँकि इतने सालों में मुझे आदत पड़ जानी चाहिए. नवम्बर. दिसंबर. जाड़ों के ये सर्द दिन बुखार के होते हैं. हरारत के. बिना नींद आँखों वाली बेचैन रातों के. मगर आदत है कि गलत चीज़ों की पड़ती है. अच्छी चीज़ों की पड़ती नहीं. दो किताबें पढ़ीं. इतनी बुरी लगीं...वाकई इतनी बुरीं कि आग लगा देने का मन किया. पापा से बात कर रही थी तो पापा कह रहे थे दुनिया में हर तरह की चीज़ होती है...तुम इतना एक्सट्रीम क्यूँ सोचती हो. पिछले सन्डे ऐसी ही एक किताब में बर्बाद कर दी थी. उम्मीद बड़ी कमबख्त चीज़ होती है. पूरी किताब ये सोच कर पढ़ गयी कि कमबख्त कुछ तो अच्छा होगा आखिर इतने सारे लोग क्या गधे हैं. इसके बाद तौबा कर ली...अपनी पसंद की किताब पढूंगी...और जो किताब शुरू में अच्छी नहीं लग रही उसे छोड़ देने में ही भलाई है. देवघर में होती तो शायद वाकई एक धामा उठा कर लाती और किताबों में आग लगा देती. यहाँ दीवारें काली हो जायें शायद. खतरनाक किस्म की अजीब इंसान हूँ शायद. वक़्त बर्बाद होने पर सबसे ज्यादा कोफ़्त होती है.
मगर फिर कहीं कोई खुदा है कि जो बैलेंस बरक़रार रखता है. कुछ लोग होंगे जिनकी दुआओं का टोकन अप्रूव्ड हो जाता होगा. एक बेहतरीन फिल्म देखी 'सिनेमा पैराडिसो', तब से लगातार उसका ही थीम स्कोर सुन रही हूँ. इस अद्भुत दुनिया में जितना जानो उतना ही मालूम चलता है कि कुछ नहीं आता...अभी तो कुछ नहीं देखा. कई सारी ख्वाहिशों में एक ये भी थी कि कलर लेंस लगाऊं. टु डू लिस्ट से एक आर्टिकल कटा. नीले लेंस ख़रीदे थे. अपनी ही आँखों पर फ़िदा हुयी जा रही थी. चूँकि मेरी आँखें गहरी काली हैं इसलिए लेंस भी ऐसा था कि जिसमें रेखाएं थीं कि काले से मिलजुल कर ही रंग आया था आँखों का. गहरा नीला. कन्याकुमारी से दूर दीखते समंदर के रंग जैसा. फ़िल्मी. ड्रामेटिक.
एकदम खाली. निर्वात. बारिश के बाद के बाढ़ जैसा बाँध तोड़ने वाला उफान. अबडब. कुछ बीच में नहीं कि गंभीर नदी की तरह तयशुदा रास्ते पर चलते रहे नियमित. तमीजदार. उम्र के इस सिरे पर भी बचपना बहुत सा और जिंदगी से अजीब दीवाने किस्म की मुहब्बत. कभी कभी तो ऐसा भी लगा है कि लिखना छूट गया है अब शायद कभी नहीं लिख पाउंगी. मौसम की तरह होता है न सब. फेज. गुजरने वाला. कलमें हैं. जाने कितने रंगों की सियाही खरीद कर लाइन लगा रखी है. कभी कभी उपरवाले से बहुत झगड़ा करने का मन करता है. खुश हो न तुम...तुम्हें मुझसे क्या मतलब. अच्छी खासी चल रही थी जिंदगी. चले आये मुंह उठा कर. मेरी बला से. हुंह. मैं नहीं बात कर रही तुमसे. कभी. मगर याद रखना एक दिन मेरी याद इतनी आएगी न कि इंसान बन कर धरती पर मिलने आओगे मुझसे.
नींद आ रही है. कमरे में सारी किताबें करीने से लगी हुयी हैं आजकल. उनकी कतार देख कर बड़ा सुकून होता है. लगता है कि दुनिया में कहीं कुछ बहुत अच्छा है. लगता है कहीं और रह रही हूँ आजकल. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसी हूँ मैं. कोई नब्ज़ पहचान कर मर्ज़ बताये. दवा बताये न सही चलेगा. जीने के लिए कुछ चीज़ें बेइन्तहा जरूरी होती हैं. ऊपर वाली तस्वीर मेरी डेस्कटॉप की है आजकल. टोनी की तस्वीर लगी है. थोड़ी धुंधली सी. मुझे हमेशा ऐसा महसूस होता है कि इसी दीवार के उस तरफ कोई परफेक्ट दुनिया है. इससे टिक कर एक सिगरेट पी लेने भर से कुछ दिन और जी लेने का हौसला आ जाता है. ऑफिस में एक पैकेट सिगरेट है. ब्लू डनहिल्स. साल भर में कोई दो सिगरेट पी होगी बमुश्किल मगर उस डब्बी का वहीं, वैसे ही, बिना बदले पड़ा होना अजीब सुकून देता है. इजाजत के इस सीन की तरह. 'सब कुछ वही तो नहीं, पर है वहीं'.
लिखने को इतना कुछ हो जाता है. जीने को इतना कुछ कि चौबीस घंटे बहुत कम पड़ते हैं. बहुत कम. इतने में तो तमीज से एक तरकारी, भुनी हुयी रहर की दाल और भात तक नहीं बना के खा सकती रोज. कहाँ से चुराऊं थोड़ा सा और समय. थोड़ा दोस्तों से मिलने को. थोड़ी चढ़ी हुयी विस्की उतारने को. थोड़ी लिखी हुयी को फिर पढ़ने को. नीली आँखों में जो झांकती है वो कोई और है, मैं नहीं. मगर कसम से...कितना प्यार करती हूँ मैं उससे. कितना सारा.
---
परसों तुम्हें गए हुए छः साल बीत जायेंगे. मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ. काश कि तुम्हारे जैसी हो पाती जरा जरा भी. तुम्हारी खुशबू मुट्ठी से बिसरती जा रही है मगर तुम कहीं नहीं बिसरती. इस जिंदगी में तो तुम्हारे बिना जीना नहीं आएगा रे.
I love you. Still. More than yesterday and less than tomorrow.