27 September, 2008
गलतियों की आदत
हमेशा स्याही वाली कलम या पेंसिल...
अधिकतर पेंसिल ही, और रबर तो हमेशा पास रहता था
याद है मुझे,
ग्लास में पानी भी ले कर बैठती थी
अगर कोई गलती हो जाए
एक बूँद पानी डाल देती थी
और स्याही धुल जाती थी
मुझे याद है कभी कभी ऐसा भी हुआ है
की पूरा पन्ना ले कर बाल्टी में डाल दिया
पता नहीं क्यों...पन्ने फाड़ती नहीं थी कभी मैं
धुल जाता था तो सुकून होता था
पेंसिल की भी अपनी कहानी है
उसकी नोक का स्वाद
कितने केमिस्ट्री के फोर्मुले में घुलता रहता था
कितने फिजिक्स के रहस्य में घिसता रहता था
रबर अक्सर खुशबू वाला लेती थी मैं
फलों वाला, अधिकतर स्ट्राबेरी
और अलग अलग आकार के
और एक मिटने के लिए नटराज का सफ़ेद
शायद बहुत पहले से ही
मैं जानती हूँ कि मुझसे गलतियाँ होंगी
इसलिए उन्हें ठीक करने का इंतजाम पहले करती हूँ
बचपन से गलतियाँ करती आ रही हूँ
अन्तर बस इतना है कि
अब लुत्फ़ आने लगा है...
24 September, 2008
इसलिए आज मैंने एक सिगरेट सुलगा ली
18 September, 2008
काँच की यादें
कि ऊँगली में चुभ गया एक लम्हा...
और बहने लगे आंखों के कोरों से
पिछले कितने कहकहे...
कमरे में थिरकने लगे
आहटों के कितने साए...
खिड़की में आ के छुप गए
लुकाछिपी खेलते बच्चे...
जाने किस दिशा से बहने लगी
रजनीगंधा सी महकी पुरवाई...
और छत से बरसने लगे
हरसिंगार के फूल...
जाने क्यों लगा कि
कुछ कभी बीता नहीं था
बस...ठहर गया था।
16 September, 2008
ये मेरे ही साथ क्यों होता है?
08 September, 2008
दास्तान ऐ दाँत दर्द
दोस्तों के आँखें फाड़ फाड़ के देखने के बावजूद मैं काफ़ी में अक्सर दो तीन पैक चीनी तो डालती ही हूँ। डाईबीटीज़ से मरूंगी इसमे किसी को कोई शक नहीं है...खैर जब मरूंगी तब का तब देखेंगे फिलहाल तो मैं किसी और चीज़ से मरने वाली हूँ। हालांकि मेडिकल हिस्ट्री में कोई रिकॉर्ड नहीं होगा कि दाँत दर्द से किसी कि मौत हुयी हो, वैसे हाल में ये एक अजूबा केस होगा और मेरे बारे में माएँ कितने दिनों तक बच्चो को डरती रहेंगे, एक लड़की थी जो बहुत चॉकलेट खाती थी। किंवदंति बन जाउंगी मैं ...
खैर ये तो रही उटपटांग बातें...
मसला ये है कि कल मेरे हाथ में दाँत का एक टुकडा आ गया...अब मेरी उम्र दूध के दाँत वाली तो है नहीं कि खउष हो कर बगीचे में गाड़ने चल दूँ। तो घबरायी...मनिपाल हॉस्पिटल दौडी...
और आख़िर पता चला कि जिंदगी का सबसे भयावह सपना सच हो गया है...डॉक्टर ने कहा रूट कैनाल करना होगा। मैं ठहरी बहादुर लड़की, ऐसे थोड़े डर जाती...मैंने कहा दांत निकल दो पर लगता है इन लोगो ने अच्छे से पढ़ाई नहीं कि है, बोलने लगे क्यों उखाद्वाओगे, परमानेंट टूथ है, खाना कैसे खोज। आख़िर मैंने हथियार डाल दिए।
तो आज जाना है...हिम्मत जुटा रही हूँ।
भगवान करे मनिपाल के doctors बिना रिज़र्वेशन वाले हों, और उन्होंने बिना पर्ची पढ़े एक्साम पास किए हों।
05 September, 2008
to sir with love
Frank sir this is for you.
You made us shed our inhibitions, you taught us to think free, you taught us to believe in ourselves.
I still remember looking up to you in awe coz you knew so many things, and those were the times when we didnt have internet with us, sir you were our search engine. I dont recall any instance when i asked you for information and you didnt give me a new insight on the subject alltogether.
I remember the radio production classes with you where we saw your amazing linguistic skills...and then all those times at Aasra when we saw movies listened to songs, played games and had so much fun.
Sir you have been like a very good freind whom i can confide and ask advice from...thank you so much sir for being what you are...
you played this song for us in aasra, and i still remember i got goosebumps...so sir today i dedicate this song to you...with love.
To Sir With Love.m... |
lyrics
Those schoolgirl days
of telling tales and biting nails are gone
But in my mind I know they will still live on and on
But how do you thank someone
who has taken you from crayons to perfume?
It isn't easy, but I'll try
If you wanted the sky I would write across the sky in letters
That would soar a thousand feet high
'To Sir, With Love'
The time has come for closing books and long last looks must end
And as I leave I know that I am leaving my best friend
A friend who taught me right from wrong and weak from strong
That's a lot to learn, but what can I give you in return?
If you wanted the moon I would try to make a start
But I would rather you let me give my heart 'To Sir, With Love'
01 September, 2008
एक खूबसूरत गीत...
Chachi420-EkWohDin... |
यहाँ की शामें यादों सी होती हैं...
खूबसूरत, और हर बार अलग ही रंग में बिखरी हुयी
वही चहचहाहट वही झुंड के झुंड लौटते पंछी
कभी कभी कमरे में बैठती हूँ तो लगता है वापस जेएनयू पहुँच गई हूँ...
अपने हॉस्टल के कमरे में...
जहाँ बालकनी से नर्म धूप कमरे तक आती थी
जाडों में आराम से बाल सुखाते हुए, जगजीत की कोई ग़ज़ल सुनते रहते थे
आँखें मूंदे हुए....आवारा ख्याल यूँ ही चहलकदमी करते रहते थे
वो भी क्या दिन थे..उफ्फ्फ
ख़ुद से मुहब्बत हुआ करती थी तब
और आइना कहता था...बा-अदब होशियार :)
तब मुझे काजल लगना बड़ा पसंद हुआ करता था
और कभी कभी शौक़ से बिंदी भी
अब तो जैसे वक्त भागता रहता है
जींस और टी शर्ट डाली और निकल गए
जाने आजकल आईने में कैसी दिखती हूँ
अब कहाँ हो पाती है गुफ्तगू
अब कहाँ वक्त मिलता है
की ढूंढ के एक मनपसंद गीत सुनूँ
फ़िर भी कभी कभी...
ये गीत सुनने का वक्त निकल लेती हूँ...मुझे बेहद पसंद है...
सोचा अकेले सुनने में क्या मज़ा आप भी सुनिए :)
एक शाम सा खुशनुमा और उदास गीत एक साथ।