17 August, 2017

'धुन्ध से उठती धुन' पढ़ना फ़र्स्ट हैंड दुःख है


कुछ अंतिम स्मृतियाँ: नेशनल ग़ैलरी में कारोली फेरेनीस के असाधारण चित्र, कासल की पहाड़ियाँ, पुराने बगीचे और फव्वारे जिन्हें देखकर ऑस्ट्रीयन कवि त्राकल की कविताएँ याद हो आतीं थीं। एक दुपहर रेस्तराँ में बैठे हुए सड़कों पर लोगों को चलते हुए देखकर लगा जैसे मैं पहले भी कभी यहाँ आया हूँ…
हवा में डोलते चेरी के वृक्ष और वह कॉटेजनुमा घर, जहाँ हम इतने दिन बुदापेस्ट में रहे थे। वह होटल नहीं, किसी पुराने नवाब का क़िला जान पड़ता था। क़िले के पीछे एक बाग़ था, घने पेड़ों से घिरा हुआ, बीच में संगमरमर की एक मूर्ति खड़ी थी और बादाम के वृक्ष...यहीं पर मुझे एक कहानी सूझी थी, एक छोटे से देश का दूतावास, जहाँ सिर्फ़ तीन या चार लोग काम करते हैं…कुछ ऐसा संयोग होता है कि उनकी सरकार यह भूल जाती है कि कहीं किसी देश में उनका यह दूतावास है। बरसों से उनकी कोई ख़बर नहीं लेता…वे धीरे धीरे यह भूल जाते हैं, कि वे किस देश के प्रतिनिधि बनकर यहाँ आए थे। बूढ़े राजदूत हर शाम अपने कर्मचारियों के साथ बैठते हैं और शराब पीते हुए याद करने की कोशिश करते हैं कि यहाँ आने से पहले वह कहाँ थे।
यह कहानी है या हमारी आत्मकथा?
~ निर्मल वर्मा, धुन्ध से उठती धुन
***

मैं इस किताब को ऐसे पढ़ती हूँ जैसे किसी और के हिस्से का प्रेम मेरे नाम लिखा गया हो। नेरूदा की एक कविता की पंक्ति है, 'I love you as certain dark things are to be loved, in secret, between the shadow and the soul’। मन के अंधेरे झुटपुटे में किताब के पन्ने रचते बसते जाते हैं। मैं कहाँ कहाँ तलाशती हूँ ये शब्द। दुनिया के किस कोने में छुपी है ये किताब। मैं लिखती हूँ इसके हिस्से अपनी नोट्बुक में। हरी स्याही से। कि जैसे अपनी हैंड्रायटिंग में लिख लेने से ये शब्द ज़रा से मेरे हो जाएँगे। हमेशा की तरह।

मैं इसे दोपहर की धूप में पढ़ती हूँ लेकिन किताब मेरे सपनों में खुल जाती है। बहुत से लोगों के बीच हम मुहब्बत से इसके हिस्से पढ़ते हैं। अपनी ज़िंदगी के क़िस्सों से साथ ही तो। कहाँ ख़त्म होती है धुंध से उठती धुन और कहाँ शुरू होता है कहानियों का सिलसिला। निर्मल किन लोगों की बात करते चलते हैं इस किताब में। उनकी कहानी के किरदार कितनी जगह लुकाछिपी खेलते दिखते हैं इस धुन्ध में। 

लिखे हुए क़िस्से और जिए हुए हिस्से में कितना साम्य है। पंकज ठीक ही तो कहता है इस किताब को, Master key. यहाँ इतना क़रीब से गुंथा दिखता है कहानी और ज़िंदगी का हिस्सा कि हम भूल ही जाते हैं कि वे दो अलग अलग चीज़ें हैं। मैं इसे पढ़ते हुए धूप तापती हूँ। मेरा कैमरा कभी वो कैप्चर नहीं कर पाता जो मैं इस किताब को पढ़ते हुए होती हूँ।

धुन्ध से उठती धुन पढ़ना मुहब्बत में होना है। मुहब्बत के काले, स्याह हिस्से में। जहाँ कल्पनाओं के काले, स्याह कमरे रचे जाते हैं। ख़्वाहिशें पाली जाती हैं। जहाँ दुनियाएँ बनायीं और तोड़ी जाती हैं सिर्फ़ किसी की एक हँसी की ख़ातिर। इसे पढ़ते हुए मैं देखती हूँ वो छोटे छोटे हिस्से कि जो निर्मल की कहानियों में जस के तस आ गए। वे अगर ज़िंदा होते तो मैं डिटेल में नोट्स बनाती और पूछती चलती इस ट्रेज़र हंट के बाद कि मैंने कितने क्लू सही सही पकड़े हैं। 

कहानियाँ ज़िंदगी के पैरलेल चलती हैं। मैं लिखते हुए कितने इत्मीनान से छुपाती चलती हूँ कोई एक वाक्य, कोई एक वाक़या, किसी की शर्ट का रंग कोई। लेकिन क्या मेरे पाठकों को भी इसी तरह साफ़ दिखेंगे वे लोग जिन्हें मैंने बड़ी तबियत से अपनी कहानियों में छुपाया है? वे शहर, वे गालियाँ, वे मौसम कि जो मैंने सच में जिए हैं।

आज एक दोस्त से बात कर रही थी। कि हमें दुःख वे ही समझ आते हैं जो हम पर बीते हैं या हमारे किसी क़रीबी पर। हमें उन दुखों की तासीर ठीक ठीक समझ आ जाती है। फ़र्स्ट हैंड दुःख। धुन्ध से उठती धुन पढ़ना फ़र्स्ट हैंड दुःख है। नया, अकेला और उदास। कोई दूसरा दुःख इसके आसपास नहीं आता। कोई मुस्कान इसका हाथ नहीं थामती। तीखी ठंड में हम बर्फ़ का इंतज़ार करते हैं। मौसम विभाग ने कहा है कि आज आधी रात के पहले बारिश नहीं होगी। 

'तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो', मेरी दुनिया में इस वाक्य की कोई जगह नहीं है। मेरे डर, मेरे अंधेरे, मेरे उदास क़िस्सों में किसी की आँखे नहीं चमकतीं। कितनी बार हलक में अटका है ये वाक्य। इसलिए मैं तुम्हें सिर्फ़ उन किताबों के नाम बताउँगी जिनसे मुझे इश्क़ है। ताकि तुम उन किताबों को पढ़ते हुए कभी किसी वाक्य पर ठहरो और सोच सको कि मैंने तुम्हें वो कहानी पढ़ने को क्यूँ कहा था। 

कभी चलना किसी पहाड़ी शहर। वहाँ की पुरानी लाइब्रेरी में एक रैक पर इस किताब की कोई बहुत पुरानी कॉपी मिल जाएगी। उस समय का प्रिंट कि जब हम दोनों शायद पहली बार किसी इश्क़ में पड़ कर उसे आख़िरी इश्क़ समझ रहे होंगे। प्रेमपत्र में बिना लेखकों के नाम दिए शायरी और कविताएँ लिख रहे होंगे। ग़लतियाँ कर रहे होंगे बहुत सी, इश्क़ में। साथ में पढ़ेंगे कोई किताब, बिना समझे हुए, बड़ी बड़ी बातों को। मिलेंगे कोई दस, पंद्रह, सत्रह साल बाद एक दूसरे से, किसी ऐसे शहर में जो नदी किनारे बसा हो और जहाँ मीठे पानी के झरने हों। याद में कितना बिसर गया होगा किताब का पन्ना कोई। या कि हमारा एक दूसरे को जानना भी। फिर भी कोई याद होगी कि जो एकदम नयी और ताज़ा होगी। एक रात पहले पी कर आउट हो जाने जैसी। थोड़ी धुँधली, थोड़ी साफ़। बीच में कहीं। भूले हुए गीत का कोई टुकड़ा। 

कोई धुन, धुन्ध से उठती हुयी। 
पूछना उस दिन मौसम का हाल, मैं कहूँगी। इश्क़। 

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