बहुत साल पहले दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था...मैं उसे देख कर हमेशा बहुत उदास हो जाती थी. सोचती थी कि ये दुनिया कितनी बड़ी है कि इतने सारे लोग खो जाते हैं और किसी का पता भी नहीं मिलता. मर जाने से ज्यादा बुरा है खो जाना...मर जाने में एक स्थायित्व है. लोग रो पीट कर समझा लेते हैं...कैसी भी परिस्थिति में जी लेते हैं. लेकिन खोये हुए लोग अपने पीछे एक इंतज़ार छोड़ जाते हैं. फिर कोई उस मोड़ से आगे नहीं बढ़ता जहाँ उसका हाथ छूटा था. सब कुछ लौट लौट कर वहीं आता है.
मुझे एक ज़माने में खो जाने का मन करता था...लुका छिप्पी खेलते हुए मैं अक्सर सोचती थी कि अगर ऐसा हुआ कि मैं खो जाऊं और कभी न मिलूँ तो? मैं टीवी में खोये हुए लोगों को बहुत गौर से देखती थी और सोचती थी अगर कोई मिलेगा तो मैं पक्का उसे इस एड्रेस पर पहुंचा दूँगी.
जब से पोलैंड से लौटी हूँ एक अजीब चीज़ होती है...अख़बार में अक्सर मरे लोगों की तसवीरें छपती हैं. मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्यूँ करते हैं. मैं उन तस्वीरों को देखती हूँ तो अजीब सा महसूस होता है, जैसे कि मैं उनको दूर से जानती हूँ...जैसे मरने के बाद वो मेरी दुनिया का हिस्सा बन गए हैं. उनकी कोई कहानी होती है जो उन्हें कहनी होती है...वो मुझसे कहना चाहते हैं. मैं पेपर पलट कर रख देती हूँ और कैल्विन और होब्स में खो जाती हूँ...एक शैतान बच्चा और एक स्टफ टाइगर...इससे ज्यादा कॉम्प्लिकेशन हैंडल नहीं कर सकती हूँ.
---
आज सुबह अखबार में बैंगलोर फिल्म फेस्टिवल के बारे में छपा था...आज ही अपनी बुकिंग कराई है. ऑफिस के और भी तीन चार लोगों की बुकिंग करायी है. पांच सौ रुपये का डेलिगेट पास है...इसमें कोई डेढ़ सौ फिल्में दिखा रहे हैं. मन तो कर रहा है कि हफ्ते भर की छुट्टी लेकर सारी फिल्में देख जाऊं, लेकिन गड़बड़ है कि जोर्ज भी जा रहा है...हमने कहा तो बोला...एय...छुट्टी मैं लेकर जाऊँगा...तुम लोग यहाँ काम सम्हालो. असल में होगा ये कि वीकेंड पर जो फिल्में हैं वो तो देख लेंगे, क्रिसमस वाले दिन भी तीन चार फिल्में देखी जा सकती हैं. उसके अलावा रात के शायद कोई शो देख पाऊं, डिपेंड करता है कि जिस हौल में लगा होगा वो घर से कितनी दूर है. एक दोस्त है निशांत वो भी जा रहा है...अभी कुणाल की बुकिंग नहीं कराई है, उसके घर आने पर करेंगे. टोटल में बहुत से लोग हैं तो अकेले देखने का टेंशन नहीं है. नेहा आज दिन भर ऑफिस से बाहर रही है तो उसकी टिकट भी नहीं हुई है...लौट के आती है तो उसको पकड़ते हैं. मिस करती हूँ उसको. बड़े दिन बाद किसी से थोड़ी दोस्ती हुयी है. बच्ची है वैसे तो...मुझसे छः साल छोटी है...पर हाँ...अच्छा लगता है कि कोई लड़की दोस्त है, गॉसिप करने के लिए, शोपिंग के लिए, उसके जिंदगी और प्यार पे ज्ञान देने के लिए...जरूरत सी लगती है. नन्ही परी है मेरे लिए. अच्छी. प्यारी.
---
सिंपल होने का मन करता है...लगता है कि मन इतने सारे पैरलल ट्रैक्स पर एक साथ सोच नहीं पाता तो अच्छा होता न...इतनी उलझन नहीं होती. शामें अक्सर डिप्रेसिंग होती हैं. मुझे समझ में ये नहीं आता कि खुद के साथ तालमेल बिठाने के लिए कितनी जिंदगी चाहिए. अब भी मैं खुद को समझ क्यूँ नहीं आती...जब कि बहुत सी चीज़ें बार बार घटती हैं...मैं फिर वहीं कैसे चोट खाती हूँ. दो कमरों का घर है, साढ़े चाल साल होने को आये, मुझे अब तक दीवारें कहाँ है पता क्यूँ नहीं है. अब भी टकरा जाती हूँ...कितने सारे नीले निशान होते हैं. अचानक से मन बहुत बहुत उदास हो आया है...सोचती हूँ तो पाती हूँ कि अचानक नहीं है...एक जिंदगी किसी और जिंदगी की रिपीट तो नहीं हो सकती. देजा वू है...
---
काश तुम्हारा ऑफिस इतनी दूर नहीं होता...सिर्फ एक नज़र तुम्हें देखने का कितना मन कर रहा है...कोर्नर हाउस में आइसक्रीम खाने का...एक अच्छी फिल्म साथ देखने का. अपने घर जाने का मन कर रहा है...तुम्हारे ऑफिस होते हुए. कभी कभी लगता है एकदम अकेली हूँ और बेहद रोने का मन करता है...फिर काम में भी मन नहीं लगता. मम्मी की बेतरह याद आ रही है सुबह से. और कितने साल लगेंगे उसके बिना जीना सीखने में?
मुझे एक ज़माने में खो जाने का मन करता था...लुका छिप्पी खेलते हुए मैं अक्सर सोचती थी कि अगर ऐसा हुआ कि मैं खो जाऊं और कभी न मिलूँ तो? मैं टीवी में खोये हुए लोगों को बहुत गौर से देखती थी और सोचती थी अगर कोई मिलेगा तो मैं पक्का उसे इस एड्रेस पर पहुंचा दूँगी.
जब से पोलैंड से लौटी हूँ एक अजीब चीज़ होती है...अख़बार में अक्सर मरे लोगों की तसवीरें छपती हैं. मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्यूँ करते हैं. मैं उन तस्वीरों को देखती हूँ तो अजीब सा महसूस होता है, जैसे कि मैं उनको दूर से जानती हूँ...जैसे मरने के बाद वो मेरी दुनिया का हिस्सा बन गए हैं. उनकी कोई कहानी होती है जो उन्हें कहनी होती है...वो मुझसे कहना चाहते हैं. मैं पेपर पलट कर रख देती हूँ और कैल्विन और होब्स में खो जाती हूँ...एक शैतान बच्चा और एक स्टफ टाइगर...इससे ज्यादा कॉम्प्लिकेशन हैंडल नहीं कर सकती हूँ.
---
आज सुबह अखबार में बैंगलोर फिल्म फेस्टिवल के बारे में छपा था...आज ही अपनी बुकिंग कराई है. ऑफिस के और भी तीन चार लोगों की बुकिंग करायी है. पांच सौ रुपये का डेलिगेट पास है...इसमें कोई डेढ़ सौ फिल्में दिखा रहे हैं. मन तो कर रहा है कि हफ्ते भर की छुट्टी लेकर सारी फिल्में देख जाऊं, लेकिन गड़बड़ है कि जोर्ज भी जा रहा है...हमने कहा तो बोला...एय...छुट्टी मैं लेकर जाऊँगा...तुम लोग यहाँ काम सम्हालो. असल में होगा ये कि वीकेंड पर जो फिल्में हैं वो तो देख लेंगे, क्रिसमस वाले दिन भी तीन चार फिल्में देखी जा सकती हैं. उसके अलावा रात के शायद कोई शो देख पाऊं, डिपेंड करता है कि जिस हौल में लगा होगा वो घर से कितनी दूर है. एक दोस्त है निशांत वो भी जा रहा है...अभी कुणाल की बुकिंग नहीं कराई है, उसके घर आने पर करेंगे. टोटल में बहुत से लोग हैं तो अकेले देखने का टेंशन नहीं है. नेहा आज दिन भर ऑफिस से बाहर रही है तो उसकी टिकट भी नहीं हुई है...लौट के आती है तो उसको पकड़ते हैं. मिस करती हूँ उसको. बड़े दिन बाद किसी से थोड़ी दोस्ती हुयी है. बच्ची है वैसे तो...मुझसे छः साल छोटी है...पर हाँ...अच्छा लगता है कि कोई लड़की दोस्त है, गॉसिप करने के लिए, शोपिंग के लिए, उसके जिंदगी और प्यार पे ज्ञान देने के लिए...जरूरत सी लगती है. नन्ही परी है मेरे लिए. अच्छी. प्यारी.
---
सिंपल होने का मन करता है...लगता है कि मन इतने सारे पैरलल ट्रैक्स पर एक साथ सोच नहीं पाता तो अच्छा होता न...इतनी उलझन नहीं होती. शामें अक्सर डिप्रेसिंग होती हैं. मुझे समझ में ये नहीं आता कि खुद के साथ तालमेल बिठाने के लिए कितनी जिंदगी चाहिए. अब भी मैं खुद को समझ क्यूँ नहीं आती...जब कि बहुत सी चीज़ें बार बार घटती हैं...मैं फिर वहीं कैसे चोट खाती हूँ. दो कमरों का घर है, साढ़े चाल साल होने को आये, मुझे अब तक दीवारें कहाँ है पता क्यूँ नहीं है. अब भी टकरा जाती हूँ...कितने सारे नीले निशान होते हैं. अचानक से मन बहुत बहुत उदास हो आया है...सोचती हूँ तो पाती हूँ कि अचानक नहीं है...एक जिंदगी किसी और जिंदगी की रिपीट तो नहीं हो सकती. देजा वू है...
---
काश तुम्हारा ऑफिस इतनी दूर नहीं होता...सिर्फ एक नज़र तुम्हें देखने का कितना मन कर रहा है...कोर्नर हाउस में आइसक्रीम खाने का...एक अच्छी फिल्म साथ देखने का. अपने घर जाने का मन कर रहा है...तुम्हारे ऑफिस होते हुए. कभी कभी लगता है एकदम अकेली हूँ और बेहद रोने का मन करता है...फिर काम में भी मन नहीं लगता. मम्मी की बेतरह याद आ रही है सुबह से. और कितने साल लगेंगे उसके बिना जीना सीखने में?
सूची तो लुभावनी लग रही है, २१ से २७ हैं भी यहाँ..पर छुट्टी...
ReplyDeleteकभी कभी खोये लोगों से, मिलने की आस में पूरी जिन्दगी बीत जाती है।
ReplyDeleteकभी कभी खोये लोगों से, मिलने की आस में पूरी जिन्दगी बीत जाती है। मेरे ब्लॉग पोस्ट पर आपके कमेंट का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteमरना कभी न होने वाली संवादहीनता और खोना रहकर भी न होनेवाली संवाद की स्थिति सबसे घातक तब कहलाता है कहाँ गए वो लोग.
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट
ReplyDelete"इमेजिंग अर्जेंटीना "देखो इसी सब्जेक्ट पर बनी है पर उदास हो जाओगी देखकर
ReplyDeleteइमेजिंग अर्जेंटीना right hai .... dekho
ReplyDeleteताई कहती थी किसी के मरने की खबर ज्यादा अच्छी है किसी के लापता होने की खबर से ... उनका सबसे बड़ा बेटा लापता हुआ और लौटा नहीं ...वो उसी दिन उस लम्हे पर रुकी थी आगे नहीं बढ़ पा रही थी .... शायद किसी के मरने की खबर आपको आगे धकेल देती है ...जाने दो
ReplyDeleteकुछ न कुछ जरूर ऐसा होता है आपकी पोस्ट में जो मुझे उस शहर की और उससे जुडी बातें याद दिला जाता है...वैसे पूजा अनुराग जी ने सही कहा...अगर आपने नहीं देखा है इमेजिंग अर्जेंटीना तो जरूर देखिएगा!
ReplyDeleteapney mann ki purani yaadon ko blog ka roop diya jaa sakta hi kya?????
ReplyDeleteaise to hazarooon kahaniya ban sakti hi mere jiwan par-------
aapkke 2019 aur 2012 k kuch lekh padhey uskey baad to mai sochney laga ki apni mai biography likh du. jismey saath hi saath kai kahaniyan sama jayengi.
thanks