08 June, 2012

मेरी कन्फ्यूजिंग डायरी

लिखने के अपने अपने कारण होते हैं. मैं देखती हूँ कि मुझे लिखने के लिए दो चीज़ों की जरूरत होती है...थोड़ी सी उदासी और थोड़ा सा अकेलापन. जब मैं बहुत खुश होती हूँ तब लिख नहीं पाती, लिखना नहीं चाहती...तब उस भागती, दौड़ती खुशी के साथ खेलना चाहती हूँ...धूप भरे दिन होते हैं तो छत पर बैठ कर धूप सेकना चाहती हूँ. खुशी एक आल कंज्यूमिंग भाव होता है जो किसी और के लिए जगह नहीं छोड़ता. खुशी हर टूटी हुयी जगह तलाश लेती है और सीलेंट की तरह उसे भर देती है. चाहे दिल की दरारें हों या टूटे हुए रिश्ते. खुश हूँ तो वाकई इतनी कि अपना खून माफ कर दूं...उस समय मुझे कोई चोट पहुंचा ही नहीं सकता. खुश होना एक सुरक्षाकवच की तरह है जिससे गुज़र कर कुछ नहीं जा सकता.

कभी कभी ये देख कर बहुत सुकून होता था कि डायरी के पन्ने कोरे हैं...डायरी के पन्ने एकदम कोरे सिर्फ खुश होने के वक्त होते हैं...खुशियों को दर्ज नहीं किया जा सकता. उन्हें सिर्फ जिया जा सकता है. हाँ इसका साइड इफेक्ट ये है कि कोई भी मेरी डायरी पढ़ेगा तो उसे लगेगा कि मैं जिंदगी में कभी खुश थी ही नहीं जबकि ये सच नहीं होता. पर ये सच उसे बताये कौन? उदासी का भी एक थ्रेशोल्ड होता है...जब हल्का हल्का दर्द होता रहे तो लिखा जा सकता है. दर्द का लेवल जैसे जैसे बढ़ता जाता है लिखने की छटपटाहट वैसे वैसे बढ़ती जाती है. लिखना दर्द को एक लेवल नीचे ले आता है...जैसे मान लो मर जाने की हद तक होने वाला दर्द एक से दस के पॉइंटर स्केल पर १० स्टैंड करता है तो लिखने से दर्द का लेवल खिसक कर ९ हो जाता है और मैं किसी पहाड़ से कूद कर जान देने के बारे में लिख लेती हूँ और चैन आ जाता है.

खुशी के कोई सेट पैरामीटर नहीं हैं मगर उदासी के सारे बंधे हुए ट्रिगर हैं...मालूम है कि उदासी किस कारण आती है. इसमें एक इम्पोर्टेंट फैक्टर तो बैंगलोर का मौसम होता है. देश में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं बैंगलोर में होती हैं. ऑफ कोर्स हम इस शहर के अचानक से फ़ैल जाने के कारण जो एलियनेशन हो रहा है उसको नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते...लोग बिखरते जा रहे हैं. हमारे छोटे शहरों जैसा कोई भी आपका हमेशा हाल चाल पूछने नहीं आएगा तो जिंदगी खाली होती जा रही है...इसमें रिश्तों की जगह नहीं बची है. बैंगलोर में सोफ्टवेयर जनता की एक जैसी ही लाइफ है(सॉरी फॉर generalization). अपने क्यूबिकल में दिन भर और देर रात तक काम और वीकेंड में दोस्तों के साथ पबिंग या मॉल में शोपिंग या फिल्में. साल में एक या दो बार छुट्टी में घर जाना. बैंगलोर इतना दूर है कि यहाँ कोई मिलने भी नहीं आता. उसपर यहाँ का मौसम...बैंगलोर में हर कुछ दिन में बारिश होती रहती है...आसमान में अक्सर बादल रहते हैं. शोर्ट टर्म में तो ये ठीक है पर लंबे अंतराल तक अगर धूप न निकले तो डिप्रेशन हो सकता है. सूरज की रौशनी और गर्मी therapeutic होती है न सिर्फ तन के लिए बल्कि मन को भी खुशी से भर देती है.

इस साल की शुरुआत में दिल्ली गयी थी...बहुत दिन बाद अपने दोस्तों से मिली थी. वो अहसास इतना रिचार्ज कर देने वाला था कि कई दिन सिर्फ उन लम्हों को याद करके खुश रही. मगर यादें स्थायी नहीं होती हैं...धीरे धीरे स्पर्श भी बिसरने लगता है और फिर एक वक्त तो यकीन नहीं आता कि जिंदगी में वाकई ऐसे लम्हे आये भी थे. मैं जब दोस्तों के साथ होती हूँ तब भी मैं नहीं लिखती...दोस्त यानि ऐसे लोग जो मुझे पसंद हैं...मेरे दोस्त. जिनके साथ मैं घंटों बात कर सकती हूँ. पहले एक्स्त्रोवेर्ट थी तो मेरा अक्सर बड़ा सा सर्किल रहता था मगर अब बहुत कम लोग पसंद आते हैं जिनके साथ मैं वक्त बिताना चाहूँ. मुझे लगता है वक्त मुझे बहुत खडूस बना दे रहा है. अब मुझे बड़े से गैंग में घूमना फिरना उतना अच्छा नहीं लगता जितना किसी के साथ अकेले सड़क पर टहलना या कॉफी पीते हुए बातें करना. बातें बातें उफ़ बातें...जाने कितनी बातें भरी हुयी हैं मेरे अंदर जो खत्म ही नहीं होतीं. बैंगलोर में एक ये चीज़ सारे शहरों से अच्छी है...किसी यूरोप के शहर जैसी...यहाँ के कैफे...शांत, खुली जगह पर बने हुए...जहाँ अच्छे मौसम में आप घंटों बैठ सकते हैं.

लिखने के लिए थोड़ा सा अकेलापन चाहिए. जब मैं दोस्तों से मिलती रहती हूँ तो मेरा लिखने का मन नहीं करता...फिर मैं वापस आ कर सारी बातों के बारे में सोचते हुए इत्मीनान से सो जाना पसंद करती हूँ. अक्सर या तो सुबह के किसी पहर लिखती हूँ...२ बजे की भोर से लेकर १२ तक के समय में या फिर चार बजे के आसपास दोपहर में. इस समय कोई नहीं होता...सब शांत होता है. ये हफ्ता मेरा ऐसा गुज़रा है कि पिछले कई सालों से न गुज़रा हो...एक भी शाम मेरी तनहा नहीं रही है. और कितनी तो बातें...और कितने तो अच्छे लोग...कितने कितने अच्छे लोग. मुझे इधर अपने खुद के लिए वक्त नहीं मिल पाया इतनी व्यस्त रही. एकदम फास्ट फॉरवर्ड में जिंदगी.

इधर कुक की जगह मैं खुद खाना बना रही हूँ...तो वो भी एक अच्छा अनुभव लग रहा है. बहुत दिन बाद खाना बनाना शौक़ से है...मुझे नोर्मली घर का कोई भी काम करना अच्छा नहीं लगता...न खाना बनाना, न कपड़े धोना, न घर की साफ़ सफाई करना...पर कभी कभार करना पड़ता है तो ठीक है. मुझे सिर्फ तीन चार चीज़ें करने में मन लगता है...पढ़ना...लिखना...गप्पें मारना, फिल्में देखना और घूमना. बस. इसके अलावा हम किसी काम के नहीं हैं :)

फिलहाल न उदासी है न अकेलापन...तो लिखने का मूड नहीं है...उफ़...नहीं लिखना सोच सोच के इतना लिख गयी! :) :)

20 comments:

  1. ये उदासी है, या फिर जीवन का खालीपन.

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  2. आज से अपनी डायरी के खाली पन्नों को सुख का प्रतीक मान कर और भी प्रसन्न रहने का प्रयास करूँगा।

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  3. डायरी में ढ़ेर सारे खाली पन्ने हों... जहां ख़ुशी अपनी ही भाषा में थिरकती रहे...; गुजरे हफ्ते की तरह ही जीवन में कोई शाम तनहा न हो...
    लेखन तो फिर भी चलेगा ही, रगों में जो बसी है रचनात्मकता...!
    'न लिखने' पर इतना बढ़िया लिखना... वाह:)
    Enjoy cooking!!!

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  4. तुम तो चुप रहने के फायदे पर भी चार घंटा भाषण दे लो.

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    1. सबका अपना अपना टैलेंट होता है :P :P

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  5. पूजा जी,

    कितनी ही बातें आपने ऎसी कहीं जो स्वानुभूत हैं.....

    "लिखने के लिए थोड़ा सा अकेलापन चाहिए. ." खुश होना एक सुरक्षाकवच की तरह है."

    "दर्द का लेवल जैसे जैसे बढ़ता जाता है लिखने की छटपटाहट वैसे वैसे बढ़ती जाती है."

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  6. मुझे नोर्मली घर का कोई भी काम करना अच्छा नहीं लगता...न खाना बनाना, न कपड़े धोना, न घर की साफ़ सफाई करना...

    @ साथियों की बातचीत में एक बार यही बात मेरे पुराने कार्यालय में हमारे 'टीम लीड' गज़न्फर हुसैन ने कही, "मुझे न कपड़े धोना अच्छा लगता है, न नहाना, न सफाई करना ... "

    तो मैंने मज़ाक में झट से कहा, "बस, ऎसी इच्छा ने ही जैन धर्म का प्रादुर्भाव किया."

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  7. ...थोड़ी सी उदासी और थोड़ा सा अकेलापन. जब मैं बहुत खुश होती हूँ तब लिख नहीं पाती, लिखना नहीं चाहती...

    इसी को कवि ने कहा है- सृजन में दर्द का होना जरूरी है।

    पिछ्ले दिनों तुमने बहुत लिखा। बहुत अच्छा लिखा। तुम्हारे दर्द और उदासी की बात सोचकर खराब लग रहा है। :)

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  8. हूँ ...तो पूजा किसी काम की नहीं है। कुणाल पर तरस आ रहा है।
    पक्का है, तुमको सर्दियों में दो-दो दिन तक स्नान करना भी अच्छा नहीं लगता होगा, ख़ासकर दिल्ली की सर्दी में। गन्दी कहीं की।
    पर पूजा! जैसा बता रही हो उस हिसाब से तो बंगलोर लेखकों के लिये अच्छा शहर होना चाहिये। मुझे एकांत अच्छा लगता है....आकाश में थोड़े से बादल भी ....कुछ बून्दा-बान्दी भी। और हाँ ! लेखन की घटना किसी प्रसव से कम नहीं होती ...पीड़ा भी सृजन भी। सच है, लिखने के बाद हलकापन लगता है जैसे सिर का बोझ उतर गया हो। लिखने के बाद उदासी की मनहूसियत गायब हो जाती है...नयी स्पिरिट के साथ जिन्दगी की गाड़ी फिर चल पड़ती है। कुल मिलाकर दर्द अच्छा है और उदासी भी। सच पूछो तो, मुझे सबसे अधिक प्रेम इन्हीं से है। बहुत पहले कभी इसी विषय पर एक कविता लिखी थी, कभी भेजूँगा तुम्हें।

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  9. गजब !
    जब ये लड़की कुछ नही लिखना चाहती तो इतना लिख डालती है ! अगर लिखने का मूड हो जाये तो kya होता !

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  10. "पर लंबे अंतराल तक अगर धूप न निकले तो डिप्रेशन हो सकता है. सूरज की रौशनी और गर्मी therapeutic होती है न सिर्फ तन के लिए बल्कि मन को भी खुशी से भर देती है." Count me too on this..Here in Pune when rain starts, clouds remains for 2-3 months and seriously I hate it! Depression, now that is part of life..Ye dunia gar mil bhi jaye to kya...

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  11. हाँ.. तुम केतना कुछ तो लिख देती हो... कभियो हमको लगता है एक दिन में ४-५ ठो पोस्ट लिखने के बाद रात में बोलो आज हमको लिखने का मूड नय हो रहा था... :P चलो इसी तरह लिखते रहो...

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  12. फिलहाल न उदासी है न अकेलापन...तो लिखने का मूड नहीं है...उफ़...नहीं लिखना सोच सोच के इतना लिख गयी! :) :) thanks not more than this.

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  13. बहुत खूब
    अच्छा लगा यह न लिखने का मूड

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  14. काम मत कर,
    बस फ़िक्र कर,
    फ़िक्र भी मत कर,
    बस फ़िक्र का जिक्र कर।
    मैडम जी, बस जिक्र करने का मूड रहा होगा आपका...

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  15. अच्छा लगा पढकर आपके अकेलेपन और उदासी में लिखी गयी बातें ....
    दिल की तो बेबसी होती है यादें याद दिलाना और बीती बातें भी ..
    मेरे साथ भी यही होता है और मेरा दिल भी यही करता है ...
    बस फर्क इतना है मै अपनी दिल कि बेबसी और उदासी
    और यादें कैमूर पहाड की ऊंचाई तक सिमित रखता हूँ
    और आप उसे हिमालय की चोटी तक ले जाती हैं.
    लेकिन जो भी लिखा ......ओ भी उतर चढाओ से भरा ....लेकिन अच्छा है.... :)

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  16. i really enjoyed reading dis, bahut achcha laga.........

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  17. ultimate, wowest, maine kai saare blogs pade par har din 'laharein' jarur kholta hun,, or meri kuch achaa padne ki pyas bas yahin aakar khatm hoti hai,, raat ke 2-3 baje jab neend naa aaye to laharein pad ke ek sukun milta hai,,, jaise neend na aane par maa ki thapki.....

    sabkuch behatrin

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  18. i think ki hum poetic type ke mizaz wale logo ke dimag mein normal thoughts bhi poetrically ate honge ,tabhi to koi bhi situation ho bas kavita bann hi jati hai...........

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