'परम शान्ति' या 'zen' अवस्था में पहुँचने के लिए सबके अलग अलग तरीके हैं. मेरा भी अपना तरीका है, इश्वर को ढूँढने का, तन मन से शांत होने का. ये और बात है कि मैंने इसकी तलाश नहीं की कभी, अपितु परम ज्ञान की तरह ये खुद मेरे सामने चल कर खड़ा हो गया.
मेरा नया ऑफिस घर से १० किलोमीटर दूर है, आना जाना बाइक से करती हूँ. बंगलोर की सडकें एकदम महीन हैं, महँगी साड़ी की कशीदाकारी जैसी, मजाल है कि एक टांका इधर से उधर हो. जाने बनाने वाले ने ऐसी सडकें बनायीं कैसे...उसपर कहीं पर भी स्पीडब्रेकर...ये दर्द वही समझ सकते हैं जो बंगलोर में रह रहे हों, इसलिए बंगलोर में कभी भी दूरी किलोमीटर में नहीं घंटे में बताई जाती है.
तो मेरा ऑफिस लगभग पैंतालिस मिनट से एक घंटे की दूरी पर है. सुबह लगभग पौने नौ में घर से निकलती हूँ और अधिकतर साढ़े नौ बजे के लगभग पहुँच जाती हूँ. ट्राफिक में चलते कुछ मुझे कुछ दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हुआ...सोचा आपको भी बताती चलूँ.
- ट्राफिक में बाइक वाले और ऑटो वालों का कोई इमान धरम नहीं होता, ये कभी भी किसी भी दिशा में, कितनी भी तेजी से मुड़ सकते हैं. इनमें भी बाइक पर तो फिर भी थोड़ा भरोसा किया जा सकता है क्योंकि सड़क दिखती है आगे की, और थोड़ा अनुमान लगाया जा सकता है कि किस दिशा में बाइक मुड़ने वाली है. ऑटो वाला किसी इंसान को देख कर, अचानक से बायें मुड़ सकता है...या फिर कभी भी दायें कट सकता है. अब इसमें आप उसको ठोक के तो देखिये, जरा सा रगड़ खा जाने पर ऐसी ऐसी बातें सुनने को मिलेंगी कि बस(अगर उसको पता चल जाता है कि आपको कन्नड़ नहीं आती तो आपको हिंदी में भी गरिया सकता है) नानी, दादी, अम्मा, बाबूजी, सारे यार दोस्त एक साथ याद आ जायेंगे.
- ऑटो वाला आपको कभी भी साइड नहीं देगा, चाहे कितना भी होर्न बजा लें, आपके पास गलत तरफ से ओवेर्टेक करने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. और ऐसे में जब आप ओवेर्टेक कर रहे हो, वो अचानक से बायें भी मुड़ सकता है. कहीं से रुके हुए से अचानक चल सकता है और चलते के साथ एकदम राईट लेन में आ सकता है.
- कुछेक बाइक में रियर व्यू मिरर नहीं होते, ऐसा क्यों होता है मुझे कोई अंदाजा नहीं पर ये वो लोग होते हैं जो किसी भी लेन के नहीं होते, कुछ कुछ कॉलेज के रोमियो की तरह, किसी एक से नहीं बंध सकते. कुछ पैंतालिस डिग्री के कोण पर झुकते हुए ये हर गाड़ी को ओवेर्टेक करते हुए चलते हैं.
- सरकारी बस अपने बस में नहीं रहती...अधिकतर सबसे राईट वाली लेन में चलती है. इसका भी कोई ठिकाना नहीं...इसके ब्रेक लाईट, इंडिकेटर वगैरह के चलने की उम्मीद होना बेमानी है...अगर चलते भी हैं तो गाड़ी के चलने से उनका कोई वास्ता नहीं होता. ये ट्राफिक जाम होने का मुख्य कारण होती है. इससे हमेशा दूर ही रहने की कोशिश करनी चाहिए.
- टाटा सुमो/सफारी/बोलेरो/इत्यादि सवारी गाड़ियाँ, ये टैक्सी सर्विसेस होती हैं. अक्सर इतनी तेज और ऐसे चलती हैं जैसे इन्हें पहुँचने में थोड़ी देर हो गयी तो शहर कहीं भाग जाएगा. इन्हें लगातार होर्न बजाने की बीमारी है, अगर आपने साइड दे दी तो आके आगे वाले से आगे जाने के लिए बजायेंगे.
- पैदल आदमी...ये अपनी जान हथेली पर और मोबाइल हाथ में लेकर चलता है...इनका मोबाइल अक्सर कान के आसपास पाया जाता है. ये प्राणी अक्सर वन वे रोड में दूसरी तरफ देखता हुआ चलता है, सड़क पार करते हुए भी मोबाइल कान से चिपका हुआ रहता है. ये लोग शायद 'व्हाट अन आइडिया सरजी' को बहुत सीरियसली लेते हैं...वाल्क एंड टॉक के चक्कर में किसी दिन चल बसेंगे...
- साइकल वाले...ये या तो भले आदमी होते हैं या गरीब. ये किसी को परेशान नहीं करते, अपनी गति से चलते रहते हैं. इन्हें परेशान करने को सारा कुनबा जुटा रहता है क्या कार, क्या बाइक...सभी इनको होर्न बजा बजा के अहसास दिलाते रहते हैं कि 'सड़क तुम्हारे बाप की नहीं है, हमारे बाप की है'.
ये सब तो हैं इस ड्रामे के किरदार...कोई अगर रह गया तो कृपया याद दिलाएं.
इन सबों के साथ सुबह का सफ़र ऐसे कटता है कि क्या कहें. शुरू के एक हफ्ते जब २० मिनट के रस्ते में एक घंटा लगता था तो बड़ी कोफ़्त होती थी. पर हर रोज का ट्रैफिक देख कर बहुत कुछ ध्यान आता है.
जैसे कि 'भगवान' नाम का कुछ तो है कहीं पर...और ये सब मायाजाल उसी का फैलाया हुआ है. संसार की नश्वरता और अपना छोटापन भी ट्रैफिक को देख कर समझ आता है. मैं तो वाकई मोह माया से ऊपर उठ जाती हूँ, कि कुछ कर लो ऑफिस लेट होना ही होना है...दुनिया की कोई ताकत नहीं है जो टाइम पर ऑफिस पहुंचा दे. ट्रैफिक के महासागर में बस, कार, ट्रक, SUV, MUV, इन सबके बीच हम क्या हैं, एक तुच्छ बाइक पर बैठे छोटे इंसान...जायेंगे जब चल देगा रास्ता.
जिस दिन हमको ये अहसास हो गया कि ट्रैफिक का चलना मेरे हाथ में नहीं है, किसी बड़ी ताक़त के हाथ में है, मेरा तन मन आपस में हारमोनियम बजाने लगा...यानि कि आपस में शांति से रहने लगे दोनों. भगवान भरोसे चलना कभी कभी बड़ा आसान कर देता है चीज़ों को.
अब बंगलोर में १० किलोमीटर के रास्ते में अगर एक भी जगह रेड ट्रैफिक लाईट ना मिले तो भगवान् पर भरोसा तो हो ही जाता है. :)
(अगर उसको पता चल जाता है कि आपको कन्नड़ नहीं आती तो आपको हिंदी में भी गरिया सकता है)
ReplyDeleteजिस दिन हमको ये अहसास हो गया कि ट्रैफिक का चलना मेरे हाथ में नहीं है, किसी बड़ी ताक़त के हाथ में है, मेरा तन मन आपस में हारमोनियम बजाने लगा.
रात के १:१५ हो रहे हैं
हम पेट पकड़ के हंस रहे हैं
क्या लिख मारा
सर फट गया
हा हा हा :)
मेरा बस चले तो सब को पकड कर किसी विरान टापू पर भेज दुं, मै २००, २५० किलो मीटर की रफ़तार से कार निडर हो कर चलाता हुं, लेकिन भारत मै पेदल चलते भी डर लगता है, हम आजाद है इस से सिध्द होता है:)
ReplyDeleteचलो ट्रेफिक ज्ञान तो हुआ..भई हम तो जाने कब से समझे बैठे हैं। गाड़ी ही चलाना छोड़ दिया। इसलिए अब तो साईकल भी बिना ड्राइवर के नहीं चलाते।
ReplyDeleteबैंगलोर की यह हालत? हम तो समझते थे कि जबलपुर बस ऐसा है.
ReplyDeleteस्वअनुशासित (सेल्फ डिस्सिप्लिन्ड) न हो पाना हमारे देश के लोगों की जन्मजात आदत है(इन्क्लुडिन्ग माईसेल्फ)। ट्रैफिक की यह हालत पूरे देश मे है। क्या करियेगा।
ReplyDeleteबिल्कुल सच और सहज वर्णन, बंगलोर इसी दिशा में बढ़ रहा है । पिछले 7 माह में हमने केवल एक बार रेड ट्रैफिक लाइट विहीन यात्रा की है, वह भी 1 किमी की, घर से कार्यालय ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी चीज़ के तरफ ध्यान दिलाया है... मैं अपनी एक अधूरी पोस्ट को यहाँ लगा रहा हूँ.
ReplyDeleteसुबह से साढ़े दस बज चुके हैं। मैं बस नं. 429 में सवार हूं जो पुरानी दिल्ली स्टेशन से कालका जी जाती है। दफ्तर पहुंचने में रोज की तरह लेट हूं। ये कोई नई बात नहीं है। अब तो इसे बेहयाई ही कह लीजिए खैर... बहरहाल, प्रगति मैदान के ठीक आगे मटका पीर के पास एक रेड लाईट है जहां मैं ट्रेफिक को रोज 10 मिनट गरियाता हूं। ये वो जगह है जो रोज़ जले पर नमक छिड़कता है यही एक तो लेट दूसरा महालेट.. यह मर्जिंग रोड है
खैर... मैं तो ११ से पहले दफ्तर कभी आया ही नहीं ना आ सकता हूँ. पर जब इससे भी लेट होता है तो सारे भगवन याद आने लगते हैं... एक फायदा और है दो बाइक यहाँ रेस नहीं लगाते और अगर लगाया भी तो कोई पहले अगर आगे निकल जाएगा तो पीछे वाला निश्चिन्त रहता है क्योंकि वो उसे अगले रेड लाइट पर पकड़ लेगा...
बेंगलुरु की हालत तब भी काफी ठीक है . यहाँ तो 4 किलोमीटर जाने में आधे घंटे लगते हैं . कोई राइट लेफ्ट नहीं खुला जंग का मैदान कोई भी कहीं से सामने आकर खड़ा हो जाएगा .
ReplyDeleteयू पी में आपके पेशेंस को रोज खींच कर उसकी परीक्षा ली जाती है ....ट्रेफिक सेन्स भी उतना ही है जितना कोमन सेन्स ....ट्रेफिक हवलदार की कुछ जगहों पर ही चलती है ....यू पी की सड़के इस बात का सबूत है के इस दुनिया में आप अपनी मर्जी से चल सकते है ....ओर मंजिल पर पहुँच सकते है ........टाइम की पाबन्दी नहीं है.....कहते है आपने यहाँ ड्राइविंग कर ली तो आप दुनिया में कही भी ड्राइविंग कर सकते है .....बेचारा बंगलौर तो बहुत भला सा दिखता है इसके आगे
ReplyDeleteअरे पूजा जी आप उन कुत्तों को ( dogs in all literal terms and meaning :-) कोई गाली वाली नहीं दे रहे हम किसी को :- ) ) कैसे भूल गयीं जिन्हें तभी रोड क्रॉस करनी होती है जब गाड़ी एकदम उनके नज़दीक आ जाये... और कोई उन बेचारों को बचाने के चक्कर में चाहे गिरते गिरते ही क्यूँ ना बचे मुड़ के देखते तक नहीं...
ReplyDeleteऔर हमें तो ऑफिस आते समय रेलवे क्रॉसिंग से भी दो चार होना पड़ता है... वैसे तो भारतीय रेलवे टाइम पे कभी आती नहीं पर जिस दिन हमें ऑफिस के लिये निकलने में 5 मिनट भी देर हो जाये पता नहीं कमबख्त को कैसे पता चल जाता है... अब झेलो धूप में एक और जाम और ऑफिस तो खैर टाइम पे वैसे ही कब पहुँचते हैं...
आपकी पोस्ट पढ़ के लगा सुबह सुबह हर ऑफिस जाने वाले का दर्द एक सा ही होता है... चाहे वो बंगलोर हो या लखनऊ... सच्ची मन को टच कर गयी आपकी ये पोस्ट :-)
karib karib sabhi shaharo me traffic ki yahi halat hai ji
ReplyDeletevery true and nice,
ReplyDeleteSpecially that part about Traffic is controlled by higher power, we can not do anythign about.
So Enjoy madi..
KABHI P.I.G saa'b, BULL aur buffalo aur gaiya maiya se samna nahi hua kya? Lucknow aaiye...Road show karke welcome ho jaayega aapka bhi....aur haan! wo kannad mein gali seekh bataiye na .....Lucknow waalon ko denge samajh mein nahi aayegi aur man ki gubaar to nikal jaayegi
ReplyDelete@ Priya
ReplyDeleteवो कन्नड़ में गाली नहीं है
बनारस का एक किस्सा सुनाता हू.. ट्रैफ़िक पुलिस वाला चौराहे पर हाथ दिखाता था और लोग उसके पीछे से निकल जाते थे.. बडी फ़ज़ीहत थी..
ReplyDeleteलखनऊ मे सूमो वाले कब ऊपर से निकल जायेगे पता नही चलता.. लगता है कि सब किसी मिशन (कम्प्यूटर गेम वाला मिशन)पर निकले है.. ओन अ किलिग स्प्री..
बाम्बे का तो खैर क्या ही बोले.. तुम भी कहोगी, बहुत बोलता है :) वैसे ये पोस्ट देखकर लग गया कि कौन कितना बोलता है :)
मैं मानता हूँ कि भारतीय सड़कें और ट्रैफ़िक हमारी राष्ट्रीय एकता की भावना का सही प्रतिनिधित्व करती हैं..इसी से पता लगता है कि यहाँ पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक विविधता मे भी कितनी एकता है..फिर चाहे बेंगलुरू हो या बेलापुर..
ReplyDeleteहैदराबाद मे अपने दो साल के बिताये अनुभव पर एक डच ऐक्सपैट का बहुत मस्त आर्टिकल है इंडियन ट्रैफ़िक..यहाँ पर..इतनी खिंचायी की है उसने कि हमें एक भारतीय होने की वजह से ’पिंच’ होता है..मगर है गज़ब का ’विटी’ और हिलैरियस (और सच भी)..! एक बानगी तो यह स्टेटमेंट ही है-
"Indian road rules broadly operate within the domain of karma where you do your best, and leave the results to your insurance company."