29 October, 2022

रोज़नामचा

What else do you want, to be happy? If there is actually a god that watches over us, he might feel exasperated, at times. I don’t know. एक बहुत साल पहले एक ब्लॉग पोस्ट का शीर्षक था, तामीर में शामिल एकाकीपन। मेरे साथ रह गया। लेखकों-कवियों की पंक्तियाँ हमारे साथ रह जाती हैं। वे हमारे एकाकीपन को कम करने की कोशिश करती हैं। किसी पालतू जानवर से हुए एकतरफ़ा संवाद की तरह। 


कई कई सालों तक मेरी सुबहें अकुलाई हुई होती हूँ। मैं उठती हूँ और घबराहट होती है। दिल की धड़कन तेज रहती है। आँखें थोड़ी थोड़ी नम। इतने बड़े शहर बैंगलोर में इतनी तन्हाई कैसे है, मुझे समझ नहीं आता। कभी कभी कॉफ़ी पीने को एक दोस्त होना चाहिए। जिससे मिल-जुल कर दुःख-सुख की दो बातें की जा सकें। जिसके गले मिल कर कभी रोया जा सके। लोग नहीं हैं, इसलिए भी शायद, मेरा चीजों से जुड़ाव होता है। शायद। मैं तयशुदा तौर से नहीं कह सकती, कि मैं कोई दूसरी तरह का जीवन जीने की कल्पना नहीं कर सकती अभी। मेरी माँ को लोगों को जोड़ना आता था। जहाँ जाती, मुहल्ला बसा लेती। पटना में हम जिस घर में रहते थे, वहाँ के लोग बड़ी मुहब्बत से अब भी उस वक़्त को याद करते हैं, जब सारे त्योहार मिल के मनाए जाते थे। होली, दिवाली, नया साल, दशहरा। मैं उन लोगों को भूल नहीं पाती। उस वक़्त को भी नहीं। 


Before Trilogy में तीन फ़िल्में हैं, सबसे पहली है, बिफ़ोर सनराइज़। उसमें पहली ही जगह किरदार कहता है, जब हमारी उम्र कम होती है तो हमें लगता है हमें ज़िंदगी में बार-बार ऐसे लोग मिलते रहेंगे जिनसे हमारा कनेक्ट हो। लेकिन बहुत बाद में हमें पता चलता है कि ऐसा बहुत कम होता है। बस, कुछेक बार ही। मैं अपनी ज़िंदगी में आए उन लोगों को रखना चाहती हूँ, जिनसे कभी किसी तरह का कनेक्ट हुआ था। लेकिन ज़िंदगी इसे ही तो कहते हैं कि हम दो विपरीत दिशाओं में चलते जाएँ, किसी एक बिंदु से और हर कदम के साथ हमारे बीच की दूरी बढ़ती ही चली जाए।कोई तुम्हें कैसे भूल सकता है’, ऐसे किरदार लिखना, या ऐसा सोचना अब कितना सहज लगता है। कि इसका जवाब तो हमेशा एक ही शब्द का होता है। ज़िंदगी। कि कोई लड़ाई नहीं हुई, कोई झगड़ा नहीं। हम बस, एक दूसरे से दूर हो गए। 


हमारा मेंटल बैलेंस हमारी खुद की ज़िम्मेदारी है। शायद। हमें खुद का ख़्याल खुद से रखना चाहिए। वो चीज़ें तलाश कर करनी चाहिए जो हमें ठीक रखती हैं। जो हमें पागल होने से बचाती हैं। इक इतवार की रात मैं Starbucks में अकेली बैठी कॉफ़ी पी रही थी, ऐसी अक्सर आने वाली इतवार रातों की तरह। कि मेरा मन भर आया और मैं खूब खूब रोने को हो आयी। फिर मैंने ऑफ़िस की एक कलीग को फ़ोन किया जो दोस्त नहीं है, लेकिन थोड़ी-बहुत जान-पहचान है उससे। कि यहाँ अच्छा डिस्को कहाँ पर है, मुझे डांस करने जाना है। फिर बात शुरू कर के यहाँ हो आयी, कि तुम भी चलो, और मुझे डिस्को ले चलो। फिर मैंने एक-दो और लोगों को फ़ोन किया और हम चार-पाँच लोग इतवार रात को दस बजे डिस्को चले गए। मैंने चलने के पहले उस लड़की से पूछा, मैंने साड़ी पहनी है, लोग घूरेंगे तो मुझे disown तो नहीं कर दोगी, कि ये आंटी हमारे साथ नहीं हैं। शायद इसे किसी फ़लसफ़े में सिस्टर्हुड कहते हैं, मुझे नहीं मालूम। लेकिन उसने कहा, वो ऐसा नहीं करेगी। हम पाँच लोग वहाँ पहुँचे। हम mein से किसी को दारू में इंट्रेस्ट नहीं था। म्यूज़िक बज रहा था। डांस फ़्लोर ख़ाली था। हम वहाँ जा कर दो घंटा मन भर नाचे। लोगों ने बहुत घूरा। मुझे ये चीज़ थोड़ी अखरी भी, लेकिन मैंने इस बारे में ज़्यादा सोचा नहीं। अच्छी बात ये रही कि साथ आए चारों लोगों में से किसी को इस बात की परवाह नहीं थी कि मुझे लोग घूर रहे हैं। कि उस डांस फ़्लोर के क़ायदे के हिसाब से मैंने ढंग के कपड़े नहीं पहने हैं। हम खुश थे और ख़ुशी में खूब डांस कर रहे थे। बारह बजे म्यूज़िक बंद हुआ और हम लोग घर चले आए। उस एक रात से मुझे कई दिन जीने का हौसला मिला। 


[बियर नहीं, आइस टी है] 


ऐसे ही एक बेतरह बारिश वाली शाम मैं स्टारबक्स गयी। वहाँ एक घंटा बैठी। सामने सड़क पर नदी बह रही थी। लेकिन मुझे फ़िक्र नहीं थी। मुझे ख़ुद के लिए वो वक़्त चाहिए था। 


सब लोग इतने व्यस्त कैसे हो गए। सोमवार से लेकर शुक्रवार तक बहुत काम करने वाले लोग। दो दिन के वीकेंड में घर की छूटी हुई चीजें करते रह  जाते हैं। थोड़े से सपने की जगह कहाँ बचती है। थोड़ी सी ख़ुशी की। गप्पों की। और लौंग ड्राइव की। थोड़ा सा स्पेस। जीने को। पसंद के गाने सुनने को। एक कोई फ़िल्म देखने को। क्या सब लोग मेरी तरह कम-बेसी परेशान हैं या मेरी मिट्टी में ही तन्हाई मिली हुई है। धूप, हवा, पानी, तन्हाई, बारिश, मौसम, टूटे वादे, बिछड़े दोस्त, छूटे हुए मेलेखो गयी किताबेंधुली हुई स्याही। टूटा टूटा सब कुछ। 



 मैंने इस महीने एक घर ख़रीदा। छोटा सा, 1 bhk. कि लिखने पढ़ने के लिए जगह की दरकार होती है। अपने घर में रहते हुए देखा कि कुछ भी लिखने के लिए जिस तरह के dissociation की ज़रूरत होती है, वो घर में मुमकिन नहीं है। गृह-प्रवेश के दिन लोग गिफ़्ट लेकर आए। मैं पूजा पर बैठी थी तो ठीक ठीक देख नहीं पायी कि किसने क्या दिया। एक लिली का गुलदस्ता था। सिर्फ़ सफ़ेद और गुलाबी लिली के फूलों का। मैं सोचती रही कि किसने दिया, कि लिली के फूलों का ऐसा गुलदस्ता नॉर्मली मिलता नहीं। और मुझे लिली के फूल बहुत पसंद हैं, इतना गौर करने वाले लोग तो इस उत्सव में आए ही नहीं। शायद मेरी छोटी बहनों ने ही दिया होगा। इस शहर में मेरे छोटे चाचा की बेटियाँ रहती हैं। वे आयी थीं। उनमें सबसे छोटी थोड़ा लिखती भी है, सुंदर लिखती है। पिछले बार आयी थी तो मेरे बालों में लगाने के लिए फूलों का गजरा लेकर आयी थी। ये ज़िंदगी में पहली बार था कि किसी ने बालों में लगाने के लिए फूल दिए हों। मैं ख़ुशी से पागल हो गयी थी उस दिन। आँख भर आयी थी। इस बार भी मैंने सब से पूछा कि लिली कौन लाया तो पता ही नहीं चल पा रहा था। मुझे जब फ़ुर्सत मिले तो बाक़ी लोग सोए रहें। आख़िर को बहन से बात हुई तो हम पूछे, कि लिली तुम ही लायी थी ना। वो हंसते हुए बोली, हाँ दीदी। रात पूजा ख़त्म होते होते बारह बज गए थे। खाना-वाना खा के लोग निकले। दोस्त मेरे लिए विदेश यात्रा से एक छोटा सा फूलदान लेकर आया था। फ़्रीडा काहलो वाला। ये बहुत प्यारा था और मेरी टेबल के लिए एकदम सही साइज़ का। मैंने रात में गुलदस्ते से लिली के सारे फूल निकाले और उन्हें उसी वास में रख दिया। कैंची वग़ैरह नहीं थी तो उन्हें काट कर छोटा नहीं कर सकी। वे गिर जाएँ इसलिए उन्हें दिवार से टिका कर कोने में रख दिया। अगले रोज़ दोपहर को नए घर में गयी तो धूप में फूल मुस्कुरा रहे थे। 


लिखना मुझे राहत देता है। साँस ठीक आती है। मन थोड़ा सा शांत हो जाता है। लेकिन ये इतना सा भी लिखने के लिए सुबह का जो एक घंटा चाहिए, वो दुर्लभ है। नामुमकिन तौर से। फिर ब्लॉग पढ़ता भी कौन है। इसलिए आज इत्मीनान से, जो मन किया सो लिख रहे हैं। लिखना मुझे बचाए रखता है। मेरे सबसे ज़्यादा उदास और तन्हा दिनों में। लिखे में ख़ुशी का ज़िक्र इसलिए कम रहता है कि ख़ुशी कम मिलती है, जब हम खुश होते हैं तो उसे जीने में पूरी तरह व्यस्त होते हैं। जब कि दुःख बहुत लम्बा चलता है और हम लिख कर इसकी अवधि को कम तो नहीं कर सकते, लेकिन मन-बहला सकते हैं। स्वाँग रचना खुद को बहलाना, सब अच्छी आदतें हैं जो हमें थिर रखती हैं। 


ऐसा थोड़ा बहुत समय मिलता रहे, और क्या। 


ब्रेख़्त भी तो कहते हैं, The human race tends to remember the abuses to which it has been subjected rather than the endearments. What's left of kisses? Wounds, however, leave scars. 






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