‘उदासी ले लो! उदासी ले लो…हर रंग की उदासी मिलेगी… फीकी, पीली, गहरी नीली… दिल दुखाने वाली, दिल तोड़ने वाली, जानलेवा उदासी… आओ आओ, जो तुम्हें पसंद आए, ख़ुद देख कर छान-बीन कर ले लो, सब माल बिकाऊ है… सब बिका हुआ सामान वापस हो जाएगा, ट्राई कर के देखो… आओ आओ’
सुबह के सात बजे थे और शहर एकदम ख़ामोश था। सड़क चौड़ीकरण में सारे पेड़ काट दिए गए थे तो इस मुहल्ले में चिड़ियों का शोर नहीं होता था अब। वे कुछ महीनों के इंतज़ार के बाद शायद कहीं और चली गयीं, या मर गयीं, मुझे नहीं मालूम। सन्नाटे में कभी कभार कोई गाड़ी तेज़ी से गुज़रती थी….अक्सर काले शीशे चढ़ी हुयी कोई काली रंग की गाड़ी ही। मुझे हमेशा लगता था जैसे कि फिरौती के पैसे मिलने के बाद छोड़ा गया कोई व्यक्ति भाग कर उनसे दूर और अपने परिवार के पास जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी में है।
ग़ज़ब मीठी आवाज़ थी। चुप्पी में उस आवाज़ का आकर्षण और निखर गया था। ज़ाहिर है दिन के शोर में सुनायी भी नहीं पड़ता कि सड़क पर कोई फेरीवाला घूम रहा है। मैंने दो तीन बार ध्यान से सुना कि वो क्या बेच रहा है क्यूँकि अनजान भाषा के इस शहर में अक्सर मैं कुछ और ही समझती हूँ और ख़रीदने को कुछ और ही उतर जाती हूँ ग़लती से। अक्सर बालकनी से झाँक के देख लेना सही रहता है। मैं बालकनी में गयी और नीचे झाँका… ठीक उसी समय उस फेरी वाले ने भी ऊपर देखा, और हालाँकि मुमकिन नहीं था, लेकिन ऐसा लगा कि उसकी आँखें सीधे मेरी आँखों में ही झाँक रही हैं। शायद उसने बड़ी उम्मीद से हर बालकनी की ओर देखा होगा और मेरे सिवा किसी में कोई व्यक्ति न दिखा हो उसे। उसने फिर अपनी टेर लगायी। इस बार मैं कन्फ़र्म थी कि वो ‘उदासी’ ही बेच रहा है और बोली भी हिंदी में ही लगा रहा है। मैंने हल्की सी शॉल डाली और कमरे का ताला बंद करते हुए सोचने लगी, ये अमीरों के इतने पॉश मुहल्ले में हिंदी में क्यूँ बेच रहा है कुछ…अंग्रेज़ी में बेचता तो शायद ज़्यादा लोग ख़रीदने भी आते।
‘क्या बेच रहे हो भैय्या?’
‘उदासी है दीदी, आपको चाहिए?’
मुझे नहीं चाहिए थी…लेकिन उसकी कातर आवाज़ ऐसी थी कि ना नहीं बोला गया। कई बार हम बेमतलब की चीज़ें ख़रीद लेते हैं कि बेचने वाले को शायद उस ख़रीद-फ़रोख़्त की दरकार थी।
‘चलो, दिखाओ…’
‘दीदी हमारे पास हर रंग की उदासी है…आपको कितनी गहरी चाहिए, ये आप ख़ुद चुन लेना’
‘कौन ख़रीदता है उदासी, तुम्हारे घर का ख़र्च चल जाता है इससे?’
‘आपके जैसा कोई न कोई मिल ही जाता है दीदी… रोज़ रोज़ तो बिक्री नहीं है। लेकिन ये पैसे का खेल तो है नहीं, ये दुआओं का कारोबार है। आपने कोई उदासी ख़रीदी तो उस परिवार के लोग आपको और मुझे दुआ देंगे। दुआ मिलेगी तो ज़िंदगी की टेढ़ी मेढ़ी उलझन सुलझ जाएगी। उपरवाला सब कुछ देखता है दीदी, उसका हिसाब कभी गड़बड़ नहीं होता’।
‘मेरे जैसा मतलब कैसा?’
‘ऐसे बड़े शहरों में रहने वाले, उदासी को सिर्फ़ दूर से देखने वाले लोग। आपने दुःख - माने ग़रीबी, भुखमरी, अकाल, बीमारी, अस्पताल में मरते बच्चे, शमशान में बेकफ़न लाश… आपने असल दुःख सिर्फ़ दूर से देखा है। टीवी में, अख़बार में, मोबाइल पर whatsapp फ़ॉर्वर्ड में। आपके पास ज़बरन उगाया हुआ कृत्रिम दुःख है। आपकी उदासी टिकाऊ नहीं है, एक ग्लास बीयर में घुल के ग़ायब हो जाती है। लेकिन हमारा दुःख ख़ालिस है…इसमें कोई मिलावट नहीं, ये आत्मा की चीख़ से उपजा हुआ है, बदन की टीस से।
‘मैं क्यूँ ख़रीदूँ तुम्हारी उदासी?’
‘आप पर उदासी बहुत फबेगी दीदी… हर किसी पर उदासी ख़ूबसूरत नहीं लगती। इस दुःख को छू कर देखिए, उदासी कैसे बदन का लिबास बनती है और कितने रंग उभरते हैं आपकी आँखों में। मेरी उदासी पहन कर आप जिससे जो चाहें करवा सकती हैं, उदासी का आकर्षण अकाट्य है। इसे ओढ़ कर आप किसी से जो भी माँगेगी, मिलेगा, फिर आपको ना कहना नामुमकिन होगा। यही नहीं। ये पूरी तरह नॉन-स्टिक है। जब जी करे, उतार कर रख दीजिएगा। कोई भी एक उदासी ले लो दीदी… बहुत दिन से बिक्री नहीं हुयी है। सुबह सुबह बोहनी हो जाएगी, मेरे बच्चे आपको दुआ देंगे’
‘कहाँ से लाते हो उदासी?’
‘आप भी दीदी, मज़ाक़ करती हैं। इस दुनिया में उदासी की कमी है? देखने वाली नज़र चाहिए… ठहरने को जिगरा और उदासी को ठीक ठीक रखने के लिए दिल में बहुत सी जगह। यूँ ही कोई उदासी का कारोबार नहीं करने लगता’
‘ठीक है…तुम्हारी पास जो सबसे गहरी, सबसे स्याह उदासी है, वो दिखाओ’
‘अरे नहीं दीदी, वो उदासी आप मत लो… उसे बर्दाश्त करने लायक़ ख़ुशी नहीं है आपके पूरे वजूद में। वो उदासी आपने ख़रीद ली तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाउँगा। आप एक काम करो, ये मझोली वाली उदासी अपने पास रख लो। ये उन बच्चों की उदासी है जो स्कूल नहीं जा पाए और बर्तन माँजने लगे। इसे ख़रीदना सबसे आसान भी है। आप कुछ पैसे में इसे ख़रीद सकती हैं। आपको ठीक लगे तो बताओ…मैं शुरू करता हूँ’
‘ठीक है…तुम्हें बेहतर पता होगा, किसे कौन सी उदासी सही रहेगी, तुम जो कहते हो, वही सही’
फिर उसने कहानी सुनानी शुरू की…गाँव, शहर, क़स्बा… कई कई परिवारों की एक ही कहानी… बच्चे जो इतने समझदार थे कि शिकायत भी नहीं करते। बच्चे जो कि इतने होशियार थे कि आगे जा कर डॉक्टर इंजीनियर बनते। बच्चे जो कि इतने होनहार थे कि ढाबे पर बर्तन धोने का काम शुरू किया और खाना बनाना सीख कर ठेला लगाने लगे। उदासी की हर कहानी उम्मीद पर आ कर रूकती थी। उसके पास जितनी उदासी मिली, मेरे पास जितने पैसे थे, मैंने सारी ख़रीद ली। उसने हर ख़रीद की रसीद दी, पक्की रसीद। बच्चे का नाम, उसके स्कूल का ख़र्चा, उसके घर का पता… सब कुछ।
मुझे साल में हर त्योहार पर तस्वीरें और थैंक यू कार्ड आते हैं। जाने ये कौन से बच्चे हैं… लेकिन कहते हैं कि दीदी आपके कारण ही हम स्कूल जा पा रहे हैं। उनकी टेढ़ी मेढ़ी हैंडराइटिंग में उनके क़िस्से होते हैं जिन्हें पढ़ कर मेरी सारी उदासी धुल जाती है, कृत्रिम उदासी, जैसा कि वो कहता था।
मेरे दोस्त कहते हैं, वो मुझे बेवक़ूफ़ बना कर चला गया। मैंने किसी की कहानी सुन कर फ़ालतू में बहुत पैसे दे दिए… इस तरह का स्कैम ख़ूब हो रहा शहर में। डोनेशन पाने के लिए कुछ भी करते हैं। इन पैसों का मैं बहुत कुछ कर सकती थी। बहुत दिन मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन आख़िर छोड़ दिया।
इन दिनों सुबह गौरैय्या दिखती है। बालकनी के टूटे गमले में उसने घोंसला बनाया है। मैं उसके लिए रोज कटोरी में थोड़े दाने और पानी रखती हूँ। कभी कभी लगता है, वो फेरीवाला फिर से आएगा तो इस बार कोई और उदासी मोलाऊँगी।
सुबह के सात बजे थे और शहर एकदम ख़ामोश था। सड़क चौड़ीकरण में सारे पेड़ काट दिए गए थे तो इस मुहल्ले में चिड़ियों का शोर नहीं होता था अब। वे कुछ महीनों के इंतज़ार के बाद शायद कहीं और चली गयीं, या मर गयीं, मुझे नहीं मालूम। सन्नाटे में कभी कभार कोई गाड़ी तेज़ी से गुज़रती थी….अक्सर काले शीशे चढ़ी हुयी कोई काली रंग की गाड़ी ही। मुझे हमेशा लगता था जैसे कि फिरौती के पैसे मिलने के बाद छोड़ा गया कोई व्यक्ति भाग कर उनसे दूर और अपने परिवार के पास जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी में है।
ग़ज़ब मीठी आवाज़ थी। चुप्पी में उस आवाज़ का आकर्षण और निखर गया था। ज़ाहिर है दिन के शोर में सुनायी भी नहीं पड़ता कि सड़क पर कोई फेरीवाला घूम रहा है। मैंने दो तीन बार ध्यान से सुना कि वो क्या बेच रहा है क्यूँकि अनजान भाषा के इस शहर में अक्सर मैं कुछ और ही समझती हूँ और ख़रीदने को कुछ और ही उतर जाती हूँ ग़लती से। अक्सर बालकनी से झाँक के देख लेना सही रहता है। मैं बालकनी में गयी और नीचे झाँका… ठीक उसी समय उस फेरी वाले ने भी ऊपर देखा, और हालाँकि मुमकिन नहीं था, लेकिन ऐसा लगा कि उसकी आँखें सीधे मेरी आँखों में ही झाँक रही हैं। शायद उसने बड़ी उम्मीद से हर बालकनी की ओर देखा होगा और मेरे सिवा किसी में कोई व्यक्ति न दिखा हो उसे। उसने फिर अपनी टेर लगायी। इस बार मैं कन्फ़र्म थी कि वो ‘उदासी’ ही बेच रहा है और बोली भी हिंदी में ही लगा रहा है। मैंने हल्की सी शॉल डाली और कमरे का ताला बंद करते हुए सोचने लगी, ये अमीरों के इतने पॉश मुहल्ले में हिंदी में क्यूँ बेच रहा है कुछ…अंग्रेज़ी में बेचता तो शायद ज़्यादा लोग ख़रीदने भी आते।
‘क्या बेच रहे हो भैय्या?’
‘उदासी है दीदी, आपको चाहिए?’
मुझे नहीं चाहिए थी…लेकिन उसकी कातर आवाज़ ऐसी थी कि ना नहीं बोला गया। कई बार हम बेमतलब की चीज़ें ख़रीद लेते हैं कि बेचने वाले को शायद उस ख़रीद-फ़रोख़्त की दरकार थी।
‘चलो, दिखाओ…’
‘दीदी हमारे पास हर रंग की उदासी है…आपको कितनी गहरी चाहिए, ये आप ख़ुद चुन लेना’
‘कौन ख़रीदता है उदासी, तुम्हारे घर का ख़र्च चल जाता है इससे?’
‘आपके जैसा कोई न कोई मिल ही जाता है दीदी… रोज़ रोज़ तो बिक्री नहीं है। लेकिन ये पैसे का खेल तो है नहीं, ये दुआओं का कारोबार है। आपने कोई उदासी ख़रीदी तो उस परिवार के लोग आपको और मुझे दुआ देंगे। दुआ मिलेगी तो ज़िंदगी की टेढ़ी मेढ़ी उलझन सुलझ जाएगी। उपरवाला सब कुछ देखता है दीदी, उसका हिसाब कभी गड़बड़ नहीं होता’।
‘मेरे जैसा मतलब कैसा?’
‘ऐसे बड़े शहरों में रहने वाले, उदासी को सिर्फ़ दूर से देखने वाले लोग। आपने दुःख - माने ग़रीबी, भुखमरी, अकाल, बीमारी, अस्पताल में मरते बच्चे, शमशान में बेकफ़न लाश… आपने असल दुःख सिर्फ़ दूर से देखा है। टीवी में, अख़बार में, मोबाइल पर whatsapp फ़ॉर्वर्ड में। आपके पास ज़बरन उगाया हुआ कृत्रिम दुःख है। आपकी उदासी टिकाऊ नहीं है, एक ग्लास बीयर में घुल के ग़ायब हो जाती है। लेकिन हमारा दुःख ख़ालिस है…इसमें कोई मिलावट नहीं, ये आत्मा की चीख़ से उपजा हुआ है, बदन की टीस से।
‘मैं क्यूँ ख़रीदूँ तुम्हारी उदासी?’
‘आप पर उदासी बहुत फबेगी दीदी… हर किसी पर उदासी ख़ूबसूरत नहीं लगती। इस दुःख को छू कर देखिए, उदासी कैसे बदन का लिबास बनती है और कितने रंग उभरते हैं आपकी आँखों में। मेरी उदासी पहन कर आप जिससे जो चाहें करवा सकती हैं, उदासी का आकर्षण अकाट्य है। इसे ओढ़ कर आप किसी से जो भी माँगेगी, मिलेगा, फिर आपको ना कहना नामुमकिन होगा। यही नहीं। ये पूरी तरह नॉन-स्टिक है। जब जी करे, उतार कर रख दीजिएगा। कोई भी एक उदासी ले लो दीदी… बहुत दिन से बिक्री नहीं हुयी है। सुबह सुबह बोहनी हो जाएगी, मेरे बच्चे आपको दुआ देंगे’
‘कहाँ से लाते हो उदासी?’
‘आप भी दीदी, मज़ाक़ करती हैं। इस दुनिया में उदासी की कमी है? देखने वाली नज़र चाहिए… ठहरने को जिगरा और उदासी को ठीक ठीक रखने के लिए दिल में बहुत सी जगह। यूँ ही कोई उदासी का कारोबार नहीं करने लगता’
‘ठीक है…तुम्हारी पास जो सबसे गहरी, सबसे स्याह उदासी है, वो दिखाओ’
‘अरे नहीं दीदी, वो उदासी आप मत लो… उसे बर्दाश्त करने लायक़ ख़ुशी नहीं है आपके पूरे वजूद में। वो उदासी आपने ख़रीद ली तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाउँगा। आप एक काम करो, ये मझोली वाली उदासी अपने पास रख लो। ये उन बच्चों की उदासी है जो स्कूल नहीं जा पाए और बर्तन माँजने लगे। इसे ख़रीदना सबसे आसान भी है। आप कुछ पैसे में इसे ख़रीद सकती हैं। आपको ठीक लगे तो बताओ…मैं शुरू करता हूँ’
‘ठीक है…तुम्हें बेहतर पता होगा, किसे कौन सी उदासी सही रहेगी, तुम जो कहते हो, वही सही’
फिर उसने कहानी सुनानी शुरू की…गाँव, शहर, क़स्बा… कई कई परिवारों की एक ही कहानी… बच्चे जो इतने समझदार थे कि शिकायत भी नहीं करते। बच्चे जो कि इतने होशियार थे कि आगे जा कर डॉक्टर इंजीनियर बनते। बच्चे जो कि इतने होनहार थे कि ढाबे पर बर्तन धोने का काम शुरू किया और खाना बनाना सीख कर ठेला लगाने लगे। उदासी की हर कहानी उम्मीद पर आ कर रूकती थी। उसके पास जितनी उदासी मिली, मेरे पास जितने पैसे थे, मैंने सारी ख़रीद ली। उसने हर ख़रीद की रसीद दी, पक्की रसीद। बच्चे का नाम, उसके स्कूल का ख़र्चा, उसके घर का पता… सब कुछ।
मुझे साल में हर त्योहार पर तस्वीरें और थैंक यू कार्ड आते हैं। जाने ये कौन से बच्चे हैं… लेकिन कहते हैं कि दीदी आपके कारण ही हम स्कूल जा पा रहे हैं। उनकी टेढ़ी मेढ़ी हैंडराइटिंग में उनके क़िस्से होते हैं जिन्हें पढ़ कर मेरी सारी उदासी धुल जाती है, कृत्रिम उदासी, जैसा कि वो कहता था।
मेरे दोस्त कहते हैं, वो मुझे बेवक़ूफ़ बना कर चला गया। मैंने किसी की कहानी सुन कर फ़ालतू में बहुत पैसे दे दिए… इस तरह का स्कैम ख़ूब हो रहा शहर में। डोनेशन पाने के लिए कुछ भी करते हैं। इन पैसों का मैं बहुत कुछ कर सकती थी। बहुत दिन मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन आख़िर छोड़ दिया।
इन दिनों सुबह गौरैय्या दिखती है। बालकनी के टूटे गमले में उसने घोंसला बनाया है। मैं उसके लिए रोज कटोरी में थोड़े दाने और पानी रखती हूँ। कभी कभी लगता है, वो फेरीवाला फिर से आएगा तो इस बार कोई और उदासी मोलाऊँगी।