अपनी ख़ुशी के साथ मेरा ग़म भी निबाह दो
इतना हँसो कि आँख से आँसू निकल पड़ें
- अज्ञात (मतलब गूगल करके भी नाम नहीं मिला हमको)
मैं बैंगलोर में पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का बहुत कम इस्तेमाल करती हूँ। पैदल, स्कूटी, एनफ़ील्ड, कार और पैदल। इनमें से जो ठीक रहे दूरी के हिसाब से। ऑटो वाले मुझे कहीं ले नहीं जाते और टैक्सी में मेरा दम घुटता है और सेफ़ भी फ़ील नहीं होता। लेकिन पिछले कुछ दिनों से जहाँ मुझे जाना हो ड्राइव करने का मन नहीं करता और तबियत का भी ये हाल है कि डर लगता है अचानक बिगड़ जाए तो गाड़ी ठोक ना दूँ। फिर इत्तिफ़ाक़न ऐसा है कि जहाँ जाना होता है वो मेट्रो रूट पर होता है। तो मेट्रो से जा रही हूँ।
आज का क़िस्सा ये है कि दोपहर में बहुत अच्छा मौसम था। कभी कभी मुझे लगता है कि मेरे मन का मौसम मेरे जूड़े में बँधा होता है। जिस दिन शैम्पू करती हूँ और बाल खुले रखती हूँ, उस दिन मौसम ख़ास बहुत अच्छा लगता है। तेज़ हवा में बाल कभी बाँधना, कभी खोलना बहुत अच्छा लगता है मुझे। बैंगलोर को ग़ौर से कभी देखा नहीं था, वो भी है। मेट्रो में मैं सिर्फ़ दिल्ली और न्यू यॉर्क में घूमी हूँ और ये दोनों शहर मेरे महबूब शहर हैं।
अगर मन यादों में खोया हुआ है तो सारे मेट्रो एक ही जैसे महसूस होते हैं। मैं बैंगलोर में घूमती हुयी मन से दिल्ली या न्यूयॉर्क होती हूँ। छोटी छोटी चीज़ों में। फिर मेट्रो के ट्रैक पिलर्ज़ पर लगे हैं और इस ऊँचाई से शहर बहुत सुंदर दिखता है। स्टेशन से उतर कर कोई एक डेढ़ किलोमीटर गंतव्य तक पैदल गयी। लौट कर आयी और थोड़ी शॉपिंग के लिए ट्रिनिटी सर्कल पर उतर गयी। कुछ कपड़े ख़रीदे और सोचा कि घर लौट जाऊँगी। लेकिन आज दिन भर लैप्टॉप लिए घूमी हूँ तो मेट्रो स्टेशन आ कर लगा कि चर्च स्ट्रीट वाले स्टारबक्स में बैठूँ थोड़ी देर। थक भी गयी थी। अब चलने में दूरी का अंदाज़ा ग़लत हो गया। ऐप्प दिखा रहा है कि मैं आज कुल मिला कर 8.2 किलोमीटर चली हूँ।
स्टारबक्स में अपनी आइस्ड अमेरिकानो पी कर साढ़े आठ बजे क़रीब निकली। बहुत दिन से कैसीओ की ब्लैक G-शॉक लेने का मन था। आज सोचे कि ख़रीद ही लेंगे। लेकिन दुकान बंद थी, जबकि बंद होने का वक़्त नौ बजे था। वापस लौटते हुए देखा एक इकतारा वाला इकतारा बजा रहा है। उससे एक इकतारा ख़रीदा आज। ख़रीदते हुए एक दोस्त की याद आयी, जिसे ऐसी चीज़ें बहुत पसंद हैं। सोचा कि उसे भेज दूँगी, ठीक से पैक करके। कुरियर।
मेट्रो स्टेशन आयी तो देखा ट्रेन दो मिनट में आने वाली है। भाग के सीढ़ियाँ चढ़ीं। प्लैट्फ़ॉर्म पहुँची तो देखा मेट्रो लगी हुयी है, काफ़ी दूर में। मेरे आगे एक लड़का दौड़ रहा था ट्रेन की ओर। ऐसी कोई हड़बड़ी नहीं थी मुझे, लेकिन आँख के सामने मेट्रो कैसे छोड़ देती, तो मैं भी दौड़ गयी मेट्रो की ओर…एक तो भाग कर सीढ़ियाँ चढ़ी थीं, फिर भाग कर मेट्रो पकड़ी। डिब्बे भरे हुए थे लगभग। अंदर पहुँच कर साँस स्थिर हो ही रही थी कि अगला स्टेशन आ गया। क़ब्बन पार्क। और मैं जाने कितने ज़ोर से बोली, ‘shit’. और पागलों की तरह हँसने लगी। इतना भाग कर मैंने ग़लत ट्रेन पकड़ ली थी। दूसरे प्लैट्फ़ॉर्म की। कुछ याद आ गया और हँसी रुक ही नहीं रही थी। जनरल डिब्बे में चढ़ी थी, उतरने को हुयी तो लोगों ने इशारा किया कि दरवाज़े दूसरी तरफ़ खुले हैं। मैं हँसते हुए ही बाहर निकली। डिब्बे के सारे लोग भी हँस रहे थे साथ में। दो चार क़दम चली होऊँगी तो लगा कि कोई पुकार रहा है पीछे से…मेट्रो आगे बढ़ते हुए हवा पर उड़ता हुआ शोर आया, गुडबाय मैडम। मेट्रो आगे बढ़ चुकी थी, वरना मैं पक्के से घूम कर हाथ हिला कर बाय करती।
क़िस्सा ये था कि एक बहुत प्यारा दोस्त है मेरा। जब नयी नयी ‘तीन रोज़ इश्क़’ आयी थी तो हम सब बहुत उत्साहित थी। ये उन्हीं किन्हीं दिनों की बात है। वो बता रहा था कि सुबह सुबह मेरी किताब पढ़ने में इतना खोया कि पढ़ते हुए मेट्रो में चढ़ गया और गेट जब उसकी ओर खुले तो उसका ध्यान गया कि उलटे साइड की मेट्रो में आ गया है। आठ साल से उसी मेट्रो से ऑफ़िस जा रहा था और ये पहली बार हुआ था उसके साथ।
जब उसकी बात सुनी थी तो मेट्रो देखा नहीं था, उसे भी नहीं देखा था। जब मिली और मेट्रो पर गयी तो उसने दिखाया, देखो इधर वाली मेट्रो पकड़ ली थी। मैं आज उलटे दिशा की मेट्रो से उतरते हुए यही सोचती आयी। दूसरी मेट्रो पर भी पागलों की तरह दाँत चियारते चढ़ी। ज़िंदगी का शुक्रिया अदा किया, कि माना अब ऐसे दोस्तों का नहीं होना बहुत दुखता है लेकिन कितनी अच्छी रही है ना ज़िंदगी कि ऐसे कुछ लोग रहे ज़िंदगी में। ऐसे कुछ शहर कि जिनसे इश्क़ हो। फिर ऐसी कुछ छोटी घटनाएँ हों जो ज़िंदगी को कितना ही रंगभरा बना दें।
तो ज़िंदगी। इन छोटी नियामतों के लिए शुक्रिया।
मुहब्बत।
- अज्ञात (मतलब गूगल करके भी नाम नहीं मिला हमको)
मैं बैंगलोर में पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का बहुत कम इस्तेमाल करती हूँ। पैदल, स्कूटी, एनफ़ील्ड, कार और पैदल। इनमें से जो ठीक रहे दूरी के हिसाब से। ऑटो वाले मुझे कहीं ले नहीं जाते और टैक्सी में मेरा दम घुटता है और सेफ़ भी फ़ील नहीं होता। लेकिन पिछले कुछ दिनों से जहाँ मुझे जाना हो ड्राइव करने का मन नहीं करता और तबियत का भी ये हाल है कि डर लगता है अचानक बिगड़ जाए तो गाड़ी ठोक ना दूँ। फिर इत्तिफ़ाक़न ऐसा है कि जहाँ जाना होता है वो मेट्रो रूट पर होता है। तो मेट्रो से जा रही हूँ।
आज का क़िस्सा ये है कि दोपहर में बहुत अच्छा मौसम था। कभी कभी मुझे लगता है कि मेरे मन का मौसम मेरे जूड़े में बँधा होता है। जिस दिन शैम्पू करती हूँ और बाल खुले रखती हूँ, उस दिन मौसम ख़ास बहुत अच्छा लगता है। तेज़ हवा में बाल कभी बाँधना, कभी खोलना बहुत अच्छा लगता है मुझे। बैंगलोर को ग़ौर से कभी देखा नहीं था, वो भी है। मेट्रो में मैं सिर्फ़ दिल्ली और न्यू यॉर्क में घूमी हूँ और ये दोनों शहर मेरे महबूब शहर हैं।
अगर मन यादों में खोया हुआ है तो सारे मेट्रो एक ही जैसे महसूस होते हैं। मैं बैंगलोर में घूमती हुयी मन से दिल्ली या न्यूयॉर्क होती हूँ। छोटी छोटी चीज़ों में। फिर मेट्रो के ट्रैक पिलर्ज़ पर लगे हैं और इस ऊँचाई से शहर बहुत सुंदर दिखता है। स्टेशन से उतर कर कोई एक डेढ़ किलोमीटर गंतव्य तक पैदल गयी। लौट कर आयी और थोड़ी शॉपिंग के लिए ट्रिनिटी सर्कल पर उतर गयी। कुछ कपड़े ख़रीदे और सोचा कि घर लौट जाऊँगी। लेकिन आज दिन भर लैप्टॉप लिए घूमी हूँ तो मेट्रो स्टेशन आ कर लगा कि चर्च स्ट्रीट वाले स्टारबक्स में बैठूँ थोड़ी देर। थक भी गयी थी। अब चलने में दूरी का अंदाज़ा ग़लत हो गया। ऐप्प दिखा रहा है कि मैं आज कुल मिला कर 8.2 किलोमीटर चली हूँ।
स्टारबक्स में अपनी आइस्ड अमेरिकानो पी कर साढ़े आठ बजे क़रीब निकली। बहुत दिन से कैसीओ की ब्लैक G-शॉक लेने का मन था। आज सोचे कि ख़रीद ही लेंगे। लेकिन दुकान बंद थी, जबकि बंद होने का वक़्त नौ बजे था। वापस लौटते हुए देखा एक इकतारा वाला इकतारा बजा रहा है। उससे एक इकतारा ख़रीदा आज। ख़रीदते हुए एक दोस्त की याद आयी, जिसे ऐसी चीज़ें बहुत पसंद हैं। सोचा कि उसे भेज दूँगी, ठीक से पैक करके। कुरियर।
मेट्रो स्टेशन आयी तो देखा ट्रेन दो मिनट में आने वाली है। भाग के सीढ़ियाँ चढ़ीं। प्लैट्फ़ॉर्म पहुँची तो देखा मेट्रो लगी हुयी है, काफ़ी दूर में। मेरे आगे एक लड़का दौड़ रहा था ट्रेन की ओर। ऐसी कोई हड़बड़ी नहीं थी मुझे, लेकिन आँख के सामने मेट्रो कैसे छोड़ देती, तो मैं भी दौड़ गयी मेट्रो की ओर…एक तो भाग कर सीढ़ियाँ चढ़ी थीं, फिर भाग कर मेट्रो पकड़ी। डिब्बे भरे हुए थे लगभग। अंदर पहुँच कर साँस स्थिर हो ही रही थी कि अगला स्टेशन आ गया। क़ब्बन पार्क। और मैं जाने कितने ज़ोर से बोली, ‘shit’. और पागलों की तरह हँसने लगी। इतना भाग कर मैंने ग़लत ट्रेन पकड़ ली थी। दूसरे प्लैट्फ़ॉर्म की। कुछ याद आ गया और हँसी रुक ही नहीं रही थी। जनरल डिब्बे में चढ़ी थी, उतरने को हुयी तो लोगों ने इशारा किया कि दरवाज़े दूसरी तरफ़ खुले हैं। मैं हँसते हुए ही बाहर निकली। डिब्बे के सारे लोग भी हँस रहे थे साथ में। दो चार क़दम चली होऊँगी तो लगा कि कोई पुकार रहा है पीछे से…मेट्रो आगे बढ़ते हुए हवा पर उड़ता हुआ शोर आया, गुडबाय मैडम। मेट्रो आगे बढ़ चुकी थी, वरना मैं पक्के से घूम कर हाथ हिला कर बाय करती।
क़िस्सा ये था कि एक बहुत प्यारा दोस्त है मेरा। जब नयी नयी ‘तीन रोज़ इश्क़’ आयी थी तो हम सब बहुत उत्साहित थी। ये उन्हीं किन्हीं दिनों की बात है। वो बता रहा था कि सुबह सुबह मेरी किताब पढ़ने में इतना खोया कि पढ़ते हुए मेट्रो में चढ़ गया और गेट जब उसकी ओर खुले तो उसका ध्यान गया कि उलटे साइड की मेट्रो में आ गया है। आठ साल से उसी मेट्रो से ऑफ़िस जा रहा था और ये पहली बार हुआ था उसके साथ।
जब उसकी बात सुनी थी तो मेट्रो देखा नहीं था, उसे भी नहीं देखा था। जब मिली और मेट्रो पर गयी तो उसने दिखाया, देखो इधर वाली मेट्रो पकड़ ली थी। मैं आज उलटे दिशा की मेट्रो से उतरते हुए यही सोचती आयी। दूसरी मेट्रो पर भी पागलों की तरह दाँत चियारते चढ़ी। ज़िंदगी का शुक्रिया अदा किया, कि माना अब ऐसे दोस्तों का नहीं होना बहुत दुखता है लेकिन कितनी अच्छी रही है ना ज़िंदगी कि ऐसे कुछ लोग रहे ज़िंदगी में। ऐसे कुछ शहर कि जिनसे इश्क़ हो। फिर ऐसी कुछ छोटी घटनाएँ हों जो ज़िंदगी को कितना ही रंगभरा बना दें।
तो ज़िंदगी। इन छोटी नियामतों के लिए शुक्रिया।
मुहब्बत।