17 February, 2017

तुमने नमक सिर्फ़ कविताओं में चखा है


‘सिगरेट’… ‘एक सिगरेट मिलेगी?’ इस अजनबी शहर में जितनी बार सोचा है कि माँग लूँ किसी से अपने क़त्ल का सामान। लेकिन ये अजीब शहर है कि यहाँ कोई अजनबियों का क़त्ल नहीं करता। सिगरेट देने के पहले वे चूमना चाहते हैं मेरे होंठ। वे अँधेरा बुलाना चाहते है कि सिगरेट जलाते हुए देख सकें मेरी आँखें। मैंने तुम्हारे नाम के रेशम दस्ताने पहने हुए हैं कि कोई छू ना सके तुम्हारा नाम। कि कोई लिख ना दे तुम्हारे नाम से कविता कोई। मगर वे एक सिगरेट के बदले माँगते हैं मुझसे मेरे बाएँ हाथ का नीला दस्ताना। तुम्हें याद है पिछली सर्दियों में तुमने दिलवाए थे नीले दस्ताने? धुएँ ने वादा किया है कि वो मेरे इर्द गिर्द बहते समय को रोक कर रखेगा कि एक सिगरेट की ही तो बात है।

मैंने उसकी शक्ल नहीं देखी। सिर्फ़ लाइटर देखा है उसका। मगर उसने धोखे से पकड़ कर मेरा हाथ चूम ली है मेरी हथेली। सहम गयी है बेफ़िक्र मुस्कुराती हार्ट लाइन। हार्ट लाइन। तुमसे पहली बार मिली थी तो वो पहली चाँद की रात थी। मैंने लजा कर दोनों हथेलियों में ढक लिया था चेहरा…हौले से खोल कर हथेलियाँ, ठीक बीच से तोड़ा था चाँद और इसी हार्ट लाइन के पार तुम्हें पहली बार देखा था। उस अजनबी को कुछ भी नहीं मालूम। उसने इश्क़ नहीं जाना है, वो सिर्फ़ ज़िद जानता है। नियम जानता है। और इस शहर के नियम कहते हैं किसी अजनबी को सिगरेट नहीं दे सकते हैं। उसने मुझे अपने प्रेमिका कह कर पुकारने के लिए ही ऐसा किया है। हार्ट लाइन ग़ुस्से में फुफकार उठी है और कोड़े की तरह बरस गयी है उसके होठों पर। मुझे बेआवाज़ सिर्फ़ दिल तोड़ना ही नहीं, थप्पड़ मारना भी आता है। आज मालूम चला है।

तुम्हारा नाम जिरहबख़्तर है। मैं आशिक़ों के शहर जाते हुए आँखों में तुम्हारे नाम का पानी लिए चलती हूँ। नमक से चीज़ों में जल्दी जंग लग जाती है, इस डर से कोई मेरी खारी आँखें नहीं चूमता। 

तुम्हारा स्पर्श एक मौसम है। बदन में खिलता हुआ। टहकता हुआ। गहरा लाल। सुर्ख़ नीला। काई हरा। जिन्होंने नहीं छुआ है तुम्हें वे बर्बाद हो जाने वाले इस मौसम से अनजान हैं। 

उनके लिए ये शहर वसंत है। कि जिसने बौराने की इजाज़त पुराने आम के पेड़ से ली है जिसमें इस साल मंज़र नहीं आएँगे। सड़कें मेरे नंगे पैरों के नीचे काले कोलतार के अंगारे बिछाते जाती हैं। इस पूरी दुनिया के सड़कों की लम्बाई बढ़ती जाती है जब भी कभी इश्क़ होता है मुझे। इक तुम्हारे पुकारने से बनने लगते हैं क़िस्से वाले शहर। कविताओं की बावलियाँ कि जिनमें प्यास छलछलाया करती है। उफ़। तुमने मेरा नाम लिया था क्या?

इस यूनिवर्स के expand करने की conspiracy थ्योरी सुनोगे? ऐसा इसलिए है कि तुम्हारा शहर मेरे दिल से दूर होता जाए। गुरुत्वाकर्षण फ़ोर्स जानते हो क्या होता है? इश्क़। जो सारी चीज़ों को आपस में बाँध के रखता है। किसी ऐटम का वजूद ही नहीं होता…इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन और neutron तक अलग अलग होते रहते। 

कि जानां, दुनिया की सबसे छोटी इकाई जानते हो क्या है? हिज्र। हम जब मिले थे और अगली बार जब मिलेंगे ये तुमसे मिलने के पलक झपकाते महसूस होने लगता है। इक साँस और दूसरी साँस के बीच खिंचती खाई है हिज्र। 

मगर मुझे थोड़ा बौराने की इजाज़त दो। इस शहर, इस मौसम और बिना सिगरेट की इस शाम की ख़ातिर। हम और तुम आख़िर अलग अलग शहरों में हैं। इश्क़ और पागलपन में इक शहर भर का अंतर है। तुम मेरे शहर में होते तो इश्क़ ने तबाही के शेड में रंग दिए होते मेरे कमरे के सारे काग़ज़। फिर मैं तुम्हें कैसे लिखती ख़त। कैसे। बिना ख़त के कैसे आते तुम मुझसे मिलने? कभी होता कि चाँद रात अपनी छत पर खड़े होकर तुमने देखा हो ध्रुवतारे को, ये जानते हुए कि मैंने तुम्हें बेतरह याद किया है? याद ऐसी नहीं कि लिख लूँ खत और एक शाम जीने की, साँस लेने की मोहलत मिल जाए। याद ऐसी कि जैसे माँगी जाती है दुआ, मैं घुटनों के बल बैठूँ। धुली हुयी गहरी गुलाबी साड़ी में। कानों में झूलते हो गुलाबी ही झुमके कि जिनमें लगे हों तुम्हारे शहर की नदी से निकाले गए क़ीमती पत्थर। सर पर आँचल खींचूँ। दोनों हथेलियों को जोड़ूँ साथ में और चाँद को बंद कर दूँ एक दुआ में। 

जानां। मैं मर जाऊँगी। मुझसे मिलने मेरे शहर आ जाओ।

तुम्हें समंदर का स्वाद नहीं मालूम। तुमने नमक सिर्फ़ कविताओं में चखा है। या कि तीखी सब्ज़ियों में। हज़ार मसालों के साथ जानते हो तुम नमक। कभी ऐसे शहर में गए हो जहाँ आँसुओं की बारिश होती है? अपनी हथेली चूमते हुए महसूसा है नमक को?कई साल तक उँगलियों के पोर में आँसू जज़्ब होते हैं तो उँगलियाँ नमक की बन जाती हैं। तुम क्यूँ चूमना चाहते हो मेरी उँगलियाँ? तुम्हें किसी ने कहा कि तुम्हारे लब खारे हैं? किसी ने चूमा है तुम्हें यूँ कि ख़ून का स्वाद और तुम्हारे होठों का स्वाद एक जैसा लगे?

मैं सिर्फ़ पागल हो रही होती तो कभी नहीं कहती तुमसे। मगर मेरी जान। मैं मर रही हूँ। 

सुनो जानां, आते हुए सिगरेट लेते आना।

16 February, 2017

बिसरता स्पर्श २ - मुहब्बत और टच मी नॉट

ज़िंदगी को बहुत गहराई से महसूसती हूँ। मेरे लिखने में और मेरे होने में चीज़ों की गंध और स्पर्श अक्सर हुआ करती है। मैं इन दिनों यादों से खंगाल कर स्पर्श के कुछ टुकड़े रख रही हूँ। एक बेतुकी सी डायरी की तरह। आपके वक़्त की क़ीमत ज़्यादा है तो इसे यहाँ जाया ना करें। ये बस यूँ ही लिखा गया है। इसका हासिल कुछ नहीं है। एक सफ़र है, जिसके कुछ पड़ाव हैं। बस 
***
मेरा बचपन देवघर में बीता है। सेंट फ़्रैन्सिस स्कूल, जसिडीह। इसके बाद देवघर में बारहवीं की पढ़ाई करने के लिए ढंग के स्कूल नहीं थे और पापा का ट्रान्स्फ़र हो गया और हम पटना आ गए। पटना में सेंट जोसेफ़्स कॉन्वेंट में मेरा अड्मिशन हो गया। अभी तक मैंने को-एड में पढ़ाई की, जहाँ लड़के लड़कियाँ सारे साथ में थे। मगर ये सिर्फ़ लड़कियों वाला स्कूल था। मुझे अभी भी मेरा पहला हफ़्ता याद है वहाँ का। चारों तरफ़ इतनी सारी लड़कियाँ। इतना शोर। एक तरह से कह सकते हैं, मैंने उम्र भर के लिए लड़कियों से कहीं मन ही मन में तौबा कर ली थी। मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। लड़कियों की एक अलग क़िस्म की दुनिया थी, अलग क़िस्म की बातें जिनसे मैं एकदम अनभिज्ञ रही थी अभी तक।

इसी स्कूल में पहली बार ठीक ठीक तारीके से लेसबियन और गे के बारे में पहली पहली बार सुना था। हमारे बैच में दो लड़कियाँ थीं जो हमेशा एक दूसरे के साथ रहती थीं। ख़बर गरम थी कि उनके बीच कुछ चल रहा है। इस चलने का पता इससे चलता था कि वे हमेशा एक दूसरे से चिपकी हुयी चलती थीं। हाथ पकड़े रहती थीं। कभी एक दूसरे के बालों से खेलती रहती थीं। क्लास में भी हाथ पकड़ कर बैठी रहती थीं। इस स्कूल में आने के पहले मैंने ये जाना था कि किसी लड़के को छूना या उसके साथ ज़्यादा क्लोज़ होना बुरा है। कि इससे कह दिया जाएगा कि तुम बुरी लड़की हो, तुम्हारा किसी के साथ कुछ चक्कर चल रहा है। लड़कियों के साथ सटना घर परिवार या मुहल्ले में बुरा नहीं माना जाता था। लड़कियों के साथ बिस्तर में लेटे लेटे बात की जा सकती थी। उनकी गोद में सर रखा जा सकता था। वे आपके बालों को सहला सकती थीं। लेकिन ऐसा किसी लड़के के साथ करना गुनाह था। मगर स्कूल में देखा कि सिर्फ़ लड़के ही नहीं, किसी लड़के के साथ भी ज़्यादा टची होना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। उस उम्र में हम चीज़ों को समझ रहे होते हैं। अपनी धारणाएँ बना रहे होते हैं। तो इस सिलसिले में जो चीज़ सबसे ज़्यादा आपत्तिजनक पायी गयी थी, वो था स्पर्श। आप मन ही मन में जो सोच लें आप उसे छू नहीं सकते हैं। स्पर्श की सीमारेखा खींची जा रही थी। पर्सनल स्पेस डिफ़ाइन हो रहा था। 

मैं उस स्कूल में बिलकुल अजस्ट नहीं कर पायी थी। सिर्फ़ दोस्तों के हिसाब से ही नहीं, पढ़ाई के हिसाब से भी। जहाँ अब तक मैं टॉपर रही थी, यहाँ की पढ़ाई समझ नहीं आ रही थी उसपर क्लास में कोई दोस्त नहीं थी जिससे कुछ मदद भी मिले। हाँ, यहाँ हमारी लाइब्रेरी बहुत अच्छी थी। मैंने पहली बार रोमैन्स नावल्ज़ पढ़े। मिल्स ऐंड बून बहुत सी लड़कियाँ पढ़ती रहती थीं और हरलेक्विन रोमैन्सेज़। मुझे मिल्स एंड बून बहुत ही हल्का और सतही लगा लेकिन हरलेक्विन पढ़ना मुझे पसंद था। ये इरॉटिका की कैटेगरी के नॉवल थे। घर में मेरी मम्मी मेरी लाइब्रेरी की सारी किताबें पढ़ जाती थी। अब उसे जब रोमैन्स उठाए तो डांट पढ़ी कि ये क्या सब घटिया किताब पढ़ती रहती हो। यहाँ पर स्कूल मेरी मदद को आया कि घटिया है तो स्कूल लाइब्रेरी में क्यूँ रखा है? ये सब भी पढ़ना चाहिए। लाइफ़ का हिस्सा है, वग़ैरह वग़ैरह। एक लेखक के हिसाब से कहें तो उन किताबों ने मुझे दो चीज़ें सिखायीं, स्पर्श को समझना और इंसान की प्रोफ़ायलिंग। आज भी किसी हीरो का डिस्क्रिप्शन उन रोमैन्स नावल्ज़ में जैसा देखा था वैसा कहीं नहीं देखा। उन्हीं नावल्ज़ ने स्पर्श को मेरे लिए डिफ़ाइन भी किया। वहाँ स्पर्श के कई हज़ार रंग थे। एक तरह की डिक्शनेरी कि जिसमें बदन के हर हिस्से के टच का वर्णन था। फिर यहाँ असल ज़िंदगी थी जहाँ हम किसी को भी नहीं छू सकते थे...हर तरह का स्पर्श वर्जित स्पर्श था। 

गर्ल्ज़ स्कूल में होने के कारण बहुत सी और चीज़ें शामिल होने के लिए लड़ाई कर रही थीं। इनमें से पहली चीज़ थी वैक्सिंग। ११वीं में पढ़ने वाली लड़कियाँ अपने हाथ और पैर वैक्स कराती थीं। स्कूल की ड्रेस घुटने से चार इंच ऊपर की छोटी स्कर्ट और शर्ट हुआ करती थी। मुझे घर से कभी उतनी छोटी स्कर्ट की परमिशन नहीं मिली लेकिन फिर भी मुझे अपनी ड्रेस काफ़ी पसंद थी। नीले रंग की चेक्स थी। स्कूल की बाक़ी लड़कियाँ अपने वैक्स की हुयी टांगों और छोटी स्कर्ट्स में बहुत सुंदर लगती थीं। मैंने अपनी ज़िंदगी में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत पैर कभी नहीं देखे। काले जूते और सफ़ेद सॉक्स कि जो फ़ोल्ड कर एकदम नीचे कर दिए जाते थे। उन दिनों पटना में ऐंकल सॉक्स नहीं बिकते थे। नोर्मल मोजों को बेहद क़रीने से फ़ोल्ड करके नीचे कर दिया जाता था। हाईजीन पर भी डिस्कशन उन दिनों का हिस्सा था। जो लड़कियाँ वैक्स करती थीं उन्हें बाक़ी लड़कियाँ जो कि वैक्स नहीं करती थीं उनके हाथ खुरदरे लगते थे। पैरों की तो बात ना ही करें तो बेहतर। वैक्सिंग में होने वाले दर्द का सोच कर ही रौंगटे खड़े हो जाते थे। मैंने कभी वैक्स नहीं किया और हमेशा लगता रहा कि मेरे हाथ चिकने नहीं हैं, खुरदरे हैं...ये बाल किसी को बुरे लगेंगे। जबकि मैं इतनी गोरी थी कि मेरे हाथों पर सिर्फ़ हल्के सुनहरे रोएँ थे। मगर उन दिनों लगने लगा था कि सबको सिर्फ़ वैक्स किए हाथों वाली लड़कियाँ अच्छी लगती होंगी। इतना सुंदर अपना चेहरा नहीं दिखता था मुझे भी। कोम्पलेक्स होती जा रही थी मैं। उलझी हुयी। कहाँ कौन मिलता कि जिससे पूछती कि हाथ वैक्स किए बिना तुम्हें अच्छे लगते हैं या नहीं। 

स्कूल में लेस्बो कह दिया जाना इतनी बड़ी गाली थी कि लड़कियों का भी आपस में गले मिलना हाथ मिलाना या हाथ पकड़ के बैठे रहना कम होता गया था। जो नोर्मल सी आदत थी कि किसी ने शैंपू किया है तो पास जा के उसके बाल सूंघ कर कह सकूँ  बहुत अच्छी ख़ुशबू आ रही है वो भी बंद हो रहा था। ये दो साल ऐसे ही बीते। फिर एक साल मेडिकल की कोचिंग के लिए ड्रॉप किया। यहाँ एक साल थोड़ी जान आयी कि कोचिंग में लड़के थे। जिनसे पढ़ाई लिखाई की बात हो सकती थी। डॉक्टर बन कर हम क्या करेंगे की बात। फ़िज़िक्स की केमिस्ट्री की बात। वे ज़िंदगी में क्या करना चाहते हैं वग़ैरह की बातें। एक नयी चीज़ यहाँ की दोस्ती की थी कि हाथ पकड़ के चलना नोर्मल माना जाता था। मुझे ठीक ठीक मालूम नहीं क्यूँ या कैसे। लड़के लड़कियाँ साथ में कभी कभार सिंघाड़ा खाने जाते थे तो किसी का हाथ पकड़ कर चल सकते थे। उन दिनों ये आवारगर्दी में गिना जाता था। मगर ये आवारगर्दी मुझे ख़ूब रास आती थी। 

इस बीच ये भी हुआ कि कोई लड़का बहुत पसंद आने लगा। क्लास में डेस्क में किताबें रखने वाली जगह पर हम हाथ पकड़े बैठे रहते थे। उसने मेरा हाथ इतनी ज़ोर से पकड़ा होता था कि अँगूठी के निशान पड़ जाता था। कभी कभी तो लगता था नील पड़ जाएगा। ज़िंदगी में पहली बार स्पर्श के रोमांच को महसूस किया। उसके साथ चलते हुए हाथ ग़लती से छू भी जाते थे तो जैसे करंट लगता था। उन दिनों इसे स्टैटिक इलेक्ट्रिसिटी का नाम देते थे हम। लेकिन बात ये कुछ केमिस्ट्री की होती थी। उन्हीं दिनों पहली बार ध्यान गया था कि स्पर्श कितना ज़रूरी होता है। उससे अलग रहना कितना तकलीफ़देह होता था। हम उन दिनों भी मिलते थे तो सिर्फ़ हाथ मिलाते थे। पटना जैसे शहर में ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ एक लड़की एक लड़के से गले मिल सकती हो। ये सबकी नज़र में आता था और फिर बस, बदनामी आपके पहले घर पहुँच जाती। उन दिनों पहली बार महसूस किया कि ऐसी कोई जगह हो जहाँ उससे एक बार गले मिल सकें। एक बार चूम सकें उसको। उसके काँधे पर सर टिका कर बैठे रहें कुछ देर। हम जिस टच फोबिक दुनिया में रहते थे, वहाँ उसे चूम लेने का ख़याल गुनाह था। गुनाह। 

और हमने इस गुनाह की सिर्फ़ कल्पना की...अफ़सोस के खाते में दर्ज हुआ कि बेपनाह मुहब्बत होने के बावजूद हमने कभी उसे चूमा नहीं। जिस दिन ब्रेक ऑफ़ हुआ और वो आख़िरी बार मिल कर जा रहा था, उसने मेरा हाथ चूमा था। उसके चले जाने के बाद हमने अपने हाथ को ठीक वहीं चूमा...और थरथरा गए। एक सिहरन बहुत देर तक गहरे दुःख और आँसू में महसूस होती रही।  उन्हीं दिनों सोनू निगम का गाना ख़ूब सुने, 'तुझे छूने को दिल करे...'


09 February, 2017

बचपन से बिसरता स्पर्श - १

जिन दिनों हम ब्लॉग लिखना शुरू किए थे २००५ में उन दिनों ब्लॉग की परिभाषा एक ऑनलाइन डायरी की तरह जाना था। वो IIMC की लैब थी जहाँ पहली बार कुछ चीज़ें लिखी थीं और उनको दुनिया के लिए छोड़ दिया था। बिना ये जाने या समझे कि यहाँ से बात निकली है तो कहाँ तक जाएगी। हिंदी में ब्लौग्स बहुत कम थे और जितने थे सब लगभग एक दूसरे को जानते थे। मैंने अपने इस ऑनलाइन ब्लॉग पर जो मन सो लिखा है। कहानी लिखी, कविता लिखी, व्यंग्य लिखा, डायरी लिखी। सब कुछ ही। उन दिनों किताब छपना सपने जैसी बात थी। वो भी पेंग्विन से। मगर तीन ‘रोज़ इश्क़ मुकम्मल’ हुआ और पिछले तीन सालों में बहुत से रीडर्स का प्यार उस किताब को मिला। इन दिनों लिखना भी पहले से बदल कर क़िस्से और तिलिस्म में ज़्यादा उलझ गया। फिर फ़ेसबुक पर लिखना शुरू हुआ। लिखने का एक क़ायदा होता है जिसमें हम बंध जाते हैं। पहले यूँ होता था कि हर रोज़ के ऑफ़िस और घर की मारामारी के बीच का एक से दो घंटे का वक़्त हमारा अपना होता था। मैं ऑफ़िस से निकलने के पहले लिखा करती थी। मेरी अधिकतर कहानियाँ एक से दो घंटे में लिखी गयी हैं। एक झोंक में। फ़ेसबुक पर लिखने से ये होता है कि दिन भर छोटे छोटे टुकड़ों में लिखते हैं जिसके कारण शाम तक ख़ाली हो जाते हैं। पहले होता था कि कोई एक ख़याल आया तो दिन भर घूमते रहता था मन में। गुरुदत्त पर जब पोस्ट्स लिखी थीं तो हफ़्ते हफ़्ते तक सिर्फ़ गुरुदत्त के बारे में ही पढ़ती रही। ब्लॉग पर लिखने की सीमा है। १०००-१५०० शब्दों से ज़्यादा की पोस्ट्स बोझिल लगती हैं। यही उन दिनों लिखने का अन्दाज़ भी था। इन दिनों चीज़ें बदल गयी हैं। कहानी लगभग २०००-३००० शब्दों की होती है। कई बार तो पाँच या सात हज़ार शब्दों की भी। इस सब में मैं वो लिखना भूल गयी जो सबसे पहले लिखा करती थी। जो मन सो। वो।

तो आज फिर से लौट रही हूँ वैसी ही किसी चीज़ पर। अगर मैं अपने ब्लॉग पर लिखने से पहले भी सोचूँगी तब तो होने से रहा। यूँ कलमघिसाई ज़रूरी भी है।
आज एक दोस्त ने फ़ेस्बुक पर एक आर्टिकल शेयर की। स्पर्श पर। मैं बहुत सी चीज़ें सोचने लगी। ज़िंदगी के इतने सारे क़िस्से आँखों के सामने कौंधे। ऐसे क़िस्से जो शायद मैं अपने नाम से कभी ना लिखूँ। कई सारे परतों वाले किरदार के अंदर कहीं रख सकूँ शायद।
मैं बिहार से हूँ। मेरा गाँव भागलपुर के पास आता है। मेरा बचपन देवघर नाम के शहर में बीता। दसवीं के बाद मेरा परिवार पटना आ गया और फिर कॉलेज के बाद मैं IIMC, दिल्ली चली गयी PG डिप्लोमा के लिए। मेरा स्कूल को-एड था और उसके बाद ११th-१२th और फिर पटना वीमेंस कॉलेज गर्ल्ज़ ओन्ली था।
स्पर्श कल्चर का हिस्सा होता है। हम जिस परिवेश में बड़े हुए थे उसमें स्पर्श कहीं था ही नहीं। बहुत छोटे के जो खेल होते थे उनमें बहुत सारा कुछ फ़िज़िकल होता है। छुआ छुई का तो नाम ही स्पर्श पर है। लुका छिपी का सबसे ज़रूरी हिस्सा था ‘धप्पा’ जिसमें दोनों हाथों से चोर की पीठ पर झोर का धक्का लगा कर धप्पा बोलना होता था। पोशमपा भाई पोशमपा में हम एक दरवाज़ा बना कर खड़े होते थे और बाक़ी बच्चे उसके नीचे से गुज़रते थे। बुढ़िया कबड्डी में एक गोल घेरा होता था और एक चौरस। गोल घेरे में बुढ़िया होती थी जिसका हाथ पकड़ कर विरोधी टीम से बचा कर दौड़ते हुए दूर के चौरस घेरे में आना होता था। कबड्डी में तो ख़ैर कहाँ हाथ, कहाँ पैर कुछ मालूम नहीं चलता था। रस्सी कूदते हुए दो लड़कियाँ हाथ पकड़ कर एक साथ कूदती थीं और दो लड़कियाँ रस्सी के दोनों सिरों को घोल घुमाती रहती थीं। 

अगर हम बचपन को याद करते हैं तो उसका बहुत सा हिस्सा स्पर्श के नाम आता है। बाक़ी इंद्रियों के सिवा भी। शायद इसलिए कि हम सीख रहे होते हैं कि स्पर्श की भी एक भाषा होती है। मेरे बचपन की यादों में मिट्टी में ख़ाली पैर दौड़ना। छड़ से छेछार लगाना। जानना कि स्पर्श गहरा हो तो दुःख जाएगा…ज़ख़्म हो जाएगा भी था। 

स्पर्श के लिए पहली बार बुरा लगना कब सीखा था वो याद नहीं, बस ये है कि जब मैं छोटी थी, लगा लो कोई std.५ में तब मेरी बेस्ट फ़्रेंड ने कहा था उसको हमेशा ऐसे हाथ पकड़ कर झुलाते झुलाते चलना पसंद नहीं। मैं जो गलबहियाँ डाल कर चलती थी, वो भी नहीं। लगभग यही वक़्त था जब मुहल्ले के बच्चे भी दूसरे गेम्स की ओर शिफ़्ट कर रहे थे। घर में टीवी आ गया था। इसी वक़्त मुहल्ले में चुग़ली भी ज़्यादा होने लगी थी। किसी के बच्चों को पीट दिया तो उसकी मम्मी घर आ जाती थी झगड़ा करने। फिर कोई नहीं सुनता था कि उसने पहले चिढ़ाया था या ऐसा ही कुछ। घर में कुटाई होती थी। यही समय था जब मारने के लिए छड़ी का इस्तेमाल होना शुरू हुआ था। उसके पहले तो मम्मी हाथ से ही मारती थी। इसी समय इस बात की ताक़ीद करनी शुरू की गयी थी कि लड़कों को मारा पीटा मत करो। और लड़के तो ख़ैर लड़के ही थे। नालायकों की तरह क्रिकेट खेलने चले जाते थे। ये अघोषित नियम था कि लड़कियों को खेलाने नहीं ले जाएँगे। हमको तबसे ही क्रिकेट कभी पसंद नहीं आया। क्रिकेट ने हमें लड़की और लड़के में बाँट दिया था। 

क्लास में भी लड़के और लड़की अलग अलग बैठने लगे थे। ऐसा क्यूँ होता है मुझे आज भी नहीं समझ आता। साथ में बैठने से कौन सी छुआछूत की बीमारी लग जाएगी? सातवीं क्लास तक आते आते तो लड़कों से बात करना गुनाह। किसी से ज़्यादा बात कर लो तो बाक़ी लड़कियाँ छेड़ना शुरू कर देती थीं। हम लेकिन पिट्टो जैसे खेल साथ में खेलते थे। हमको याद है उसमें एक बार हम किसी लड़के को हींच के बॉल मार दिए थे तो वो हमसे झगड़ रहा था, इतना ज़ोर से बॉल मारते हैं, हम तुमको मारें तो…और हम पूरा झगड़ गए थे कि मारो ना…बॉल को थोड़े ना लड़की लड़का में अंतर पता होता है। पहली बार सुना था, ‘लड़की समझ के छोड़ दिए’ और हम बोले थे, हम लड़का समझ के छोड़ेंगे नहीं, देख लेना। इसके कुछ दिन बाद हमारे साथ के गेम्स ख़त्म हो गए। ठीक ठीक याद नहीं क्यूँ मगर शायद हम भरतनाट्यम सीखने लगे थे, इसलिए।

मेरे जो दोस्त 6th के आसपास के हैं, उनसे दोस्ती कुछ यूँ हैं कि आज भी मिलते हैं तो बिना लात-जुत्ते, मार-पीट के बात नहीं होती है। मगर इसके बाद जो भी दोस्त बने हैं उनके और मेरे बीच एक अदृश्य दीवार खिंच गयी थी। मुझे स्कूल के दिनों की जो बात गहराई से याद है वो ये कि मैं किसी का हाथ पकड़ के चलना चाहती थी। या हाथ झुलाते हुए काँधे पर रखना चाहती थी। छुट्टी काटना चाहती थी। इस स्पर्श को ग़लत सिखाया जा रहा था और ये मुझे एक गहरे दुःख और अकेलेपन से भरता जा रहा था। स्पर्श सिर्फ़ दोस्तों से ही नहीं, परिवार से भी अलग किया जा रहा था। कभी पापा का गले लगाना याद नहीं है मुझे। मम्मी का भी बहुत कम। छोटे भाई से लड़ाई में मार पिटाई की याद है। चुट्टी काटना, हाथ मचोड़ देना जैसे कांड थे लेकिन प्यार से बैठ कर कभी उसका माथा सहलाया हो ऐसा मुझे याद नहीं। 

लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। 

लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। ये पहली बार था कि मैंने कुछ चाहा था और उलझी थी कि सब इतने आराम से क्यूँ हैं। किसी और को तकलीफ़ क्यूँ नहीं होती। किसी और को प्यास नहीं लगती। अकेलापन नहीं लगता? सब के एक साथ गायब हो जाने का डर क्यूँ नहीं लगता। 

लिख रही हूँ तो देख रही हूँ, कितना सारा कुछ है इस बारे में लिखने को। कुछ दिन लिखूँगी इसपर। बिखरा हुआ कुछ। स्पर्श के कुछ लम्हे जो मैंने अपनी ज़िंदगी में सहेज रखे हैं। शब्द में रख दूँगी। 

तब तक के लिए, जो लोग इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं, आपने आख़िरी बार किसी को गले कब लगाया था? परिवार, पत्नी, बच्चों को नहीं…किसी दोस्त को? किसी अनजान को? किसी को भी? जा कर ज़रा एक जादू की झप्पी दे आइए। हमको थैंक्स बाद में कहिएगा। या अगर पिट गए, तो गाली भी बाद में दे सकते हैं। 

08 February, 2017

एक नदी सपने में बहती थी

मुझे पानी के सपने बहुत आते हैं। और इक पुरानी खंडहर क़िले जैसी इमारत के भी। ये दोनों मेरे सपने के recurring motifs हैं।

***
कल सपने में एक शहर था जहाँ अचानक से बालू की नदी बहने लगी। ज़मीन एकदम से ही दलदल हो गयी और उसमें बहुत तेज़ रफ़्तार आ गयी कि जैसे पहाड़ी नदियों की होती है। फिर जैसे कि कॉमिक्स में होते हैं मेटल के बहुत बड़े बड़े सिलिंड्रिकल ट्यूब थे जिनमें बहुत बड़ी बड़ी स्पाइक लगी हुयी थीं। ये भी उस रेत की नदी में रोल हो रहे थे कि नदी के रास्ते में जो आएगा उसका मरना निश्चित है। बिलकुल लग रहा था सुपर कमांडो ध्रुव के किसी कॉमिक्स में हैं। शहर के सब लोग एक ख़ास दिशा में चीख़ते चिल्लाते हुए भाग रहे थे। मैं पता नहीं क्यूँ बहुत ज़्यादा विचलित नहीं थी। शायद मुझे सपने में मरने से डर नहीं लगता। वहीं शहर के एक ओर कुछ छोटी पहाड़ियों जैसी जगह थी। कुछ बड़े बड़े पत्थर थे, जिनको अंग्रेज़ी में बोल्डर कहते हैं। मैं एक पत्थर पर चढ़ी जहाँ से पूरा शहर दिख रहा था। बालू में धँसता...घुलता...गुम होता...जादू जैसा कुछ था...तिलिस्म जैसा कुछ...उस पत्थर से कोई दो फ़ीट नीचे कूदते ही सामने के पत्थर पर एक दरवाज़ा था। मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा कि इटली का कोई शहर था। मैं दरवाज़े से उस शहर आराम से जा सकती थी। फिर मैंने देखा कि पत्थर पर साथ में मेरी सास भी हैं। मैंने उनसे हिम्मत करके कूदने को कहा। कि सिर्फ़ दो फ़ीट ही है। और कि मैं हूँ।

फिर सीन बदल जाता है। उसी शहर में एक नदी भी थी। नदी किनारे बड़ा सा महल नुमा कोई पुरानी हवेली थी जिसमें कुछ पुराने ज़माने के लोग थे। वहाँ वक़्त ठहरा हुआ था। ठीक ठीक मालूम नहीं ६० के दशक में या ऐसा ही कुछ। लोगों के कपड़े, कटलरी और उनका आचरण सब इक पुराने ज़माने का था। नदी शांत थी कि जैसे पटना कॉलेज के सामने बहती गंगा होती है। नदी में कुछ लोग खेल खेल रहे थे। मैं किनारे पर थी और नदी में कूदने वाली थी। तभी देखती हूँ कि नदी में बहुत बड़े बड़े हिमखंड आ गए हैं। ग्लेशियर के टुकड़े। बहुत विशाल। और नदी में भी अचानक से बहुत सी रफ़्तार आ गयी है। वे जाने कहाँ से बहुत तेज़ी से बहते चले आ रहे हैं। नदी का पानी बर्फ़ीला ठंढा हो गया है। कि ठंढ और रफ़्तार दोनों से कट जाने का अंदेशा है।

वहीं कहीं एक दोस्त है। बहुत प्यारा। वो सामने की टेबल पर बैठा है मेरे साथ। हमारे बीच कॉफ़ी रखी हुयी है। उसने मेरा गाल थपथपाया है। दुनिया हमारे चारों ओर बर्बाद हो रही है लेकिन उसे शायद किसी चीज़ की परवाह नहीं है कि उसके सामने मैं बैठी हूँ। कि हम साथ हैं।

उन्हीं पत्थरों के बीच पहुँची हूँ फिर। वहाँ बहुत नीचे एक छोटा कुआँ, कुंड जैसा है या कि कह लीजिए तालाब जैसा है। मोरपंख के आकार में और रंग में भी। चारों ओर धूप है। पानी का रंग गहरा नीला, फ़ीरोज़ी और मोरपंखी हरा है। मैं ऊँची चट्टान से उस पानी में डाइव मारती हूँ। डाइव करते हुए पानी की गर्माहट को महसूस किया है। पूरे बदन के भीगने को भी। मैं पानी में गहरे अंदर जाती जा रही हूँ, बहुत अंदर, इतना कि अंदर अँधेरा है। बहुत देर तक पानी में अंदर जाने के बाद वो गहराई आयी है जहाँ पर ऊपर से नीचे कूदने का फ़ोर्स और पानी की बॉयन्सी बराबर हुयी है। फिर पानी का दबाव मुझे ऊपर की ओर फेंकता है। मैं पानी से बाहर आती हूँ। और जाने किससे तो कहती हूँ कि अच्छा हुआ मुझे मालूम था कि पानी में डूबते नहीं हैं। वरना इतना गहरा पानी है, मैं तो बहुत डर जाती।

फिर सपने में एक शहर है जो ना मेरा है ना उसका। मेरे पास कोई चिट्ठी आयी है। मैं उससे बहुत गहरा प्रेम करती हूँ। वो मेरे सामने बैठा है। मैं सपने में भी जानती हूँ कि ये सपना है। हम काफ़ी देर तक कुछ नहीं कहते। फिर मैं उनसे कहती हूँ, 'इस टेबल पर रखे आपके हाथ को मैं थाम सकती हूँ। क्या इजाज़त है?', सपने में उन साँवली उँगलियों की गर्माहट घुली हुयी है। मैं जानती हूँ कि ये सपना है। मैं जानती हूँ कि ये प्रेम भी है।

***
मालूम नहीं कहाँ पढ़ा था कि सपने ब्लैक एंड वाइट होते हैं। मेरे सपनों में हमेशा कई रंग रहते हैं। कई बार तो ख़ुशबुएँ भी। पिछले कई दिनों से मैंने ख़ुद को इस बात कर ऐतबार दिलाया है कि इश्क़ विश्क़ बुरी चीज़ है और हम इससे दूर ही भले। लेकिन मेरे सपनों में जिस तरह प्रेम उमड़ता है कि लगता है मैं डूब जाऊँगी। जैसे मैं कोई नदी हूँ और बाढ़ आयी है। मैंने अपनी जाग में इश्क़ के लिए दरवाज़े बंद कर दिए हैं तो वो सपनों में चला आता है। 

मैं इन सपनों में भरी भरी सी महसूसती हूँ। कोई बाँध पर जैसे नदी महसूसती होगी, ख़तरे के निशान को चूमती हुयी। डैम पर बना तुम वो ख़तरे का निशान हो...और तुम्हें चूमना तो छोड़ो...तुम्हें छूने का ख़याल भी  मेरे सपनों को ख़ुशबू से भर देता है। फिर कितने शहर नेस्तनाबूद होते हैं। फिर पूरी दुनिया में ज़मीन नहीं होती है पैर टिकाने को। मैं पानी में डूबती हुयी भी तुम्हारी आँखों का रंग याद रखती हूँ। 

तुमसे इक उम्र दूर रहना...इक शहर...इक देश दूर रहना भी कहाँ मिटा पाता है इस अहसास को। प्रेम कोई कृत्रिम या अप्राकृतिक चीज़ होती तो सपने में इस तरह रह रह कर डूबती नहीं मैं। नदियों का क्या किया जा सकता है? मुझे नदियों को नष्ट करने का कोई तरीक़ा नहीं आता। इस नदी में तुम्हारे ख़याल से उत्ताल लहरें उठती हैं। कहाँ है वो गहरा कुआँ कि जिसमें समा जाती हैं नदियाँ?

जानां, अपनी बाँहें खोलो, समेट लो मुझे, मैं तुम में गुम हो जाऊँ। 

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