उस लड़के की लाश मेरे दुस्वप्नों में कई दिनों तक आती रही. उसके बदन की गंध से मेरी उँगलियाँ छिलती थीं. कोई एंटीसेप्टिक सी गंध थी...डेटोल जैसी. बचपन के घाव जैसी दुखती थी. मुझे उसकी मासूमियत का पता नहीं था. मैं उसे चूमते हुए भूल गयी थी कि ये उसके जीवन का पहला चुम्बन है...खून का तीखा स्वाद मेरी प्यास में आग लगा रहा था...मैं उसे अपनी रूह में कहीं उतार लेना चाहती थी...उसकी दीवानी चीख में अपना नाम सुनकर पहली बार अपने इश्वर होने का अहसास हुआ था...उसने पहली बार में अपनी जिंदगी मुझे सौंप दी थी. पूर्ण समर्पण पर स्त्रियों का ही अधिकार नहीं है...पुरुष चाहे तो अपना सर्वस्व समर्पित कर सकता है. बिना चाहना के. मगर लड़के ने इक गलत आदत डाल दी थी. उस बार के बाद मैंने पाया कि मेरे शब्द आदमखोर हो गए हैं. कि मेरी कलम सियाही नहीं खून मांगती है...मेरी कल्पना कातिल हो गयी है. मैंने उस लड़के को अपनी कहानी के लिए जिया...अपने डायलॉग्स के लिए तकलीफें दीं...अपने क्लाइमेक्स के लिए तड़पाया और कहानी के अंत के लिए एक दिन मैंने उसकी सांसें माँग लीं. मुझे जानना था कि दुखांत कहानी कैसे लिखी जाती है. ट्रेजेडी को लिखने के लिए उसे जीना जरूरी था. लड़के ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. मैं उसकी चिता की रौशनी में कवितायें लिखती रही. उसका बलिदान लेकिन मेरे दिल को कहीं छू गया था. मैं उसकी आखरी निशानी को गंगा में नहीं बहा पायी.
उस दिन मेरे दिल में कब्रगाह उगनी शुरू हो गयी. वो मेरा पहला आशिक था. मुझ पर जान देने वाला. मेरे शब्दों के लिए मर जाने वाला. उसकी कब्र ख़ास होनी थी. मैंने खुद जैसलमेर जा कर सुनहला पीला पत्थर चुना. मेरी कई शामें उस पत्थर के नाम हो गयीं. जब उसके नाम का पहला अक्षर खोदा तभी से दिल की किनारी पर लगे पौधे मुरझा गए. बोगनविला के फूल तो रातों रात काले रंग में तब्दील हो गए. काले जादू की शुरुआत हो चुकी थी. कविता में चमक के लिए मैंने ऊँट की हड्डियों का प्रयोग किया. सुनहले पत्थर पर जड़े चमकीले टुकड़ों से उसकी बुझती आँखों की याद आती थी. उसकी कब्र पर काम करते हुए तो महीनों मुझे किसी काम की सुध नहीं थी. दिन भर उपन्यास लिखती और लड़के को लम्हा लम्हा सकेरती और रात को कब्र के पत्थर पर काम करती. नींद. भूख. प्यास. दारू. सिगरेट. सब बंद हो गयी थी. जादू था सब. मैं इश्क़ में थी. मुझे दुनिया से कोई वास्ता नहीं था.
पहला उपन्यास भेजा था एडिटर को. उसे पूरा यकीन था कि ये बहुत बिकेगा. मार्केट में अभी भी वीभत्स रस की कमी थी. इस खाली जगह को भरने के लिए उसे एक ऐसा राइटर मिल गया था जिसके लिए कोई सियाही पर्याप्त काली नहीं थी. लड़की यूँ तो धूप के उजले रंग सी दिखती थी मगर उसकी आँखों में गहरा अन्धकार था. एडिटर ने लड़की को काला चश्मा पहनने की सलाह दी ताकि उसकी आँखों की सियाही से बाकी लोगों को डर न लगे. वो अपने कॉन्ट्रैक्ट पर साइन करने लौट रही थी जब लड़के के दोस्त उसे मिले. उनकी नज़रों में लड़की गुनाहगार थी. उनकी आँखों में गोलाबारूद था. वे लड़की के दिल में बनी उस इकलौती कब्र के पत्थर को नेस्तनाबूद कर देना चाहते थे. लड़की को मगर उस लड़के से इश्क़ था. जरूरी था कि कब्रगाह की हिफाज़त की जाए. उसने मन्त्रों से दिल के बाहर रेखा खींचनी शुरू की...इस रेखा को सिर्फ वोही पार कर सकता था जिसे लड़की से इश्क़ हो. इतने पर भी लड़की को संतोष नहीं हुआ तो उसने एक बड़ा सा लाल रंग का बोर्ड बनाया और उसपर चेतावनी लिखी 'आगे ख़तरा है'.
दिल के कब्रगाह में मौत और मुहब्बत का खतरनाक कॉम्बिनेशन था जो लोगों को बेतरह अपनी ओर खींचता था. लोग वार्निंग बोर्ड को इनविटेशन की तरह ले लेते थे. चूँकि उनके दिल में मेरे लिए बेपनाह मुहब्बत होती थी तो वे अभिमंत्रित रेखा के पार आराम से आ जाते थे. इस रेखा से वापस जाने की कोई जगह नहीं होती लेकिन. वे पूरी दुनिया के लिए गुम हो जाते थे. न परिवार न दोस्त उनके लिए मायने रखते थे. वे मेरे जैसे होने लगते थे. इश्क़ में पूरी तरह डूबे हुए. मैंने कब्रगाह पर एक गेट बना दिया कि जिससे एक बार में सिर्फ एक दाखिल हो सके मगर ये थ्रिल की तलाश में आये हुए लोग थे. इन्हें दीवार फांद कर अन्दर आने में अलग ही मज़ा आता था. इश्क़ उसपर खुमार की तरह चढ़ता था. अक्सर इक हैंगोवर उतरने के पहले दूसरी शराब होठों तक आ लगती थी. ये अजीब सी दुनिया थी जिसमें कहीं के कोई नियम काम नहीं करते. मुझे कभी कभी लगता था कि मैं पागल हो रही हूँ. वो रेखा जो मैंने दुनिया की रक्षा के लिए खींची थी उसमें जान आने लगी थी. अब वो मुझे बाहर नहीं जाने देती. सारे आशिक भी इमोशनल ब्लैकमेल करके मुझे दुनिया से अलग ही रखने लगे थे.
इक दुनिया में यूँ भी कई दुनियाओं का तिलिस्म खुलता है. ऐसा ही एक तिलिस्म मेरे दिल में है...ये कब्र के पत्थर नहीं प्रेमगीत हैं...प्रेमपत्र हैं...आखिरी...के इश्क का इतना ही अहसान था कि किसी के जाने के बाद उसकी कब्र पर के अक्षर मेरी कलम से निकले होते थे. हर याद को बुन कर, गुन कर मैं लिखती थी...इश्क़ को बार बार जिलाती थी...उन लम्हों को...उन जगहों को...सिगरेट के हर कश को जीती थी दुबारा. तिबारा. कई कई कई बार तक.
तुम्हें लगता होगा कि तुम अपनी अगली किताब के लिए प्रेरणा की तलाश में आये हो...मगर मेरी जान, मैं कैसे बता दूं तुम्हें कि तुम यहाँ अपनी कब्र का पत्थर पसंद करने आये हो...अपनी आयतों के शब्द चुनने...तुम मुझे किस नाम से बुलाओगे?
डार्लिंग...हनी...स्वीटहार्ट...क्या...कौन सा नाम?
और मैं क्या बुलाऊं तुम्हें? जानां...
काला जादू...तिलिस्म...क्या?