मुझे फिल्म ख़त्म होने के बाद की कास्टिंग के सारे टाइटल्स तक रुकना अच्छा लगता है. कल की फिल्म 'शिप ऑफ़ थीसियस' देखने के बाद भी सारे टाइटल्स तक रुकी रही. हॉल से बाहर आते हुए मन ऐसा भरा भरा सा था कि कुछ देर एकदम चुप रहने का मन था. इतना कुछ था कहने को कि समझ नहीं आ रहा था कि शुरुआत कहाँ से करूँ. मगर मालूम था कि इस फिल्म के बारे में लिखना पड़ेगा.
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Ship of Theseus के बारे में मालूम चला, IIMC के सहपाठी अंकुर ने इस पन्ने को लाईक करने का लिंक भेजा था. ट्रेलर देखते हुए फिल्म के बारे में एक गहरी उत्सुकता बन गयी थी. वीकेंड में व्यस्त थी तो नहीं देख पायी. कल मंडे होते हुए भी रात का शो देखने की ललक थी. ऑनलाइन कटाने की कोशिश की तो पीवीआर हाउसफुल. फिर बुकमायशो से टिकट कटाई. कुणाल व्यस्त था तो सोचा अकेली चली जाऊं, फिर नेहा से पूछा, वो फ्री थी तो उसके साथ चली गयी.
फिल्म में कुछ छूट न जाए इसलिए बिफोर टाईम पहुंचे, जो कि एक तरह का रिकोर्ड ही है. पोपकोर्न और कोल्ड ड्रिंक लेकर अन्दर गए तो अचरज से भर गए. पीवीआर कोरमंगला में मंडे को रात का शो वाकई हाउसफुल था. बंगलौर जैसे शहर में जहाँ भागते दौड़ते फुर्सत नहीं मिलती, कितने सारे लोग इस फिल्म को देखने आये थे.
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फिल्म का टाइटल शिप ऑफ़ थीसियस नाम की कहानी पर है. एक शिप होता है, जैसे जैसे उसके पुर्जे ख़राब होते जाते हैं, एक एक करके उसके सारे पुर्जे, लकड़ियाँ, खम्बे, सब कुछ बदल दिया जाता है. एक वक़्त में शिप में पुराने शिप का कोई पुर्जा भी नहीं होता. शिप के ख़राब हुए पुराने पुर्जों को जोड़ कर एक शिप बना दिया जाए, तो इन दोनों में असली शिप ऑफ़ थीसियस कौन सा होगा.
फिल्म में तीन कहानियां हैं. पहली एक फोटोग्राफर की कहानी है जो बचपन में आँखों के कोर्निया इन्फेक्शन के कारण देख नहीं सकती. उसके पास एक कैमरा है जो आसपास की चीज़ों के बारे में बोल कर बताता है. वो सुन कर, महसूस कर के तसवीरें खींचती हैं. उसका पार्टनर/बॉयफ्रेंड भी उसे उसकी खींची हुयी तस्वीरों के बारे में डिटेल में बताता है. दोनों में इस बात पर बहस होती है कि अच्छी तस्वीर कौन सी है, लड़की का कहना है वो तस्वीर जो मैंने सुन कर महसूस कर के खींची है...इत्तिफाक से खींची गयी अच्छी तस्वीर भी वो अपने कलेक्शन में नहीं रखना चाहती. उसे सिर्फ वो चीज़ें रखनी हैं जिन्हें उसने खुद कम्पोज किया है, जिस कहानी को वो कहना चाहती है. ये उसका अंतिम निर्णय है कि कौन सी तस्वीर रखी जाए और कौन सी नहीं.
फिल्म का ये सीन किचन में फिल्माया गया है. मुझे याद करने पर भी याद नहीं आता कि किसी आखिरी फिल्म में इस बात पर बहस कब देखी थी कि व्हाट इज आर्ट. कि हर एक का नजरिया अलग होता है. एक आर्टिस्ट लोगों के लिए, उनके हिसाब से नहीं रच सकता...वो इसलिए रचता है कि उसे अपना कुछ कहना होता है. वरना क्या फर्क पड़ता है. फिल्म का ये सेगमेंट मेरे लिए सबसे रियल था. सवाल जैसे मेरे सवाल थे. बैकग्राउंड स्कोर में सन्नाटे का बेहतरीन इस्तेमाल था.
फिल्म की दूसरी कहानी एक जैन साधू की है. सिनेमैटोग्राफी के लिहाज़ से ये मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा है. बारिश भीगता मुंबई हो या विंडमिल के खेतों में गुज़रती साधुओं की छोटी टोली. इसमें सवाल इतने सारे और फिलोसफी इतनी गहरी कि कई बार तो लगता था कितना कुछ मिस कर गए. फिल्म को स्लो मोशन में देखने का दिल करता था.
फिल्म का तीसरा हिस्सा एक व्यक्ति के बारे में है जिसने किडनी का ओपरेशन करवाया है. इसमें मेरा पसंदीदा हिस्सा है जहाँ वो अपनी नानी से बात कर रहा होता है. नानी का कहना है जिंदगी में इतना कुछ देखने को है, इतना कुछ करने को है, तुम एक आम सी जिंदगी कैसे जी सकते हो. जवाब है कि मुझे नहीं चाहिए इतनी सारी चीज़ें. मैं अच्छा कमाता खाता हूँ, लोग मेरी इज्ज़त करते हैं, अ लिटिल ह्युमनिटी...और क्या चाहिए इंसान को. मुझे वाकई सिर्फ इतना ही चाहिए.
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फिल्म देख कर गर्व की अनुभूति होती है. हालाँकि इसे किसी कैटेगरी में नहीं डाल सकते लेकिन मिनिमलिस्ट फिल्म है. इसकी रफ़्तार कभी धीमी तो कभी बहुत तेज़ है. बहुत सारे डायलॉग नहीं हैं पर जो हैं बेहतरीन हैं. फिल्म आपको पासिव ऑब्जर्वर नहीं, अपना हिस्सा बनाती है, अपने द्वन्द, ड्यूअलिटी का हिस्सा. जहाँ आप दोनों पक्ष देखते हैं.
फिल्म देख कर लगता है कि भारतीय सिनेमा एक युग आगे जा चुका है. अपने देश में ऐसी फिल्म बन भी सकती है यकीन नहीं होता. इसके सारे सरोकार भारतीय हैं, कुछ ऐसा जो कहीं और, किसी और देश में नहीं बन सकता था. मालूम नहीं चलता कि फिल्म कहाँ से आपकी अपनी हो जाती है, महज दर्शक होने से...आप फिल्म का हिस्सा हो जाते हैं. फिल्म आज के दौर की है मगर इसके सवाल हर दौर में उतने ही महत्वपूर्ण रहेंगे. फिल्म काल-क्षय से परे है. शिप ऑफ़ थीसियस की तरह, फिल्म के कई पुर्जे उन सारे लोगों में लग गए हैं जिन्होंने इस फिल्म को देखा है. जब तक ये लोग रहेंगे, शिप ऑफ़ थीसियस विस्मृत नहीं होगा.
अगर आपको फिल्में पसंद हैं और शिप ऑफ़ थीसियस आपके शहर में लगी है तो आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. बड़ा पर्दा इन्ही चीज़ों के लिए अस्तित्व में आया है. जिंदगी की सूक्ष्म विशालताओं के लिए.
फिल्म को पांच में से साढ़े पांच स्टार्स.
Rating 5.5 out of 5 stars.
Ship of Theseus - Trailer
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Ship of Theseus के बारे में मालूम चला, IIMC के सहपाठी अंकुर ने इस पन्ने को लाईक करने का लिंक भेजा था. ट्रेलर देखते हुए फिल्म के बारे में एक गहरी उत्सुकता बन गयी थी. वीकेंड में व्यस्त थी तो नहीं देख पायी. कल मंडे होते हुए भी रात का शो देखने की ललक थी. ऑनलाइन कटाने की कोशिश की तो पीवीआर हाउसफुल. फिर बुकमायशो से टिकट कटाई. कुणाल व्यस्त था तो सोचा अकेली चली जाऊं, फिर नेहा से पूछा, वो फ्री थी तो उसके साथ चली गयी.
फिल्म में कुछ छूट न जाए इसलिए बिफोर टाईम पहुंचे, जो कि एक तरह का रिकोर्ड ही है. पोपकोर्न और कोल्ड ड्रिंक लेकर अन्दर गए तो अचरज से भर गए. पीवीआर कोरमंगला में मंडे को रात का शो वाकई हाउसफुल था. बंगलौर जैसे शहर में जहाँ भागते दौड़ते फुर्सत नहीं मिलती, कितने सारे लोग इस फिल्म को देखने आये थे.
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फिल्म का टाइटल शिप ऑफ़ थीसियस नाम की कहानी पर है. एक शिप होता है, जैसे जैसे उसके पुर्जे ख़राब होते जाते हैं, एक एक करके उसके सारे पुर्जे, लकड़ियाँ, खम्बे, सब कुछ बदल दिया जाता है. एक वक़्त में शिप में पुराने शिप का कोई पुर्जा भी नहीं होता. शिप के ख़राब हुए पुराने पुर्जों को जोड़ कर एक शिप बना दिया जाए, तो इन दोनों में असली शिप ऑफ़ थीसियस कौन सा होगा.
फिल्म में तीन कहानियां हैं. पहली एक फोटोग्राफर की कहानी है जो बचपन में आँखों के कोर्निया इन्फेक्शन के कारण देख नहीं सकती. उसके पास एक कैमरा है जो आसपास की चीज़ों के बारे में बोल कर बताता है. वो सुन कर, महसूस कर के तसवीरें खींचती हैं. उसका पार्टनर/बॉयफ्रेंड भी उसे उसकी खींची हुयी तस्वीरों के बारे में डिटेल में बताता है. दोनों में इस बात पर बहस होती है कि अच्छी तस्वीर कौन सी है, लड़की का कहना है वो तस्वीर जो मैंने सुन कर महसूस कर के खींची है...इत्तिफाक से खींची गयी अच्छी तस्वीर भी वो अपने कलेक्शन में नहीं रखना चाहती. उसे सिर्फ वो चीज़ें रखनी हैं जिन्हें उसने खुद कम्पोज किया है, जिस कहानी को वो कहना चाहती है. ये उसका अंतिम निर्णय है कि कौन सी तस्वीर रखी जाए और कौन सी नहीं.
फिल्म का ये सीन किचन में फिल्माया गया है. मुझे याद करने पर भी याद नहीं आता कि किसी आखिरी फिल्म में इस बात पर बहस कब देखी थी कि व्हाट इज आर्ट. कि हर एक का नजरिया अलग होता है. एक आर्टिस्ट लोगों के लिए, उनके हिसाब से नहीं रच सकता...वो इसलिए रचता है कि उसे अपना कुछ कहना होता है. वरना क्या फर्क पड़ता है. फिल्म का ये सेगमेंट मेरे लिए सबसे रियल था. सवाल जैसे मेरे सवाल थे. बैकग्राउंड स्कोर में सन्नाटे का बेहतरीन इस्तेमाल था.
फिल्म की दूसरी कहानी एक जैन साधू की है. सिनेमैटोग्राफी के लिहाज़ से ये मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा है. बारिश भीगता मुंबई हो या विंडमिल के खेतों में गुज़रती साधुओं की छोटी टोली. इसमें सवाल इतने सारे और फिलोसफी इतनी गहरी कि कई बार तो लगता था कितना कुछ मिस कर गए. फिल्म को स्लो मोशन में देखने का दिल करता था.
फिल्म का तीसरा हिस्सा एक व्यक्ति के बारे में है जिसने किडनी का ओपरेशन करवाया है. इसमें मेरा पसंदीदा हिस्सा है जहाँ वो अपनी नानी से बात कर रहा होता है. नानी का कहना है जिंदगी में इतना कुछ देखने को है, इतना कुछ करने को है, तुम एक आम सी जिंदगी कैसे जी सकते हो. जवाब है कि मुझे नहीं चाहिए इतनी सारी चीज़ें. मैं अच्छा कमाता खाता हूँ, लोग मेरी इज्ज़त करते हैं, अ लिटिल ह्युमनिटी...और क्या चाहिए इंसान को. मुझे वाकई सिर्फ इतना ही चाहिए.
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फिल्म देख कर गर्व की अनुभूति होती है. हालाँकि इसे किसी कैटेगरी में नहीं डाल सकते लेकिन मिनिमलिस्ट फिल्म है. इसकी रफ़्तार कभी धीमी तो कभी बहुत तेज़ है. बहुत सारे डायलॉग नहीं हैं पर जो हैं बेहतरीन हैं. फिल्म आपको पासिव ऑब्जर्वर नहीं, अपना हिस्सा बनाती है, अपने द्वन्द, ड्यूअलिटी का हिस्सा. जहाँ आप दोनों पक्ष देखते हैं.
फिल्म देख कर लगता है कि भारतीय सिनेमा एक युग आगे जा चुका है. अपने देश में ऐसी फिल्म बन भी सकती है यकीन नहीं होता. इसके सारे सरोकार भारतीय हैं, कुछ ऐसा जो कहीं और, किसी और देश में नहीं बन सकता था. मालूम नहीं चलता कि फिल्म कहाँ से आपकी अपनी हो जाती है, महज दर्शक होने से...आप फिल्म का हिस्सा हो जाते हैं. फिल्म आज के दौर की है मगर इसके सवाल हर दौर में उतने ही महत्वपूर्ण रहेंगे. फिल्म काल-क्षय से परे है. शिप ऑफ़ थीसियस की तरह, फिल्म के कई पुर्जे उन सारे लोगों में लग गए हैं जिन्होंने इस फिल्म को देखा है. जब तक ये लोग रहेंगे, शिप ऑफ़ थीसियस विस्मृत नहीं होगा.
अगर आपको फिल्में पसंद हैं और शिप ऑफ़ थीसियस आपके शहर में लगी है तो आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. बड़ा पर्दा इन्ही चीज़ों के लिए अस्तित्व में आया है. जिंदगी की सूक्ष्म विशालताओं के लिए.
फिल्म को पांच में से साढ़े पांच स्टार्स.
Rating 5.5 out of 5 stars.
Ship of Theseus - Trailer