03 November, 2024

Be my love in the rain

सुबह-सुबह एक चिट्ठी लिखने को मन अकुलाया हुआ उठा है। लेकिन ये बेवक़ूफ़ाना सवाल किससे पूछें। कि हम अपना टूटा हुआ मन लेकर जायें कहाँ! 

बारिश सोचती हूँ। हम सब बारिश के मौसम में अलग बर्ताव करते हैं। बारिश के प्यार करने वाले कई क़िस्म के लोग होते हैं। कुछ लोग बारिश आते ही घर के भीतर भाग जाते हैं कि भीग न जायें। कुछ लोग दुकानों के आगे छज्जों के नीचे खड़े हो जाते हैं। बाइक वाले लोग पुल-पुलिया के नीचे भी बारिश के थम जाने का इंतज़ार करते हैं। हम जिस जलवायु के होते हैं, वह हमारा कुदरती बर्ताव निर्धारित करती है। हमारे तरफ़ बारिश ऐसे अचानक कभी भी नहीं बरसती थी…उसके आने का नियत मौसम होता था। जेठ की कड़कड़ाती गर्मी के बाद आती थी बारिश। ज़मीन से एक ग़ज़ब की गंध फूटती थी। बारिश होते ही हम हमेशा दौड़ कर बाहर आ जाते। यहाँ वहाँ ज़मीन पर बने गड्ढों में कूदते। छत से गिर कर आ रही पानी की धार में झरने जैसा नहाने का मज़ा आता। मगर यह बचपन की बात थी।

पता नहीं हम कब बड़े हो गये और बारिश हमसे छूट गई। हम पटना में रहते थे। यहाँ कुछ चीज़ें एकदम बाइनरी थीं…लड़कों के लिए और लड़कियों के लिए दुनिया एकदम अलग थी। उस समय थोड़ी कम महसूस होती थी, अब थोड़ी ज़्यादा महसूस होती है। लड़कपन में बहुत कुछ बदला…जैसे बारिश हमारे लिए सपने की चीज़ हो गई। सपने में भी हम बारिश से बचते-बचाते चलते थे। हम सालों भर अपने कॉलेज बैग में छाता लेकर जाते थे कि बेमौसम बारिश में भीग न जायें। उस दिन में तीन तरह के अचरज थे। पहला कि हम छाता ले जाना भूल गए। दूसरा कि उस रोज़ बारिश हो गई - बे-मौसम। और तीसरा कि उस रोज़ हमको सरप्राइज देने मेरा बॉयफ्रेंड अचानक शहर आया हुआ था और हम उससे मिल रहे थे।

वो मेरा पहला बॉयफ्रेंड था। उन दिनों बॉयफ्रेंड ही कहने का चलन था। पटना के जिस मुहल्ले में हम रहते थे वहाँ बहुत से गुलमोहर के पेड़ थे। उस रोज़ मैंने आसमानी रंग का जॉर्जेट का सलवार सूट पहना था। हम उस रंग को पानी-रंग भी कहते थे। कॉलेज में लंच के बाद के एक्स्ट्रा सब्जेक्ट्स वाले क्लास होते थे और फिर प्रोजेक्ट्स करने होते थे। उस रोज़ मैंने लंच के बाद के क्लास नहीं किए। हमारे कॉलेज के सामने कचहरी थी और उधर बहुत दूर दूर तक सुंदर सड़क थी। कोलतार की काली सड़कें, उनमें गड्ढे नहीं थे। सड़क पर पेड़ थे। भीड़ एकदम नहीं थी। उन दिनों शहर में लोग कम थे और दोपहर को मुख्य सड़कों पर ही लोग दिखते थे, भीतर वाली सड़कें कमोबेश ख़ाली हुआ करती थीं। हम पैदल चलते चलते कई किलोमीटर भटक चुके थे। ऑटो में बैठ कर अपने मुहल्ले के आसपास वाली सड़क पर उतर गये।

उसने मेरा बैग मुझसे ज़बरदस्ती छीन के टांग लिया था। मुझे उसकी ये चीज़ बहुत अच्छी लगी थी। कि बैग भारी था। उसमें कॉलेज की सारी किताबें और नोटबुक थे। तुम थक गई होगी, इतना देर से बैग लेकर चल रही हो, हमको दे दो। इतना ही सरल था। बीस साल पुरानी बात है। लेकिन याद है। केयर और प्यार, बड़ी बड़ी चीज़ों में नहीं होता। और याद, ऐसी ही छोटी चीज़ें रहती हैं, ताउम्र।  वहाँ गुलमोहर के पेड़ थे और सुंदर घर बने हुए थे। हम यूँ ही टहल रहे थे और बतिया रहे थे। पिछले कई घंटों से। मेघ लगे, और एकदम, अचानक बारिश होने लगी। मूसलाधार। मैं बहुत घबरा गई। आसपास न कोई दुकान थी, न कोई छज्जा…वहाँ सिर्फ़ घर थे और सारे घरों के आगे बड़े बड़े दरवाज़े थे। ‘भीग जाएँगे तो मम्मी बहुत डाँटेगी’ का लगातार मंत्र जाप जैसा बड़बड़ाना शुरू किए हम…हमको भीगने का डर जो था सो था, मम्मी की डाँट का उससे बहुत बहुत ज़्यादा डर था। कि हम भीगते हुए घर नहीं पहुँच सकते थे। उसने एक दो बार मेरा नाम लिया लेकिन हम अपने मन के एकालाप में एकदम ही नहीं सुने। आख़िर को उसने मेरे दोनों कंधों को पकड़ कर मुझे झकझोर दिया… “पम्मी! पम्मी! ऊपर देखो!” मैंने ऊपर देखा…ऊपर उसका सुंदर चेहरा था…और आसमान से पानी बरस रहा था…पूरे चेहरे पर बारिश…जैसे पानी बेतरह चूम रहा हो चेहरा…मैंने आँखें बंद की…ऐसा होता है मुहब्बत में भीगना। उस लम्हे मुझे आगत का डर नहीं था। कोई हमेशा का सपना नहीं था। बारिश हमारे इर्द गिर्द भारी पर्दा बन रही थी। कुछ नहीं दिख रहा था। उसने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था। मुझे अब घर भी लौटना था। हमारी हथेली में बारिश थी। हमारी हथेली में फिर भी थोड़ी गर्माहट थी।

गोलंबर आये तो भाई छाता लिए इतंज़ार कर रहा था। कि कहाँ से इतना भीगते आयी हो। तेज़ बारिश और तेज हवा। छाता के बावजूद भीगना तो था ही। इसलिए घर जा कर डाँट नहीं पड़ी। भाई माँ को चुग़ली नहीं किया कि पहले से भीगे हुए आए थे। उस दिन के बाद बारिश होती तो भाग कर आँगन जाते थे, सब कपड़ा अलगनी से उतारते थे। और फिर अगर घर में कोई नहीं होता था तो थोड़ा सा भीग लेते थे। चुपचाप। प्यार को भी दिल में ऐसे ही चोरी-छुपे रहने की इजाज़त थी।

कॉलेज में हम इतने भले स्टूडेंट थे। जब कि उन दिनों बुरा बनना बहुत आसान था। कॉलेज गेट के बाहर चाट-गुपचुप-झालमुरी खाने वाली लड़कियों तक को बुरी लड़कियों का तमग़ा मिल जाता था। उसके लिए क्लास बंक कर के फ़िल्म जाने जैसा गंभीर अपराध करने की ज़रूरत नहीं थी। हमारी अटेंडेंस 100% हुआ करती थी। हम कभी एक क्लास भी नहीं छोड़े, ऐसे में एक दिन भी कॉलेज नहीं आये तो प्रोफेसर को इतनी चिंता हो गई कि घर फ़ोन करने वाली थीं। वो तो भला हो दोस्तों का, कि उन्हें बहला-फुसला दिया वरना हम अच्छे-ख़ासे बीमार होने वाले थे कुछ दिनों के लिए। 

मुहब्बत तो हमेशा से ही आउट-ऑफ़-सिलेबस थी। तो क्या हुआ अगर हम इस पेपर के सबसे अच्छे विद्यार्थी हो सकते थे।

वे लड़के जिनसे हमने १५-२० साल की कच्ची उम्र में मुहब्बत की थी, मुझे अब तक याद क्यों रह गये हैं। मैं यह सब भूल क्यों नहीं जाती? हमारी मुहब्बत में होना तो कुछ था ही नहीं। समोसे के पैसे बचा कर std कॉल करना। कभी-कभार डरते हुए चिट्ठियाँ लिखना। और बाद में ईमेल। याहू मेल ने वो सारी ईमेल डिलीट कर दीं, जिसमें से एक में उसने लिखा था कि तुम मेरी धूप हो…सनशाइन। बादलों वाले जिस शहर में मैं रहती हूँ…धूप के लिए मेरा पागलपन अब भी क़ायम है। मुझे लिखने को ऐसी खिड़की चाहिए जो पूरब की ओर खिलती हो।

मैं याद में इतना पीछे क्यों चलते जा रही हूँ! जब कि सपने में कुछ भी नहीं देखा है। कई रातों से लगातार सोई नहीं हूँ ढंग से। आँखें लाल दिख रही थी आईने में आज। जलन भी हो रही है और थकान भी।

दिल्ली पढ़ने गई तो अगस्त का महीना था। वो शहर में मेरी पहली रात थी। अकेले। मम्मी-पापा स्टेशन जा चुके थे। मैं हॉस्टल में थी। बहुत तेज़ बारिश शुरू हुई। IIMC हॉस्टल से भागते हुए बाहर निकली थी मैं। पीले हैलोजेन लाइट से भीगा हुआ कैंपस था। यहाँ भय नहीं था। मैं भीग रही थी। मैं नाच रही थी। मैं आज़ाद थी। ये मेरा अपना शहर था। मेरी मुहब्बत का शहर। दिल्ली से उस एक रात से हुई मुहब्बत ने मुझे कई साल तक जीने का हौसला दिया है। 

बैंगलोर आयी तो जिस मुहल्ले में रहती थी यहाँ बहुत पुराने पेड़ थे। गुलमोहर। सेमल। सड़कों पर सुंदर घर थे। इस शहर की बारिश मेरी अपनी थी। मैं अक्सर चप्पल घर पर छोड़, बिना फ़ोन लिए, नंगे पाँव बारिश में भीगने चल देती थी। घर से थोड़ी दूर पर पंसारी की दुकान थी, जहाँ से सब्ज़ी-दूध-दही और बाक़ी राशन लिया करती थी। मैं वहाँ भीगते हुए पहुँचती। एक ऑरेंज आइस क्रीम ख़रीदती। हिसाब में लिखवा देती, कि पैसे बाद में दूँगी। बारिश में भीगती, ऑरेंज आइसक्रीम खाती सड़कों पर तब तक टहलती रहती जब तक भीग के पूरा सरगत नहीं हो जाती। घर लौटती और गर्म पानी से नहाती। कॉफ़ी या फिर नींबू की चाय बनाती। अक्सर मैगी भी। फिर चिट्ठियाँ लिखने बैठती, या फिर ब्लॉग पर कोई पोस्ट। ऐसा मैंने उन सारी दुपहरों में किया जब मेरी नौकरी नहीं होती थी। 

2018 में वो गुलमोहरों वाला मुहल्ला मुझसे छूट गया। हम जिस सोसाइटी में आये यहाँ पेड़ नहीं थे। दूर दूर तक खुली सड़कें। बारिश छूट गई। फिर मैंने बारिश को जी भर के तलाशा। घर से कुछ दूर एक झील थी। एक शाम वहाँ बाइक लेकर ठीक पहुँची ही थी कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। मैंने स्पोर्ट शूज़ पहने थे। वे उतार कर डिक्की में रख दिये। पैदल वहाँ झील के किनारे चल दी। कच्ची सड़क में बहुत सा पानी भर गया था। कुछ कंकड़ भी थे। पैरों को कभी-कभी चुभते। झील पर बेतरह बारिश हो रही थी। आसमान और झील सब पानी के पर्दे में एकसार हो रखा था। बारिश रुकने के बाद मैंने चाय की टपरी पर सिगरेट ख़रीदी। एक कप कॉफ़ी पी। बारिश में सिगरेट भीग भीग जा रही थी। तो बार बार जला कर पी। उस एक रोज़ की बारिश ने मुझे कई महीनों तक ज़िंदा रहने का हौसला दिया। 

रॉबर्ट फ्रॉस्ट की एक कविता है, बारिश और तूफ़ान के बारे में...इसकी एक पंक्ति है, "Come over the hills and far with me, and be my love in the rain." बारिश को लेकर मेरे पागलपन को देखते हुए एक दोस्त ने एक बार शेयर की थी, कि तुमको तो बहुत पसंद होगी। मैंने कभी पढ़ी ही नहीं थी। लेकिन पढ़ी, और फिर कितनी अच्छी लगी...कैसी आकुल प्रतीक्षा है इसमें...ऐसा घनघोर रोमांटिसिज्म...बारिश इन दिनों अपने घर की बालकनी से देखती हूँ। इक्कीसवें माले का वह घर बादलों में बना हुआ है। मैं दो तरफ़ की बालकनी खोल देती हूँ और देखती हूँ कि घर के भीतर बादल का एक टुकड़ा चला आया है। मैं बालकनी में खड़ी, भीगते हुए बादलों को देखती हूँ...शहर सामने से ग़ायब हो जाता है...बादलों के पीछे इमारतें लुक-छिप करती रहती हैं। आख़िर को मैं एक कॉफ़ी बना कर अपनी स्टडी टेबल पर बैठती हूँ और लिखने की बजाय सारे समय बादल ही देखती रहती हूँ। 

बच्चे इस महीने पाँच साल के हो जाएँगे। मैंने उनको को बारिश से बचा कर नहीं रखा। उन्हें बारिश से प्यार करना सिखाया। वे बारिश होते ही बाहर भागते हैं। उनके साथ मैं भी। सड़क किनारे पानी में कूदते हुए। लॉन में आसमान की ओर चेहरा उठाए, जीभ बाहर निकाले बारिश को चखते ये मेरे बच्चे ही हैं…पानी में भीगते, लोटते, कूदते…उनके साथ मुझे भी इजाज़त है कि मन भर भीग लूँ। कि मेरे बच्चे, मेरी तरह ही, कभी बारिश में भीग कर बीमार नहीं पड़ेंगे।

***

उसने कहा, उसे मेरे साथ बारिश देखनी है।
मेरे मन के भीतर तब से बारिश मुसलसल हो रही है। मैं नहीं जानती उसका शहर बारिश को कैसे बरतता है। वो ख़ुद बारिश में भीगता है, मुझे मालूम है। मेरी सूती साड़ियाँ बारिश में भीगने को अपना नंबर गिन रही हैं। मैं एक पागल गंध में डूबी हुई हूँ। 

***

A Line-storm Song

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The line-storm clouds fly tattered and swift,  
  The road is forlorn all day,  
Where a myriad snowy quartz stones lift,  
  And the hoof-prints vanish away.  
The roadside flowers, too wet for the bee,
  Expend their bloom in vain.  
Come over the hills and far with me,  
  And be my love in the rain.  

The birds have less to say for themselves  
  In the wood-world’s torn despair
Than now these numberless years the elves,  
  Although they are no less there:  
All song of the woods is crushed like some  
  Wild, easily shattered rose.  
Come, be my love in the wet woods; come,
  Where the boughs rain when it blows.  

There is the gale to urge behind  
  And bruit our singing down,  
And the shallow waters aflutter with wind  
  From which to gather your gown.     
What matter if we go clear to the west,  
  And come not through dry-shod?  
For wilding brooch shall wet your breast  
  The rain-fresh goldenrod.  

Oh, never this whelming east wind swells    
  But it seems like the sea’s return  
To the ancient lands where it left the shells  
  Before the age of the fern;  
And it seems like the time when after doubt  
  Our love came back amain.       
Oh, come forth into the storm and rout  
  And be my love in the rain.

01 November, 2024

ब्लैक कॉफ़ी मॉर्निंग्स



वो मेरे मन की रेल का टर्मिनस है। ये रेल शुरू चाहे जिस स्टेशन से हो, गुज़रे चाहे जिन भी पठारों, पहाड़ों से…अंततः इसे उसी स्टेशन पर रुकना होता है।
वहाँ से ट्रेन आगे नहीं जाती। रुकती है। लौटती है।

एक लंबी यात्रा के बाद ट्रेन की साफ़-सफ़ाई होती है, कंबल-चादरें धुलती हैं। फिर ट्रेन वहाँ से वापस चलती है, पुराने शहरों को देखने, नये यात्रियों को नयी जगह पहुँचाने। पुराने यात्रियों को गर्मी-छुट्टी के नास्टैल्जिया तक बार-बार उतारने।

त्योहारों की सुबह कैसा कच्चा-कच्चा सा मन होता है।
मैंने सपने में दोस्त को देखा। कई समंदर पार से वह देश आया हुआ है। मैंने दौड़ते हुए उसके पास जाती हूँ और उसे हग करते ही पिघल जाती हूँ। मोम। थोड़ी गर्मी और नरमाहट लिये हुए। यह मेरी जानी हुई जगह है। मैं यहाँ सुरक्षित हूँ। सेफ़। मैं यहाँ खुश हूँ। मेरा मन मीठा है। यहाँ से कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं है। सपने की जगह पहचानी हुई नहीं है। लेकिन जाग में वो शहर मेरा अपना लगता है। मैं पूछती हूँ उससे, ‘तुम क्यों आए अभी?’, वो कहता है, ‘तुम्हारे लिए, पागल, और किसके लिये। मुझे लगा तुमको मेरी ज़रूरत है।’

मेरी ज़रूरत। आख़िर को तुम्हें क्या चाहिए। मैं देखती हूँ, भगवान परेशान बैठे हैं…ये लड़की मेरे हाथ से बाहर है…इसको सब कुछ दे दो फिर भी ऐसे टीसती, दुखती, मेरे मन पर बरसती रहती है। हम भगवान से बकझक कर रहे हैं…एक आपके मन पर एक बस मेरे कलपने से इतना असर काहे पड़ता है, भर दुनिया का चिंता है आपको…क्या फ़र्क़ पड़ता है हमसे…अब हम मन भर उदास भी ना रहें? भगवान कहते हैं, तुमको यक़ीन नहीं होता है बेवक़ूफ़ लड़की, लेकिन तुम हमारी बहुत प्यारी हो…तुम्हारे क़िस्मत से जितना ज़्यादा हो पाता है, तुम्हारे हिस्से में सुख रखते हैं…लेकिन तुमको जाने क्या चीज़ का दरकार है…ठीक ठीक बताओ तो लिख भी दें तुम्हारे लिए…हम हँसते हुए उठ जाते हैं…प्रभु, रहने दीजिए हमको क्या चाहिए…आपसे नहीं हो पाएगा…

पिछली बार बहुत दुखाया था तो भगवान से ही कहे थे, हमारे दिल में मुहब्बत थोड़ी कम कर दो…हम नहीं जानते इस आफ़त का क्या करें।

इस बार दीवाली अक्तूबर के आख़िरी दिन थी। घर में पिछले महीने ही श्राद्ध-कर्म पूरा हुआ था इसलिए मन पर त्योहार का उल्लास नहीं, जाने वाले की आख़िरी फीकी उदासी थी।

नवम्बर मेरे लिये साल का सबसे मुश्किल महीना होता है। इसी महीने माँ चली गई थी। अगले कुछ सालों में वह वक़्त जो मैंने इस दुनिया में उसके बिना बिताया, उस वक़्त से ज़्यादा हो जाएगा जो मैंने उसके साथ बिताया। 

PTSD - पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर को कहते हैं। मुझे बहुत साल बाद समझ आया कि मुझमें इस ट्रामा के कारण उपजे स्ट्रेस से कुछ ख़ास डिसऑर्डर हो गये हैं और मुझे ख़ुद की रक्षा के लिए एहतियात बरतनी होगी। जैसे कि मुझे बाउंड्री/boundaries/सीमा-रेखा खींचनी नहीं आती। इंतज़ार किस लम्हे जा कर घातक हो जाता है, मुझे नहीं समझ में आता। इंतज़ार में मेरी जान जा सकती है, यह अतिशयोक्ति नहीं है। मुझे इंतज़ार से बेतरह घबराहट होती है। “The fatal definition of a lover is precisely this, I am the one who waits. - Roland Barthes” प्रेमी की यह परिभाषा मुझ पर एकदम सटीक बैठती है। हम बार बार इस fatal पर अटकते हैं, सोचते हैं कि यह कुछ और भी हो सकता था…लेकिन यह फेटल ही है…अच्छा पढ़ना हमें ख़ुद को बेहतर समझने में मदद करता है। और अच्छे दोस्त हम तक ऐसी किताबें पहुँचा देते हैं। दोस्त चाराग़र होते हैं। वे हमें जिलाये रखते हैं।
इंतज़ार के साथ दिक़्क़त ये भी है कि मेरे भीतर कोई घड़ी नहीं चलती। मुझे समय सच में एकदम समझ नहीं आता - किसी फाइनाइट टर्म में तो बिलकुल ही नहीं। हम ख़ुद किसी को कहेंगे कि बारह बजे मिलते हैं और हम उससे मिलने किसी भी समय जा सकते हैं…सुबह के दस बजे से लेकर शाम के चार बजे तक - होगा ये कि हम इस बीच के समय में बार-बार फ़ोन पर बताते रहेंगे कि हमको देर क्यों हो रही है…कारण कुछ भी हो सकता है…कौन सी साड़ी पहनें समझ नहीं आ रहा, समझ आने पर मैचिंग झुमका नहीं मिल रहा…कुछ भी अलाय-बलाय। 

हमें ख़ुद के लिए समझना पड़ता है कि हम नॉर्मल हैं नहीं, ऊपर से भले दिखते हों…लेकिन हमारी भीतरी बनावट में कुछ टूटा हुआ है। कि हमारे भीतर एक कच्चा ज़ख़्म है जो किसी और व्यक्ति को नहीं दिखता। इस चोटिल जगह पर हमें बार-बार चोट न लगे, इसलिए हमें एक काला धागा बाँधना होता है। हम यह भी समझते हैं कि कभी-कभी सिर्फ़ काले धागे से काम नहीं चलेगा तो हम एक जिरहबख्तर भी बाँध लेते हैं।
इक severe क़िस्म का दुखता हुआ इंतज़ार। एक बीमारी जैसा। एक फिजिकल ऐल्मेंट। हम कितना भी चाहें ख़ुद के भीतर चलते इस टाईम बम को रोक नहीं सकते। यह टिकटिक करते रहता है, उल्टी गिनती में। बेहिसाब…जब हम इंतज़ार करते हैं तो हमसे कुछ भी और नहीं होता। साँस लेना न भूल जाएँ, इस बात का डर लगता है। खाना नहीं खा सकते, नहा नहीं सकते, बाल नहीं झाड़ सकते तरतीब से। ऐसे बौखलाए, बौराये चलते हैं कि कोई देखे तो सीधे पागलखाने में भर्ती कर दे।
ये भी नहीं कि जिसका इंतज़ार है, उसको फ़ोन कर कर के हलकान कर दें…लेकिन जो बहुत प्यारे दोस्त हो गये हैं वे अब मुझे इंतज़ार करने को नहीं कहते। उन्हें पता है मैं मर जाऊँगी ऐसे किसी दिन, इस एंजाइटी में। लेकिन ये बता पाना भी तो मुश्किल है। क्या कहें, हमको इंतज़ार की बीमारी है…हो सके तो हमको इंतज़ार मत कराना।

मुझे बचपन से मीठा बहुत पसंद रहा है। आदतन हाथ मीठे की ओर बढ़ जाता है। लेकिन ज़ुबान को अब मीठा अच्छा नहीं लगता। आदत ब्लैक कॉफ़ी भी बना लेते हैं पीने के लिए। उसकी मीठी कड़वाहट ज़ुबान को अच्छी लगती है। यह इन दिनों मेरा फ़ेवरिट स्वाद है…उम्र के इस दौर में मुहब्बत ऐसी ही है, थोड़ी मीठी कड़वाहट लिए…ब्लैक कॉफ़ी।

वे दिन अच्छे होते हैं जब बेवजह का कोई दुख नहीं होता, जब सुबह सुबह सिर में दर्द नहीं होता। जब हम उठ कर परिवार के बीच सुबह की चाय बना कर की पाते हैं। ये नहीं कि हेडफ़ोन लगा लिये। काली कॉफ़ी बना लिये। और लॉन में आ के बैठ गये कि दिमाग़ में चटाई बम लगा हुआ है। जब तक लड़ी का सारा पटाखा फूट न जाये, कहीं चैन नहीं आएगा।

डियर ईश्वर, अपनी इस पागल लड़की पर थोड़ा प्यार ज़्यादा बरसाना।
अगली कहानी लिखने के पहले से मन दुख रहा है।

30 October, 2024

तुम इंतज़ार की खुखरी से कर सकते हो मेरा क़त्ल







प्रेम का दुर्जय, अभेद्य क़िला होता ही नहीं,
प्रेम हर साल बाढ़ में बह जाने वाला, गरीब का
अस्थाई झोंपड़ा होता है। 
*** 

साईंस ने बहुत कुछ नाशा भी तो है। 
धरती जो दिखती है समतल, दरअसल गोल होती है।
सूरज नहीं घूमता धरती के चारों-ओर,
धरती ही घूमती है, गोल गोल।

बिछोह, उदासी, इंतज़ार, बेवफ़ाई…तुम्हारे दिल में भी जाने क्या क्या हो,
तुम्हें भरम होता है कि मुहब्बत है।

***
हम सच में उतर सकते हैं चाँद पर।
सपने में मेरा हाथ पकड़ के मत चला करो
तुमसे दूर जाने की ख़ातिर चाँद तक जाना पड़ेगा।

***
मैं तुम्हें भूलने को कहाँ जाऊँ?
दुनिया में ऐसा कौन शहर होगा, जिसमें तुम्हारा इंतज़ार नहीं।

***
प्रेम के ईश्वर ने प्रसन्न होकर मुझे एक बेहद खूबसूरत और धारदार खुखरी दी थी। इंतज़ार की।
और साथ में यह वरदान कि मेरा क़त्ल सिर्फ़ इसी खुखरी से हो सकता है।

इंतज़ार की वह खुखरी मैंने तुम्हें दी ही इसलिए थी,
कि जब मेरी मुहब्बत तुम्हें ज़्यादा सताने लगे,
तुम मेरी जान ले सको।

इसे बेहिचक उतारो मेरे सीने में,
तुम्हें हर जन्म में मेरा खून माफ़ है।

***
बिछड़ना इस दुनिया में एक खोयी हुई शय है
महसूस होते हैं सब दोस्त - मेसेज, वीडियो कॉल और ईमेल से एकदम क़रीब।

लेकिन प्रेमी बिछड़ते रहते हैं अब भी
रेलवे प्लेटफ़ार्म पर पसीजी हथेली और धड़कते दिल के साथ
जैसे ये दुनिया ख़त्म हो जाएगी उनके दूर जाते ही।

वे ईश्वर के पास चिरौरी करेंगे
धरती पर एक और जन्म के लिए
एक साझे भूगोल के लिए।
एक आख़िरी सिगरेट के लिए।
बरसात के लिए। समंदर के लिए।

वे ईश्वर की खंडित प्रतिमाओं के सामने खड़े सोचते रहेंगे
टूटा, अधूरा प्रेम इसलिए है…कि हमने ग़लत ईश्वर से मनौती माँगी

वे तलाशते रहेंगे अपना साझा ईश्वर
कई जन्म तक… 

बिछड़ते रहेंगे…कभी-कभी, अक्सर, हमेशा…

***
जैसे दो दर्पण रख दिये हों एक दूसरे के सामने
वे झांकते हैं एक दूसरे की आँखों में
अनंत संभावनाओं से सम्मोहित हो कर।

***
हम सब प्रेम में हुए जाते हैं कुछ और
बारिश की चाहना से भरा है रेगिस्तान का लड़का
प्यास के रेगिस्तान में भटक रही है गंगा किनारे की लड़की

***
मुझे हथियारों में बहुत रुचि है। किसी भी क़िले में शस्त्रागार देख कर बहुत खुश होती हूँ। क़िले की संरचना में आक्रमणकारियों से बचाव के लिए क्या क्या ढाँचे बनाये गये हैं, उनपर इतने सवाल पूछती हूँ कि कभी कभी गाइड परेशान हो जाते हैं। पुरानी तोपें, असला-बारूद, तलवार/भाला/खुखरी/जिरहबख़्तर…इनके इर्द-गिर्द नोट्स बनाती तस्वीर खींचते चलती हूँ।

बहुत साल पहले फ़्रांस और स्विट्ज़रलैंड के बॉर्डर पर एक क़िला देखने गई थी, Château d’Chillon, बड़ी सी झील के किनारे बना हुआ क़िला जिसमें सात तरह के दरवाज़ों की भूलभुलैया बनी हुई थी। वहाँ लॉर्ड बायरॉन को गिरफ़्तार कर के रखा गया था। वहीं मैंने पहली बार मांसभक्षी चूहों के बारे में सुना था। उसकी कालकोठरी ठंढी और सीली थी। झील का पानी हमेशा वहाँ रिस कर आता रहता था। ऐसी उदास, नैराश्य भरी जगह पर रहने के बावजूद किसी कवि के भीतर कोमलता, प्रेम कैसे पनप गया, मैं सोचती रही। वहाँ एक खंभे पर Byron का सिग्नेचर था। पत्थर में खुदा हुआ। ICSE syllabus में बायरॉन की कविता, She walks in beauty like the night पढ़ी थी। मैं उस सितारों भरी रात जैसी लड़की के बारे में सोचती रही। इस अंधेरे कमरे में जिसकी आँखों की चमक का एक हिस्सा भी नहीं आएगा कभी। प्रेम अपराजेय है।

कभी कभी सोचती हूँ, इन्हीं किलों की तरह अपना दिल बनाऊँगी। अपराजित…अजेय…जहाँ की सारी मीनारों पर आज़ादी का परचम हमेशा लहराता रहे…
हमारा दिल एक हाई-टेक क़िला हो रखा है, बहुत हद तक सुरक्षित। दिल तक पहुँचने वाली गुप्त सुरंगों के व्यूह में ख़तरनाक हथियार लगे हैं। मोशन-डिटेक्शन वाले ख़तरनाक हथियार जो किसी को दिल की तरफ़ आता देख कर अपने-आप चल जायें। दिल की चहारदीवारी के बाहर गहरी खाइयाँ खुदवायीं हैं। दिल का मुख्यद्वार यूँ तो हमेशा बंद रहता है, बस किसी मेले में, कोई उत्सव आने पर यहाँ जनसाधारण को घूमने के लिए एंट्री मिलती है।

दिल के इस अभेद्य, अजेय क़िले पर जिसकी तानाशाही चलती है, बस, उसी को हम सरकार कहते हैं।

09 September, 2024

रैंडम रोज़नामचा - सितंबर

लिखना एक सनक है। एक क़िस्म का पागलपन। इस दुनिया में कितना कुछ है जिसके प्रति हम उदासीन होकर जी सकते हैं। और जीते भी हैं, हमारे पास इतना इमोशनल बैंडविड्थ कहाँ होता है कि हर दुख को अपने कलेजे पर झेल सकें। एक आम सा दिन जीते हुए हमें भूलना पड़ता है कि इसी समय में दुनिया में जंग चल रही है। जीने के लिए बेसिक चीज़ें - शांति, रोटी - कपड़ा - मकान और उम्मीद तलाश रहे हैं।   

लिखने के साथ सबसे बड़ी मुसीबत ये होती है कि आप कभी नहीं भूल पाते कि लिख कर आप हर क़िस्म के दुख को काग़ज़ पर रख सकते हैं। लिख कर दिल हल्का हो जाता है। कि काग़ज़ और कलम एक ऐसा सच्चा दोस्त है जो उम्र भर आपके साथ बना रहता है। थोड़ा ज़्यादा सेंसिटिव होना फिर भी ठीक है। दिक़्क़त तब होती है जब हम comfortably numb यानी कि जीने लायक़ उदासीन होना सीख नहीं पाते हैं। न हम कभी भूल पाते हैं कि लिख कर कितना अच्छा लगता है।

दिक़्क़त ये भी तो कि लिखने चलें तो क्या क्या न लिखते जायें…कैसा कैसा दुख हमारे कलेजे में चुभा रहता है।

कि इस जीवन में सबसे ज़्यादा आफ़त तो प्रेम से ही है। प्रेम के होने से भी बहुत आफ़त और न होने से भी।

जैसे खाने को लेकर हर व्यक्ति की भूख अलग क़िस्म की होती है। कुछ लोग एक ही बार में बहुत सारा खाना ठूँस कर खा सकते हैं। जब बहुत ज़ोर की भूख लगे तो जितना खाना सामने आये, सब खा लें और पचा जायें। कुछ लोगों को कम भूख लगती है। पर हर थोड़ी देर में कुछ न कुछ कुतरने की आदत होती है। हम खाने पीने को लेकर ज़्यादा नुक़्ताचीनी नहीं करते जब तक व्यक्ति बहुत दुबला-पतला या बहुत मोटा न हो…एक एवरेज से थोड़ा सा ऊपर नीचे का स्पेस आपको मिलता है। लेकिन क्या मज़ाल है कि आप किसी भी केटेगरी में थोड़ा एक्सट्रीम हो जायें और आपको कोई बख्श दे। आप रूप भोजन, पर रूप शृंगार कहते हैं। तो जो मन करे खाओ-पियो, बस स्वस्थ रहो, etc etc।

प्रेम को लेकर भी ऐसी ही ज़रूरत होती है। बहुत खोजा लेकिन मिल नहीं रहा, जाने किस कविता का हिस्सा था, The heart is a hunger, forgotten. प्रेम की ज़रूरत सबको अपने हिसाब से कम-ज़्यादा होती है। हमारे तरफ़ बिहार में एक शब्द है, अधक्की…इसको इस अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है कि जब कोई बहुत भूखा होता है तो ज़रूरत से ज़्यादा खाना अपनी थाली में परस लेता है…कई बार यह खाना बर्बाद भी होता है। प्रेम को लेकर भी ऐसा होता है कई बार। इस पर एक और कविता की लाइन याद आती है, when you are not fed love on a silver spoon, you learn to lick it off knives…कितना सुंदर रूपक है। ख़तरे के इर्द-गिर्द रचा हुआ।

मैंने अपने भविष्य के बारे में जब कभी सोचा होगा, ये कभी नहीं लगा था कि किसी शहर में इतनी तन्हाई में जीना होगा। कुछ शहर की फ़ितरत ऐसी है। कुछ शहर के लोग ऐसे हैं। कुछ हम भी ज़्यादा ही पर्टिकुलर हो गये हैं शायद। बहुत अच्छे दोस्त मिल जायें तो भी दिक़्क़त ही होती है। फीकी बातों में मन नहीं लगता। हम स्मॉल-टॉक नहीं कर पाते। जब तक किसी से बात करते हुए एकदम से मन में सूरजमुखी या डैफ़ोडिल वाला पीला-नीला रंग न खिले, हमको मज़ा ही नहीं आता। या तो इतनी रोशनी हो या इतना स्याह कि मन भर-भर आये। आँख भर-भर आये। हम किसी संगीत की धुन में खोये एक दूसरे के सामने हों लेकिन दूर देख रहे हों कि आँख का पानी छलक जाये तो डुबा देगा पूरी दुनिया।

ऐसे जादू वाले लोगों ने इस तरह नाशा है ना मेरा जीवन कि उफ़्फ़! और ये सब लोग मेरे शहर से हज़ारों मील दूर रहते हैं। और अपनी अपनी ज़िंदगी की क़वायद में इस बेतरह व्यस्त कि शिकायत भी नहीं करते। आपके साथ हुआ है कभी, किसी से बात कर रहे हैं और फ्रीक्वेंसी एकदम मैच नहीं कर रही और आप आसमान ताकते हुए सोचते हैं कि उफ़, कहाँ फँस गये। किस नज़ाकत से यह बात बिना कहे यहाँ से उठ जाएँ। जो इतने कम लोग हैं जीवन में, उनसे दूर चले जायें। बहुत दूर। कि एकदम अकेले बैठ कर बोस के हेडफ़ोन पर कोई रैंडम इंस्ट्रुमेंटल पीस सुन लेना इससे बेहतर है।

मैं मुहब्बत की बात भी नहीं कर रही। उसका तो हिसाब-किताब ऐसा गड़बड़ है कि जैसे कई जन्म का इश्क़, अधूरा-पूरा जो भी है, अभी ही कर के ख़त्म करना है कि इसके बाद इस दुनिया में आना नहीं है अब।

ब्लॉग लिखते हुए सबसे बड़ी दिक़्क़त ये रही कि हमें लगा इतनी बड़ी दुनिया है, इसमें कौन मेरा ब्लॉग पड़ेगा और कौन ही मिलेगा हमसे। कई साल इस गुमान में आराम से जो मन सो लिखे और किसी से भी मिले नहीं। ऑनलाइन बात होती भी थी तो लगता था ये सब वर्चुअल दुनिया के लोग हैं। थोड़े न सड़क पर चलते हुए मिल जाएँगे। बैंगलोर कोई आता नहीं और जो आता भी तो इतना व्यस्त रहता है, फिर यहाँ का एयरपोर्ट शहर से कोई डेढ़-दो घंटे की दूरी पे था। ऑफिस में ये बोल कर छुट्टी तो माँग नहीं सकते थे कि दोस्त आ रहा है, आधे घंटे के लिए मिलने जाना है। डेढ़ घंटे जाना, डेढ़ घंटे आना…तो हाफ डे चाहिए।

ब्लॉग के जितने लोगों से मिले, कभी नहीं लगा कि पहली बार मिल रहे हैं। हमने अपने भय, अपने दुख, अपने शिकवे ब्लॉग पर इस तरह लिखे थे कि वर्चुअल लोग हमें उन लोगों से बेहतर जानते थे जिनसे हमारा अक्सर का मिलना-जुलना रहा। सारी बातों के अलावा हम सिर्फ़ एक बात यहाँ दर्ज कर रहे हैं कि उन्होंने हमसे कहा, ‘इसका ब्लॉग पढ़ते हुए कई बार लगता था, इसे ऐसे आ के hug कर लें’। इतना सुन कर लगा कि ज़िंदगी में डायरी जो सेफ़ स्पेस हमें देती है, वैसा ही एक स्पेस ब्लॉग भी देता है। हम कितने साल के इंतज़ार के बाद मिले थे, शायद उम्मीद ख़त्म होने के ठीक पहले। हमारी बातें ख़त्म नहीं होतीं। रात आधी हो गई थी। हम दो-तीन बार डिनर करते हैं करते हैं कह कर कुर्सी से उठे भूखे इंसान को पानी का ग्लास थमा कर बिठा चुके थे। कितने दोस्तों को फ़ोन किया, कितने और को याद किया।

हमको मालूम रहता है कि जो लिखते नहीं, सो भूल जाते हैं। 
   

इस बार फिर भी, लिखेंगे नहीं। लेकिन एक ये तस्वीर ज़रूर यहाँ सिर्फ़ इसलिए रखेंगे कि कभी कभी जब दुनिया, भगवान, और शहर से शिकायत का कोटा भर कर ओवरफ़्लो कर जाये, हम लौट कर यहाँ आ सकें।

27 August, 2024

Random रोज़नामचा - वाइट मस्क

मनुष्य की पाँच इंद्रियों में एक स्पर्श है जिसकी नक़ल नहीं बनायी जा सकती। तस्वीर और वीडियो किसी को न देखने की भरपाई कर देते हैं। कोविड में हम लोग जो दिन भर घर में रहते थे, तो वीडियो कॉल करना आसान हो गया। किसी दोस्त को कह सकते हैं, वीडियो कॉल कर लें? पहले वीडियो कॉल एक त्योहार की तरह होता था, एक डेट की तरह जिसके लिये ना केवल तैयारी की जाती थी, बल्कि इत्तर वग़ैरह भी लगाये बैठते थे, कि जैसे ख़ुशबू जाएगी दूर तक। वीडियो कॉल की टेक्नोलॉजी तो बहुत साल पहले से थी लेकिन कंप्यूटर पर वेब-कैम लगाना, ख़राब इंटरनेट में धुंधली तस्वीर देखने में मज़ा नहीं आता था। अब तेज़ इंटरनेट के कारण एकदम साफ़ दिखता है चेहरा, आँखें…किसी का ठहरना भी। बात करते हुए स्क्रीनशॉट ले सकते हैं। FOMO कम होता है। दोस्तों के बच्चों को पैदा होने के बाद से लेकर कर साथ में पलते-बढ़ते वीडियो तस्वीर शेयर करते लगता है हमने देखा है उन्हें। यार दोस्त कहीं गये तो वहाँ की वीडियो भेज दी, वहाँ से वीडियो कॉल कर दिया, तेरी याद आ रही है बे। 

किसी जंगल से गुजरते हैं तो वक़्त ठहरता है और हम लौटते हैं। ठीक ठीक याद में कितने साल पीछे, मालूम नहीं। दार्जिलिंग। बारिश, सिंगल माल्ट। कोई ख़ुशबू कभी मिल जाती है कहीं अचानक से, सिगरेट पीते हुए, कैंडल की लौ से उँगली जलाने के ठीक पहले तो कभी रेगिस्तान की शाम में…रेत में पाँव डाले बैठे दूर से धुएँ की गंध आती है। किसी नयी जगह कोई पुरानी सब्ज़ी खा रहे होते हैं और लगता है कि बचपन में पहुँच गये, या कि किसी दोस्त ने कौर तोड़ कर मुँह में खिला दिया और किसी पिछले जन्म तक का कुछ याद आ गया। 

सिर्फ़ एक स्पर्श है, जो कहीं नहीं मिलता। दुबारा कभी।

किसी के हाथों को रेप्लीकेट नहीं कर सकते। हाथों की गर्माहट, दबाव, नरमाई…कुछ नहीं मिलता कभी, कहीं फिर। हम हम क्या इसलिए तुम्हें नींद में टटोलते चलते हैं? इसलिए देर रात भले एक पोस्टकार्ड, भले एक पन्ने की चिट्ठी, मगर लिखते हैं तुम्हारे नाम। कि उस काग़ज़ को छू कर तुम्हें यक़ीन आये कि इस हैंडराइटिंग का एक ही मतलब है, ये पागल लड़की इस काग़ज़ को हाथ में लिए सोच रही थी, सफ़र करती हूँ तो भी तुम्हारा शहर रास्ते में नहीं मिलता। किसी के लिये कोई साड़ी ख़रीदना, कभी कोई रूमाल काढ़ना, कभी कोई स्कार्फ भेज देना…इतना हक़ बनाये रखना और इतने दोस्त बनाए रखना। आज सुबह लल्लनटॉप के एक वीडियो का क्लिप देखा जिसमें सलाह दी जा रही है कि किताब ख़रीद के पढ़ें, माँग के नहीं। हम किताब माँग के भी खूब पढ़े हैं और ख़रीद के भी। अपनी किताब आपने को पढ़ने को दी है, तो आपका एक हिस्सा साथ जाता है। किसी की पढ़ी हुई किताब पढ़ना, मार्जिन पर के नोट्स देखना। यह जीवन का एक अनछुआ हिस्सा है। अगर वाक़ई आपने कभी माँग के किताब नहीं पढ़ी, या आप इतने लापरवाह हैं कि दोस्त आपको किताब उधार नहीं देते तो आप जीवन में कुछ बहुत क़ीमती मिस कर रहे हैं। 

कपड़ों की छुअन। मैं जो अनजान शहर में तुम्हारे शर्ट की स्लीव पकड़ कर चलती थी। या किसी कहानी में किसी किरदार के सीने पर सर रखे हुए जो कपास या लिनेन गालों से छुआया था। किसी ने कभी गाल थपथपाया। कभी बालों में उँगलियाँ फ़िरा दीं। किसी ने hug करते हुए भींच लिया और हम जैसे उस ककून में लपेट रहे ख़ुद को, सिल्क में लपेटी शॉल की तरह। मेले में फिरते रहे आवारा, दोनों हाथों में दो तरफ़ दो दोस्तों के बीच, स्कूल की silly वाली दोस्ती जैसी। हम जो फ़िल्मों में देख हैं, किसी के सीने पर हाथ रख कर दिल की धड़कन को महसूस करना…नब्ज़ में बहता खून भागते हुए रुक-रुक सुनना, उँगलियों से। किसी का माथा छू कर देखना, बुख़ार कम-ज़्यादा है या है ही नहीं। 

स्पर्श की डिक्शनरी नहीं होती। हम अपने हिस्से के स्पर्श उठाते चलते हैं। मैं अलग अलग शहरों में हथेली खोले घूमती हूँ, इमारत, फूल-पौधे, स्टील की रेलिंग, दीवारें…सब कुछ स्पर्श की भाषा में भी दर्ज होता है मन पर। 

मैं याद में भटकती हूँ…

याद तो कभी कभी आनी चाहिए ना? दिन भर याद साथ चलती हो तो आना-जाना थोड़े कहते हैं। कभी लगता है याद कभी जाये भी। हम अपने प्रेजेंट में प्रेजेंट रहें, एबसेंट नहीं। एबसेंट-माइंडेड नहीं।

आज सुबह नया परफ्यूम ख़रीदा, Mont Blanc का Signature. दुकान में कहा कुछ मस्क चाहिए, तो उसने कहा ये White Musk है. एक बार में अच्छा लगा, तो ले आये। कलाई पर लगाये। उँगलियों के पोर पर सुबह जो खाये, सो खाये नारंगी छीलने की महक रुकी हुई थी। लिखने के पहले हथेलियों से चेहरा ढक लेने की आदत पुरानी है। अंधेरे में वो दिखता है जो आँख खोलने पर ग़ायब हो जाता है। हम जाने किस खुमार में रहते हैं सुबह-सुबह। पुराना इश्क़ है, आदत की तरह। आज सुबह सोच रहे थे, कुछ पिछले जन्म का होगा बकाया, इतना कौन याद करता है किसी को। इक छोटी सी नोटबुक है, उसमें बहुत कम शब्द हैं, लेकिन उन बहुत कम और बहुत प्यारे दोस्तों के हाथ से लिखे हुए जो शायद कई जन्म से साथ-साथ चल रहे हैं। 

फ़िराक़ साहब कह गये हैं, न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद मगर हमें तो तिरा इंतज़ार करना था।’

मुहब्बत शायद कम-बेसी होती रहती है। लेकिन इंतज़ार लगातार बना रहता है। अक्सर भी, हमेशा भी।

15 August, 2024

अस्थिर पानी जैसा मन…आँख में चुभता, लेकिन बहता नहीं



मेरे पास उसे देने को कुछ भी नहीं था। 
मेरे पास देने को उसके काम भर का कुछ भी नहीं था।
एक समय में मेरे पास बहुत सी कहानियाँ होती थीं। एक समय में मेरे पास ये गुमान भी होता था कि मेरी कहानियाँ लोग पढ़ना चाहते हैं। कि इन कहानियों का कोई मोल है।
अब मेरे पास कहानियाँ और वो गुमान, दोनों नहीं है। अब मेरे शब्द कोरे शब्द रह गये हैं।

मेरे पास चिट्ठियाँ लिखने भर मन अब भी बचा हुआ है। मेरा मन करता है मैं खूब चिट्ठियाँ लिखूँ। सुबह, शाम, दिन रात…मेरे पास समय ही समय हो…आसमान को खुलती खिड़की, बाहर बारिश, भीतर थोड़ी गर्मी हो…पाँव में मोजे हों…एक कैंडल हो, ख़ुशबूदार…पेरिस कैफ़े…जिससे गहरी, तीखी कॉफ़ी की ख़ुशबू आये…हथेलियों में भर जाये। सिगरेट और कैंडल जलाने को माचिस हो…माचिस के जलने की आवाज़ हो…तीली पर लपकती हुई आये लपट…उँगली जलने के पहले फूंक मारते हुए खींचें तीली को तेज़ी से…और फेंकें बारिश से गीले फ़र्श पर।

लिखें बे-तारीख़ चिट्ठियाँ। लिखें उल्टे-सीधे नोट्स। जायें किसी कम
साँस वाले शहर और वहाँ जागे रहें पूरी रात और लिख पायें छोटी सी चिट्ठी। कि इस कच्चे पहाड़ों वाली जगह साँस नहीं आती ठीक से। फिर याद कैसे आती है ऐसे बेतरह। दूर दूर तक सुनसान पहाड़ हैं। दोपहर के समय इस ऊँची मोनेस्ट्री में एकदम ख़ाली है पूजा करने की यह जगह। बहुत साल पुरानी है। यहाँ की धुंधली धूप और अजनबी गंध में घिरे हुए मैं अपने वर्तमान में थी। सब कुछ देखती- सोचती। कि जीवन से कितनी दूर चलते जाते हैं पैदल…ध्यान करने को ऊँचे पहाड़ में दिखती है एक छोटी सी मोनेस्ट्री। कोई बौद्ध भिक्षु आता होगा कभी अकेले। जाने कितनी दूर से सफ़र करते हुए। सड़क के साथ बह रही होती है सिंधु नदी। मैं उसके झंडियों वाले पुल पर दौड़ती हुई आती हूँ, कैमरे की ओर…

इतनी शांत, सुनसान जगहों में याद उंगली थामे चलती है। मैं बुद्ध के आगे हाथ जोड़ती हूँ। वहाँ सिर्फ़ पानी चढ़ाया(अर्पित किया) गया है। कटोरियों में रखा एकदम शुद्ध पानी। थिर पानी, कि देख के लगे कि कटोरी ख़ाली है। कि देने वाले के मन में कोई अहंकार न आए।

मुझे ध्यान आता है। प्रेम ऐसा ही है मन में। तुमसे है। लेकिन ये प्रेम मन में बहती नदी का पानी है। साफ़। मीठा। और तुम्हारे हिस्से निकाल लेने में कोई अहंकार नहीं है। मैंने कोई बड़ी चीज़ नहीं लिखी है तुम्हारे नाम।

I belong to no where, and to no one.

हम सफ़र के लोग। होटलों में बिछी सफ़ेद चादर और सफ़ेद कोरा काग़ज़ देखते ही खुश हो जाने वाले लोग। हमने जो चाहा कि कभी हो कोई जगह जहाँ लौट सकें, हो कोई शख़्स जिसे हमारा भी ख़्याल रहे। हमारे ज़िम्मे था घर बनाना…बसाना…हम जो अपनी कोशिश में हारे, टूटे हुए लोग हैं…हमारा क्या हो!

प्यार हमारी ज़िंदगी का हिस्सा न हो पाये, इससे उदास एक ही बात होती है…कि मुहब्बत मिल जाये हमें…हमारे रोज़मर्रा में शामिल हो और एक दिन हौले हौले हवा हो जाये। वाक़ई, इससे बड़ी ट्रेजेडी दुनिया में कुछ नहीं होती।

हज़ार फ़ैसलों में उलझे हुए हम। छोटे छोटे काम। प्लंबर बुलाना। गाड़ी ठीक होने के बाद ड्राइवर को लोकेशन भेजना। फूल ख़रीदना। सजाना। कपड़े धोना, कपड़ों को छाँटना। बच्चों के हज़ार काम। वैक्सिनेशन। पार्किंग। एक बेहद तनहा शहर। बैंगलोर।

क्या मैं अकेली ऐसी औरत हूँ जिसे इतना अकेला लगता है?
हमारे पूरे generation को हमारी माँओं ने सिखाया कि ठीक से लिख-पढ़ लो, नहीं तो हमारी तरह चूल्हा-चौका करती रह जाओगी। हमें किसी ने नहीं बताया कि जब हमें ये कह रही थीं हमारी मम्मियाँ तो लड़कों को उनकी माँओं ने घर का थोड़ा-बहुत काम नहीं सिखाया कि तुम्हारी पत्नी जीवन में कुछ करना चाहेगी और इसलिए नहीं कर पाएगी कि ये घर जो कि तुम दोनों का होना चाहिए था, उस का कुछ भी काम नहीं आता तुम्हें।

Are the other women less bitter? Have they made peace with managing a house and bringing up children? How do they build a better life for their family and yet have the time and mental space to do what brings them joy.

Women. Who cares for them?
कौन रखता है उनका ख़्याल? ख़ुद का ख़्याल रखते रखते जब वे थक जाती हैं।
जो भेजता है ज़रा सा उनके लिए किसी शहर की धुंध…किसी शहर की बारिश…किसी शहर से मेपल का लाल पत्ता…किसी शहर का स्नो-ग्लोब…कहीं की गिरी बर्फ़…किसी शहर की धूप…

वे दोस्त…वे जान से प्यारे लोग जो उसे पागल हो जाने से बचाये रखते हैं। मिलते हैं ज़रा ज़रा। कभी सात साल में एक बार…किसी शोरगर शहर में, भटकते हैं इर्द-गिर्द…

कभी साल में दो चार बार…पीते हैं सिगरेट-व्हिस्की-कॉफ़ी-हुक्का…रचते हैं धुएँ से शहर…बनाते हैं हथेली पर मुस्कान उँगलियों से…लिखते हैं नोटबुक में छोटा सा नोट…बे-तारीख़। 

कि जिन्हें किताब लिखनी थी, फ़िल्में बनानी थीं।
हमने गिल्ट की फैक्ट्री खोल ली और दिन रात अपने किए-अनकिये-सोचे-अनहुए - गुनाहों की सज़ा ख़ुद को देते जाते हैं।

हम बेसलीका लोग हैं। हिसाब के कच्चे। हमसे हिसाब मत माँगो।

***
मुझे पहली बार अपने हिस्से के लोग ब्लॉग पर मिले। मेरे जैसे। पढ़ने, लिखने, ख़्वाब-ख़्याल की दुनिया में जीने वाले।

मॉनेट और पिकासो और पॉलक को देखने समझने मुहब्बत करने वाले लोग।

मुझे बहुत से ऐसे लोग मिले, जिन्होंने लगातार मुझे पढ़ा। कहा, कि किताब लिखो, छपवाओ। हमने छपवा भी दी। पेंगुइन से। हमको डर नहीं था। हमको उम्मीद थी कि चार लोग मेरे पहचान के पढ़ लें, काफ़ी है। बाक़ी पेंगुइन का सरदर्द है। साथ के कुछ और लोगों की किताब आयी, एक आध।

फिर जाने कैसे सब अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गये। उनके लिए लिखना ज़िंदगी का एक हिस्सा भर था।
मेरे लिये लिखने के सिवा कुछ था ही नहीं कभी।

मैं उन्हें मिस करती हूँ। बेतरह। उनका लिखा तलाशती हूँ। कि जैसे बचपन में खोयी कोई ख़ुशबू।
कभी-कभार कोई पोस्ट होती है ब्लॉग पर, कभी फ़ेसबुक प्रोफाइल पर। पेज पर। मुझे लगता है ज़िंदगी में वो जो ज़रा सा जादू मिसिंग था, वो मिल गया है फिर से।

दुनिया भर की किताबें पढ़ने वाले हम, ये चंद साल की ब्लॉगिंग में बर्बाद हो गये। कि अब किसी किताब को पढ़ कर उसके लेखक से मिलने का मन करता है। उसके साथ चाय-सिगरेट पीने का मन करता है। खाना खाने का मन करता है। मंटों के कब्र पहुँच कर वो मिट्टी माथे से लगा पायें, इतना भर काफ़ी होता एक समय मेरे लिये। लेकिन अब सोचते रहते हैं, निर्मल की चिट्ठी है एक दोस्त के पास…कोई एक दोस्त एक समय मानव कौल को बहुत पढ़ता था और जा कर उस से मिल के आया था। हम मुराकमी को पढ़ते हैं, खूब पढ़ते हैं और सोचते हैं उस जैज़ बार के बारे में जिसमें काम करते हुए वो रात के तीन बजे तक रोज़ लिखता था। लगातार। हम पढ़ते हैं Bukowski को, और सोचते हैं कि एक कविता में वो कहता है, कि अगर कविता हम तक पहुँच गई है…हम उसे पढ़ रहे हैं, इसका मतलब, he made it. Doctor Who के एक एपिसोड में वैन गो को टाइम मशीन में आगे लेकर आता है और एक म्यूजियम में उसकी पेंटिंग लगी है, उसके बारे में अच्छी बातें कह रहा है म्यूजियम का क्यूरेटर। कला से हम कभी कभी ये उम्मीद भी करते हैं कि कोई अच्छी तस्वीर हमारे मन में रहे, झूठी भी चलेगी।

हम अपने सपनों में मंटो से मिलते हैं। रेणु से। तीसरी क़सम वाला गाँव हमें दिखता है। हम भी अपने मन में खाते हैं क़समें…ये गुनाह न करेंगे कि पढ़ के किसी लेखक को तलाश लिया…देखा कि ज़िंदा है अभी…रहता है किसी ऐसे शहर में जो हमारी पहुँच से बहुत दूर नहीं है…हम पैदल चलते हैं प्राग में…निर्मल की ‘वे दिन’ वाला प्राग। हम सोचते हैं कि कैसी होगी नदी, जिसके बहने की आवाज़ होती है, ‘डार्क ऐंड डीप’।

बिगड़ गए हम। हमारे प्यारे लेखकों ने नास दिया हमको, माथा चढ़ा के…

दुनिया भर में 60 crore लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। साल 2023-24 के बजट में भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए 300 crore की राशि निर्धारित की है। आँकड़ों वाली इस दुनिया में किसी किताब के पहले एडिशन में 1100 कॉपीज़ छपती हैं। एक लेखक की रॉयल्टी पेंगुइन जैसे प्रकाशन के साथ 7.5% होती है। standard agreement के हिसाब से।

हम इस आँकड़े के लिए नहीं लिखते। हम पैसों के लिए भी नहीं लिखते। 

हम लिखते हैं कि किसी दिन इतरां जैसा कोई किरदार ख़्याल में उभरता है और हमसे कहता है कि लोगों को हमारी कहानी सुनाओ। हमको लगता है शायद दुनिया में लोगों को वैसी कहानियाँ अच्छी लगेंगी।

कभी कभी हम उदास होते हैं वाक़ई। कि किताबें ख़रीदी जाती हैं तो भरोसा होता है कि किताबें लिखी जानी चाहिए।
किसके लिए लिखे कहानी? कौन पढ़ेगा। क्यों पड़ेगा। short term memory, short attention span है दुनिया का। सबका ही। This is the way of life, now. 
फिर लगता है…
और क्या हज़ार पाँच सौ छोड़ो, क्या एक व्यक्ति को भी अपने दुख से उबार लेती है कहानी तो उसे लिखना नहीं चाहिए?

18 July, 2024

सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?


उसकी तस्वीर देखती हूँ। दिल में ‘धक’ से लगा है कुछ।

ब्लैक एंड वाइट तस्वीर है। मैं याद में उस तस्वीर के रंग तलाशती हूँ। उनकी आँखें कैसी लगती हैं धूप में? कैमरे के लेंस से उन्हें जी भर देखना चाहती हूँ। रुक के। फ्रेम सेट करने के लिए लेकिन ज़रूरी है कि धूप में हल्की सुनहली हुई उनकी आँखों के अलावा जो पूरा शख़्स है, वो फ्रेम में कितना फिट हो रहा है, ये भी देखूँ।

आँखों का कोई एक रंग नहीं होता। धूप में कुछ और होती हैं, चाँदनी में कुछ और। दिन में कुछ और, रात में कुछ और। प्रेयसी के सामने कुछ और, ज़माने के लिए कुछ और। ब्लैक ऐंड व्हाइट कैमरे में जो नहीं पकड़ आता, वो भी तो एक रंग होता है…सलेटी का कौन सा शेड है वो? डार्क ग्रे आइज़। मन फ़िल्म वाले कैमरे से उनकी तस्वीर खींचना चाहता है। निगेटिव में देखना चाहता है उन पुतलियों को…मीडियम के हिसाब से बदलते हैं रंग। उस नेगेटिव में स्याह सफ़ेद दिखता है और सफ़ेद स्याह। अच्छा लगता है कि मैंने फोटोग्राफी सीखने के दरम्यान डेवलपिंग स्टूडियो में बहुत सा वक़्त बिताया था। मैं याद में अपने प्रेजेंट की घालमेल करती हूँ। स्टूडियो में सिर्फ़ लाल रंग का बल्ब जलता है। लाल। मेरे दिल में धड़कता…मुहब्बत भरा…उस नाम में, उस रंग में रौशन। मैं निगेटिव लिए खड़ी हूँ, उसे डिवलप करते हुए मेरे पास ऑप्शन है कि मैं उन आँखों को थोड़ा गहरा या थोड़ा हल्का बना दूँ…मैं चुन सकती हूँ अपनी पसंद का ग्रे। मैं पॉज़िटिव को डेवलपर के घोल में डालती हूँ। सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?

कब खींची थी मैंने ये तस्वीर? याद नहीं आ रहा। लेकिन उन आँखों में चमकता हुआ एक सितारा है, इसे मैं पहचानती हूँ। मुहब्बत के नक्षत्र में जब इसका उदय हुआ था, तब इसका नामकरण मैंने ही किया था। यह सितारा मेरे नाम का है। मेरा अपना। जब कभी राह भटकती हूँ और ख़्यालों की दुनिया में ज़्यादा चलते हुए पाँव थक जाते हैं तो यह सितारा मुझसे कहता है, पूजा, यहाँ आओ। मेरे पास बैठो। यह तुम्हारे ठहरने की जगह है। यहाँ रहते हुए तुम्हें कहीं और भाग जाने का मन नहीं करेगा।

विलंबित लय में गाते हैं तो ताल साथ में सुनते हैं…लयकारी में आलाप लेते हुए ध्यान रखते हैं कि कहाँ पर ‘सम’ है। क्योंकि वहीं सब ख़त्म करना होता है। फिर से नया सुर उठाने के पहले।

सम सैंड ड्यून। पहली बार सुना था, तब से कई बार सोचा है कि क्यों उसका नाम सम है। मगर सिर्फ़ सोचा है, पूछा नहीं है। आजकल आसान है न सब कुछ जान लेना। गूगल कर लो, किसी दोस्त से पूछ लो, चैट जीपीटी से पूछ लो। ऐसे में किसी सवाल का जवाब नहीं चाहना। सिर्फ़ सवाल से मुहब्बत करना।

मुहब्बत। हमारे लिए सवाल नहीं है। स्टेटमेंट है। एक साधारण सा वाक्य। इसके साथ बाक़ी दुख नहीं आते सवालों की शक्ल में। ‘हमें आपसे मुहब्बत है’। There is a finality to love that I find hard to explain. Like the desire to keep typing every time I open my iPad and start writing something.

आज बहुत बहुत दिन बाद इत्मीनान की सुबह मिली थी। ऐसी सुबहें रूह की राहत होती हैं।

कभी कभी ऐसे में किसी को वीडियो कॉल करने का मन करता है। पर्दे हवा में नाच रहे हों। कभी जगजीत सिंह, तो कभी नुसरत बाबा की आवाज़ हो…कोई ग़ज़ल, कोई पुराना गीत…मद्धम बजता रहे, राहत की तरह। बहुत तेज़ हवा बह रही है, पर्दे हवा में नाच रहे हैं। हल्की धूप है। मैं सब्ज़ियाँ काटते काटते कभी उधर देख लेती हूँ। मन हल्का है।

खाना बनाते हुए उनकी याद क्यों आती है अभी फ़िलहाल? हमने जिनके साथ जीवन के बहुत कम लम्हे बिताये हों, उनके सिर्फ़ कुछ चंद फ़ोन-कॉल्स में उनके हिस्से का आसमान-ज़मीन सुना हुआ, देखा हुआ कैसे लगता है। हमारी मुहब्बत क़िस्सा-कहानी है। कविता है। डायरी है।

मैं मशरूम पास्ता बनाती हूँ अपने लिए। सोचती हूँ, किसी के ख़्याल और मुहब्बत में गुम। मुहब्बत में कितनी सारी जगह होती है। हमको बहुत अच्छा खाना बनाना नहीं आता। शौक़िया ही बनाते हैं। लेकिन इस कम खाना-बनाने खिलाने में भी हमारे हाथ का आलू पराठा और चिनियाबदाम की चटनी वर्ल्ड फ़ेमस है। कभी कभी इस फ़िरोज़ी किचन में खड़े होकर सोचते हैं। और कुछ हो न हो, मेरे दोस्तों को एक बार यहाँ आना चाहिए। और हमको उनके लिए आलू पराठा और चटनी बनानी चाहिए। इसके बाद एक कप नींबू की चाय हो, आधी-पूरी, मूड के हिसाब से। या फिर कॉफ़ी। सिगरेट हो। बातें हों। चुप्पी हो।

और अगर हम दोनों के दिल में लगभग बराबर-बराबर मुहब्बत या दोस्ती या लगाव हो…तो बारिश होती रहे, आसमान में सलेटी बादल रहें और हम इस सुकून में रहें कि दुनिया सुंदर है। जीने लायक़ है।

कि जिस घर का नाम Utopia है, जिसका होना नामुमकिन है। वो है। सच में। मेरा अपना है।

16 May, 2024

क्या करें लिखने के कीड़े का? मार दें?

कितना मज़ा आता है ना सोचने में, कि भगवान जी ने हमको बनाया ही ऐसा है, डिफेक्टिव पीस। लेकिन भगवान जी से गलती तो होती नहीं है। तो हमको अगर जान-बूझ के ऐसा बनाया है कि कहीं भी फिट नहीं होते तो इसके पीछे कोई तो कारण होगा। शायद कुछ चीज़ें ऐसे ही रैंडम होती हैं। किसी ऐसे मशीन का पुर्ज़ा जो कब की टूट चुकी है। हम सोचते रहते हैं कि हमारा कोई काम नहीं है…कितनी अजीब चीज़ है न कि हम उपयोगी होना चाहते हैं। कि हमारा कोई काम हो…कि हमसे कुछ काम लिया जा सके। हम अक्सर सोचते हैं कि हम किसी काम के नहीं हैं, लिखने के सिवा। क्योंकि लिखना असल में कोई क़ायदे का काम है तो नहीं। उसमें भी हम किसी टारगेट ऑडियंस के लिये तो लिखे नहीं। लिखे कि मन में चलता रहता है और लिखे बिना चैन नहीं आता। हमसे आधा-अधूरा तो होता नहीं। लिखना पूरा पूरा छोड़े रहते हैं क्योंकि मालूम है कि लिखना एक बार शुरू कर दिये तो फिर चैन नहीं पड़ेगा, साँस नहीं आएगी…न घर बुझायेगा, ना परिवार, ना बाल-बच्चा का ज़रूरत समझ आएगा। मेरी एकदम, एकमात्र प्रायोरिटी एकदम से लिखना हो जाती है।

अभी कलकत्ता आये हुए हैं…भाई-भौजाई…पापा…मेरे बच्चे, उसके बच्चे…सब साथ में गर्मी छुट्टी के मज़े ले रहे हैं। हमको भर दिन गपियाने में मन लग रहा है। आम लीची टाप रहे हैं सो अलग। मौसम अच्छा है। रात थोड़ी गर्म होती है हालाँकि, लेकिन इतनी सी गर्मी में हमको शिकायत मोड ऑन करना अच्छा नहीं लगता।

सब अच्छा है लेकिन लिखने का एक कीड़ा है जो मन में रेंगता रहता है। इस कीड़े को मार भी नहीं सकते कि हमको प्यारा है बहुत। इसके घुर-फिर करने से परेशान हुए रहते हैं। मन एकांत माँगता है, जो कि समझाना इम्पॉसिबल है। कि घर में सब लोग है, फिर तुमको कुछ इमेजिनरी किरदार से मिलने क्यूँ जाना है…हमको भी मालूम नहीं, कि क्यों जाना है। कि ये जो शब्दों की सतरें गिर रही हैं मन के भीतर, उनको लिखना क्यों है? कि कलकत्ता आते हैं तो पुरानी इमारतें, कॉलेज स्ट्रीट या कि विक्टोरिया मेमोरियल जा के देखने का मन क्यों करता है…देखना, तस्वीर उतारना…क्या करेंगे ये सब का? काहे ताँत का साड़ी पहन के भर शहर कैमरा लटकाये पसीना बहाये टव्वाने का मन करता है। इतना जीवन जी लिये, अभी तक भी मन पर बस काहे नहीं होता है? ये मन इतना भागता काहे है?

वो दोस्त जो शहर में है लेकिन अभी भी शहर से बाहर है, उसको भर मन गरिया भी नहीं सकते कि अचानक से प्रोग्राम बना और उसको बताये नहीं। एक पुरानी पड़ोसी रहती थीं यहीं, अभी फिर से कनेक्ट किए तो पता चला कि दूसरे शहर शिफ्ट हो गई हैं। कितने साल से लगातार आ रहे कोलकाता लेकिन अभी भी शहर अजनबी लगता है। कभी कभी तो खूब भटकने का मन करता है। दूसरे ओर-छोर बसे दोस्तों को खोज-खाज के मिल आयें। कैमरा वाले दोस्तों को कहें कि बस एक इतवार चलें शूट करने। भाई को भी कहें कि कैमरे को बाहर करे…बच्चों को दिखायें कि देखो तुम्हारी मम्मी सिर्फ़ राइटर नहीं है, फोटोग्राफर भी है। सब कुछ कर लें…इसी एक चौबीस घंटे वाले दिन में? कैसे कर लें?

यहाँ जिस सोसाइटी में रहते हैं वहाँ कुछ तो विवाद होने के कारण बिल्डर ने इमारतें बनानी बंद कर दीं। देखती हूँ अलग अलग स्टेज पर बनी हुई बिल्डिंग…कुछ में छड़ें निकली हुई हैं, कुछ में ढाँचा पूरा बन गया है खिड़कियाँ खुली हुई हैं…उनमें से कई टुकड़े आसमान दिखता है। मुझे अधूरापन ऐसे भी आकर्षित करता है। मैं हर बार इन इमारतों को देखते हुए उन परिवारों के बारे में सोचती हूँ जिन्होंने इन घरों के लिए पैसे दिए होंगे…कितने सपने देखे होंगे कि ये हमारा घर होगा, इसमें पूरब से नाप के इतने ग्राम धूप आएगी…इसकी बालकनी में कपड़े सूखने में इतना वक़्त लगेगा…कि इस दरवाज़े से हमारे देवता आयेंगे कि हम मनुहार करके अपने पुरखों को बुलाएँगे…कि यहाँ से पार्क पास है तो हमारे बच्चे रोज़ खेलने जा सकेंगे…कि हमारे पड़ोसी हमारे दोस्त पहले से हैं…एक अधूरी इमारत में कितने अधूरे सपने होते हैं। 

Among other things, इन दिनों जीवन का केंद्रीय भाव गिल्ट है…चाहे हमारी identity के जिस हिस्से से देखें। एक माँ की तरह, एक थोड़ी overweight औरत की तरह, एक लेखक कि जो अपने किरदारों को इग्नोर कर रही है…उसकी तरह। लिखना माने बच्चों को थोड़ी देर कहीं और छोड़ के आना…उस वक़्त ऐसे गुनहगार जैसे फीलिंग आती है…घर रहती हूँ और किरदार याद से बिसरता चला जाता है, मन में दुखता हुआ…बहुत खुश होकर कुछ खूब पसंद का खा लिया तो अलग गिल्ट कि वज़न बढ़ जाएगा…हाई बीपी की दवाइयाँ दिल को तेज़ धड़कने से रोक देती हैं। पता नहीं ये कितना साइकोलॉजिकल है…लेकिन मुझे ना तेज़ ग़ुस्सा आता है, ना मुहब्बत में यूँ साँस तेज़ होती है। ये भी समझ आया कि ग़ुस्सा एक शारीरिक फेनोमेना है, मन से कहीं ज़्यादा। ब्लड प्रेशर हाई होने से पूरा बदन थरथराने लगता है…खून का बहाव सर में ऐसा महसूस होता है जैसे फट जाएगा…अब मुझे ग़ुस्सा आता है तो शरीर कंफ्यूज हो जाता है कि क्या करें…मन में ग़ुस्सा आ तो रहा है लेकिन बदन में उसके कोई सिंपटम नहीं हैं…जैसे भितरिया बुख़ार कहते हैं हमारे तरफ़। कि बुख़ार जैसा लग रहा है पर बदन छुओ तो एकदम नॉर्मल है। उसी तरह अब ग़ुस्सा आता भी है तो ऐसा लगता है जैसे ज़िंदगी की फ़िल्म में ग़लत बैकग्राउंड स्कोर बज रहा है…यहाँ डांस बीट्स की जगह स्लो वायलिन प्ले होने लगी है। दिल आहिस्ता धड़क रहा है।

क्या मुहब्बत भी बस खून का तेज़ या धीमा बहाव है? कि उन्हें देख कर भी दिल की धड़कन तमीज़ नहीं भूली…तो मुहब्बत क्या सिर्फ़ हाई-ब्लड प्रेशर की बीमारी थी…जो अभी तक डायग्नोज़ नहीं हुई? और इस तरह जीने का अगर ऑप्शन हो तो हम क्या करेंगे? कभी कभी लगता है कि बिना दवाई खाये किए जायें…कि मर जाएँ किसी रोज़ ग़ुस्से या मुहब्बत में, सो मंज़ूर है मुझे…लेकिन ये कैसी ज़िंदगी है कि कुछ महसूस नहीं होता। ये कैसा दिल है कि धड़कन भी डिसिप्लिन मानने लगी है। इस बदन का करेंगे क्या हम अब? कि हाथों में कहानी लिखने को लेकर कोई उलझन होगी नहीं…कि हमने दिल को वाक़ई समझा और सुलझा लिया है…

तो अब क्या? कहानी ख़त्म? 

आज कलकत्ता में घर से भाग के आये। बच्चों को नैनी और घर वालों के भरोसे छोड़ के…कि लिखना ज़रूरी है। कि साँस अटक रही है। कि माथा भाँय भाँय कर रहा है। कि स्टारबक्स सिर्फ़ पंद्रह मिनट की ड्राइव है और शहर अलग है और गाड़ी अलग और रास्ता अलग है तो भी हम चला लेंगे। कि हम अब प्रो ड्राइवर बन गये हैं। भगवान-भगवान करते सही, आ जाएँगे दस मिनट की गाड़ी चला कर। कि हमारी गाड़ी पर भी अर्जुन की तरह ध्वजा पर हनुमान जी बैठे रहते हैं रक्षा करने के लिए। हनुमान जी, जब लड्डू चढ़ाने जाते हैं तो बोलते हैं, तुम बहुत काम करवाती हो रे बाबा! तुम्हारा रक्षा करते करते हाल ख़राब हो जाता है हमारा, तुम थोड़ा आदमी जैसा गाड़ी नहीं चला सकती? कौन तुमको ड्राइविंग लाइसेंस दिया? 

सोचे तो थे कि ठीक एक घंटा में चले आयेंगे। लेकिन तीन बजे घर से निकले थे और साढ़े पाँच होने को आया। अब इतना सा लिख के घर निकल जाएँगे वापस। लिख के अच्छा लग रहा है। हल्का सा। आप लोग इसे पढ़ के ज़्यादा माथा मत ख़राब कीजिएगा। जब ब्लॉग लिखना शुरू किए थे तो ऐसे ही लिखते थे, जो मन सो। वैसे आजकल कोई ब्लॉग पढ़ता तो नहीं है, लेकिन कुछ लोगों के कमेंट्स पढ़ के सच में बहुत अच्छा लगता है। जैसे कोई पुराना परिचित मिल गया हो पुराने शहर में। उसका ना नाम याद है, न ये कि हम जब बात करते थे तो क्या बात करते थे…लेकिन इस तरह बीच सड़क किसी को पहचान लेने और किसी से पहचान लिये जाने का अपना सुख है। हम उस ख़ुशी को थोड़ा सा शब्दों में रखने की कोशिश करते हैं।

कुछ देर यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड्स लिखे। कुछ दोस्तों को। कुछ किरदारों को। कुछ ज़िंदगी को।

***




बहुत दिन बाद एक शब्द याद आया…हसीन।

और एक लड़का, कि जो धूमकेतु की तरह ज़िंदगी के आसमान पर चमकता है…कई जन्मों के आसमान में एक साथ…अचानक…कि उस चमक से मेरी आँखें कई जन्म तक रोशन रहती हैं…कि रोशनी की इसी ऑर्बिट पर उसे भटकना है, थिरकना है…और राह भूल जाना है, अगले कई जन्मों के लिए।

28 April, 2024

ढीठ याद के कच्चे क़िस्से

मुहब्बत की स्पॉटलाइट जब आप पर गिरती है तो आप दर्शक दीर्घा से निकल कर मुख्य किरदार हो जाते हैं। आपका सब कुछ हाइलाइट होता है। आँखों में रौशनी होती है, बाल चमकते रहते हैं और अक्सर ज़िंदगी का डायरेक्टर इतनी प्यारी हवायें चलवाता है कि आपका दुपट्टा या कि मान लीजिए, आँचल…एकदम हवा में हौले हौले उड़ता है। उसकी मर्ज़ी हो तो आपको आसमान में उड़ा सकता है, पाताल में गिरा सकता है। आप सम्मोहित हो कर हर वो चीज़ करते जाएँगे जो आपको लगता है कि डायरेक्टर के हिसाब से कहानी का हिस्सा है। रोना, हँसना, दीवानवार दौड़ना…सफ़र करना। कपड़े बदलना। किरदार बदलना। 

फिर एक रोज़ स्पॉटलाइट ऑफ होगी। आप जानेंगे कि सब कुछ सिर्फ़ एक नाटक था। और अब बाक़ी दर्शकों की तरह आपको भी लौट कर घर जाना है। आपकी कुछ ज़मीनी सच्चाइयाँ हैं, जो घर पर आपका इंतज़ार कर रही हैं। 

पर उस एक रोज़ के उस छोटे से रोल के बाद आप कभी ठीक-ठीक दर्शक नहीं रह पाते। आपके अंदर एक स्टॉपवॉच चालू हो जाती है जो घड़ी घड़ी गिनती रहती है कि आपकी अति-साधारण ज़िंदगी का इतना हिस्सा बीता। आप ध्यान से उन वायलिन की धुनों को पकड़ने की कोशिश करते हैं जो वसंत की चाप में सुनी जा सकती हैं बस। सिर्फ़ एक किरदार निभाने के बाद आप अक्सर लौटना चाहते हैं। आप फूलों को गौर से देखते हैं। वसंत अपनी धमक में जिन पीले फूलों को यूँ ही आपके ऊपर गिरा देता है, आप उनकी पंखुड़ियों को उठा कर घर ले आते हैं और लगातार पलाश के फूलों के बारे में सोचते हैं। टेम्पल ट्री को देखते हुए यह भी कि बचपन से जितने मंदिर देखे उनमें कनेल रहा, उढ़ूल रहा, आक भी रहा…लेकिन उन्हें मंदिर के फूल क्यों नहीं कहते लोग?

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There is a myth that we can be selectively vulnerable.

लेकिन ऐसा होता नहीं है। दिल के दरवाज़े खोलते हैं तो आशिक़ों ही नहीं, दुश्मनों की भी पूरी फ़ौज भीतर घुस आती है। अब आप इतने क्रूर तो हैं नहीं कि दुश्मनों को भूखा मार दें…तो आपको सबके लिए रसद जुटानी पड़ती है। इतनी भसड़ में आप भूल जाते हैं कि दिल का दरवाज़ा आख़िर को खोला किस लिये था।
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जब अपने भीतर इतना अंधेरा हो कि हम कुछ भी देख न सकें तो हम भरी-भरी आँखों से बाहर की दुनिया को देखते हैं। वसंत में सारे फूल एक साथ नहीं खिलते। ट्रम्पेट ट्री के गुलाबी फूलों का मौसम ख़त्म होते होते अमलतास लहकने शुरू हो जाते हैं…अमलतास के गिरे हुए फूलों को चुन कर बुकमार्क बनाने चलो तो वायलेट फूलों का पेड़ ऐसा झमक के दिखता है कि हम उसका नाम गूगल सर्च करना ही भूल जाते हैं। किसी चीज़ का नाम जानना उसे अपने थोड़ा क़रीब करना है। जिस शहर का मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता, उसके एक बैगनी फूलों वाले पेड़ का मैं नाम पूछना भी नहीं चाहती। ये भी तो नहीं होता कि पेड़ को भूल जाऊँ आराम से…वो जो दोस्त नहीं था उस समय तक और जिसके साथ इस पहचाने सड़क में रास्ते भूलती जाती थी…उसे दिखाया था यह बैगनी फूलों से पूरा लदा हुआ पेड़। जाने उसे याद होगा या नहीं। मैं उसे बता दूँ कि मैं इस पेड़ को जब भी देखती हूँ तुम्हारी बेतरह याद आती है?

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ज़िंदगी में ख़ालीपन नहीं होता तो याद इतनी ढिठाई से आ कर नहीं रहती।

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थ्री-बॉडी प्रॉब्लम देखी। उसमें आख़िर में एक किरदार कहता है, विल के दिमाग़ में असल में क्या चल रहा है, यह सिर्फ़ विल जानता है, और कोई नहीं।
मेरे दिमाग़ में क्या चलता रहता है?

काग़ज़ की नाव पर बैठ विल अपनी हथेली खोलता है, बारिश गिर रही है उसकी हथेली पर। यह सपना है। क्योंकि उसके दिमाग़ को शरीर से निकाल कर क्रायो-फ्रीज़ करके कई सौ प्रकाश वर्ष दूर भेजा जा रहा है। सीरीज़ ख़त्म हो गई है। अगला सीजन पता नहीं कब आएगा। लेकिन मैं भी विल की तरह लूप में उसी बारिश वाली शाम धुंध में हूँ। हथेली पर पानी की बूँदें हैं। साथ में कौन है, मालूम नहीं। वह कितनी उदासी से कहता है, ‘किसी ने मुझे प्यार नहीं किया।’

मैं तो यह भी नहीं कह सकती।

***

सिवाय इसके, कि मेरा दिल बेतरह टूटा हुआ है, मैं अपने बारे में कोई बात यक़ीन से नहीं कह सकती। मुझे इस टूटे हुए दिल के इर्द गिर्द सिर्फ़ शब्दों का जिरहबख्तर बनाना आता है। सो बना रही हूँ। कि ज़िंदगी सीज़फ़ायर नहीं करती। दुख कई रूपों में आता है। छर्रों से लेकर मिसाइलों तक। हर ओर बारूद की गंध है।

मेरी साँस अटकती है।

***

मुझे लद्दाख की वो सड़क ध्यान रहती है, जो किसी और के जिये हुए की है शायद। ख़ाली सड़क पर चलती बाइक। दोनों हाथ छोड़ कर आसमान देखना। तनहा होना। लेकिन उदास नहीं होना।

इतना ही चाहिए। सिर्फ़ इतना। 



17 April, 2024

मेरा दिल जलता हुआ सूरज है। बदन के समंदर में बुझता हुआ।

बदन में पिघले हुए शब्द बहते रहते हैं। धीपते रहते हैं उँगलियों के पोर। सिगरेट हाथ में लेती हूँ तो लाइटर की ज़रूरत नहीं होती।  दिल कमबख़्त, सोया हुआ ज्वालामुखी है, सिर्फ़ सपनों में फटता है। कहीं सूनामी आते हैं तो कहीं भूचाल। कभी रातों-रात पहाड़ उठ खड़े होते हैं कभी ऊँची इमारतें नेस्तनाबूद हो जाती हैं। सपनों का भूगोल बदलता रहता है। तुम बिसरते हो। कुछ भी रुकता कहाँ है। 


***


उसके इर्द-गिर्द गुनहगार तितलियाँ उड़ती रहती थीं। उनमें से एक भी अगर हथेली पर बैठ गई तो किसी का खून करने की इच्छा भीतर घुमड़ने लगती थी। 


पिछले कुछ सालों में जो बहुत सारा ग़ुस्सा बदन में जमा हो था और घड़ी घड़ी फट पड़ता था, क्या वो सिर्फ़ तेज़ी से बहता खून था? हाई-ब्लड प्रेशर इक छोटी सी गोली से कंट्रोल हो गयाउसके साथ ही दुनिया के प्रति हम थोड़े से कोमल हो गये। ग़ुस्सा थोड़ा सा कम हो गया। 


क्या मुहब्बत भी इसी तरह वाक़ई बदन का कोई केमिकल लोचा है? किसी दवाई से इसी तरह बदन में बेहिसाब दौड़ती मुहब्बत को थोड़ा रेस्ट मिल जाएगा? वो किसी बस-स्टॉप पर रुक जायेगी? तुम्हारा इंतज़ार करेगी



***


सब ओर गुनाहों की ख़ुशबू है। बदन में, आत्मा में। छुअन में। लिबास में। स्याही में। 

मेरी ओर लपटें लपकती हैं, आँखों को लहकाती हुई। दिख नहीं रहा ठीक से। वो क्या है जो ठीक से नहीं जल रहा कि यहाँ इतना धुआँ है। क्या आँख से उठता है आँसू का बादल


मेरा दिल जलता हुआ सूरज है। बदन के समंदर में बुझता हुआ। 


***


ख़ुशी की हर चीज़ से गुनाहों की गंध आती है। 

गिल्ट। हमारे जीवन का केंद्रीय और स्थायी भाव है इन दिनों। 


***


कौन मेरे जलते हुए दिल पर आँसू छिड़क रहा है


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मुझे पता है कि तुम आग के बने हो और मेरी दुनिया काग़ज़ की है। फिर भी, तुम्हें छू कर अपनी उँगलियाँ जलाना चाहती हूँ। 

क्या हम छुअन के प्रति सबसे ज़्यादा निर्दयी इसलिए होते हैं क्योंकि यह सबसे ईमानदार इंद्रिय है? बातों से झूठ बोलना आसान है, आँखों से झूठ बोलना फिर भी थोड़ा मुश्किल, लेकिन किया जा सकता है, गंध तो अनुभव के हिसाब से अच्छी-बुरी होती है और बदलती रहती है, स्वाद भीलेकिन स्पर्शबिलकुल झूठ नहीं होता इसमें। हम ख़ुद को स्पर्श के प्रति फुसला नहीं सकते। 

हमारा बदन एक बाग होता है, किसी को छूने भर से हमारे भीतर के सारे पौधे मर जाते हैं। 


***


ख़ुशबू is the most subjective sense of all. हमें सिखाया जाता है कि ये खुश-बू है, ये बद-बू हैनॉन-वेजीटेरियन जिस ख़ुशबू से दीवाने हो जाएँगे कि लार टपकने लगी, वेजीटेरिएंस माँस या मछली की उस गंध को बर्दाश्त नहीं कर सकते। मितली आती है, मन घूमता है। 


किसी का लगाया हुआ इत्र आपको सिरदर्द दे सकता हैकिसी के दो दिन से नहीं नहाए बदन से आते फ़ीरोमोन्स आपकी सोचने-समझने और सही निर्णय लेने की क्षमता को कुंद कर सकते हैं। मुझे रात-रानी की गंध एकदम बर्दाश्त नहीं होती। लिली की तेज़ गंध भी कई लोगों को पसंद नहीं होती। रजनीगंधा और गुलाबों की ख़ुशबू से शादियों का सजा हुआ कमरा और कार की याद रहती है। 


लिखते हुए मुझे सिगरेट की गंध चाहिए होती है। एक समय शौक़ से चाहिये होती थी, अब ज़रूरत है। 


मैं तुमसे हमेशा पब्लिक में मिली। तुम्हें गले लगाते हुए एक मिनट आँख बंद करके वहाँ रुक नहीं सकते थे। मैं तुम्हारी ख़ुशबू से अनजान रही। ख़ुशबू को पहचानने के लिए आँख बंद करनी ज़रूरी है। वरना देखा हुआ उस ख़ुशबू की आइडेंटिटी को भीतर थिर होने नहीं देता। मैंने तुम्हारी जैकेट उतरवा के उसे सूँघा 


एक दिन इस दुनिया में हम दोनों नहीं होंगे। लेकिन मेरी कहानियाँ होंगी। तुम्हारी भी। इन आधे अधूरे क़िस्सों में तुम पूरे पूरे महसूस होगेअपनी ख़ुशबू, अपनी दमक मेंउस लम्हे में ठहरे हुए जब घास के लॉन पर तुम्हें पहली बार दूर से देखा था। धूप की ख़ुशबू लपेटे हुए। 


***


एक समय में अफ़सोस के पास एक छोटी सी मेज़ की दराज थी जिसमें मैंने चिट्ठियाँ रखी थीं, अधूरी। उन में तुम्हारा नाम नहीं था। उनके आख़िर में, हस्ताक्षर से पहले, ‘प्यारनहीं लिखा था। अब अफ़सोस की पूरी पूरी सल्तनत है। उसमें कई शहर हैं। समंदर हैं जो मुझे देखने थे तुम्हारे साथ। मौसम हैं जो तुमसे दूर के शहर में मेरे मन पर खुलते हैं। इतनी छोटी ज़िंदगी में जिया हुआ कितना कम है और मुहब्बत कितनी ज़्यादा। हिसाब कितना ग़लत है ना, सोचो तो!


***


शब्दों का कोई मोल नहीं होता। जान के सिवा। 

किसी समय जब ज़िंदगी इतनी मुश्किल लगी थी कि उससे आसान किसी ऊँची इमारत से कूदना या फंदे में झूल जाना था उस समय कविता की किसी पंक्ति को पढ़ के, किसी किताब को सीने से लगा कर लगा था कि हमारा दुख जीने वाले लोग थे दुनिया में और उन्होंने इस लम्हे से गुज़र कर आगे भी जिया हैहम भी कर सकते हैं ऐसा। 


लिखना सिर्फ़ ये दिलासा है कि हम अकेले नहीं हैं। हम लिखते हैं लेखकों/कवियों का हमें जिलाये रखने का जो क़र्ज़ है, उसको थोड़ा-बहुत उतारने के ख़ातिर। 

और अपनी कहानियाँ जो सुनाने का मन करता है, सो है ही। 

इतने दिन में यही लगता है कि ब्लॉग हमारा घर है। लौट के हमें यहीं आना था। 

सो, हम गए हैं। 

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