पिछले कुछ दिनों, लगभग साल भर से बैंगलोर में ख़रीदने के लिए घर देख रहे हैं। कई सारे बिल्डर्स के फ़्लैट्स देखे। विला भी और अपार्टमेंट भी। एक चीज़ जो मुझे समझ नहीं आती है, वो ये है कि आर्किटेक्ट्स को या फिर सोसाइटी प्लैनर्स को धूप और हवा से दिक़्क़त क्या है! मैं यह समझती हूँ कि सारे घरों में ढेर सारी खिड़कियाँ और दरवाज़े धूप और हवा के हिसाब से नहीं बन सकते। लेकिन जिन फ़्लैट्स में हो सकते हैं, वहाँ भी नहीं हैं। एक पूरा पूरा टावर है जिसकी दीवार पूरब की ओर है लेकिन उस दीवार में खिड़की नहीं है। न ही पश्चिम की ओर खिड़कियाँ हैं। इस तरह अधिकतर घर या अपार्टमेंट जो हैं उनमें खिड़कियाँ और बालकनी दक्षिण और उत्तर की ओर हैं। जितनी बड़ी सोसाइटीज हैं उनमें सारे घर क़तार से पूरब से पश्चिम की ओर बनाये गये हैं जिससे सारे घर एक दूसरे की धूप छेकते हैं और इसमें भी को क़तार के आख़िर वाले घर हैं, वहाँ भी धूप और हवा के आने जाने की जगह नहीं है।
कल मैं यहाँ एक बड़े बिल्डर का मॉडल फ्लैट देखने गई। वह मॉडल फ़्लैट इतना क्लॉस्ट्रोफोबिक था कि अब तक भी मुझे पेट में अजीब सी घबराहट महसूस हो रही है। इन सारे घरों में एक छोटा सा कमरा ‘मेड रूम’, या कि घर में फुल टाइम रहने वाली किसी कामवाली के लिए होता है। बड़े और छोटे बिल्डर्स के सारे फ़्लैट्स में एक चीज़ कॉमन रही कि इस कमरे में कभी कोई खिड़की नहीं होती। क्या घर में काम करने वाला इंसान जेल में रहे? बिना खिड़की के कमरे में कैसे रह सकता है कोई…सिर्फ़ रात में सोने की बात हो, तब भी! हम इतने अमानवीय क्यों हैं, कैसे हैं! क्या इन घरों को डिज़ाइन करने वाले लोग मशीन हो गये हैं। ये क्या सर्वर रूम डिज़ाइन हो रहा कि खिड़की की ज़रूरत नहीं! और ये एक बिल्डर की बात नहीं है कि आपको लगे कि शायद किसी एक व्यक्ति का ध्यान नहीं गया होगा। इन कमरों में एक रोशनदान तक नहीं होता। मैं हर बार घर देखने जाती हूँ तो इतना उदास लौटती हूँ कि कई दिन तक मन सीला-सीला रहता है। 4-5 Cr के घर डिज़ाइन करने वाले लोग ऐसे हैं।
खिड़की से बाहर देखने वाले लोग कहाँ चले गए?
सोचती हूँ तो लगता है कि बाहर की ओर कोई देखता कहाँ है। चाँद, सूरज और सूर्यास्त या सूर्योदय की तलाश कौन करता है मेरे सिवा। छत तो आलरेडी ग़ायब हो गई है सब जगह से। छोटे बच्चों के बहुत से कपड़े धोने के बाद उन्हें पसार के सुखाने और उतारने का समय नहीं रहता था। उसपे कई बार बारिश आती थी, इसलिए वॉशर और ड्रायर वाली मशीन ले ली। इस घर में आये इतने महीने हो गए हैं, यहाँ पर कपड़े पसारने का इंतज़ाम नहीं हुआ है। यहाँ छत पर अलगनी है ही नहीं। फिर यहाँ कार्पेंटर बुलाना इतना मुश्किल है कि एक अदद अलगनी लगाने का काम महीनों से नहीं हो पाया है। कल रात कपड़े धोये थे और इतना गर्म मौसम है कि ड्रायर नहीं चलाया। आज बहुत दिन बाद कपड़े पसारे। भोर में छह बजे हवा ठंढी थी। धूप बस निकलने को ही थी। कपड़े पसार कर उन्हें उतारना, तह करना…धूप में सूखे कपड़ों में एक ख़ुशनुमा गंध होती है। जो कि जीवन से चली गई है।
एक समय के बाद हमारी ख़ुशी बड़ी बड़ी चाहनाओं में नहीं, छोटी छोटी ज़रूरतों में बसने लगती है। दोस्त आया था, अभी दो दिन पहले…उससे पूछे, तुम्हें किस चीज़ से ख़ुशी मिलती है। उसने कहा, अभी, इस मोमेंट। मैं हाथ से भात दाल खाना चाहता हूँ। हम पूछे, भात दाल के साथ कौन सी सब्ज़ी…तो कहता है, उबली हुई भिंडी। हमको हमेशा से भात-दाल के साथ भिंडी का भुजिया अच्छा लगता है, लेकिन ये उबली हुई भिंडी तो दिमाग़ में कोई इमेज भी नहीं बना पा रही है। खा के देखना होगा कि ये क्या कॉम्बिनेशन है। पता नहीं लोगों को कैसे जानते हैं और उनके बारे में क्या क्या जानना होता है, लेकिन दोस्ती का एक बहुत ज़रूरी हिस्सा होता है अपने किसी दोस्त को हाथ से बना के खाना खिला सकना। मेरी बेस्ट फ्रेंड स्मृति एक बार हमको छुहारे की खीर खिलायी थी। उस दिन के पहले हम कभी खाये नहीं थे छुहारे का खीर, लेकिन उस दिन के बाद भी कभी ख़ुद से बना के खाये नहीं…मन लौटता रहता है उसके उस दिल्ली वाले फ़्लैट में। प्री-कोविड का समय जब लगता था कि कमसेकम ज़िंदगी में ये चीज़ तो हमेशा रहेगी कि शहर दिल्ली में स्मृति का घर है, अपना घर। लेकिन सब कुछ बदल गया पिछले चार-पाँच सालों में। एक प्यारी दोस्त है, पूजा, जिन दिनों हम चाय नहीं पीते थे, उन दिनों ज़िद करके एक दिन हमको अपने हाथ से बना के अदरक की चाय दी, कि पी ले, मर नहीं जाएगी एक दिन चाय पी लेने से। खाँसी में उसके हाथ की अदरक की चाय सच में बहुत अच्छी लगी। कुणाल के एक दोस्त को मेरे हाथ का आलू-पराठा इतना पसंद है कि जब भी घर आता है, पक्का बनाते hain उसके लिए। पता नहीं हाथ के खाने का स्वाद क्या होता है, लेकिन कुछ तो है जो हम तलाशते रहते हैं। मैं जब मम्मी को बहुत ज़्यादा मिस करती हूँ तो खाना बनाना चाहती हूँ। कि मेरे हाथ से लगभग वैसा खाना बनता है जैसा वो बनाती थी।
घर होता क्या है? What does it mean to feel ‘at home’. हम जो फ़ितरतन बंजारे हैं, कैसे ठहरते हैं किसी जगह…कैसे मानते हैं किसी शहर को अपना घर? कि हमेशा कहीं भाग जाने को जी क्यों मचलता रहता है। हमेशा हमेशा एक बाइक हो, थोड़े से कपड़े हों…एक टेंट हो। हम कहाँ भागना चाहते हैं, और किससे? ऐसा तो नहीं है कि इस शहर में मनुहार करके बहुत लोग मिलते हैं। इस शहर की तन्हाई के बावजूद कहीं भाग जाने को जी क्यों करता है? घर ख़रीदने के नाम से घबराहट क्यों होती है? हम कौन सी ज़िंदगी जीना चाहते हैं? सब कुछ होने के बावजूद वो क्या है जो नहीं है।
जब भी बाइक के बारे में पढ़ती हूँ, मन घबराने लगता है। दूर तक की पहाड़ों की सड़क। दोनों तरफ़ कोई भी नहीं। सिर्फ़ हवा का शोर। जहां पहुँच रहे हैं, वहाँ सारे अजनबी लोग। लिखने को बहुत सारा कुछ। पढ़ने को कुछ कविताओं की किताबें।
Utopia.
My utopia is both time and space. Having a lot of time at my hands. And a space of my own.
बहुत सुंदर
ReplyDeleteमेरा बेटा जब लौट के आता था कहता था पापा जैसे ही अपने शहर में प्रवेश करता हूँ महसूस होता है एक बहुत ही बड़े से ऐ सी वाले कमरे में आया गया हूँ | अब तो बैंगलोर छोड़ कर नौकरी छोड़ कर वापिस घर आ गया है और हम भी जब यहाँ से बड़े शहर में घुसते हैं तो लगता है बड़े से पिंजड़े में आ गए हैं | :)
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने, स्वयं को जोड़ पा रही आपके गहन भावपूर्ण लेखन से।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १६ अप्रैल २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteCame back to your blog after so many years. Happy to see the lovely river that is still flowing. People who love to look out of windows are still there but in minority:)
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