जिन चीज़ों को गुम हो जाना चाहिए…
१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।
वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।
२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।
फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।
मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।
३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।
४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।
५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।
कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।
६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।
मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir!
१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।
वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।
२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।
फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।
मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।
३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।
४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।
५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।
कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।
६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।
मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir!
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आदर्शों-शिक्षाओं को अपनाना सच्ची श्रद्धांजलि : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteJordar
ReplyDelete