मुझे यहाँ से वो नहीं दिखती है पर उसकी आँखें यही रह गयी हैं उसी तरह जैसे उसका अहसास रह गया है, मेरे जिस्म, मेरी रूह में अभी भी...दिल्ली के भरे हुए प्लेटफोर्म पर किसी को पहली बार तो ट्रेन पर चढाने नहीं आया हूँ पर जिंदगी को यूँ कभी विदा भी तो नहीं किया है. उसने फ़ोन भी तो 'आखिरी वक्त' में किया था...मुझे अकेले जाने में डर लग रहा है मुझे स्टेशन पर छोड़ने आ जाओगे प्लीज...वो अब फोर्मल भी होने लगी थी.
ट्रेन पर चढ़ कर हर एक मिनट में उसने फ़ोन किया था...कहाँ पहुंचे...अभी तक नहीं पहुंचे...किधर से आ रहे हो...दिल्ली के उस भरे प्लेटफोर्म में दुनिया की भीड़ को परे हटाते पहुंचना कुछ आग का दरिया पार करना ही जैसा था, दौड़ता हांफता मैं पहुंचा था साँस फूल रही थी...वो एक हाथ से बोगी का दरवाजा पकड़ के झाँक रही थी, बेचैनी अजीब सी थी उसके चेहरे पर उस दिन. सांस काबू में भी नहीं आई कि वो दौड़ के गले लग गयी, जैसे कहीं नहीं जायेगी जैसे मैं रुकने को कहूँगा तो बिना जिरह किये लौट आएगी. उसका मेरी बाहों में होना ऐसा था जैसे एक लम्हे में मेरी जिंदगी समा गयी हो...दिल्ली के उस भरे प्लेटफोर्म पर हो सकता है लोग देख रहे होंगे, हँस रहे होंगे...उसने कहा नहीं पर कहा कि मुझे लौटा लो...कि मैं नहीं जाना चाहती, कि एक बार कहो तो.
ट्रेन ने आखिरी हिचकी ली सिग्नल हो गया...सब कुछ रफ़्तार पकड़ रहा था...धुंधला होता जा रहा था. उसे मुझे बहुत कुछ कहना था पर उसने कुछ नहीं कहा, उसकी आँखों में इतना पानी था कि कुछ दिखाई नहीं पड़ा...खट खट करती ट्रेन का शोर उसकी हंसी, उसके आँसू सब आपस में मिला दे रहा था. यमुना ब्रिज पर जाती ट्रेन...पल पल दूर जाती हुयी जिंदगी...
वो आखिरी ट्रेन थी या नहीं पता नहीं...पर प्लेटफोर्म एकदम खाली हो गया था. एकदम. मेरे जैसा.
वो एक हाथ से बोगी का दरवाजा पकड़ के झाँक रही थी, बेचैनी अजीब सी थी उसके चेहरे पर उस दिन. सांस काबू में भी नहीं आई कि वो दौड़ के गले लग गयी, जैसे कहीं नहीं जायेगी जैसे मैं रुकने को कहूँगा तो बिना जिरह किये लौट आएगी. उसका मेरी बाहों में होना ऐसा था जैसे एक लम्हे में मेरी जिंदगी समा गयी हो...
ReplyDeleteट्रेन ने आखिरी हिचकी ली सिग्नल हो गया..
प्लेटफोर्म एकदम खाली हो गया था. एकदम. मेरे जैसा.
कई फ़साने याद आये ... फिर ना जाने क्यों अपना जैसा ही हाल लगा...
तुम्हारे दर्द भरे पोस्ट पढते हुए बरबस उसमें अपना ही चेहरा नज़र आने लगता है और खुशी वाला पोस्ट पढते हुए लगता है जैसे अपने सामने किसी को ऐसे ही खुश होते देखा था और ऐसे ही भाव मेरे मन में भी उमड़े थे...
एक हाथ में बोगी दरवाजा.. कितनी कोमन बात को अनकॉमन बना दिया है पूजा..
ReplyDeleteइस बार अलग मूड में नज़र आयी हो.. ये भी अच्छा है..
बहुत सुन्दर. कुछ पुराने फ़िल्मी गीतों को याद करने लगा हूँ
ReplyDeleteaisa laga maano sab kuch abhi saamne hi tha...kuch yaadein bhi taza huyi....sach hai kaafi kuch khali reh gaya...
ReplyDeleteपोस्ट को दो बार पढ़ा । पहली बार सामान्य लगी और दूसरी बार दार्शनिक । जिन्दगी को विदा करना और वह भी स्वयं के द्वारा । थोड़ा असहज था पर ऐसा होता है कई बार । जीवन नियत है, ट्रेन की तरह । कभी तो हमारा साथ में जाना होता है, हँसते खेलते आनन्द में । कभी चला जाता है कुछ दिनों के लिये, खाली प्लेटफार्म की तरह, सूना, उदास, अकेला । गजब का छायावाद है ।
ReplyDeleteआपकी शैली बहुत अच्छी लगी । भावों की गहराई दर्शाने के लिये अद्भुत ।
एक बात और । जब जिन्दगी को जब प्लेटफार्म पर लेने जाईयेगा, वह भी पोस्ट के माध्यम से बताईयेगा । प्रतीक्षा रहेगी ।
उसकी आँखें यही रह गयी हैं उसी तरह जैसे उसका अहसास रह गया है, मेरे जिस्म, मेरी रूह में अभी भी...दिल्ली के भरे हुए प्लेटफोर्म पर किसी को पहली बार तो ट्रेन पर चढाने नहीं आया हूँ पर जिंदगी को यूँ कभी विदा भी तो नहीं किया है.
ReplyDeleteजाने कैसे शब्द हैं कि आँखों में ठहर गए है.
सिर्फ एक दृश्य, और पूरी प्रेम कहानी !!! पूजा ! ग्रेट !!!
ReplyDeleteउफ्फ्फ ....
ReplyDeletewawooooooooooooo
ReplyDeletebahut hi behatreen ....
ReplyDeletebahut khub..
yun hi likhte rahein...
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mere blog mein is baar...
जाने क्यूँ उदास है मन....
jaroora aayein
regards
http://i555.blogspot.com/
dil ko ghoo gayee......
ReplyDeleteइस बार अंदाज़ जुदा सा है ....बेहद खूबसूरत
ReplyDeleteइस पोस्ट को पढ़कर अपने एक सहकर्मी की याद आ गई। नई नौकरी मिली नए शहर में। राँची से बहुत दूर। वक़्त था एक निर्णय लेने का। जात बिरादिरी से ऊपर उठकर एक रिश्ते को जोड़ने का। दोनों के अभिवावक आए बातें हुईं पर बात बनी नहीं। स्टेशन पर दोनों के पिता छोड़ने आए पर वो तो नहीं आई।
ReplyDeleteकैसे आती ? समाज का बंधन एक ओर.. बड़े बूढ़ों की आँखों की आँच कैसे दिखा पाती सबके सामने भावनाओं का उमड़ते आवेग को। पर जब पिता स्टेशन जा रहे थे तो वो उस अगली गुमटी के सामने खड़ी थी जहाँ ट्रेन हमेशा रुक जाया करती थी। अंतिम बार हाथ हिलाते हुए शायद उन दोनों के मन में वैसे भाव उठे होंगे जेसा आपने अपनी इस पोस्ट में व्यक्त किए हैं।
अपनी कुछ ऐसी कहानी रही है.....कुछ याद आया :)
ReplyDeleteबहुत सुंदरता से संजोये और बुने क्षण!
ReplyDeletepahli baar aaya aapke blog par, aour yakeen maaniye..rukaa bhi aour post padhhi bhi../
ReplyDeleteजबरदस्त.. पूजा कमाल का लिखा है कसम से.. जैसे एक सनसनी सी दौडती जाती हो जिस्म मे और पढने वाला बस तडपता जाता हो कि आगे क्या, आगे क्या.. और जब कहानी खत्म होती हो, किरदार जीते हो.. पढने वाले मे.. वो ट्रेन अभी भी दूर जाती दीखती हो.. यमुना नदी उनके आसुओ से भरती दीखती हो.. और जैसे ट्रेन ने इस बार आखिरी हिचकी ली हो.. सुपर्ब.. just awesome..
ReplyDeletehi puja ji... main aapke blog ka niyamit follower hoon.... bahut ki khoobsurat andaz mein aap sabdo ko bandhti hain... pad ke accha lagta hai... ye lekh to dil ko chu gaya...
ReplyDeleteadbhut [:)]