17 April, 2024

मेरा दिल जलता हुआ सूरज है। बदन के समंदर में बुझता हुआ।

बदन में पिघले हुए शब्द बहते रहते हैं। धीपते रहते हैं उँगलियों के पोर। सिगरेट हाथ में लेती हूँ तो लाइटर की ज़रूरत नहीं होती।  दिल कमबख़्त, सोया हुआ ज्वालामुखी है, सिर्फ़ सपनों में फटता है। कहीं सूनामी आते हैं तो कहीं भूचाल। कभी रातों-रात पहाड़ उठ खड़े होते हैं कभी ऊँची इमारतें नेस्तनाबूद हो जाती हैं। सपनों का भूगोल बदलता रहता है। तुम बिसरते हो। कुछ भी रुकता कहाँ है। 


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उसके इर्द-गिर्द गुनहगार तितलियाँ उड़ती रहती थीं। उनमें से एक भी अगर हथेली पर बैठ गई तो किसी का खून करने की इच्छा भीतर घुमड़ने लगती थी। 


पिछले कुछ सालों में जो बहुत सारा ग़ुस्सा बदन में जमा हो था और घड़ी घड़ी फट पड़ता था, क्या वो सिर्फ़ तेज़ी से बहता खून था? हाई-ब्लड प्रेशर इक छोटी सी गोली से कंट्रोल हो गयाउसके साथ ही दुनिया के प्रति हम थोड़े से कोमल हो गये। ग़ुस्सा थोड़ा सा कम हो गया। 


क्या मुहब्बत भी इसी तरह वाक़ई बदन का कोई केमिकल लोचा है? किसी दवाई से इसी तरह बदन में बेहिसाब दौड़ती मुहब्बत को थोड़ा रेस्ट मिल जाएगा? वो किसी बस-स्टॉप पर रुक जायेगी? तुम्हारा इंतज़ार करेगी



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सब ओर गुनाहों की ख़ुशबू है। बदन में, आत्मा में। छुअन में। लिबास में। स्याही में। 

मेरी ओर लपटें लपकती हैं, आँखों को लहकाती हुई। दिख नहीं रहा ठीक से। वो क्या है जो ठीक से नहीं जल रहा कि यहाँ इतना धुआँ है। क्या आँख से उठता है आँसू का बादल


मेरा दिल जलता हुआ सूरज है। बदन के समंदर में बुझता हुआ। 


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ख़ुशी की हर चीज़ से गुनाहों की गंध आती है। 

गिल्ट। हमारे जीवन का केंद्रीय और स्थायी भाव है इन दिनों। 


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कौन मेरे जलते हुए दिल पर आँसू छिड़क रहा है


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मुझे पता है कि तुम आग के बने हो और मेरी दुनिया काग़ज़ की है। फिर भी, तुम्हें छू कर अपनी उँगलियाँ जलाना चाहती हूँ। 

क्या हम छुअन के प्रति सबसे ज़्यादा निर्दयी इसलिए होते हैं क्योंकि यह सबसे ईमानदार इंद्रिय है? बातों से झूठ बोलना आसान है, आँखों से झूठ बोलना फिर भी थोड़ा मुश्किल, लेकिन किया जा सकता है, गंध तो अनुभव के हिसाब से अच्छी-बुरी होती है और बदलती रहती है, स्वाद भीलेकिन स्पर्शबिलकुल झूठ नहीं होता इसमें। हम ख़ुद को स्पर्श के प्रति फुसला नहीं सकते। 

हमारा बदन एक बाग होता है, किसी को छूने भर से हमारे भीतर के सारे पौधे मर जाते हैं। 


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ख़ुशबू is the most subjective sense of all. हमें सिखाया जाता है कि ये खुश-बू है, ये बद-बू हैनॉन-वेजीटेरियन जिस ख़ुशबू से दीवाने हो जाएँगे कि लार टपकने लगी, वेजीटेरिएंस माँस या मछली की उस गंध को बर्दाश्त नहीं कर सकते। मितली आती है, मन घूमता है। 


किसी का लगाया हुआ इत्र आपको सिरदर्द दे सकता हैकिसी के दो दिन से नहीं नहाए बदन से आते फ़ीरोमोन्स आपकी सोचने-समझने और सही निर्णय लेने की क्षमता को कुंद कर सकते हैं। मुझे रात-रानी की गंध एकदम बर्दाश्त नहीं होती। लिली की तेज़ गंध भी कई लोगों को पसंद नहीं होती। रजनीगंधा और गुलाबों की ख़ुशबू से शादियों का सजा हुआ कमरा और कार की याद रहती है। 


लिखते हुए मुझे सिगरेट की गंध चाहिए होती है। एक समय शौक़ से चाहिये होती थी, अब ज़रूरत है। 


मैं तुमसे हमेशा पब्लिक में मिली। तुम्हें गले लगाते हुए एक मिनट आँख बंद करके वहाँ रुक नहीं सकते थे। मैं तुम्हारी ख़ुशबू से अनजान रही। ख़ुशबू को पहचानने के लिए आँख बंद करनी ज़रूरी है। वरना देखा हुआ उस ख़ुशबू की आइडेंटिटी को भीतर थिर होने नहीं देता। मैंने तुम्हारी जैकेट उतरवा के उसे सूँघा 


एक दिन इस दुनिया में हम दोनों नहीं होंगे। लेकिन मेरी कहानियाँ होंगी। तुम्हारी भी। इन आधे अधूरे क़िस्सों में तुम पूरे पूरे महसूस होगेअपनी ख़ुशबू, अपनी दमक मेंउस लम्हे में ठहरे हुए जब घास के लॉन पर तुम्हें पहली बार दूर से देखा था। धूप की ख़ुशबू लपेटे हुए। 


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एक समय में अफ़सोस के पास एक छोटी सी मेज़ की दराज थी जिसमें मैंने चिट्ठियाँ रखी थीं, अधूरी। उन में तुम्हारा नाम नहीं था। उनके आख़िर में, हस्ताक्षर से पहले, ‘प्यारनहीं लिखा था। अब अफ़सोस की पूरी पूरी सल्तनत है। उसमें कई शहर हैं। समंदर हैं जो मुझे देखने थे तुम्हारे साथ। मौसम हैं जो तुमसे दूर के शहर में मेरे मन पर खुलते हैं। इतनी छोटी ज़िंदगी में जिया हुआ कितना कम है और मुहब्बत कितनी ज़्यादा। हिसाब कितना ग़लत है ना, सोचो तो!


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शब्दों का कोई मोल नहीं होता। जान के सिवा। 

किसी समय जब ज़िंदगी इतनी मुश्किल लगी थी कि उससे आसान किसी ऊँची इमारत से कूदना या फंदे में झूल जाना था उस समय कविता की किसी पंक्ति को पढ़ के, किसी किताब को सीने से लगा कर लगा था कि हमारा दुख जीने वाले लोग थे दुनिया में और उन्होंने इस लम्हे से गुज़र कर आगे भी जिया हैहम भी कर सकते हैं ऐसा। 


लिखना सिर्फ़ ये दिलासा है कि हम अकेले नहीं हैं। हम लिखते हैं लेखकों/कवियों का हमें जिलाये रखने का जो क़र्ज़ है, उसको थोड़ा-बहुत उतारने के ख़ातिर। 

और अपनी कहानियाँ जो सुनाने का मन करता है, सो है ही। 

इतने दिन में यही लगता है कि ब्लॉग हमारा घर है। लौट के हमें यहीं आना था। 

सो, हम गए हैं। 

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