हमारे कमरों में एक सियाह उदासी थी. इक पेचीदा सियाह उदासी जिसकी गिरहें खोलना हमें नहीं आता था. हम देर तक बस ये महसूस करते कि हम दोनों हैं. साथ साथ. ये साथ होना हमें सुकून देता था कि हम अकेले नहीं हैं.
हमें एक दूसरे की शिनाख्त करनी चाहिए थी मगर हम सिर्फ गिरहों को छू कर देखते थे. फिर एक दिन हमें पता चला कि वे गिरहें हमें एक दूसरे से बांधे रखती हैं. फिर हमें छटपटाहट होने लगी कि हम इस गिरह से छूट भागना चाहते थे.
नींद और भोर के बीच रात थी. रात और सियाह के बीच एक बाईक के स्टार्ट होने की आवाज़. वो लड़का कहाँ जाता था इतनी देर रात को. किससे मिलने? और इतने खुलेआम किसी से मिलने क्यूँ जाता था कि पूरा महल्ला न केवल जानता बल्कि कोसने भी भेजता था उस लड़की को...रात के इतने बजे सिर्फ गुज़रती ट्रेन की आवाज़ सुनने तो नहीं जा सकता कोई.
कौन था वो लड़का. उदासी पर बाईक की हेडलाईट चमकाता. मैं सोचती कि खोल लूं इक गिरह और जरा देर को मुस्कुराहटों का सूरज देख आऊँ. हमें उदासी और अंधेरों की आदत हो गयी थी. हम अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर नहीं जाना चाहते थे. मैं बस थी. वो बस था. इसके आगे कुछ होना समझ नहीं आता था.
बात इन दिनों की है जब मैं लिखना भूल चुकी हूँ. मैं बस जानना चाहती हूँ कि तुम्हें मेरे ख़त मिले या नहीं. वो मेरे आखिरी ख़त थे. उन्हें लिखने के बाद मेरे पास सियाही नहीं बची है. शब्द नहीं बचे हैं. कुछ कहने को बचा ही नहीं है. सच तो कुछ नहीं है न दोस्त...सच तो मेरा खोना भी है...मर जाना भी है... फिर सब कुछ कहानी ही है.
तुम समझ नहीं रहे हो...
मुझे तुम्हें बताना नहीं चाहिए था कि तुम मेरे लिए जरूरी हो. ऐसा करना मुझे तकलीफ देता है. मैंने सिल रखी हैं अपनी उँगलियाँ कि वे तुम्हारा नंबर न डायल कर दें. मेरे लैपटॉप पर अब नहीं चमकती तुम्हारी तस्वीर.
अगर मर जाने का कोई मौसम है तो ये है.
फिर भी. फिर भी. तुम्हें मालूम नहीं होना चाहिए कि कोई अपनी जागती साँसों में तुम्हें बसाए रखता है.
घर पर लोगों ने मुझे डांटा. मैं खुमार में बोलती चली गयी थी कि मैं मंदिर गयी हूँ और मैंने भगवान् से यही माँगा कि मुझे अब मर जाना है. कि मुझे अब बुला लो. मुझे अब कुछ और नहीं चाहिए. लोग मेरे बूढ़े होने की बात कर रहे थे...मैंने कहा उनसे...मैं इतनी लम्बी जिंदगी नहीं जियूंगी. मैं उन्हें समझा नहीं सकती कि मुझे क्यों नहीं जीना है बहुत सी जिंदगी. मैं भर गयी हूँ. पूरी पूरी. अब मैं रीत जाना चाहती हूँ.
सुनो. मेरी कहानियों में तुम्हारा नाम मिले तो मुझे माफ़ कर देना. मैं आजकल अपना नाम भूल गयी हूँ और मुझे लगा कि तुमपर न सही तुम्हारे नाम पर मेरा अधिकार है इसलिए इस्तेमाल कर लिया. तुम्हारे होने के किसी पहलू को मैं जी नहीं सकती.
मैं तुम्हें जीना चाहती हूँ. लम्स दर लम्स. जब मेरा मोह टूटता है ठीक उसी लम्हे मैं दो चीज़ें चाहती हूँ. मर जाना. जो कि सिम्पल सा है. दूसरा. तुम्हारे साथ एक पूरा दिन. एक पूरी रात. तुम्हारी खुलती आँखों की नींद में मुझे देखनी है चौंक....और फिर ख़ुशी. मैं तुम्हें बेतरह खुश देखना चाहती हूँ. मैं देखना चाहती हूँ कि तुम ठहाके लगाते हो क्या. तुम्हारी मुस्कान की पदचाप कोहरे की तरह भीनी है. ये लिखते हुए मेरे कानों में तुम्हारी आवाज़ गूँज रही है 'तुम्हें चूम लूं क्या' मैं सोचती हूँ कि लोगों को लिप रीड करना आता होगा तो क्या वे जान पायेंगे कि तुमने मुझे क्या कहा था.
सब झूठ था क्या? वाकई. मेरी कहानियों जैसा? तुम जैसा. मुझ जैसा. मैं तुमसे कोई शिकायत नहीं करना चाहती हूँ. सुनो. तुम्हारी आवाज़ क्यूँ है ऐसी कि याद में भी खंज़र चुभाती जाए. इक बार मेरा नाम लो न. इक बार. तकलीफें छुट्टी पर नहीं जातीं. मुहब्बत ख़त्म नहीं होती. जानां...इक बार बताओ...इश्क़ है क्या मुझे तुमसे? और तुम्हें? नहीं न? हम दोनों को नहीं न...कहो न? मैं तुम्हारी बात मान लूंगी.
अब. इसके पहले कि जिंदगी का कोई मकसद मुझे अपनी गिरफ्त में ले ले. मर जाना चाहती हूँ.
हमें एक दूसरे की शिनाख्त करनी चाहिए थी मगर हम सिर्फ गिरहों को छू कर देखते थे. फिर एक दिन हमें पता चला कि वे गिरहें हमें एक दूसरे से बांधे रखती हैं. फिर हमें छटपटाहट होने लगी कि हम इस गिरह से छूट भागना चाहते थे.
नींद और भोर के बीच रात थी. रात और सियाह के बीच एक बाईक के स्टार्ट होने की आवाज़. वो लड़का कहाँ जाता था इतनी देर रात को. किससे मिलने? और इतने खुलेआम किसी से मिलने क्यूँ जाता था कि पूरा महल्ला न केवल जानता बल्कि कोसने भी भेजता था उस लड़की को...रात के इतने बजे सिर्फ गुज़रती ट्रेन की आवाज़ सुनने तो नहीं जा सकता कोई.
कौन था वो लड़का. उदासी पर बाईक की हेडलाईट चमकाता. मैं सोचती कि खोल लूं इक गिरह और जरा देर को मुस्कुराहटों का सूरज देख आऊँ. हमें उदासी और अंधेरों की आदत हो गयी थी. हम अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर नहीं जाना चाहते थे. मैं बस थी. वो बस था. इसके आगे कुछ होना समझ नहीं आता था.
बात इन दिनों की है जब मैं लिखना भूल चुकी हूँ. मैं बस जानना चाहती हूँ कि तुम्हें मेरे ख़त मिले या नहीं. वो मेरे आखिरी ख़त थे. उन्हें लिखने के बाद मेरे पास सियाही नहीं बची है. शब्द नहीं बचे हैं. कुछ कहने को बचा ही नहीं है. सच तो कुछ नहीं है न दोस्त...सच तो मेरा खोना भी है...मर जाना भी है... फिर सब कुछ कहानी ही है.
तुम समझ नहीं रहे हो...
मुझे तुम्हें बताना नहीं चाहिए था कि तुम मेरे लिए जरूरी हो. ऐसा करना मुझे तकलीफ देता है. मैंने सिल रखी हैं अपनी उँगलियाँ कि वे तुम्हारा नंबर न डायल कर दें. मेरे लैपटॉप पर अब नहीं चमकती तुम्हारी तस्वीर.
अगर मर जाने का कोई मौसम है तो ये है.
फिर भी. फिर भी. तुम्हें मालूम नहीं होना चाहिए कि कोई अपनी जागती साँसों में तुम्हें बसाए रखता है.
घर पर लोगों ने मुझे डांटा. मैं खुमार में बोलती चली गयी थी कि मैं मंदिर गयी हूँ और मैंने भगवान् से यही माँगा कि मुझे अब मर जाना है. कि मुझे अब बुला लो. मुझे अब कुछ और नहीं चाहिए. लोग मेरे बूढ़े होने की बात कर रहे थे...मैंने कहा उनसे...मैं इतनी लम्बी जिंदगी नहीं जियूंगी. मैं उन्हें समझा नहीं सकती कि मुझे क्यों नहीं जीना है बहुत सी जिंदगी. मैं भर गयी हूँ. पूरी पूरी. अब मैं रीत जाना चाहती हूँ.
सुनो. मेरी कहानियों में तुम्हारा नाम मिले तो मुझे माफ़ कर देना. मैं आजकल अपना नाम भूल गयी हूँ और मुझे लगा कि तुमपर न सही तुम्हारे नाम पर मेरा अधिकार है इसलिए इस्तेमाल कर लिया. तुम्हारे होने के किसी पहलू को मैं जी नहीं सकती.
मैं तुम्हें जीना चाहती हूँ. लम्स दर लम्स. जब मेरा मोह टूटता है ठीक उसी लम्हे मैं दो चीज़ें चाहती हूँ. मर जाना. जो कि सिम्पल सा है. दूसरा. तुम्हारे साथ एक पूरा दिन. एक पूरी रात. तुम्हारी खुलती आँखों की नींद में मुझे देखनी है चौंक....और फिर ख़ुशी. मैं तुम्हें बेतरह खुश देखना चाहती हूँ. मैं देखना चाहती हूँ कि तुम ठहाके लगाते हो क्या. तुम्हारी मुस्कान की पदचाप कोहरे की तरह भीनी है. ये लिखते हुए मेरे कानों में तुम्हारी आवाज़ गूँज रही है 'तुम्हें चूम लूं क्या' मैं सोचती हूँ कि लोगों को लिप रीड करना आता होगा तो क्या वे जान पायेंगे कि तुमने मुझे क्या कहा था.
सब झूठ था क्या? वाकई. मेरी कहानियों जैसा? तुम जैसा. मुझ जैसा. मैं तुमसे कोई शिकायत नहीं करना चाहती हूँ. सुनो. तुम्हारी आवाज़ क्यूँ है ऐसी कि याद में भी खंज़र चुभाती जाए. इक बार मेरा नाम लो न. इक बार. तकलीफें छुट्टी पर नहीं जातीं. मुहब्बत ख़त्म नहीं होती. जानां...इक बार बताओ...इश्क़ है क्या मुझे तुमसे? और तुम्हें? नहीं न? हम दोनों को नहीं न...कहो न? मैं तुम्हारी बात मान लूंगी.
अब. इसके पहले कि जिंदगी का कोई मकसद मुझे अपनी गिरफ्त में ले ले. मर जाना चाहती हूँ.
(पोस्ट का टाइटल फ्रैंक सर की वाल से...इस गीत से...)
"अब. इसके पहले कि जिंदगी का कोई मकसद मुझे अपनी गिरफ्त में ले ले. मर जाना चाहती हूँ."
ReplyDeleteदर्द और प्रेम... शब्दों का होना... उनका खो जाना... दुआएं... और भी बहुत कुछ...
ReplyDeleteऔर हाँ आँखों से बहता निर्झर भी... सब लिए जा रहे हैं... !!!
लेखनी आबाद रहे तुम्हारी...
नमस्कार ! पूजा जी, मेरा नाम मनीषा उपाध्याय है, कल ही आपको जाना और आपका ब्लॉग पढ़ा बहुत अच्छा लगा I किताब छपने की ढेरों बधाईयाँ ! मेरा भी एक ब्लॉग है जिसमें कभी कभार कविता लिख लेती हूँ I
ReplyDeletemankisyahiin.blogspot.com
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जब तक जीने की चाह हो जीते रहें , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जब तक जीने की चाह हो जीते रहें , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteयथार्थ जब उलाहना देने लगे, अन्तरमन की रहस्यजनित कल्पनाओं को मुखर हो जाना चाहिये। जीवनलय बहती रहती है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण पोस्ट
ReplyDeleteतुम्हारे साथ एक पूरा दिन. एक पूरी रात. तुम्हारी खुलती आँखों की नींद में मुझे देखनी है चौंक....और फिर ख़ुशी.
ReplyDeleteKoi itna khoobsurat kaise likh sakta hai...Adhbhut...waah..Jiyo