27 April, 2020

लड़कियाँ जिनसे मुहब्बत हो तो उनका बदन उतार कर किसी खूँटी पर टांगना ना पड़े

#rant

कुछ दिन पहले 'रहना है तेरे दिल में' देख रही थी। बहुत साल बाद हम चीज़ें देखते हैं तो हम बदल चुके होते हैं और दुनिया को एक नए नज़रिए से देखते हैं। जो चीज़ें पहले बहुत सामान्य सी लगती थीं, अब बुरी लगती हैं या बेहद शर्मनाक भी लगती हैं। ख़ास तौर से औरतों को जिस तरह दिखाया जाता है। वो देख कर अब तो सर पीट लेने का मन करता है।

काश हिंदी फ़िल्मों का रोमैन्स इतना ज़्यादा फ़िल्मी न होकर थोड़ा बहुत सच्चाई से जुड़ा हुआ होता। मुहब्बत की पूरी टाइमलाइन उलझा दी है कमबख़्तों ने।

लड़के लड़की का एक दूसरे को अप्रोच करना इतना मुश्किल बना दिया है कि समझ नहीं आता कि आपको कोई अच्छा लगता है तो आप सीधे सीधे उससे जा कर ये बात कह क्यूँ नहीं सकते। इतनी तिकड़म भिड़ाने की क्या ज़रूरत है। फिर कहने के बाद हाँ, ना जो भी हो, उसकी रेस्पेक्ट करते हुए उसके फ़ैसले को ऐक्सेप्ट कर के बात ख़त्म क्यूँ नहीं करते। ना सुनने में इन्सल्ट कैसे हो जाती है।

ख़ैर। आज मैं सिर्फ़ दूसरी दिक्कत पर अटकी हूँ।

RHTDM में मैडी कहता है कि मैं तुमसे प्यार करता था तो तुम्हारे साथ कोई ऐसी वैसी हरकत की मैंने। नहीं।

अब दिक्कत ये है कि अगर मैडी उससे सच में प्यार करता था तो उसे चूमना या उसे छूने की इच्छा अगर ग़लत है तो फिर सही क्या है। और इतना ही अलग है तो 'ज़रा ज़रा महकता है' वाला गाना क्या था, क्यूँ था?

मतलब लड़कियाँ हमेशा दो तरह की होती हैं... प्यार करने वाली जिनके साथ सोया नहीं जा सकता और सिर्फ़ सोए जा सकने वालीं, जिनसे प्यार नहीं किया जा सकता। ये प्रॉपगैंडा इतने सालों से चलता अभी तक चल रहा है। देखिए ऊबर कूल फ़िल्म, 'ये जवानी है दीवानी' में कबीर कहता है, तुम्हारे जैसी लड़की इश्क़ के लिए बनी है। कोई किसी लड़की को कभी भी कहेगा कि तुम सिर्फ़ इस्तेमाल के लिए बनी हो। और अगर दोनों ने अपनी मर्ज़ी से एक दूसरे को चुना है तो किसने किसे इस्तेमाल किया?

ये कैसे लोग हैं जो ये सब लिखते हैं। इन्होंने कभी किसी से सच का प्यार व्यार कभी नहीं किया क्या?! कोई अच्छा लगता है तो चूमना उसे चाहेंगे ना, या कोई दूसरा ढूँढेंगे जिसके साथ सोया तो जा सकता है लेकिन पूरी रात जाग के बातें नहीं की जा सकतीं। ये mutually exclusive नहीं होता है।

बॉलीवुड कहता है कि ये दो लोग कभी एक नहीं हो सकते। अब आप बेचारे आम लोगों का सोचिए। किसी को एक कोई पसंद आए और बात दोतरफा हो ये क्या कम चमत्कार है कि वो अब किसी और को तलाशे जो सिर्फ़ शरीर तक बात रखे। मतलब प्यार के लिए एक लड़की/लड़का और प्यार करने के लिए दूसरी/दूसरा! इतने लोग मिलेंगे कहाँ?

मतलब क्या *तियाप है रे बाबा!

इश्क़ वाली लड़की स्टिरीयोटाइप, इंटेलिजेंट, भली, भोली लड़की। माँ-बाप की इच्छा माने वाली, अरेंज मैरज करने वाली। ट्रेडिशनल कपड़े पहनने वाली। चश्मिश। ट्रेडिशनल लेकिन बोरिंग नहीं, सेक्सी। बहुत ज़्यादा बग़ावत करनी है तो लव मैरिज करेगी या सिगरेट शराब पी लेगी। कोई ढंग का कैरियर चुन कर कुछ बनेगी नहीं, अपने फ़ैसले करके के उसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेगी।

नॉन-इश्क़ वाली बुरी लड़की। छोटे कपड़े पहनने वाली(ये ज़रूरी है)। सिगरेट शराब, तो ख़ैर ज़रूरी है ही। अक्सर बेवक़ूफ़ भी। बेहद ख़ूबसूरत। लड़की नहीं, गुड़िया। कि जिसकी कोई फ़ीलिंज़ होती ही नहीं हैं। इस्तेमाल करो, फेंको, आगे बढ़ो।

और लड़का लड़की के बीच में 'कुछ' ऊँच नीच हो गयी तो तौबा तौबा। फ़िल्म का टर्निंग पोईंट हो जाता है। बवाल मच जाता है। pre-sex और post-sex के बीच बँट जाते हैं हमारे मुख्य किरदार।

रियल ज़िंदगी में इसलिए लोग अपराधबोध से घिरे होते हैं, कि हम उससे प्यार करते हैं तो उसको वैसी नज़र से कैसे देख सकते हैं। मेरी किताब, तीन रोज़ इश्क़ में एक कहानी है, मेरी उँगलियों में तुम्हारा लम्स न सही, तुम्हारे बदन की खुशबू तो है। इसमें ख़स की ख़ुशबू वाला ग्लिसरिन साबुन है जो लड़की स्कार्फ़ में लपेट कर लड़के को कुरियर कर देती है। तब जा के लड़का उसे 'उस' नज़र से देखने के अपराधबोध से मुक्त होता है। मुझे ऐसी कहानियाँ अच्छी लगती हैं। मुझे ऐसी लड़कियाँ अच्छी लगती हैं जो एक क़दम आगे बढ़ कर माँग लेती हैं जो उन्हें चाहिए। 

इन चीज़ों पर जो सोचते हैं कई बार उसे भी सवालों के कटघरे में खड़ा करते हैं कि हम ये सब सोच क्यूँ रहे हैं। कुछ ऐसा लिखना भी बेहद ख़तरनाक है कि कौन अपना इम्प्रेशन ख़राब करे। लेकिन इतने साल से यही सब देख-सुन के पक गए हैं। कुछ नया चाहिए। ताज़गी भरा। वे लड़कियाँ चाहिए जो ख़ुद से फ़ैसला करें, लड़के - नौकरी - सिगरेट का ब्राण्ड - शाम को घर लौटने का सही वक़्त। वे लड़कियाँ जिनसे मुहब्बत हो तो उनका बदन उतार कर किसी खूँटी पर टांगना ना पड़े। जिनकी आत्मा से ही नहीं, उनके शरीर से भी प्यार किया जा सके।


बस। आज के लिए इतना काफ़ी है। मूड हुआ तो इसपर और लिखेंगे।

19 April, 2020

looping in audio

लिखना मुझे सबसे आसान लगता है। वक़्त की क़िल्लत कुछ उम्र भर रही है, ऐसा भी लगता है। क्रीएटिव काम की बात करें तो लिखने की आदत भी इतने साल से बनी हुयी है कि आइडिया आया तो लिखने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। टाइपिंग स्पीड भी काफ़ी अच्छी है।

कॉलेज में बेसिक विडीओ एडिटिंग का कोर्स किया था। उन दिनों vhs टेप इस्तेमाल होते थे। सीखते हुए थ्योरी में सिनेमा की रील को कैसे एडिट करते हैं वो भी सीखा था और सर ने कर के दिखाया भी था। फ़िल्में बनाऊँगी, ऐसा सोचा था, ज़िंदगी के बारे में। 

मगर कुछ ऐसा कुयोग होता रहा हमेशा कि फ़िल्म्ज़ ठीक से बन नहीं पायी। विडीओ कैमरा ख़रीदा था तो उसके पहले महीने में ही चोरी हो गया, उसके छह महीने बाद तक मैंने उसकी मासिक किश्त भरी। बैंगलोर में एक आध बारी कुछ ग्रूप्स के साथ फ़िल्म बनाने का वर्कशॉप किया, सिर्फ़ इसलिए कि कोई तो मिलेगा जिसके साथ काम करने में अच्छा लगे... लेकिन एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिससे मेंटल लेवल मैच करे। इसके बाद कई दिनों तक सोचती रही कि मैं मेंटल ही हूँ। 

मैकबुक इस्तेमाल करना शुरू किया तो देखा कि बेसिक एडिटिंग के लिए iMovie बहुत अच्छा है। इसमें विडीओ और ऑडीओ एडिटिंग के लिए आसान टाइमलाइंज़ हैं। साथ में गराज़ बैंड भी इस्तेमाल किया। ये एक बहुत ही अच्छा ऑडीओ एडिटिंग सॉफ़्ट्वेर है जिसमें पहले से कई ट्रैक्स लोडेड हैं। इन्हें ऐपल लूप्स कहते हैं। जब पहली बार देखा था तब कभी कभार एडिटिंग की थी।

विडीओ एडिटिंग का सबसे मुश्किल हिस्सा होता है म्यूज़िक। बीट्स सही जगह होनी चाहिए, संगीत का उतार चढ़ाव एक पूरी पूरी कहानी कहता है। विडीओ के साथ इसे तरतीब का होना ज़रूरी होता है। स्ट्रेंज्ली, बहुत कम एडिटर्ज़ को संगीत की बहुत अच्छी समझ होती है। मैंने ज़ाहिर है, बहुत अच्छे एडिटर्ज़ के साथ काम नहीं किया है। इवेंट मैनज्मेंट के दौरान जो छोटे विडीओज़ बनते थे या फिर इंडिपेंडेंट फ़िल्म बनाते हुए मैंने देखा है कि वे बीट्स का या संगीत के उतार चढ़ाव का ठीक ख़याल नहीं रख रहे। मैंने शास्त्रीय संगीत सात साल सीखा है जिसका कुछ भी याद नहीं लेकिन ताल की समझ कुछ ingrained सी हो गयी है। जैसे कि ग्रामर की समझ। मैं नियम नहीं बता सकूँगी कि कोई वाक्य क्यूँ ग़लत है…लेकिन दावे के साथ कह सकती हूँ कि ग़लत फ़ील हो रहा है तो ग़लत होगा… यही बात संगीत के साथ है। महसूस होता है कि गड़बड़ है। लेकिन ऐसा कोई ऑडीओ मिक्सिंग का कोर्स नहीं किया है तो इसमें ज़्यादा चूँ चपड़ नहीं करती। 

हमारे पास जो नहीं होता है, उसका आकर्षण कमाल होता है। मैं बचपन से बहुत तेज़ बोलती आयी हूँ और आवाज़ की पिच थोड़ी ऊँची रहती है। ठहराव नहीं रहा बिलकुल भी। तो मुझे रेडीओ की ठहरी हुयी, गम्भीर आवाज़ें बहुत पसंद रहीं हमेशा। वे लोग जो अपनी आवाज़ का सही इस्तेमाल जानते थे वो भी। मुझे हमेशा आवाज़ों का क्रेज़ होता। कोई पसंद आता तो उसकी आवाज़ पे मर मिटे रहते। उसे देखने की वैसी उत्कंठा नहीं होती, लेकिन आवाज़ सुने बिना मर जाती मैं। 

पाड्कैस्ट पहली बार बनाया था तो ब्लॉग के दोस्तों ने बहुत चिढ़ाया था। इतना कि फिर सालों अपनी आवाज़ रेकर्ड नहीं की… आवाज़ पर काम नहीं किया। ये कोई दस साल पहले की बात रही होगी। हम जो भी काम नियमित करते हैं, उसमें बेहतर होते जाते हैं। इतने साल अगर कहानी पढ़ना या सुनाना किया होता, तो बेहतर सुनाती या पढ़ती। फिर मैंने अंकित चड्डा को सुना… और लगा कि नहीं, कहानियाँ सुनाने में जो जादू होता है, वो शायद लिखने में भी नहीं होता। पर्सनली मैंने कई बार लोगों को कहानी सुनायी है, क्यूँकि वे अक्सर कहते हैं कि मेरी किताब या मेरी कहानियाँ उन्हें समझ नहीं आतीं। कुछेक स्टोरीटेलिंग सेशन किए बैंगलोर में और लोगों को बहुत पसंद आए। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा और सोचा कि इसपर थोड़ा बारीकी से काम करूँगी। लेकिन फिर मूड, मन, मिज़ाज और इस शहर में वैसा ऑडीयन्स नहीं मिला जो मैं तलाश रही थी। मन नहीं किया आगे कहानी सुनाने का… फिर कुछ जिंदगी की उलझनें रहीं।

अब फिर से कहानी सुनाने का मन करता है। कहानियों की विडीओ रिकॉर्डिंग करके उन्हें चैनल पर पोस्ट करने का भी। सबसे मुश्किल होता है म्यूज़िक। कि ख़रीदने पर म्यूज़िक काफ़ी महँगा मिलता है और समझ भी नहीं आता कौन सा म्यूज़िक ख़रीदें। आज यूट्यूब पर गयी तो देखा कि बहुत सारा म्यूज़िक फ़्री अवेलबल है। साउंड्ज़ के नाम और genre भी थे तो चुनना आसान है। 

एक सिम्पल सा डेढ़ दो मिनट का विडीओ बनाने में भी लगभग चार से पाँच घंटे तो लगते ही हैं। फिर ये भी लगता है कि किसी से कलैबरेट कर लेना बेहतर होगा। कि हम बाक़ी काम करें, कोई ऑडीओ एडिट कर दे, बस। मगर तब तक, ये गराज़ बैंड के ऑडीओ लूप्स अच्छे हैं और youtube पर के ये साउंड क्लिप्स भी। 

बाक़ी देखें। कुछ शुरू करके अधूरा छोड़ देने के एक्स्पर्ट हैं हम। 

इसलिए उन लोगों के लिए डर लगता है जिनसे मुहब्बत होती है हमें। कि शुरू करके छोड़ जाने के बाद वो कितने अधूरे रह जाते होंगे, पता नहीं।

मैं अपनी आवाज़ तक लौट रही हूँ, आप मुझे यहाँ सुन सकते हैं।


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