31 October, 2021

What’s the difference between psychedelic and psycho? You know?


Eventually, everything is a matter of habit. The things we do, or we do not do, are often because of habit. Writing almost daily used to be a habit. There were rarely days when I hadn’t written anything at all. Almost none. I’d often write in my notebook or on social media. There would be office work…articles to be written or anthems or some promotional material, or some new idea needed to be jotted down. I have had very very few days in my life when I hadn’t written at all. Characters and situations would appear in my imagination at random and I’d jot everything down, lest I forget.

I don't know if it’s a thing of age, where I feel less attachment to imaginary worlds and even lesser to the real one. No compulsive characters, flash of an idea, sudden need to find pen and paper. My handwriting has also become shaky…because I haven’t written in almost two years. 


My writing table is gathering dust, my mind is a cobweb, long conversations with friends on WhatsApp is almost gone. Not writing is a habit too. For days and nights when I feel like writing, I realise I can still sleep comfortably if I haven't written anything at all. Earlier, I couldn’t fall asleep if a thought is stuck in my head. 


Mental and physical exhaustion go hand in hand. Bringing up twins is no mean feat. It’s difficult to exactly explain how my day just disappears…but I can say this with certainty, there is no waking moment that is not spent in rapt attention…toddlers are very very active and they make a play out of finding danger in the most harmless of things. 


I wake up at random moments in night and want to sit down at a table and write. Just write. Simple paper, pen, ink. A cup of coffee near my right hand, on my favourite coaster. And every time I feel like writing, I want to write a letter. 


And every time I feel like going back to writing again, I want to start with you. I want to write a letter to you. It’s good to be continually in love with a muse, hai na?


I get heady with the imaginary scent of paper, the muffled sound as my hand moves across, writing…the soft thud as I drop it in a letterbox…


I wonder if you are awake at this random time in the morning. It’s strange how small, routine things of people we have fallen in love with awaken such curiosity in us. 


Life is strange, beautifully strange. Today as I walked in to fill my water bottle in the kitchen, I saw a bottle of port wine on the dining table. I do what I never ever ever do…I took off the cork and took a small swig of it. Delicious, deliriously delicious. Imported port wine. It wasn’t meant for me. And yet, here I am, drinking wine at 5 in the morning when I’m hungry and slightly sleepy. But mostly Crazy. Writing always makes me crazy, like at this moment I want to take the car and drive very very very fast on the highway. I don't remember the last time I even touched 100kmph. 


Writing makes me crazy. It makes me believe in stupid things. And it feeds the desire to write stories of people crazy as me. Making them fall in love with completely sane people who have no idea who wakes up at 4 in the night and writes. Instead of useless scrolls on social media. 


My memory is a mish-mash of things no one should remember. Because there are so few people in my life, I remember such random things about them. Once, as I entered a friend’s care, I said it smells like smoke and sunshine…which was not poetic, but literal…but it sounded beautiful. Like that warm Delhi morning we had met and had chai and long walk…when it was spring and flowers bloomed in Lodhi gardens. We don’t have a selfie of us…which is pretty stupid of me. But well, I have never been too much of a reasonable person anyways. 


I miss writing and I miss my friends and I miss Dilli and New York…and times when you could just ask for a hug without sounding like a terrorist. 


I miss you. You know. I should have met you, some years ago…in a city, like strangers…had a cup of coffee…without sugar. I should have said goodbye to you. Knowing we might not meet again for the next ten years. Hugged you thrice…or four times…and not enough times. Yet. It feels nice to know, I haven’t forgotten to write. You know what would have been nicer? A letter from you. 

Sigh. 

27 September, 2021

मिलीसेकंड्ज़ वाली ख़ुशी, दुःख, सफ़र

शायद मैंने कभी इस शहर को मुहब्बत की नज़र से नहीं देखा। आज पता नहीं क्यूँ बहुत प्यार आया बैंगलोर पर। दोपहर में K को ऑफ़िस  छोड़ने निकली थी। वहाँ से Starbucks जा के एक कॉफ़ी पीने का मन था। लेकिन रोड पर कट मिस हो गया तो आगे बढ़ गयी। फिर लगा कि आगे ही गए है तो HCF खा लें। जब से इंदिरानगर छूटा है, कुछ चीज़ें एकदम छूट गयी हैं। जैसे कि कॉर्नर हाउस जा के हॉट चोक्लेट फ़ज खाना। हमको भगवान जाने काहे उसमें मिंट फ़्लेवर भी डाल के खाना अच्छा लगता है। अभी तक हमको लगता था कि ये नौर्मल कॉम्बिनेशन है। लेकिन आज नए आउट्लेट में आयी तो पाया कि यहाँ पर वो कॉम्बिनेशन मिलता नहीं है। हालाँकि वहाँ जो साहब थे, वो कह रहे थे कि आपको जो फ़्लेवर चाहिए हम डाल देंगे। बात ये नहीं थी। उनको क्या समझाते कि ऐसा कुछ होता है तो हमारे ख़्यालों में कोई एक गाँठ उलझी हुयी हमें आफ़त देने लगती है। हम सोचते है कि आख़िर कब ये कॉम्बिनेशन ट्राई किए थे। आख़िर कब हुआ था कि हमने पहली बार सोचा था कि HCF नहीं खाएँगे, मिंट भी चाहिए। पिछले ऑफ़िस में थे तो HCF ख़ूब खाते थे। मेरे लिए इस कॉम्बिनेशन का मतलब सेलीब्रेशन होता है। कोई अच्छा प्रोजेक्ट मिला, कोई बहुत अच्छी कॉपी लिखी। डिज़ाइनर ने कोई कमाल का डिज़ाइन बनाया। हम ख़ुश हो जाते थे और अपनी बाइक से कॉर्नर हाउस जाते थे और सबके लिए HCF लेकर आते थे। या कभी कभी तो सब लोग मिल कर जाते थे और खा के आधे घंटे में जाते थे। ख़ुशी, यारी, दोस्ती। काम। मज़ा। छोटा रीचार्ज यू नो। 


यहाँ कल्याण नगर में जो कॉर्नर हाउस है, उसके पास वाली सड़क पर गाड़ी पार्क की तो देखा कि सामने बोगनविलिया है सफ़ेद और गुलाबी रंग में। सेमल भी खिले हैं। और एक हल्के बैगनी रंग का फूल का पेड़ भी था। हम उसको देख कर सोचते रहे कि इस शहर से कभी प्यार नहीं हुआ। यहाँ की तन्हाई से नहीं, यहाँ के लोगों से नहीं। शायद एक समय हुआ होगा, लेकिन वो इतनी पुरानी बात है कि हमको याद नहीं। कभी कभी पुरानी पोस्ट्स पढ़ती हूँ तो अचरज होता है कि हम कितने ग़ैर शिकायती थे इस शहर को लेकर। बहुत साल पहले गुनाहों का देवता पढ़ने की कोशिश की थी, एकदम ही बकवास लगी  थी, कि जाने कैसे किसी को पसंद आती हैमेरे टाइप की तो एकदम नहीं है। इधर कुछ दिन पहले क्लबहाउस पर इसके बारे में बात हो रही थी, कि कुछ लोग रोए भी थे जब क्लब में इसे पढ़ा गया था। मैंने फिर से इसे पढ़ने को किंडल पर डाउनलोड किया। अभी कुछ दस पन्ने पढ़े होंगे। ध्यान इसलिए गया कि इसमें बोगनविलिया को बेगमबेलिया लिखा पढ़ा है। क़सम से, इस फूल को क्या कहते हैं, हमको ठीक ठीक मालूम नहीं है। कुछ साल बोगनविला कहे होंगे, कुछ साल बोगनविलिया कहे हैं। इसका कोई शॉर्ट नाम होना चाहिए। कुछ भी। छोटा, प्यारा सा। 


ऑफ़िस में एक छोटी सी बालकनी है। छोटी माने, एकदम छोटी। दो फुट बाई चार फुट की होगी। वहाँ बमुश्किल तीन लोग खड़े होकर सिगरेट पी सकते हैं। बहुत तेज़ हवा चलती है और  नीचे देखो तो पेड़ दिखायी देते हैं, सामने देखो तो बादल। इन दिनों सेमल खिले हुए हैं। अचरज की बात ये है कि बैंगलोर में कई साल रहने के बावजूद मैंने इन फूलों का नाम जानने की कोशिश नहीं की। 2019 में जब दिल्ली गए थे  तब पता चला कि इन फूलों का नाम सेमल है। बैंगलोर में लेकिन सेमल नारंगी रंग के होते हैं। दिल्ली की तरह टहकते हुए लाल नहीं कि टेसू का कन्फ़्यूज़न हो। 


वीकेंड पर एक पुराने कलीग से मुलाक़ात हो गयी। घर से निकलते हुए पूछा था कि हम स्टारबक्स रहे हैं, तुम उधर हो क्या। तो उसने कहा कि मैं उधर ही जा रहा हूँ। पास में हूँ। पहुँची तो देखी कि पार्किंग में बमुश्किल एक कार की जगह है। उसने के गाड़ी पार्क करा दी। फिर कहा कि वो जब आया तो उसने अपनी गाड़ी जितना हो सकता था, उतनी लेफ़्ट कर के पार्क की ताकि मेरी गाड़ी फ़िट हो जाए। मुझे अच्छा लगा कि लोग अब भी छोटी-छोटी चीज़ों का ख़याल रखते हैं। स्टारबक्स में एक और कलीग को देखा। वो अपनी मम्मी के साथ आया हुआ था। अब यहाँ अच्छा लगने लगा है। चलते फिरते लोग मिल जाते हैं। शहर थोड़ा कम अकेला लगता है। 


मैं जब 28 की हुयी थी तो लिखने के बारे में थोड़ा सीरीयस्ली सोचा था। कि लिखा है तो एक किताब छपवा सकते हैं क्या। इस बात को दस साल बीत गए। इस साल, एक दिन यूँ ही शूटिंग करने चली गयी। एयर राइफ़ल शूटिंग मुझे बहुत अच्छी लगती है। गोली का निशाने पर लगने के पहले का जो फ़्रैक्शन औफ़ सेकंड समय होता है जब कि मुझे मालूम होता है कि निशाना सही लग रहा है या ग़लत। मुझे ये थ्रिल देता है। ज़िंदगी में ये दूसरी बार है, मैंने अब तक सिर्फ़ लिखा है। पर्सनली भी और प्रोफेशनली भी। मुझे इसके सिवा कुछ और नहीं आता। संगीत की मैंने सात साल ट्रेनिंग ली है। हिंदुस्तानी संगीत में विशारद हूँ, लेकिन उसमें कभी मज़ा नहीं आया। हम बिना मज़े के कोई काम कभी करते नहीं। दूसरी चीज़ जो बहुत पसंद आयी थी, वो थी रॉयल एनफ़ील्ड। लेकिन उस पैशन को कभी फ़ॉलो इसलिए नहीं किया कि देश में बाइक राइडिंग ख़तरनाक है। आए दिन किसी ना किसी के ऐक्सिडेंट में मरने की खबर आती रहती और हम बाइक नहीं चलाते। या चलाते भी तो शौक़िया चलाते। बेटियों के होने के बाद तो और भी थोड़े केयरफुल हो गए हैं। शूटिंग लेकिन पहली बार भी अच्छी लगी थी और ज़िंदगी में जितने भी छर्रे मारे, सब में बहुत मज़ा आया। अब लग रहा है कि इसको थोड़ा ध्यान से करें। ट्रेनिंग भी, शूटिंग भी, शॉपिंग भी। एक अच्छी राइफ़ल ढाई लाख की आती है और थोड़ा भी क़ायदे का शूटर बनने में दो साल लगते हैं। आजकल क़लम की जगह बंदूक़ रहती है हाथ में। अच्छा लगता है। शूटिंग के बाद स्कोर चेक करते हैं, वो भी अच्छा लगता है। 


मुझे लगता है कि किसी भी चीज़ में अच्छा करने के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत होती है। पहली तो ये कि आप में थोड़ी बहुत नैसर्गिक प्रतिभा हो। दूसरी, आपको उस चीज़ में कितना मज़ा आता है। और तीसरा, और शायद सबसे ज़रूरीआप कितनी मेहनत कर सकते हैं उस पर। लिखने में ठीक यही रहा, बचपन से हमेशा लिखने में ख़ूब नम्बर भी आते और प्राइज़ वग़ैरह भी मिलते रहे। लिखने में ख़ूब मज़ा आता और इसके सिवा मैंने सालों साल ख़ूब-ख़ूब लिखा है। ख़ुशी में, ग़म में, अवसाद मेंप्यार होने पर, दिल टूटने पर, नए ऑफ़िस, नए शहर, नया शख़्समेरे लिए सब कुछ लिखने का सबब बनता रहा है। मैं आदतन लिखती हूँ। कभी भी, किसी भी समय, किसी भी टॉपिक पर लिख लेने में मुश्किल नहीं होती। जैसे हैरी पॉटर में होता था, कि सही wand यानी कि जादुई छड़ी हाथ में आते ही एक हल्की गर्माहट महसूस होती है और चिंगरियाँ निकलती हैंवैसे ही जब मैंने लैमी से लिखना शुरू किया तो लगा कि मेरे पास मेरी जादुई छड़ी गयी है। 


अब इसी तरह आदतन शूट करने का मन है। इसे muscle memory कहते हैं। अभिनव बिंद्रा ने अंधेरे कमरे में शूटिंग का अभ्यास किया था। वह पूरी तरह अंधेरे कमरे में भी शूट कर सकता था। उसके बारे में पढ़ना बहुत प्रेरक है। हम छोटे थे तो कहानियों में जब भी तीरंदाज़ी की बात आती, मुझे बहुत मज़ा आता। इसलिए शब्दभेदी बाण का क़िस्सा मुझे बहुत आकर्षित करता। या कि अर्जुन के दोनों क़िस्से, जब कि द्रोणाचार्य शिक्षा देते वक्त सब से पूछ रहे हैं कि तुम्हें क्या दिख रहा और अर्जुन कहता है उसे सिर्फ़ चिड़िया की आँख दिख रही है, और कुछ नहीं। मछली की आँख भेदने का क़िस्सा भी उतना  ही अच्छा लगता था। हालाँकि इतने मुश्किल कॉम्पटिशन के बाद भी जब  द्रौपदी को लेकर आया तो कुंती ने सबमें बँटवा दिया। बिना जाने। ये  बात मुझे ख़ूब अखरी। ख़ैर। हम कौन सा द्रौपदी जीत कर लाए थे। 

 

इन दिनों एयर राइफ़ल के बारे में पढ़ते रहते हैं। कि अपने हिसाब की राइफ़ल बहुत ज़रूरी है। एक बार वो फ़ाइनल हो जाए। जर्मन बहुत अच्छी guns बनाते हैं। और क्या है कि हम क़लम भी जर्मन इस्तेमाल करते हैं, तो शायद राइफ़ल भी वही सही रहे। इतनी चीज़ें हैं किसी भी खेल में। हमें बचपन सेपढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो  होगे ख़राबसिखाने की जगह बताया जाता कि खेल किस तरह ज़िंदगी  को बेहतर करता है तो  कितना अच्छा रहता। हमें क़िस्सों में गांधी के साथ ध्यानचंद और  कपिल देव की कहानी भी सुनायी जाती तो शायद हम इन चीजों पर  शुरू से ध्यान दे सकते। वो तो इंटर्नेट का भला हो और कुछ उन लोगों का जो खेल पर बहुत मुहब्बत के साथ लिखते हैं। कि हमें भी लगता है, कुछ असम्भव सपने सबको देखने चाहिए। ये हमें जीने के लिए ईंधन देता है। 


बाद की ज़िंदगी सीखे हुए सबक़ भूलने में लगती है। हम लगभग सब कुछ ही अपने हिसाब से फिर से डिफ़ाइन करते हैं। दोस्ती, मुहब्बत, पसंद की किताबें, पसंद के शहर। जो मैंने सोचा था कभी कि फ़िल्म डिरेक्ट करूँगीअब जाने क्या करूँगीकि सामने वो छोटा सा काग़ज़ का गोला दिखता हैकाला


याद किसी का स्याह दिल भी आता है। कुछ शामें। एक शहर का कोहरा। कुछ ब्लैक ऐंड व्हाइट तस्वीरें। ऐब्सिन्थ पीने के पहले शुगर क्यूब से निकलती लपटें। वोदका में पिघलती सिंगल आइस क्यूब। महबूब शहर में, बाल खोले, देर रात किसी पुल पर गोल गोल घूमते हुए सोचना कि दिल में कितनी मुहब्बत है। कि इस सारी मुहब्बत के हिस्से एक शहर लिख दें तो क्या बुरा हो। 


बहुत दिन से कुछ लिखा ही नहीं। घर पर लिखने का मूड नहीं बनता। आज स्टारबक्स में बैठ कर दो घंटे में यही लेखा जोखा लिखा है। फिर जाने कब कुछ लिखने का मूड बने। इन दिनों ज़्यादा नहीं, छोटे-छोटे अरमान हैं। थोड़ा सा सुबह शाम योगा कर सकें। उपन्यास जो पूरा हो गया है, उसको एडिट करने लायक़ कॉन्सेंट्रेशन जाए। बस। और क्या। 


लिखते लिखते देखा है दोस्त का मेसेज आया है। देश आया हुआ था, अब वापस विदेश चला गया। हम सोचते हैं कि हमें क्या  क्या चीज़ से ख़ुशी मिलती है। उसके अपने टाइम ज़ोन में होने  पर भी। जब कि दूसरा शहर है तो क्या दिल्ली और क्या न्यू यॉर्क, हम कौन सा उससे मिल रहे हैं। वहाँ से कॉल आता है तो ज़रा सा लैग होता हैफ़्रैक्शन औफ़ सेकंड वाला लैग। ये इतना छोटा वक्फ़ा होता है जिसमें  हम सोच लेते हैं कि हम जो सोच रहे हैं, वो नहीं बोलेंगेवो बोलेंगे जो हमें बोलना चाहिए। किसी बात पर उसने कहा, ये महीना ही ऐसा हैअजीब उदास करता हैमैंने  कहा, यारमैंने खुद से वादा किया था एक सालइस महीने को अब कभीसितमबर नहीं कहूँगी। तो क़ायम हैं उस पर। 


कहानियाँ लिखने का मन करता है ख़ूब। अपनी पसंद के कुछ लोगों से मिलने का भी। आख़िरी कहानी मन मलंग लिखी थी। कोई किरदार होज़िंदामीठी आँखों वालाकच्ची मुस्कान और मिट्टी का दिल लिए हुए आए मेरे शहरऔर कहे आख़िर को, ऐसे दिल को तो टूट ही जाना चाहिए ना। 


क्लोज़ करते हुए याद रहा है फ़ैज़ का शेर, ऐसे ही, बेसलीके, बेतरतीबी से, ‘अपना ग़म था गवाही तेरे हुस्न की, देख क़ायम रहे इस गवाही पे हम

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