05 September, 2019

लेकिन वादा तो वादा है न। कि इस महीने को अब 'सितम'बर कभी न कहूँगी।

चाहना का रंग इतना फीका है कि काग़ज़ पर लिखे शब्द दिखते तक नहीं। इतना निश्छल, पारदर्शी, सफ़ेद।
तुमसे एक बार और मिल लेने की चाहना।
गहरी सीली उदासी के रंग से रची एक कहानी जी लेना।

भूल जाना बेहतर होता है। इन दिनों मारी कोंडो मेथड से कई लोग अपने घर और जीवन से कचरा निकाल कर फेंक रहे हैं। वो कहती है कि सिर्फ़ उसे अपने पास रखो जो कि तुम्हारे भीतर किसी ख़ुशी को स्पार्क करता है। लेकिन थ्योरी कचरा निकाल बाहर करने की है। अगर मान लो मेरे पास बहुत सी यादें हैं और जिस हर याद से मुझे ख़ुशी मिलती है… तो मैं क्या करूँ?

कल बहुत महीनों बाद तुम्हारी आवाज़ सुनी। अतीत से आ रही थी। कुछेक सेकंड का आवाज़ का टुकड़ा। जिसमें वो चीज़ें सुनीं जो पहले नहीं सुनी थीं। पटरियों पर आती रेल की आवाज़। एक भागता दौड़ता शहर। एक छूटा हुआ शहर, साँस लेता हुआ। भूल जाना कितना अच्छा है। नयी यादों के लिए जगह बनती है। लेकिन मैं क्या करूँ कि पिछले कई सालों में ऐसा कुछ नहीं हुआ जो कि तुम्हारी यादों को रिप्लेस कर सके। मेरी ज़िंदगी में तुम्हारे जैसे हसीन हादसे बहुत कम होते हैं दोस्त। कितना समय लगता है भूल जाने में? बोर्हेस की वो कहानी याद है, जिसमें लिखा होता है कि अगर दुनिया के सारे लोग चाँद को देखना और याद करना बंद कर दें तो एक इक्वेज़न है कि कितने दिनों में चाँद आसमान से ग़ायब हो जाएगा। ये इक्वेज़न हमें क्यूँ नहीं बचपन में पढ़ाया जाता है। उन बकवास ऐल्जेब्रा के सवालों से किसी को क्या मिला है कभी। मैं ठीक ठीक उसमें वैल्यूज़ डालती न कि कितने दिन थी तुम्हारे साथ, कितना पसंद आया था मुझे तुम्हारा शहर। कितने वक़्त में हम भूलते हैं कोई चौराहा। ट्रैफ़िक लाइट का लाल से हरा होना। किसी का जाते हुए मुड़ कर देखना। संगीत की कोई धुन। कोई थरथराता हुआ शहर। कमरे को बंद करते हुए सोचना कि जाने इस शहर में हम कहाँ कहाँ छूटे रह गए हैं। तिलिस्म के वैल्यूज़ क्या होते हैं, मैथमैटिकल। तुम्हीं बता दो, तुम्हें तो सब पता है। 

पता नहीं किस ईश्वर में इतनी आस्था बची हुयी है कि सिर्फ़ इतना माँग सकूँ कि तुम मुझे ज़रा सा ही सही, याद रखो। ऐसी मन्नतों वाले मंदिर तो यूँ हर चौक चौराहे में होते हैं लेकिन ऐसी मन्नतें पूरी कर देने वाले मंदिर बहुत कोने, गली में छुपे हुए होते हैं। कोई इन देवताओं का पता नहीं बताता।

दुनिया कोई इग्ज़ैम नहीं है कि ठीक ठीक से पढ़ा तो अच्छे नम्बर आएँगे। कितने सवाल आउट औफ़ सिलेबस हैं कोई नहीं जानता। हम कितना भी अच्छे से पढ़ लें, कुछ न कुछ छूट ही जाएगा। कभी यूँ भी होगा कि अंदाज़े से लिखा हुआ कुछ एकदम सही होगा। कि अचानक से मिल जाएँगे ऐसे लोग कि उम्र भर भूले ना जाएँ। दुःख में सीले रहें सारे काग़ज़ और लिखना बंद हो रखा हो। हम कह नहीं सकते उनसे कि मिलने आओ हमसे हमारे शहर। हम बस ईश्वर को कह सकते हैं। देखो। हमने कोशिश की है एक अच्छी ज़िंदगी जीने की…किसी का दिल न दुखाने की और घड़ी घड़ी मंगतों की तरह कुछ माँग माँग के तुम्हारा दिमाग़ न खाने की…. तो हमारे जैसे लोगों की कोई दुआ थोड़ी प्रायऑरिटी पर नहीं सुन सकते तुम। कैसे भगवान हो! तुम्हारे लिए कितना आसान होता है सब कुछ। इस शहर में कितने लोग रहते हैं। लेकिन वो कभी सामने दिखता क्यूँ नहीं। कहाँ है इत्तिफ़ाकों वाला रेजिस्टर। लिखो न उसमें मेरे नाम एक शाम। एक शख़्स। इक तवील मुलाक़ात। 

तुम्हें भूलने के सारे फ़ॉर्म्युला ख़ुद से निकालने पड़ेंगे। किस काम आएगा इतना पढ़ना लिखना। इतना घूमना फिरना। सब वही पुरानी सलाह देते हैं। काम करो। व्यस्त रहोगी तो कम याद आएगी। उन्हें नहीं मालूम। कि एक बेतरह व्यस्त दिन के आख़िर में एक छोटा सा लम्हा आता है जब तुम्हारा न होना इतना सांद्र होकर चुभता है कि साँस रुक जाती है, धड़कन रुक जाती है, पूरी दुनिया का घूमना रुक जाता है। इससे बेहतर होता है दिन की हल्की गर्म हवाओं में तुम्हारी ग़ैरमौजूदगी थोड़ी थोड़ी घुलती रहे…थोड़ी थोड़ी चुभती रहे… इस तरह दिन के ख़त्म होने के आख़िरी पहर इस तरह दुखता याद का लम्हा कि जो जान लेता नहीं लेकिन जानलेवा लगता है। तुम्हें भूलने के कौन से फूल प्रूफ़ तरीक़े हैं। कहाँ पाऊँगी मैं वो किताब। कौन होंगे वो दोस्त जिनके दिल टूटने का क़िस्सा एकदम मेरी तरह होगा। लेकिन मेरी तरह तुम्हें प्यार करने वाला भी कोई कहाँ मिलता है इस दुनिया में।  

देखो न। शहर बीत गया लेकिन हम बचे रह गए हैं ठीक उसी जगह, ठीक वैसे जैसे कि हमने कभी सोचा नहीं था कि कोई रुक सकता है। किसी संगीत की धुन के सिवा और क्या है जो तिरता हुआ आता है शहर की सख़्तजान सर्दियों में। तुम भूलने का कोई नया सिलिसिला शुरू कर दो… मैं याद का कोई पुराना सिरा तलाश लूँगी।

एक डेढ़ साल की उम्र में कुछ चीज़ें महसूस की थीं। वे इतने साल बाद भी जस की तस याद हैं। तुम ऐसे ही हो। याद रहोगे ताउम्र। बस इतना होगा कि एक समय बाद तुम्हें अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल करने की ख़्वाहिश दुखेगी नहीं। मैं तुम्हारे नहीं होने के साथ जीना सीख लूँगी। एक दिन होगा ऐसा। मुझे बस, वक़्त थोड़ा ज़्यादा लगता है। वरना आदत तो हर चीज़ की ऐसी पड़ती जाती है कि चुप्पी अच्छी लगने लगी है इस शहर में रहते हुए। किसी दिन। नहीं दुखेगा तुम्हारा होना। होगा ऐसा।

There is no forever.
लेकिन वादा तो वादा है न। कि इस महीने को अब 'सितम'बर कभी न कहूँगी। 
I love you.

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