24 January, 2018

इक्कीस सितम्बर, दो हज़ार पाँच।

तुम्हें वो दुपहरें कभी याद नहीं रहेंगी। सुनहली धूप की वो दुपहरें। नीले परदे खींच कर थोड़ी ठंढ बुलाया करते थे। आँखों पर रखते थे ठंढी हथेलियाँ। गुलदान में उन दिनों रजनीगंधा की कलियाँ और गुलाब हुआ करते थे। उन दिनों तीखी नहीं लगती थी रजनीगंधा की गंध। उन दिनों शायद हम कुछ ज़्यादा ही तीखे हुआ करते थे। मुझे तुम्हारे कुर्ते की गंध आज भी याद है। कपास की धुली गंध।पानी और घरेलूपन की गंध। फीकी।और वो टेक्स्चर मेरी उँगलियों को कभी नहीं भूलता। तुम्हारे कुर्ते का टेक्स्चर। हल्का रफ़। हैंडलूम के कपड़े में पड़ी गाँठें कहीं कहीं।

वो एक दोपहर थी। शायद ऐसी कोई पहली ठहरी हुयी दोपहर जो मैंने किसी के साथ पूरी बितायी थी। फ़र्श पर चटाई और उसके ऊपर पतला सा गद्दा। चादर धुली हुयी बिछाई थी। पुरानी, आरामदेह चादर। उन दिनों मुझे बिना तकिए के सोने की आदत थी। हमने काफ़ी देर से कुछ नहीं कहा था। हम बस, सोए हुए थे। एक दूसरे से क़रीब एक फ़ुट की दूरी पर कि एक दूसरे का चेहरा अच्छे से देख सकें। दिन के साथ कमरे में रोशनी बदलती जाती है, पहली बार महसूसा था। बदलती रौशनी में तुम्हारा चेहरा। तुम्हारी आँखें। वो भी याद हैं। यूँ ही वसंत के दिन थे। हमें प्यार हुए ज़्यादा दिन नहीं हुआ था। दीवाल पर अभी भी हमारे मिलने की तारीख़ लिखी हुयी थी। इक्कीस सितम्बर, दो हज़ार पाँच।

इसके पहले मेरे लिए प्रेम हमेशा लम्बी दूरी का रहा था। प्रेम का मतलब चिट्ठियाँ, ईमेल, काढ़े हुए रूमाल, डेरी मिल्क के रैपर और सूखे गुलाब हुआ करते थे। इस बार प्रेम एक हाथ बढ़ाने की दूरी पर था और मैं हाथ बढ़ाने के पहले ठहरी हुयी थी। तुम मेरी दायीं ओर थे। मैंने अपनी दायीं हथेली तुम्हारे बाएँ गाल पर रखी थी। तुम्हें छुआ था। यक़ीन दिलाया था ख़ुद को। कि तुम हो। इस पूरे वक़्त। छू सकने वाली दूरी पर। 

मैं तुम्हारी आँखों में देख रही थी। गहरी भूरी आँखें। वॉर्म। उस लम्हे ज़िंदगी में पहली बार महसूस हुआ। मैं तुम्हें बूढ़े होते देखना चाहती हूँ। ज़िंदगी के अलग अलग फ़ेज़ेज़ में तुम्हारे चेहरे के बदलावों को देखना चाहती हूँ। मैं देखना चाहती हूँ जब तुम्हारे बालों में चाँदी उतरे। सॉल्ट एंड पेपर हों। जब तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ हों लेकिन तुम्हारा चेहरा एक ख़ुश और उदार चेहरा हो कि तुमने एक अच्छी ज़िंदगी जी हो। मैं वाक़ई, सिर्फ़ तुम्हारे साथ एक पूरी उम्र बिताना चाहती थी। उस वक़्त सोच रही थी। अब से पाँच साल बाद हम जाने कहाँ होंगे। दस साल बाद जाने कहाँ। और उम्र ख़त्म होने को आए, तब जाने कहाँ। 

तुम जानते हो, ये मेरी ज़िंदगी में पहली और आख़िरी बार था जब मैंने प्रेम किया था और उसमें एक हमेशा की चाह की थी, मृत्यु की नहीं।

मुझे तुम्हें देखे एक दशक से ऊपर हो जाएगा ये सोचा कहाँ था उस वक़्त। पता नहीं तुम कितनी नफ़रत करते हो मुझसे। तुमने कहा, तुम ज़िंदगी भर नहीं मिलना चाहते मुझसे। ज़िंदगी भर। तुम जिस लड़की को जानते थे, मैं वो नहीं रही रे। अब मेरी ज़िंदगी...तुम्हारी ज़िंदगी भर नहीं रहेगी शायद।

बिना मिले चली जाऊँगी, तो तुम्हारी याद में वैसी ही रह जाऊँगी ना जैसी दस साल पहले थी? इक छोटे से पहाड़ी टीले के सबसे ऊँचे पत्थर पर तेज़ हवा में दुपट्टा उड़ाती पागल लड़की...जो तुमसे बहुत बहुत प्यार करती थी।

जो तुमसे बहुत बहुत प्यार करती है।

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