12 November, 2017

रंग मेरी हँसी पहचानते हैं



सपने के ऊपर सच होने की ज़िम्मेदारी नहीं होती। वो कुछ भी हो सकता है।

क़ायदे से पहला महबूब वही था। पहला प्यार कि जो ख़यालों में नहीं। हक़ीक़त में था। रोज़ का मिलना था जिससे। और कि जिसके रूम को पहली बार घर कहा था। जहाँ किचन में मेरे हिसाब से चीज़ें हुआ करती थीं। एक छोटा सा कमरा था। लेकिन बहुत ही सुंदर सी गृहस्थी थी। बहुत ही सुंदर। अपनी पसंद की चादरें। गुलदान। और दो रजनीगंधा और एक गुलाब का फूल। इतने में ही मेरा घर बस गया था। उससे दुबारा मिले ग्यारह साल होने को आए।
सपने में मैं दिल्ली में हूँ, इवेंट ऑर्गनाइज करने। अपने ऑफ़िस के लोगों के साथ। मेरा बॉस है। मुझसे रिपोर्ट ले रहा है कि सब ठीक से हुआ है या नहीं। यूनिवर्सिटी में शायद कोई बुक लौंच है, या ऐसा ही कुछ। उसने मुझे emceee स्क्रिप्ट का प्रिंट दिया है। कि एक बार इसे देख लो। हम जहाँ हैं वहाँ सीढ़ियाँ हैं। कुछ कुछ किसी छोटे से ओपन एयर थीयटर जैसीं।
मेरे हाथ में पन्ने हैं लेकिन मेरा ध्यान ज़रा भी शब्दों पर जा नहीं रहा है। हल्की बारिश हो रही है। अगस्त का महीना है। वहाँ सारे हास्टल्ज़ एक ही जैसे लग रहे हैं अब इतने साल बाद। मैं तलाशने की कोशिश कर रही हूँ कि मेरा वाला कमरा कौन सा था। मुझे बिल्डिंग्स दिख रही हैं और ये याद आ रहा है कि किसी बिल्डिंग के आख़िरी कोने वाला कमरा था। इमारतों का रंग गहरा सलेटी है और कई सालों की बारिश और बिना पुताई के वे सीली हुयी और काई लगी दिख रही हैं थोड़ी दूर से। उनपर काले चकत्ते हैं। सारी इमारतें ही सलेटी हैं। मैं पगडंडियों के बीच टहलती हुयी तलाश रही हूँ कि इनमें मेरा वो कमरा है कहाँ। 

तभी उसी पगडंडी पर वो दिखा है। इतने सालों बाद भी उसमें कोई अन्तर नहीं आया है। कोई सा भी नहीं। उसने कुर्ता और जींस पहना है। उसकी आँखों में वही उदासी है जो बिछड़ते हुए मैंने देखी थी। मैं पूछती हूँ उससे, 'वो हमारा वाला रूम कहाँ था, हमको दिखा दो ना, तब से खोज रहे हैं, नहीं मिल रहा है'। वो देखता है हमको। हाथ आगे बढ़ाता है और मेरी हथेली को अपनी दो हथेलियों के बीच रखता है। सहलाता है कि जैसे किसी ज़ख़्म पर फूँक मारती थी माँ। 

काँधे पर हाथ रखता है और हम ऐसे साथ चलते हैं जैसे बीच के साल कभी आए ही नहीं थे। दूर से दिखाता है कमरा। मैं कमरे की दीवारों का रंग याद करने की कोशिश करती हूँ। उनपर पेंसिल से लिखी वो आख़िरी तारीख़ भी। जब मुझे लगा था कि हम हमेशा इश्क़ में रहेंगे। वैसे लिखा हुआ झूठ नहीं था। कि मैं प्यार उससे अब भी करती हूँ। बहुत बहुत बहुत।
वो कहता है। ये कुछ नहीं है। चलो तुमको कुछ और दिखाता हूँ। हम साथ में वहाँ के फ़ोटो स्टूडीओ जाते हैं। यूनिवर्सिटी कैंपस के छोटे से मार्केट में कुछ छोटी सी दुकानें हैं। एकदम पुराने ज़माने की हीं। एक बड़ा सा फ़ोटोस्टैट है जिसमें से घिर्र घिर्र की आवाज़ आ रही है। कोई तो पैंफलेट की कॉपीज़ बना रहा है। स्टूडीओ में एक छोटी सी डेस्क है जो अंदर और बाहर को अलग करती है। वहीं पर डिवेलपिंग रूम भी है। कोई भी नहीं है वहाँ। हमारे बायीं ओर दीवार पर किसी स्लाइड शो प्रोजेक्टर से तस्वीरें प्रोजेक्ट की जा रही हैं। पुरानी सी दीवार है। हल्का सा अँधेरा है स्टूडीओ। उसने मुझे दीवार की ओर देखने को कहा। दीवार पर उस वक़्त एक मॉडल की तस्वीर थी। तस्वीर पर पड़ने वाली रौशनी दिख रही थी प्रोजेक्टर से आती हुयी। हम दोनों दीवार की ओर देख रहे थे, जहाँ तस्वीर बनती। स्लाइड बदली और वहाँ दीवार पर एक हँसती हुयी दुल्हन की तस्वीर थी, मेरी। मैंने गहरे लाल रंग की चूनर ले रखी थी माथे पर जिसके गोटे में सुनहले छोटे छोटे लटकन लगे हुए थे। मेरी आँखों में बहुत सी ख़ुशी थी। मेरा पूरा शृंगार दुल्हन का था। हाथों में भर भर चूड़ियाँ। आँखों में काजल, बड़ी सी लाल बिंदी, लाल ही लिप्स्टिक। दुल्हन के शृंगार में इतनी ख़ुश तो मैं कभी नहीं थी। बहुत ही भौंचक होकर मैंने पूछा उससे, 'ये कब की फ़ोटो है? ये मैंने कब खिंचवायी?'। मुझे कुछ भी याद नहीं था। कि तभी तस्वीर फिर बदली। इस बार मैं गहरे लाल सलवार सूट में थी और वही लाल दुपट्टा लिया हुआ था...मैं एक झूले पर झूलती हुयी थी...आधी पींग बीच...सारे बाल खुले नीचे की ओर झूलते हुए थे और मैं हँस रही थी इसमें। कैमरा के लिए वाली हँसी नहीं...ख़ुशी वाली हँसी। बहुत प्रेम में डूब कर लड़की जो हँसती है, अपने महबूब को देख कर...वो हँसी। वो निश्चिंतता कि हम कभी बिछड़ने वाले नहीं हैं। उसकी आँखें भर आयी थीं। उसने कुछ नहीं कहा लेकिन मुझे याद आ गया था। ये करवाचौथ की तस्वीर थी। मैंने यूँ ही में उसके लिए व्रत रख लिया था और शाम को उसके आने का इंतज़ार किया था अपना लाल रंग का सलवार कुर्ता पहन कर। चाँद को देख कर उसे देखा था तो उसने अठन्नी दी थी। फिर हम घूमने गए थे। वहीं पेड़ पर झूला लगा हुआ था कैंपस में ही कि जहाँ उसने कैमरा से वो फ़ोटो खींची थी झूले वाली। पहली वाली फ़ोटो में चिढ़ाया भी था, दुल्हन कहीं इतने ज़ोर से हँसती है, मुस्कुरा के फ़ोटो खिंचानी चाहिए थी ना। क़िस्मत का फेर भी ऐसा लगा कि शादी के दिन इतनी तकलीफ़ थी...इतना दुःख था कि हँसती हुयी तो दूर की बात है, मुस्कुराती हुयी फ़ोटो भी नहीं है। ये हँसती हुयी दुल्हन वाक़ई किसी बहुत पुरानी याद में ही हो सकती थी। उसने मेरा हाथ पकड़ा। मैं उसकी आँखें नहीं देख सकती थी उस अंधेरे में, लेकिन मुझे मालूम था वे भीगी होंगी। उसने बहुत धीमी आवाज़ में मुझसे कहा, या शायद ख़ुद से ही। 'मैं यहाँ कभी कभी मरने आता हूँ'।

हम अंधेरे के झुटपुटे में बाहर निकले। ये कैंपस था। कोई भागदौड़ वाला शहर नहीं कि यहाँ रोने को जगह ना मिले। जंगल से गुज़रती पगडंडी थी। पगडंडी के बीच पुलिया थी। हम पुलिया पे देर तक एक दूसरे को पकड़ के बैठे रहे। पसीजी हथेलियाँ लिए। दुखता रहा वो एक ख़ुशी का दिन। वो एक दुल्हन का लाल जोड़ा। वो हँसी। वो मुट्ठी में रखी अठन्नी। वो झूले की पींग। हवा में लहराते, खुले बालों की महक। इश्क़ का गहरा लाल रंग। और उसका ख़त्म हो जाना भी। हम उस समय में लौट जाना चाहते थे। उस प्यार में। उस कमरे में। 

मैं सपने से एक तीखे सर दर्द में उठी हूँ। वो हँसती आँखें मुझे नहीं भूलतीं। वो दुल्हन का जोड़ा। वो झूले की ऊँची पींग। और उसका होना। उसका होना पहले प्यार की तरह। उसका बसना अपने इर्द गिर्द। मेरे पास ऐसी कोई भी तस्वीर नहीं है जिसमें वैसी एक हँसी हो। वैसा इश्क़ हो। वैसा खेल खेल में जान दे देने की निडरता हो। 

कई सालों से उससे बात नहीं की है। मैं उसका नाम लेकर उसको बुलाना चाहती हूँ। ये नाम नहीं ले पाना। सीने में चुभता है। आँखों में। मन। प्राण में कहीं। और बहुत पुरानी कविता याद आती है।

करवाचौथ

याद है वो एक रात
जब चाँद को दुपट्टे से देखा था मैंने
और तुमने तोहफे में एक अठन्नी दी थी
मैंने दुपट्टे के छोर में बाँध लिया था उसे

कल यूँ ही कपड़े समेटते हुए मिला था दुपट्टा
गांठ खोली तो देखा
चाँद बेहोश पड़ा था मेरी अठन्नी की जगह...
जाने तुम कहाँ होगे
और कहाँ होगी मेरी अठन्नी...

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