18 February, 2016

डैलस डायरी: God is a postman.

परसों डैलस आई हूँ. ये डैलस में मेरा तीसरा ट्रिप है. डैलस न्यूयॉर्क की तरह नहीं है कि जिसमें रोज़ रोज़ कुछ नया होता रहे ऐसा कहते हैं लोग. कुछ को आश्चर्य भी होता है कि मैं बोर कैसे नहीं होती. मैं करती क्या हूँ दिन दिन भर. ये रोजनामचा उनके लिए लिख रही हूँ, और खुद के लिए भी. इसमें बहुत कुछ सच होगा और उससे ज्यादा झूठ. ये दिनों का सिलसिलेवार ब्यौरा नहीं है ये मेरे मन में खुलती एक खिड़की है...कि मैं अपने जिस घर में तकरीबन पिछले आठ सालों से रह रही हूँ उसको जाता हुआ एक स्ट्रीट लैम्प है...मैं कई बार उसके नीचे खड़ी होकर उस स्ट्रीट लैम्प को ऐसे देखती हूँ जैसे पहली बार देख रही हूँ. एक ही रास्ते पर कई बार गुज़रते हुए भी रास्ता वही नहीं होता. हम वो देखते हैं जैसी हमारी मनः स्थिति रहती है. कि मुझे चीज़ों को देख नहीं सकती...मैं अक्सर उनसे गुज़रती रहती हूँ. 

बैंगलोर से डैलास लगभग चौबीस घंटे का सफ़र हो जाता है. जेट लैग के कारण पहला दिन तो पूरा ही सोते हुए बीतता है. हम डैलस के टाइम के हिसाब से कोई २ बजे दोपहर को होटल में आये. खाना मंगवाया. वेज फ्राइड राइस में अंडा डाल दिए थे लोग. हर जगह वेज का अलग अलग डेफिनेशन होता है. थक गए थे. खाना नहीं खाए. सो गए. दोपहर के 3 बजे के सोये हुए पूरी शाम सोते रहे और अगली भोर 4 बजे भूख से नींद खुली. दो वक़्त का खाना मिस हो गया था. कुछ बिस्किट वगैरह खा के घर वालों के पास रोना रो रहे थे कि इस होटल के पास खाने वाने को कुछ नहीं है. भूख से मर रहे हैं वगैरह. उसपर पानी भी खरीद के नहीं लाये थे और कल यहाँ इन लोगों ने हॉट वाटर सिस्टम की सफाई वगैरह की थी...तो नल से काला पानी आ रहा था. तो प्यासे भी मर रहे थे.  
फिर कमरे की खिड़की से पर्दा हटा के झांके तो देखते है कि भगवान् ने पूरा पूरा पेंट का डिब्बा ही उलट दिया है आसमान पर. बाहर मौसम में ठंढक होगी लेकिन हम दीवानों की तरह बाहर भागे. मोबाइल फोन और कमरे की चाभी के साथ. उफ़. क्या ही सुबह ही. गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग की. ठंढ थोड़ी से ज्यादा. मैं बाँहें फैलाए नाच रही थी गोल गोल गोल. कितना सुन्दर...ओह कितना सुन्दर...पूरा पूरा आसमान... ठंढी हवा अच्छी लग रही थी. ताजगी भरी. ओसभीगी. 

साढ़े छः बजे नाश्ता और पानी दोनों मिला. खाने का असल स्वाद भूख से आता है. थोड़े से फल. पैनकेक. एक स्लाइस ब्रेड और दो कप अच्छी कॉफ़ी. बगल वाली टेबल पर हिन्दुस्तानी लड़के हिंदी में बतिया रहे थे. 'गर्म कपड़े पहन लेना आज, मेरी कल लंका लग गयी थी'. मैं बैंगलोर में हिंदी के लिए तरसती रहती हूँ और हिंदी मुझे मिलती है यहाँ डैलस में आ के. मन किया उनसे बात करने का. मगर फिर लगा पता नहीं क्या सोचेंगे. तो रहने दिया. 

कुछ दोस्तों को फोन किया. पर मन किसी में लग नहीं रहा था. गुलाबी सुबह का जादू मन पर चढ़ रहा था. नोटबुक में कुछ कहानियां लिखी हुयी थीं. खुले आसमान के नीचे रेत पर बाल खोये सोयी हुयी एक लड़की. किसी के साथ सिर्फ तारे देखना चाहती थी. पूरी रात. बिना एक शब्द कुछ भी कहे हुए. उससे पूछा. ऐसी भी होती है क्या मुहब्बत? रूह का होना महसूस कैसे होता है. कभी हुआ है कि तुम्हारी आँखों का देखा हुआ कुछ किसी के शब्दों को छू जाए. क्लॉउडे मोने और कर्ट कोबेन और कभी कभी संगीत का कोई टुकड़ा ऐसा ही होता है. रूह की भाषा में बोलता हुआ. कुछ तो है बाबू. कौन कहता है? सिगरेट. धुआं भरता जाता है मेरे कमरे में कहीं. धूप जैसा. मैं सुनना चाहती हूँ. कहना चाहती हूँ. मैं होना चाहती हूँ एक मुकम्मल लम्हा. 

दोपहर को वालमार्ट जा के बहुत सा खाने और पीने का सामान लायी हूँ. कटे हुए आम की फांकें. खरबूजा. चेरी. स्ट्रॉबेरी. ब्लूबेरी. पीच(आडू). कुछ रेडी टू ईट जैसा भी कुछ. सलाद. चिप्स. बहुत सा कुछ. इस होटल में शटल सर्विस सिर्फ ग्यारह बजे तक है लेकिन जो मुझे ड्राप करने गया था, उसने कहा वो मुझे पिक भी कर लेगा. मैंने जब कॉल किया तो होटल में जिसने फोन उठाया वो बोली कि अभी पिक नहीं कर सकते, लेकिन पीछे से उसकी आवाज़ थी...उसे हाँ बोल दो...मुझे पिक करने जो लड़की आई उसका नाम शायला था. मैं उससे बातें करती आई पूरे रास्ते. मुझे अच्छा लगता है ऐसे गप्पें मारना. कमरे में आई तो धूप इतरा रही थी. कमरे पर कब्जा जमा के. मैंने अपने लिए माइक्रोवेव में पास्ता गर्म किया. मैं धूप के साथ कुछ भी खा सकती हूँ. फीका, बेस्वाद ब्रोकली वाला पास्ता भी.

डैलस में जहाँ रहती हूँ उसे रिचर्डसन कहते हैं. अमेरिका में डाउनटाउन का कांसेप्ट है. जैसे कि शहर है डैलस. उसके इर्द गिर्द बहुत सारे छोटे छोटे रिहाइशी इलाके बने हुए हैं जहाँ पर लोग रहते हैं जैसे रिचार्डसन, प्लानो. ऑफिस या बिजनेस के लिए लोग डाउनटाउन जाते हैं और फिर लौट के घर कि जो शहर के बाहर बसा होता है. मैं पिछले दो बार से जब भी आई थी हयात रीजेंसी में ठहरी थी जो कि एक होटल है. इस बार मैं एक स्टूडियो सेट-अप में ठहरी हूँ. यहाँ पर एक कमरा. एक छोटा सा लिविंग एरिया जिसमें टीवी, स्टडी टेबल और एक सोफा है. इसके अलावा एक छोटा सा किचेन है. 

होटल से पोस्ट ऑफिस सर्च किया तो देखा कि सबसे पास का पोस्ट ऑफिस लगभग ढाई किलोमीटर दूर था. यहाँ पर दूरी माइल में नापी जाती है. तो लगभग १.५ माइल. आना जाना मिला कर लगभग ५ किलोमीटर. रिसेप्शन पर बंदी थोड़ा चकित हुयी कि मैं इतनी दूर पैदल आना जाना चाहती हूँ. ये एरिया मेरे होटल से पीछे की तरफ से रास्ते में था. रिचार्डसन में भी इस इलाके में मैं कभी नहीं गयी थी. इस बार ख़ास मुश्किल ये थी कि आईफोन नहीं है तो विंडोज फोन का इस्तेमाल कर रही हूँ और मुझे गूगल मैप्स की आदत है. इस फोन में मैप्स हर बार स्क्रीन लॉक होते ही बंद हो जाता था और मुझे फिर से सर्च करना पड़ता था. 

यहाँ से रास्ता ढलवां था. मेरा अब तक डैलस का अनुमान था कि ये एकदम फ़्लैट सतह पर बना हुआ है और यहाँ बिलकुल ही चढ़ाई या उतार नहीं हैं. मगर यहाँ सामने पहाड़ी इलाका जैसा महसूस हो रहा था. दूर दूर तक पसरी हुयी ढलवां वादी...छोटे छोटे पहाड़ीनुमा टीले. सड़क पर तरतीब से कतार में बने हुए छोटे छोटे घर. घरों के सामने पुराने पेड़. कमोबेश हर पेड़ पर झूले. झूलों की संख्या से अंदाज़ा लग जाता था कि घर में कितने बच्चे हैं और किस ऊंचाई के हैं. हर घर के सामने बैठने का छोटा सा हिस्सा कि जिसमें कुर्सियां लगी हुयीं. अधिकतर घरों के आगे ज़मीन में खूबसूरत पौधे लगे थे. 

घरों के ख़त्म होने के बाद दोनों ओर पेड़ों का जंगल शुरू हो गया. पतझर के दिन हैं. कहीं एक भी हरा पत्ता भी नहीं दिख रहा था. सूखे पेड़ों के पीछे गहरा नीला आसमान दिखता था. एक पुल आया. पुल के नीचे एक छोटी सी पहाड़ी नदी बह रही थी. बिलकुल पतली सी धारा थी शांत पानी की मगर उसमें परिवर्तित होते पेड़ और गहरा नीला आसमान. सब इतना खूबसूरत था क्योंकि अप्रत्याशित था. मैंने सोचा भी नहीं था कि रास्ता ऐसा खूबसूरत पहाड़ी रास्ता होगा कि जिसमें शांत पेड़, चुप पानी और सांस की तरह साथ चलती हवा के झोंके होंगे. रेडियो पर जॉर्ज माइकल का केयरलेस व्हिस्पर बज रहा था. कुछ जैज़ भी बजता रहा था जो मैंने कभी सुना नहीं था. रेडियो जॉकी की खुशनुमा आवाज़ थी. धूप जैसी. मैं उस पुल पर खड़ी सोच रही थी कि जिंदगी कितनी खूबसूरत है. कि अनजाने रास्तों पर चलने में कितना सुकून है. 
पोस्ट ऑफिस पहुंची तो देखा कि वो सरकारी अमेरिकन पोस्ट ऑफिस नहीं है. उस इलाके की चिट्ठियां पहुँचाने के लिए एक प्राइवेट पोस्ट वाली सर्विस है. मगर वहां पर कुछ बेहतरीन कार्ड्स थे. चीनी मिट्टी की खूबसूरत कलाकृतियाँ थीं. कोई लोकल आर्टिस्ट थी जिसने बनाया था सब. फूलों वाले प्लेट. गोथिक स्टाइल की ऐशट्रे और ऐसी ही कुछ चीज़ें. वहाँ बहुत देर तक चीज़ों को देखती रही और सोचती रही कि मेरे दोस्तों में किसे कौन सी चीज़ पसंद आएगी. अगर मैं वाकई खरीद के ले जा सकती तो इनमें से कौन सी चीज़ें खरीदती. दोस्तों को हम वाकई अपने दिल में बसाए चलते हैं. चीज़ें इतनी दूर से लाने में टूट जातीं वरना कुछ तो इतनी खूबसूरत थीं कि छोड़ने का मन न करे. वहां हैण्डमेड साबुन थे. कमाल की खुशबू वाले. मैंने ऐसे साबुन कभी देखे ही नहीं थे. एक कार्ड ख़रीदा और एक साबुन कि जिससे लेमनग्रास जैसी कोई गंध आती थी. 

दुनिया जितनी बाहर है उतनी ही अन्दर भी है. एक अल्टरनेट दुनिया. वापसी में मैं उन चीज़ों के बारे में सोचती रही. गहरे हरे-नीले-भूरे रंग की ऐश ट्रे. सिगरेट की तलब उट्ठी बहुत जोर की और याद का एक खुशबूदार हवा का झोंका साथ साथ चलने लगा. बालों को उलझाते हुए. मैं उसकी उँगलियाँ तलाशने लगीं कि बालों को सुलझा दे, हौले से. इक नन्ही सी पीली गोली जुबान पर रक्खी. उससे जादू का इक स्वाद घुलने लगा और मैं इस दुनिया में होती हुयी भी ख्वाबों में जीने लगी. यहाँ सेटिंग तो सारी डैलस की थी मगर लोग मेरी पसंद के थे. उसने सिगरेट के तीन कश लेकर मेरी ओर बढ़ाई तो आँख भर आई. फिर देखा कि कोई धुंआ नहीं है. शायद आँखों में धूल पड़ गयी थी. सोचा कि उसे बताऊँ कि ये शहर चिट्ठियां लिखने के लिए बहुत मुफीद है. इन खूबसूरत पेड़ों के नीचे बैठ कर पानी की गंध छूते हुए ख़त लिखेंगे तो उनसे तिलिस्म का दरवाजा खुल जाएगा. 

सूखे हुए पेड़ों की टहनियां कुछ यूं फैली हुयी थीं कि जैसे किसी ने बाँहें फैलाई हों. टहनियों पर धूप पड़ रही थी और उनके सिरे एकदम सुनहले लग रहे थे. आसमान में चाँद का आधा टुकड़ा भी था. साथ साथ चलता. एक जगह बैगनी फूल खिले हुए दिखे. उन्हें देख कर याद का कोई रंग टहका सीने में कहीं. मैं पूरे रास्ते तसवीरें खींचती आई थी. कमरे पर आई तो भूख लग गयी. चेरी धो कर बाउल में रखी. खिड़की से धूप अन्दर आ रही थी. मैं धूप में अपने लिए एक छोटा सा कुशन रख कर दीवार से टिक कर बैठी थी. किताब, कागज़ और अपनी कलमों के साथ. डूबते सूरज और चेरी का मीठा कत्थई स्वाद जुबां पर. 

आसमान में फिर से गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग के बादल थे. मैंने इतनी खूबसूरत शाम बहुत दिनों बाद देखी थी. यहाँ सब खुला खुला भी था. मैं गोल गोल घूम कर शाम के रंग देखती जाती. ऐसा महसूस होता कि खुदा एक कासिद है. मेरे सारे ख़त पहुँच जाते हैं तुम तक. और कि ये दुनिया जिसने इतनी सुन्दर बनायी. उसने तुम्हारा मन बनाया होगा. मन. खुद को देखती हूँ इन रंगों में डूबी हुयी. इतनी खूबसूरती में भीगती. सुकून से भरा भरा महसूसती हूँ को. मुहब्बत से भरा भरा भी. 

13 February, 2016

मेरा ये भरम रहने दो | कि तुम हो | मेरे जीने के लिए ये जरूरी है.


मुझे नहीं चाहिए 
तुम्हारा कांधा. तुम्हारा सीना. 
तुम्हारा रुमाल. या कि तुम्हारे शब्द ही. 

हो सके हो मेरे लिए हो जाना 
बहुत ऊंचे पहाड़ों में धीमे उगते किसी पेड़ की 
गहरी खोह

मैं शायद 
तुम तक कभी पहुँच नहीं पाऊँगी 
मगर मुझे चाहिए होगा 
तुम्हारे होने का यकीन 

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तुम मेरे मन में बहती चुप नदी हो 

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मुझे लगता नहीं था कि कभी 'हम' हो सकते हैं. 

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मन की दीवारें होती हैं 
जिनसे रिसता रहता है अवसाद 
धीरे धीरे सीख लेगी मेरी रूह
उन सीले शब्दों को सोखना 

मुझे तुम्हारी उँगलियों की फ़िक्र होती है 
तुमने मेरा मन छुआ था एक बार 

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मुझे वो हिस्सा नहीं चाहिए इस दुनिया का जो सच में घटता है. मैं बहुत थक गयी हूँ. 
मैं लौट कर किताबों तक जा रही हूँ. 

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मेरे पास कुछ भी नहीं है तुम्हें देने को 
मेरे टूटे दिल में जरा से दुःख हैं
जरा सी उदासी
तुम्हारे नाम करती हूँ 

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काश कि मुझे आता प्रेम करना
और प्रेम में बने रहना

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मेरा ये भरम रहने दो कि तुम हो
मेरे जीने के लिए ये जरूरी है. 
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09 February, 2016

जादूगर, जो खुदा है, रकीब़ भी और महबूब भी

वे तुम्हारे आने के दिन नहीं थे. मौसम उदास, फीका, बेरंग था. शाम को आसमान में बमुश्किल दो तीन रंग होते थे. हवा में वीतराग घुला था. चाय में चीनी कम होती थी. जिन्दगी में मिठास भी.

फिर एक शाम अचानक मौसम कातिल हो उठा. मीठी ठंढ और हवा में घुलती अफीम. सिहरन में जरा सा साड़ी का आँचल लहरा रहा था. कांधे पर बाल खोल दिये मैंने. सिगरेट निकाल कर लाइटर जलाया. उसकी लौ में तुम्हारी आँखें नजर आयीं. होठों पर जलते धुयें ने कहा कि तुमने भी अपनी सिगरेट इसी समय जलायी है. 

ये वैसी चीज थी जिसे किसी तर्क से समझाया नहीं जा सकता था. जिस दूसरी दुनिया के हम दोनों बाशिंदे हैं वहाँ से आया था कासिद. कान में फुसफुसा कर कह रहा था, जानेमन, तुम्हारे सरकार आने वाले हैं. 

'सरकार'. बस, दिल के खुश रखने को हुज़ूर, वरना तो हमारे दिल पर आपकी तानाशाही चलती है. 

खुदा की मेहर है सरकार, कि जो कासिद भेज देता है आपके आने की खबर ले कर. वरना तो क्या खुदा ना खास्ता किसी रोज़ अचानक आपको अपने शहर में देख लिया तो सदमे से मर ही जायेंगे हम. 

जब से आपके शहर ने समंदर किनारे डेरा डाला है मेरे शब्दों में नमक घुला रहता है. प्यास भी लगती है तीखी. याद भी नहीं आखिरी बार विस्की कब पी थी मैंने. आजकल सरकार, मुझे नमक पानी से नशा चढ़ रहा है. बालों से रेत गिरती है. नींद में गूंजता है शंखनाद. 

दूर जा रही हूँ. धरती के दूसरे छोर पर. वहाँ से याद भी करूंगी आपको तो मेरा जिद्दी और आलसी कासिद आप तक कोई खत ले कर नहीं जायेगा.

जाने कैसा है आपसे मिलना सरकार. हर अलविदा में आखिर अलविदा का स्वाद आता है. ये कैसा इंतज़ार है. कैसी टीस. गुरूर टूट गया है इस बार सारा का सारा. मिट्टी हुआ है पूरा वजूद. जरा सा कोई कुम्हार हाथ लगा दे. चाक पे धर दे कलेजा और आप के लिये इक प्याला बना दे. जला दे आग में. कि रूह को करार आये. 

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किसी अनजान भाषा का गीत
रूह की पोर पोर से फूटता
तुम्हारा प्रेम
नि:शब्द.

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वो
तुम्हारी आवाज़ में डुबोती अपनी रूह 
और पूरे शहर की सड़कों को रंगती रहती 
तुम्हारे नाम से
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तर्क से परे सिर्फ दो चीज़ें हैं. प्रेम और कला. 
जिस बिंदु पर ये मिलते हैं, वो वहाँ मिला था मुझे. 
मुझे मालूम नहीं कि. क्यों.

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उसने जाना कि प्रेम की गवाही सिर्फ़ हृदय देता है। वो भी प्रेमी का हृदय नहीं। उसका स्वयं का हृदय।
वह इसी दुःख से भरी भरी रहती थी।
इस बार उसने नहीं पूछा प्रेम के बारे में। क्यूंकि उसके अंदर एक बारामासी नदी जन्म ले चुकी थी। इस नदी का नाम प्रेम था। इसका उद्गम उसकी आत्मा थी।

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उसने कभी समंदर चखा नहीं था मगर जब भी उसकी भीगी, खारी आँखें चूमता उसके होठों पर बहुत सा नमक रह जाता और उसे लगता कि वो समंदर में डूब रहा है।

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तुम जानती हो, उसके बालों से नदी की ख़ुशबू आती थी। एक नदी जो भरे भरे काले बादलों के बीच बहती हो।

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तुम मेरी मुकम्मल प्यास हो.

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नमक की फितरत है कच्चे रंग को पक्का कर देता है. रंगरेज़ ने रंगी है चूनर...गहरे लाल रंग में...उसकी हौद में अभी पक्का हो रहा है मेरी चूनर का रंग...
और यूं ही आँखों के नमक में पक्का हो रहा है मेरा कच्चा इश्क़ रंग...
फिर न पूछना आँसुओं का सबब.

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प्यास की स्याही से लिखना
उदास मन के कोरे खत
और भेज देना 
उस एक जादूगर के पास
जिसके पास हुनर है उन्हें पढ़ने का
जो खुदा है, रकीब़ भी और महबूब भी

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वो मर कर मेरे अन्दर
अपनी आखिर नींद में सोया है
मैं अपने इश्वर की समाधि हूँ.

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मैं तुम्हारे नाम रातें लिख देना चाहती हूँ 
ठंडी और सीले एकांत की रातें 
नमक पानी की चिपचिपाहट लिए 
बदन को छूने की जुगुप्सा से भरी रातें 
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ये मेरे मर जाने के दिन हैं मेरे दोस्त 
मैं खोयी हूँ 'चीड़ों पर चाँदनी में' 
और तुम बने हुए हो साथ
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मैं तुम्हारे नाम ज़ख़्म लिख देना चाहती हूँ
मेरे मर जाने के बाद...
तुम इन वाहियात कविताओं पर 
अपना दावा कर देना
तुमसे कोई नहीं छीन सकेगा 
मेरी मृत्यु शैय्या पर पड़ी चादर 
तुम उसमें सिमटे हुए लिखना मुझे ख़त 
मेरी क़ब्र के पते पर
वहाँ कोई मनाहट नहीं होगी 
वहाँ सारे ख़तों पर रिसीव्ड की मुहर लगाने 
बैठा होगा एक रहमदिल शैतान 
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मुझे कुछ दिन की मुक्ति मिली है 
मुझे कुछ लम्हे को तुम मिले हो
उम्र भर का हासिल
बस इतना ही है.

08 February, 2016

फरिश्ते सुनते भी हैं

बच्चों के बारे में सुष्मिता ने पहली बार पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद सोचा था. उसका लिव-इन पार्टनर एक दूसरी जाति से था और उसे मालूम था कि घर वाले कभी उनकी शादी के लिए नहीं मानेंगे. उसने शुरू से ही खुद को समझा रखा था कि उम्र भर के किसी बंधन की कसमें नहीं खायेंगे. इक रोज़ वे दोनों फोटो-जर्नलिज्म के एक प्रोजेक्ट के लिए कैमरा ले कर गरीबों की झुग्गी झोपड़ी में घूम रहे थे. एक बेहद नीची छत वाला एक कमरा था. उसमें एक बेहद छोटा सा टीवी फिट था. दो बच्चे नीचे जमीन पर पसरे हुए थे. एक साड़ी का झूला बनाया हुआ था जिसमें एक दुधमुंहां बच्चा किहुंक किहुंक के रो रहा था. उसकी आवाज़ से सबको दिक्कत हो रही थी. आखिर उसकी माँ ने उसे झूले से निकाला और एक झापड़ और मार दिया, 'क्या करें दीदी दूध उतरता ही नहीं हैं, पेट भरेगा नहीं तो रोयेगा नहीं तो क्या करेगा'. फिर अपने में दुःख के अपार बोझ से टूटती बच्चे को दूध पिलाने लगी. सुष्मिता ने चाहा उस लम्हे को कैप्चर कर ले मगर उस दुःख को हमेशा के लिए ठहरा देना इतना अमानवीय लगा कि उसकी हिम्मत ही नहीं हुयी. बाहर आई तो नावक अचरज से उसे देख रहा था. 'अच्छी जर्नलिस्ट बनोगी तो कभी कभी जरा बुरा इंसान भी बनना पड़ता है. दुःख की दवा करने के लिए उसकी तसवीरें कैद करनी जरूरी हैं बाबू'. फाके के दिन थे. बीड़ी के लिए पैसे जुट पाते थे बस. चाय की तलब लगी थी और सर दर्द से फटा जा रहा था. वहाँ से चलते चलते कोई आधे घंटे पर एक चाय की टपरी आई. एक कटिंग चाय बोल कर दोनों वहीं पत्थरों पर निढाल हो गए. 

सुष्मिता इस पूरे महीने के पैसे की खिचखिच से थक गयी थी, दूर आसमान में देखती हुयी बोली, 'इस वक़्त अगर फ़रिश्ते यहाँ से गुज़र रहे हों तो कोई जान पहचान का यहाँ मिल जाए और एक सिगरेट पिला दे मुझे. बस इतना ही चाहिए'. नावक ने कुछ नहीं कहा बस मुस्कुरा कर दूर के उसी बस स्टॉप पर आँखें गड़ा दीं जहाँ सुष्मिता की नज़र अटकी हुयी थी. चाय बनने के दरम्यान वहाँ एक स्कूल बस रुकी और फुदकते हुए बच्चे उसमें से उतरे. अपनी लाल रंग की स्कर्ट और सफ़ेद शर्ट में एकदम डॉल जैसी लग रही थी बच्चियां. बस गुजरी तो उन्होंने देखा उनकी कॉलेज की एक प्रोफ़ेसर भी वहां से अपनी बेटी की ऊँगली थाम सड़क क्रॉस कर रही हैं. सड़क के इस पार आते हुए उन्होंने दोनों को देखा और चाय पीने रुक गयीं. अपने लिए एक डिब्बा सिगरेट भी ख़रीदा और सुष्मिता को ऑफर किया. उसने जरा झिझकते हुए दो सिगरेटें निकाल लीं. जैसे ही मैडम अपनी बेटी को लेकर वहां से गयीं सुष्मिता जैसे जन्मों के सुख में डूब उतराने लगी. सिगरेट का पहला गहरा कश था और उसकी आँखें किसी परमानंद में डूब गयीं. नावक लाड़ में बोला, 'सुम्मी...कुछ और ही माँग लिया होता...'. 'लालच नहीं करते नावक. इस जिंदगी में एक सिगरेट मिल जाए बहुत बड़ी बात होती है. तुम्हें माँगना होता तो क्या मांगते?'. नावक के चहरे पर एक बहुत कोमल मुस्कान उगने लगी थी. वो अभी तक मैडम के जाने की दिशा में देख रहा था. उनकी बेटी की पोनीटेल हिलती दिख रही थी. बच्ची काफी खुश थी और उसकी आवाज़ की किलकारी सुनाई पड़ रही थी. 'अगर वाकई फ़रिश्ते होंगे अभी तक अटके हुए...तो सुम्मी, मुझे तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए. एकदम तुम्हारे जैसी. यही बदमाश आँखें. यही बिगड़ी हुयी लड़कियों वाले तेवर और अपने पापा की इतनी ही दुलारी'. सुम्मी ने पहली बार अपना औरत होना महसूस किया था. शादी की नहीं, बच्चों की ख्वाहिश मन में किसी बेल सी उगती महसूस की थी. फीकी हँसी में बोली, 'ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर'.

सिगरेट ख़त्म हो गयी थी. उन्होंने तय किया कि यहाँ से कमरे तक पैदल चला जाए और बचे हुए पैसों से आज रात चिकन बिरयानी खायी जाए. सुम्मी को ऐसी गरीबी बहुत चुभती थी. खास तौर से वे दिन जब कि सिगरेट के लिए पैसे नहीं बचते थे. उसे नावक का बीड़ी पीना एकदम पसंद नहीं था. कैसी तो गंध आती थी उससे उन दिनों. गंध तो फिर भी बर्दाश्त कर ली जाती मगर उस छोटे कमरे में बीड़ी की बची हुयी टोटियों को ढूंढते हुए नावक पर वहशत सवार हो जाती. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता कि यही नावक अच्छे खाते पीते घराने का है और पटना के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज से समाजशास्त्र में पी एच डी कर रहा है. उन दिनों वह कोई गरीब रिक्शा चलाने वाले से भी बदतर हो जाता था और सुम्मी से ऐसे पेश आता जैसे नावक उसका रेगुलर ग्राहक हो और सुम्मी बदनाम गलियों की सबसे नामी वेश्या. नावक को उसके शरीर से कोई लगाव नहीं होता. गालियों से उसकी रूह छिल छिल जाती. कौन सोच सकता था कि नावक जैसा लड़का सिर्फ बीड़ी पीने के बाद 'रंडी, बिस्तर, ग्राहक, दल्ला' जैसे शब्द इस चिकनी अदा के साथ बोलेगा कि रंगमंच की रोशनियाँ शरमा जाएँ. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता था कि ऐसी भाषा नावक ने थियेटर करते हुए सीखी है या वाकई गुमनाम रेड लाइट एरिया जाता रहा है. उन रातों में 'मेक लव' जैसा कुछ नहीं होता. वे जानवरों की तरह प्रेम करते. सुम्मी को डेल्टा ऑफ़ वीनस याद आता. अनाईस निन की कहानियों के पहले का हिस्सा जब कि रईस व्यक्ति कि जो हर कहानी के सौ डॉलर दे रहा है, फीडबैक में बस इतना ही कहता, 'cut the poetry'. निन ने उन दिनों के बहुत से कवियों को जुटाया कि पैसों की जरूरत सभी को थी...उन दिनों के बारे में वह लिखती है, 'we had violent explosions of poetry.' 'हममें कविता हिंसक तरीके से विस्फोटित होती थी.' मुझे रात की तीखी कटती हुयी परतों में किताब की सतरें याद आयीं. दुनिया में कुछ भी पहली बार घटित नहीं हो रहा है. हम वो पहले लोग नहीं होंगे जिन्होंने प्रेम के बिना यह हिंसा एक दूसरे के साथ की है. आज की शाम तो वैसे भी ख़ास थी. नावक की एक ईमानदार ख्वाहिश ने सुम्मी को अन्दर तक छील दिया था. उस रात मगर वही हुआ जो हर उस रात को होता था जब महीने के आखिरी दिन होते थे और बीड़ी, सिगरेट सब ख़त्म हुआ करती थी. इस हिंसा में शायद सुम्मी के मन में दुनिया की सबसे पुरातन इच्छा ने जन्म लिया. जन्म देने की इच्छा ने. 

अगले दिन किसी मैगजीन में छपे नावक के पेपर का मेहनताना आ गया तो सब कुछ नार्मल हो गया. सुम्मी भूल भी गयी कि उसने कोई दीवानी ख्वाहिश पाल रखी है मन में कहीं. ये सेमेस्टर कॉलेज में सबसे व्यस्त सेमेस्टर होता भी था. कुछ यूं हुआ कि डेट निकल गयी और सुम्मी को ध्यान भी नहीं रहा कि गिनी हुयी तारीखों में आने वाले पीरियड्स लेट कैसे हो गए. क्लास में जब उसकी बेस्ट फ्रेंड ने फुसफुसा के पूछा, 'सुम्मी, पैड है तेरे पास?' तो सुम्मी जैसे अचानक से आसमान से गिरी. उसके और शाइना के डेट्स हमेशा एक साथ आते थे. तारीख आज से चार दिन पहले की थी. कुछ देर तो उसका दिमाग ब्लैंक हो गया. क्लास का एक भी शब्द उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था. जैसे ही क्लास ख़त्म हुयी भागती हुयी बाहर आई और बैग से सिगरेट का पैकेट निकाला. आज ही नावक के पैसों से नया डिब्बा खरीदा था. सिगरेट निकालने को ही हुयी कि उसपर लिखी वार्निंग पर नजर पड़ गयी. 'smoking when pregnant harms your baby' आज ही इस पैकेट पर ये वार्निंग लिखी होनी थी. सुम्मी ने खुद को थोड़ी देर समझाने की कोशिश की कि कौन सा इस बच्चे को जन्म दे पाएगी...क्या फर्क पड़ेगा अगर एक आध कश मार भी लेती है. मगर फिर ख्यालों ने उड़ान भरनी शुरू की तो सारा कुछ सोचती चली गयी. उसे सिर्फ एक अच्छी नौकरी का इन्तेजाम करना है. जो कि अगले एक महीने में उसे मिल जायेगी. अपनी सहेलियों के साथ दिल्ली में कमरा लेने का उसका प्रोग्राम पहले से सेट था. ये ऐसी सहेलियां थीं जिनसे किसी चीज़ के लिए कभी आग्रह नहीं करना पड़ा था. चारों मिल कर आपस में एक बच्चा तो पाल ही लेंगी तीनेक साल तक. उसके बाद तो स्कूल शुरू हो जाएगा. फिर तो किसी को दिक्कत नहीं होगी. सुम्मी को वैसे भी कॉलेज में ही लेक्चरर बनने का शौक़ था. उसका मन दो भागों में बंट गया था. सारे तर्क उसे कह रहे थे कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता. हिंदुस्तान में आज भी बिन ब्याही माँ के बच्चे इतनी आराम से नहीं पल सकते जितना कि वह सोच रही है. उसे ये भी मालूम था कि घर में लड़का देखना शुरू कर चुके हैं लोग. मगर कुछ शहर ऐसे होते हैं जिनकी सीमा में घुसते ही पुरानी रूढ़ियाँ पीछे रह जाती हैं. पटना ऐसी ही असीमित संभावनाओं का शहर था उसके लिए. यहाँ कुछ भी मुमकिन था. दिलेर तो वह थी ही, वर्ना आज भी पटना में कितनी लड़कियां लिव-इन में रह रही थीं. कल्पना के पंखों पर उड़ती उड़ती वह बहुत दूर पहुँच गयी थी. बच्चों के नाम सोचने शुरू किये. लड़के के, लड़कियों के. दोनों. कमरे के परदे. प्रेगनेंसी के समय क्या पहनेगी वगैरह वगैरह. ख्याल में डूबे हुए कब केमिस्ट की दुकान तक पहुँच गयी उसे पता ही नहीं चला. टेस्ट किट मांगते हुए उसका चेहरा किसी नव विवाहिता सा खिला हुआ था. न तो उसके चेहरे पर, न तो उसकी आत्मा में कोई अपराध बोध जगा था. कमरे पर आई तो सीधे बाथरूम न जा कर किताब खोल ली. किताब भी कौन सी, मित्रो मरजानी. हाँ...बेटी हुयी तो नाम रखेगी मित्रो...और बेटा हुआ तो...बहुत सोच के ध्यान आया कि नावक से शादी थोड़े करनी है...तो बेटे का नाम नावक रख सकती है. 

रात के आते आते सुम्मी ने अनगिन चाय के कप खाली कर के रख दिए थे. उसे अब भी समझ नहीं आ रहा था कि नावक को बताये या नहीं. आखिर दुआ तो उसकी क़ुबूल हुयी थी. बतानी तो चाहिए. उसने सोचा कि उसे आने देती है. उसके सामने ही टेस्ट करेगी और फिर दोनों एक ही साथ कन्फर्म करेंगी अपनी जिंदगी के सबसे खुशहाल दिन को. पर वो क्या कह के बताएगी...एक गुड न्यूज़ है या कि एक गड़बड़ हो गयी है. फिर अचानक से आये एक ख्याल से डर गयी. नावक को कृष्णा सोबती फूटी आँख नहीं सुहाती थी. वो उसे अपनी बेटी का नाम मित्रो तो हरगिज़ नहीं रखने देगा चाहे वो कितना भी लड़ झगड़ ले. उसके लौटने में अभी वक़्त था. सुम्मी ने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उनपर नाम लिखने लगी. कोई पांच टुकड़े थे जिनपर एक ही नाम लिखा था 'मित्रो'. उसने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उन्हें ठीक से मोड़ कर छोटी सी कटोरी में रख दिया. कि नावक जब आएगा तो उसे एक पुर्जा चुन लेने को कहूँगी. अपनी बेईमानी पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा. ये तो दुनिया की सबसे पुरानी टेक्नीक है. फिर कलयुग है भई. कोई रात के दस बजे नावक कमरे पर आया. कमरा इस वक़्त हमेशा धुएं की गंध से भरा हुआ होता था, ऐशट्रे में अम्बार लगा होता था और सुम्मी किसी कोने में पढ़ रही होती थी. मगर आज कुछ बात और थी. कमरे में चावल की हलकी गंध आ रही थी. तो क्या सुम्मी ने खाना बनाया है. लड़की पागल हो गयी है क्या. एक आध कैंडल्स भी जल रहे थे. कमाल रूमानी माहौल था. 'पैसे आ जाने से इतनी रौनक. भाई कमाल हो सुम्मी. पहले पता होता तो दो चार और पेपर्स भेज दिया करता वक़्त पर छपने के लिए'. सुम्मी बाहर आई तो लाज की हलकी लाली थी उसके चेहरे पर. उसने बिना कुछ कहे टेस्ट किट दिखाया और बाथरूम में घुस गयी. पांच मिनट. दस मिनट. आधा घंटा. जब कोई हरकत नहीं हुयी तो नावक ने दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया. दस मिनट खटखटाने के बाद सुम्मी ने दरवाज़ा खोला. बाथरूम से उसकी परछाई बाहर निकली. नावक ने उसे उस तरह टूटा हुआ कभी नहीं देखा था. घबराये हुए उसके चेहरे को हाथों में भरा. सुम्मी ने टूटे शब्दों के बीच बताया कि उसे दिन भर धोखा हुआ कि वो प्रेग्नेंट है. पूरा पूरा दिन नावक. सच्ची. देखो. मुझे लगता रहा कि मेरे अन्दर कोई सांस ले रहा है. मैंने इसलिए सिगरेट भी नहीं पी. एक भी सिगरेट नहीं. ये सब मेरा भरम था. मगर कितना सच था. मुझे लगा फरिश्तों ने तुम्हारी बात भी सुन ली है. उस रात किसी ने खाना नहीं खाया. पूरी रात सिगरेट फूंकते बीती. सुम्मी और नावक के बीच कुछ उसी मासूम सी रात को टूट गया था. शहर छोड़ना तो बस एक फॉर्मेलिटी थी. नावक जानता था कि इस रिश्ते के लिए आगे लड़ने का हासिल कुछ नहीं है. दोनों बहुत प्रैक्टिकल लोग थे. अलविदा के नियम कायदे में बंधते हुए एक दूसरे को हँस कर विदा किया. 
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सुम्मी को अब सुम्मी कहने की हिम्मत किसी की नहीं होती. उम्र पैंतीस साल मगर आँखों में अब भी एक अल्हड़ लड़की सी चमक रहती है. वो मिसेज सुष्मिता सरकार हैं. शहर के डिप्टी मेयर की वाइफ और मुंगेर के जिला विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की प्रमुख. उनसे छोटे उन्हें सम्मान से देखते और उनके साथ वाले इर्ष्या से. उनके ड्रेसिंग सेन्स से शहर को फैशन की समझ आती. चाहे सरस्वती शिशु मंदिर का वार्षिक समारोह हो या कि किसी गाँव में नयी लाइब्रेरी का उद्घाटन, उसकी शख्सियत उसे सबसे अलग करती थी. भीड़ में गुम हो जाने वाला न उसका चेहरा था न उसका व्यक्तित्व.  

शादी के दस साल होने को आये थे और उसकी उम्र जैसे ठहर गयी थी. 

सहेलियां चुहल करतीं कि तुझे किस चीज़ की कमी है. पति है, परिवार है, समाज में नाम है. चाहिए ही क्या. वाकई मिसेज सरकार के पास वो सब कुछ था जिसके सपने देखती लड़कियां बड़ी होती हैं. मगर मिसेज सरकार की आँखों के पीछे ही सुम्मी रहती थी. अपने भूले हुए नाम की आवाज़ में. 

उसकी कोख जनती है नाजायज चिट्ठियां और अनाथ किरदार. वो चाहती है कि एक जरा सा सौंप सके खुद के जने बच्चे को. आँख का नीला रंग. ठुड्डी के डिम्पल. अपना लम्बा ऊंचा कद. दिनकर के प्रति अपनी दीवानगी. या कि अपना ठहरा हुआ निश्चल स्वाभाव ही. 

अभी तक उसे लगता था कि उसके अन्दर का खालीपन रूह का खालीपन है...मन का टूटा हिस्सा होना है. वो इसे भरती रहती थी लोगों से. गीतों से, कविताओं से और रंगों से. वो इन्द्रधनुष से रंग मांगती और रेशमा से उसकी आवाज़ की हूक...रेगिस्तान से उसकी प्यास तो समंदर से उसकी बेचैनी. मगर उसके अन्दर का खालीपन भरता नहीं. उसका चीज़ों को हिसाब से रखने से दिल भर जाता. अपने करीने से सजाये घर में उसे घुटन होने लगती. वो चाहती कि कोई आये और पूरा घर बिखेर डाले. उसे शिकायतें करने का दिल करता था. दुखती देह और बिना नींद वाली रातों का. वो चीज़ों को बेतरतीबी से रखती. कपड़े. किताबें. जूते. या कि लोग ही. सब कुछ बिखरा बिखरा रहता लेकिन उसकी जिंदगी का एक कोरा कोना भी नहीं भरता इन चीज़ों से. 

उसने जाना कि वह डरने लगी है. नवजात शिशुओं से. गर्भवती महिलाओं से. उन रिश्तेदारों से जो हमेशा उसके बढ़े हुए पेट को देख कर पूछतीं कि कोई खुशखबरी है क्या. वो चाहती कि खूब सारा एक्सरसाइज करके एकदम साइज ज़ीरो हो जाए ताकि किसी को ग़लतफ़हमी न हो. उसे डर लगता था अपने जीवन में होने वाली किसी भी अच्छी घटना से...क्यूंकि किसी को भी बताओ कि कोई अच्छी खबर है तो उसे सीधे उसके प्रेग्नेंट होने से जोड़ लिया जाता था...और उस खुशखबरी के सामने दुनिया के सारे सुख छोटे पड़ते.

बचपन के रिपोर्ट कार्ड में कभी लाल निशान नहीं लगा. इसलिए उसे मालूम नहीं था कि पूरी तैय्यारी करने के बावजूद जिंदगी के रिपोर्ट कार्ड में कभी कभी लाल निशान लग जाते हैं. स्कूल और कॉलेज के एक्जाम साल में दो बार होते थे. मगर यहाँ हर महीने एक एक्जाम होता था और गहरे लाल निशान लगते थे. खून की नमक वाली गंध उसे पूरे हफ्ते अस्पतालों की याद दिलाती रहती. टीबी वार्ड हुआ करता था उन दिनों. वो किससे मिलने जाती थी जामताड़ा के उस अस्पताल में? कोई मेंटल असायलम था. उसकी दूर के रिश्ते की एक मामी वहां एडमिट थी. उन्हें खुद की नसें काटने से रोकने के लिए अक्सर बेड से बाँध कर रखा जाता था. बाथरूम तक जाने के लिए नर्स आ कर भले उनके बंधन खोल देती थी लेकिन उसके अलावा सारे वक़्त उनके हाथ पैर बिस्तर से बंधे रहते थे. उस बिस्तर पर एक बहुत पुरानी घिसी हुयी फीकी गुलाबी रंग की चादर थी जिसपर किसी जमाने में नीले रंग के फूल बने होंगे. चादर पर वो खून के धब्बे देखती थी. कभी ताजा तो कभी कुछ दिन के सूखे हुए. जिस दीदी के साथ वहाँ जाती वो अक्सर उन दागों को धोने की कोशिश करती. मगर कॉटन की चादर थी. ज्यादा रगड़ने से फट जाती. मामी के बाल महीने में बस एक ही दिन धुलाये जाते. उस दिन के पहले वो रटती रहतीं कि 'तुम अशुद्ध हो'. वर्तमान में खून की गंध के साथ हमेशा उस हस्पताल की गंध और कॉटन की पुरानी चादर का रूखापन साथ चला आता था. मामी के मरने पर वो अंतिम क्रिया के पहले पहुँच नहीं सकी थी. जिन लोगों को हम आखिरी बार नहीं मिल पाते, न उनका पार्थिव शरीर देखते हैं, उनके चले जाने का यकीन कचपक्का सा होता है. 

खून की पहली पहचान उसे मामी के बिस्तर से हुयी थी. बचपन में उसे किसी ने बताया नहीं कि मामी को ऐसा कोई ज़ख्म नहीं है. वो जब भी वो लाल कत्थई निशान देखती तो डॉक्टरों को ज्यादा खूंख्वार होके घूरती. उसे पूरा यकीन था कि डॉक्टर्स उनके ऐसे ज़ख्मों की दवा नहीं कर रहे जो उन्हें सामने नहीं दिखते. उसका डॉक्टर्स के प्रति हलकी घृणा भी उन दिनों की देन थी. उसे अंग्रेजी दवाइयों पर यकीन ही नहीं होता. न रिसर्च पर. और उसे पक्का यकीन भी था कि अगर दवाई में भरोसा नहीं है तो उसकी इच्छाशक्ति के बगैर कोई भी दवा उसे ठीक नहीं कर सकती है. बढ़ती उम्र के इस पड़ाव पर जबकि मेनोपौज कुछ ही दिन दूर था उसे हर गुज़रता महीना एक स्टॉपवॉच की तरह उलटी गिनती करता हुआ दिखता. इन दिनों वह एग्स फ्रीज करने के बारे में भी सोचने लगी थी. नींद में उसे बाबाओं के सपने आते. जाग में उसे इश्वर का ख्याल. मगर हर महीने एक कमबख्त तारीख होती. उसका खौफ इस कदर था कि कैलेण्डर की तारीख से उठ कर उसकी नफरत उस संख्या के प्रति आ गयी. जिस महीने उसके पीरियड्स ७ तारिख को आते, उस पूरे महीने उसके लिए ७ नंबर बेहद मनहूस रहता. इसी नंबर वाली सड़क पर उसका एक्सीडेंट होता. और उन्हीं दिनों जब कि उसे इश्वर की सबसे ज्यादा जरूरत होती थी उसका धर्म उससे सिर्फ उसके देवता ही नहीं उसका मंदिर भी उससे छीन लेता. वो शिवलिंग पर सर रख कर रोना चाहती मगर फिर बहुत साल पहले मामी का अस्पताल बेड पर का बड़बड़ाना याद आ जाता. अशुद्ध हो तुम. अशुद्ध. मुझे मत छुओ. घर जा कर नहा लेना. तीखी गंध उसकी उँगलियों के पोर पोर जलाती. 

उसकी याद में वो कॉलेज का एक दिन आता कि जब उसने महसूस किया था कि माँ बनना क्या होता है. भले ही वो छलावा था मगर कमसे कम जिंदगी में एक ऐसा दिन था तो सही. पिछले हफ्ते भर से ब्लीडिंग रुक ही नहीं रही थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे बदन का सारा खून निचुड़ कर बह जाएगा. डॉक्टर के यहाँ जाने लायक ताकत भी नहीं बची थी. डॉक्टर शर्मा को घर बुलाया गया. बड़ी खुशमिजाज महिला थीं. सुम्मी के खास दोस्तों में से एक. कुछ टेस्ट्स लिखाए और थोड़ी देर गप्पें मारती रहीं. इधर उधर की बातों में दिल लगाये रखा. इसके ठीक तीन दिन बाद उनका फिर आना हुआ, इस बार सारी टेस्ट रिपोर्ट्स साथ में थीं. उससे बात करने के पहले मिस्टर सरकार से आधे घंटे तक बातें कीं. सुम्मी के लिए वे उसकी पसंद का गाजर का हलवा लेकर आई थीं. आज फिर उन्होंने बीमारी की कोई बात नहीं की. उनके जाने के बाद अनंग कमरे में आये थे. उनके चेहरे पर खालीपन था. एक लम्बी लड़ाई के बाद का खालीपन. 'सुम्मी, यूट्रस में इन्फेक्शन है. ओपरेट करके निकालना पड़ेगा. कोई टेंशन की बात नहीं है. छोटा सा ओपरेशन होता है.' कहते कहते उनकी आँखें भर आयीं थीं. देर रात तक दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोते रहे. सुबह कठिन फैसले लेकर आई थी. हॉस्पिटल की भागदौड़ शुरू हो गयी. इसके बाद का कुछ भी सुम्मी को ठीक से याद नहीं. रिश्तेदार. दोस्त. कलीग्स. सब मिलने आते रहे. देखते देखते महीना बीत गया और उसकी हालत में बहुत सुधार हो गया. इस ओपरेशन ने सुम्मी में बहुत कुछ बदल दिया. वो जिंदगी में पागलपन की हद तक चीज़ों को अपने कण्ट्रोल में रखती थी. घर के परदे. घर का डस्टर. गार्डन के फूल. सब कुछ उसकी मर्ज़ी से होता था. मगर अब सुम्मी ने खुद को अनंग के भरोसे छोड़ दिया था. जिसने जीवनभर साथ निभाने का वचन दिया है, कुछ उसका हक भी है और उसकी जिम्मेदारी भी. सुम्मी को आश्चर्य होता था कि उसके ठीक रहते अनंग ने कभी खुद से एक ग्लास पानी तक नहीं पिया मगर उसकी बीमारी में हर घड़ी यूं साथ रहे कि जैसे खुद के बच्चे भी शायद नहीं कर पाते. 

ऐसे ही किसी एक दिन अनंग उसके लिए एक गहरी नीले रंग की साड़ी लेकर आये कि तैयार हो जाओ, हमें बाहर जाना है. सुम्मी का मन नहीं था लेकिन उनकी ख़ुशी देखते हुए तैयार हो गयी. कोई सात आठ घंटे का सफ़र था. सुम्मी को नींद आ गयी. नींद खुली तो एक अनाथ आश्रम सामने था. अनंग ने कुछ नहीं कहा. वे अपने रिश्ते में ऐसी जगह पहुँच भी गए थे जब कहना सिर्फ शब्दों से नहीं होता. आश्रम में अन्दर घुसते ही एक छोटा सा तीर आ कर सुम्मी की साड़ी में उलझ गया. सामने एक तीन साल का बच्चा था. धनुष लिए दौड़ता आया. सुम्मी घुटनों के बल बैठ गयी, साड़ी के पल्लू से तीर निकालते हुए वो और अनंग साथ में बुदबुदाए, 'ज्यों नावक के तीर, दिखने में छोटे लगें, घाव करें गंभीर'. सारी फॉर्मेलिटी पूरी कर के वे बाहर आये. अनाथ आश्रम की हेड ने बच्चे का हाथ सुम्मी के हाथ में दिया और बच्चे से बोली, 'आज से ये आपकी मम्मी हैं'. सुम्मी का दिल भर आया था. आँखें भी. उसने उसका नन्हा ललाट चूमते हुए कहा, तुम्हारा एक ही नाम हो सकता है...नावक. 

घर लौटते हुए बहुत देर हो गयी थी. नावक सो गया था. सुम्मी आँगन में चाँद की रौशनी को देख रही थी कि अनंग पीछे से आये और उसे बाँहों में भर लिया. 'आँखें बंद करो और हथेली फैलाओ'. 'अनंग, आज मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए' मगर उसने आँखें बंद कर हथेली खोल दी. अब खोलो आँखें. चाँद रात में उसके चेहरे पर सुनहले धूप सा नूर फ़ैल गया. उसकी हथेली पर एक पैकेट सिगरेट और माचिस रखी थी. उसने सिगरेट का गहरा कश लिया और आसमान की ओर देखा. आह री लड़की. कुछ और ही माँग लिया होता और...मगर आज शायद अनंग की बारी थी मांगने की, 'तुम देखना...तुम्हारी बेटी होगी...बिलकुल तुम्हारे जैसी'.

और उस दिन फ़रिश्ते वाकई सुन रहे थे. डॉक्टर्स भी आश्चर्यचकित थे कि ऐसा कैसे हुआ. सुम्मी अनंग की गोद में अपनी बेटी को देख कर सुख में डूब रही थी कि अनंग ने कहा, इसका नाम मेरी पसंद से रखेंगे, 'मित्रो'. 

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