07 January, 2016

तुम्हें मुहब्बत से पढ़ेंगे ऐ नये साल

नया साल.
सुबह के कोहरे वाला शाल ओढ़े आया था. पापा के यहाँ आम के पेड़ पर झूला डाला था हमने. बचपन जैसा.
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इस साल की शुरुआत में जेन ने एक मेसेज शेयर किया था 'come to the new year empty', मुझे बात बड़ी अच्छी लगी थी. इसलिए पुरानी खुशियाँ. पुराने दुःख. पुराने झगड़े. भूल आती हूँ. नए साल में कुछ नया करेंगे. नया लिखेंगे. नया सीखेंगे. नयी जगहें घूमेंगे और नए तरह से बसाते जायेंगे नए शहरों को अपने भीतर.

बंगलौर में रहने के कारण हिंदी पढ़ना बहुत कम हो गया है. ऑनलाइन खरीदना उतना पसंद नहीं है. मैं किताबों को उनके पीछे वाले कवर पर लिखी चीज़ों से नहीं, किसी रैंडम पन्ने का कोई एक पैरा पढ़ कर खरीदती हूँ...यहाँ की दुकानों में हिंदी की वही पुरानी किताबें मिलती हैं जो मैंने कब से खरीद रखी हैं. अब तो हावड़ा स्टेशन पर भी हिंदी किताबें नहीं दिखतीं.

इसलिए दिल्ली वर्ल्ड बुक फेयर. सारे सारे दिन. 9 से 17 तक. बहुत से पुराने क्लासिक्स खरीदने हैं. कुछ नए लेखकों को पढ़ना है. थोड़ी इस बात की भी उत्सुकता है कि पहली बार अपनी 'तीन रोज़ इश्क़' मेले में बिकती हुयी देखूँगी. ऑटोग्राफ वैगेरह दूँगी. बहुत मज़ा आएगा. ब्लॉग पर वैसे तो बातचीत लगभग बंद है लोगों से...अपने रीडर्स से भी...मगर अगर कोई बुक फेयर आ रहा है तो थोड़ा पहले मेल वेल करके बातें की जा सकती हैं. मिला जा सकता है.

इस साल का टारगेट सिर्फ और सिर्फ किताबें पढ़ना है. बाकी सारे काम वगैरह छोड़ छाड़ के. अब ऐसा भी पाती हूँ कि अगर किसी से सिर्फ हिंदी में बात करनी हो तो अटकती हूँ...सही शब्द नहीं मिलता. शहर का आपके ऊपर कितना असर होता है. बैंगलोर में चूँकि लोग हिंदी में बात ही नहीं करते हैं तो लहज़ा ही बदल जाता है. ध्यान से सिर्फ सिंपल शब्दों का इस्तेमाल करती हूँ. जबकि दिल्ली में लोग भी वैसे मिलते हैं जिनसे बात करने के पहले सोचना नहीं पड़ता, हर शब्द का मतलब नहीं बताना पड़ता. दिल्ली आना भी किसी खूबसूरत किताब पढ़ना जैसा ही है.

मेरे घर में किताबों की गुंडागर्दी चलती है. इंसान को रहने की जगह मिले न मिले, किताबें अय्याशी में रहती हैं. आलम ये है कि सोचना पड़ रहा है कि किताबें खरीद तो लेंगे, रक्खेंगे कहाँ? अब दो दिन में नया बुकरैक तो लाने से रहे. दिल्ली से आने के साथ ही एक किताबों की अलमारी लानी पड़ेगी. देवघर गए थे तो वहां पुस्तक मेला लगा हुआ था. जानते हुए कि घर में और किताबें रखेंगे तो हम कहाँ रहेंगे की नौबत जल्द आने वाली है...कुछ सारी किताबों को ख़रीदे बिना रहा ही नहीं गया. इसमें से कुछ किताबें तो वहाँ घर पर रख दी हैं. हर बार कितना किताब यहाँ से ढो के ले जाएँ. ऑफिस की भागदौड़ और घर के काम को सम्हालते हुए हाल ये हुआ रहा कि रात को सोने समय किताब पढ़ने की आदत छूट गयी है. सोच रही हूँ, फिर से पढ़ना शुरू करूँ. फिलहाल ये किताबें आसपास हैं, देखें इनको कब खत्म कर पाती हूँ.


प्रेम गिलहरी दिल अखरोट- बाबुषा                           दोज़खनामा- अनुवाद - अमृता बेरा
संस्कृति के चार अध्याय- दिनकर                              त्रिवेणी- विजयदान देथा
लप्रेक- रवीश                                                      दीवान-ए-ग़ालिब - अली सरदार जाफरी (संपादन)
परछाई नाच- प्रियंवद
एक दिन मराकेश- प्रत्यक्षा                                     जंगल का जादू तिल तिल -प्रत्यक्षा
दुनिया रोज़ बनती है- आलोकधन्वा
आइनाघर- प्रियंवद (उधार by AS)                         Map - Szymborska
Dozakhnaama- translation Arunava Sinha    
The museum of innocence - Orhan Pamuk
Interpreter of Maladies - Jhumpa Lahiri        Letters to milena- Kafka
One hundred years of solitude - Marquez

इस साल कुछ फिल्में और बनानी हैं. छोटी फिल्में. अपने मन मिजाज मूड को बयान करती हुयीं. अपने हिसाब से. थोड़ा एडिटिंग पर ध्यान देना है. मन तो हारमोनियम खरीदने का भी कर रहा है बहुत जोर से. रियाज़ किये हुए बहुत वक़्त हुआ. घर गए थे तो पता चला म्यूजिक सर का ट्रान्सफर कहीं और हो गया है. अपनी लिखी कापियां तो जाने कहाँ खो गयीं. छोटा ख्याल की बंदिश...विलंबित आलाप...बड़ा ख्याल...सब गुम हुआ है. कुछ नहीं तो एक कैसियो का कीबोर्ड खरीद लेते हैं. कमसे कम इंस्ट्रुमेंटल बजा तो सकेंगे. मगर फिर लगता है कि हारमोनियम से रियाज़ करने में सुर दुरुस्त होता था. मन की शांति भी मिलती थी. और अभी भले जितना अजीब लगे सुनने में, पर उन दिनों जब रियाज़ करते थे तो योग करने जैसा, साधना करने जैसी फीलिंग आती थी. हमें गुरु बहुत अच्छे मिले थे. उन्होंने संगीत को मनोरंजन की तरह नहीं, साधना की तरह सिखाया. इस बार थोड़ा और संगीत की ओर लौटेंगे. कैसे लौटेंगे, मालूम नहीं.

जिंदगी में किये जाने वाले कामों की विशलिस्ट ख़त्म हो गयी है लगभग. अब नयी लिस्ट बनानी है. कुछ नए काण्ड करने हैं. कुछ तूफानी. कुछ खुराफाती. हालांकि अब बहुत हद तक स्थिरता आ गयी है मगर एक मन अभी भी बेलौस भागता है. पिछले साल का अजेंडा ट्रैवेल था. दुनिया छान मारी. इस साल लिखना और पढ़ना है. मन बहुत संतोषी प्राणी टाइप फील कर रहा है. बेकरारी नहीं लगती. घबराहट नहीं लगती. 

दिल्ली कमबख्त. रेड कारपेट की जगह रेड अलर्ट लगा के बैठी हो नालायक. कैसे आयेंगे हम. जल्दी जल्दी हालत दुरुस्त करो. 

मुझे ऐसा लगता है कि इस साल मैं आत्मचिंतन करूंगी. चुप होने वाली हूँ. सोचूंगी सब कुछ...भीतर भीतर. इक ऐसा दरवाजा बनाउंगी जिसके पार कोई न जा सके. कहीं न कहीं एक वैराग है जो बहुत जोर से हिलोरे मार रहा है. कन्याकुमारी का विवेकानंद रॉक बहुत अजीब किस्म से फ़्लैश कर रहा है. अभी के वैभवशाली रौशनी में डूबा हुआ नहीं. वैसा कि जब विवेकानंद उस तक तैर के चले गए थे. 

समुद्र है. लहरें हैं. 
मन. शान्ति की ओर है. 

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 08 जनवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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