19 May, 2015

इक रोज़ उसी बेपरवाही से क़त्ल किया जाएगा हमें | जिस बेपरवाही से हमने जिंदगी जी है


इस कविता को बहुत दिन पहले फेसबुक पर लिखा था. कल रात इसकी अचानक तलब लगी. कोई एक टुकड़ा था जो याद में चुभ गया था. यहाँ के बुरे इन्टरनेट कनेक्शन में इसे तलाशना भी मुश्किल था. फिर सोच रही थी कि हमें टूटी फूटी चीज़ें अक्सरहां ज्यादा पसंद आती हैं. के मुझे साबुत चीज़ों को तोड़ देने का और टूटी चीज़ों को जोड़ देने का शौक़ है. जाने क्या सोचते हुए परख रही थी उसका दिल. देख रही थी कि कितनी खरोंचें लगी हैं इस पर. फिर अपने दिल को देखा तो लगा कि है इसी काबिल के इसे तोड़ दिया जाए.
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इन्हीं आँखों से क़त्ल किया जाएगा हमें 
और भीगी रात के कफ़न में लपेट कर
दफना दिया जाएगा
किसी की न महसूस होती धड़कनों में

कोई चुप्पी बांधेगी हमारे हाथ
और विस्मृति की बेड़ियों में रहेंगे वो सारे नाम
जिनकी मुहब्बत
हमें लड़ने का हौसला दे सकती थी 

इन्साफ के तराजू में
हमारे गुनाहों का पलड़ा भारी पड़ेगा
सबकी दुआओं पर
और तुम्हारी माफ़ी पर भी 

हमारे लिए बंद किये जायेंगे दिल्ली के दरवाजे
देवघर के मंदिर का गर्भगृह
और सियाही की दुकानें

बहा दिया जाएगा जिस्म से
खून का हर कतरा
तुम्हारी तीखी कलम की निब से काट कर हमारी धमनी

हमें पूरी तरह से मिटाने को
बदल दिए जायेंगे तुम्हारी कहानियों के किरदारों के नाम
तुम्हारी कविताओं से हटा दी जाएँगी मात्रा की गलतियाँ
और तुम्हारे उच्चारण से 'ग' में लगता नुक्ता

इक रोज़
उसी बेपरवाही से क़त्ल किया जाएगा हमें
जिस बेपरवाही से हमने जिंदगी जी है

16 May, 2015

#सौतनचिठियाँ- Either both of us do not exist. Or both of us do.


***
उस इन्द्रधनुष के दो सिरे हैं. एक मैं. एक तुम.
Either both of us do not exist. Or both of us do.
***

मालूम. मैं किसी स्नाइपर की तरह ताक में बैठी रहती हूँ. तुम दुश्मन का खेमा हो. ऐसा दुश्मन जिससे इश्क है मुझे. इक तुम्हारे होने से वो उस बर्बाद इमारत को घर कहता है. मेरी बन्दूक के आगे इक छोटी सी दूरबीन है. मैं दिन भर इसमें एक आँख घुसाए तुम्हारी गतिविधियाँ निहारते रहती हूँ. तुम्हारी खिड़की पर टंगी हुयी है इक छोटी सी अनगढ़ घंटी. मैं उसे देखती हूँ तो मुझे उसकी आवाज़ सुनाई पड़ती है. जैसे मैं तुम्हें देखती हूँ तो तुम्हारी धड़कन मेरी उँगलियों में चुभती है. कुछ यूँ कि मैं ट्रिगर दबा नहीं पाती. के ये दिन भर तुम्हें देखने का काम तुम्हारा खून करने के लिए करना था. मगर मुझे इश्क़ है उसे छूने वाली हर इक शय से. तुमसे इश्क़ न हो. नामुमकिन था.

के तुम पढ़ती हो उसकी कवितायें उसकी आवाज़ में...तुमने सुना है उसे इतने करीब से जितना करीब होता है इश्वर सुबह की पहली प्रार्थना के समय...जब कि जुड़े हाथों में नहीं उगती है किसी के नाम की रेख. तुम जानती हो उसकी साँसों का उतार चढ़ाव...तुमने तेज़ी से चढ़ी है उसके साथ अनगिनत सीढियाँ. तुम उसके उठान का दर्प हो. उसकी तेज़ होती साँसों को तुमने एक घूँट पानी से दिया है ठहराव. तुमने अपने सतरंगी दुपट्टे से पोंछा है उसके माथे पर आया पसीना. मुझे याद आती है तुम्हारी जब भी होती हैं मेरे शहर में बारिशें और पीछे पहाड़ी पर निकलता है इक उदास इन्द्रधनुष.

मालूम. नदियाँ यूँ तो समंदर में मिलती हैं जा कर. मगर कभी कभी हाई टाइड के समय जब समंदर उफान पर होता है...कभी कभी कुछ नदियों की धार उलट जाती है. समंदर का पानी दौड़ कर पहुँच जाना चाहता है पहाड़ के उस मीठे लम्हे तक जहाँ पहली लहर का जन्म हुआ था. उसकी टाइमलाइन पर हर लम्हा तुम्हारा है. बस किसी एक लम्हे जैसे सब कुछ हो रहा था ठीक उलट. धरती अपने अक्षांश पर एक डिग्री एंटी क्लॉकवाइज घूम गयी. सूरज एक लम्हे को जरा सा पीछे हुआ था. उस एक लम्हे उसने देखा था मुझे...इक धीमे गुज़रते लम्हे...कि जब सब कुछ वैसा नहीं था जैसा होना चाहिए. उस लम्हे उसे तुमसे प्यार नहीं था. मुझसे प्यार था. बाद में मैंने जाना कि इसे anomaly कहते हैं. अनियमितता. इस दुनिया की हर तमीजदार चीज़ में जरा सी अनोमली रहती है. मैं बस इक टूटा सा लम्हा हूँ. उलटफेर. मगर मेरा होना भी उतना ही सच है जितना ये तथ्य कि वो ताउम्र. हर लम्हा तुम्हारा है.

यूँ तो मैं इक लम्हे के लिए ताउम्र जी सकती हूँ मगर इस तकलीफ का कोई हल मुझे नज़र नहीं आता. शायद मुझे ये ख़त नहीं लिखने चाहिए. मैं उम्मीद करती हूँ कि ये चिट्ठियां तुम तक कभी नहीं पहुंचेंगी. आज सुबह मैंने वो लम्बी नली वाली बन्दूक वापस कर दी और इक छोटी सी रिवोल्वर का कॉन्ट्रैक्ट ले लिया है. मैंने उन्हें बताया कि मैं तुम दोनों में से किसी को दूर से नहीं शूट कर सकती. वे समझते हैं मुझे. वे उदार लोग हैं. कल पूरी रात मैं बारिश में भीगती रही हूँ. आज सुबह विस्की के क्रिस्टल वाले ग्लास में मुझे तुम दोनों की हंसी नज़र आ रही थी. खुदा तुम्हारे इश्क़ को बुरी नज़र से बचाए. सामने आईने में मेरी आँखें अब भी दिखती हैं. नशा सर चढ़ रहा है.

मैंने कनपटी पर बन्दूक रखते हुए आखिरी आवाज़ उसकी ही सुनी है. 'आई टोल्ड यू. लव कुड किल. नाउ. शूट'. 

08 May, 2015

आमंत्रण: 9 मई को मेरी किताब तीन रोज़ इश्क़ का लोकार्पण IWPC, दिल्ली में.

किताब एक सपना है. एक भोला. मीठा सपना. बचपन के दिनों में खुली आँखों से देखा गया. ठीक उसी दिन दिन जिस पहली बार किसी किताब के जादू से रूबरू होते हैं उसी दिन सपने का बीज कहीं रोपा जाता है. किताब के पहले पन्ने पर अपना नाम लिखते हुए सोचना कि कभी, किसी दिन किसी किताब पर मेरा नाम यहाँ ऊपर टॉप राईट कार्नर पर नहीं, किताब के नाम के ठीक नीचे लिखा जाएगा.
बचपन के विकराल दिखने वाले दुखों में, एक सुख का लम्हा होता है जब किसी किताब में अपने किसी लम्हे का अक्स मिल जाता है. कि जैसे लेखक ने हमारे मन की बात कह दी है. हम वैसे लम्हों को टटोलते चलते हैं....वैसे लेखक, वैसी किताब और वैसे लोग बहुत पसंद आते है. फिर एक किसी दिन कक्षा सात में पढ़ते हुए हमारे हिंदी के सर बड़ी गंभीरता में हमें समझाते हैं कि डायरी लिखनी चाहिए. रोज डायरी लिखने से एक तो भाषा का अभ्यास बढ़ेगा और हम इससे जीवन को एक बेहतर और सुलझे हुए ढंग से जीने का तरीका भी सीखेंगे. बाकी क्लास का तो मालूम नहीं पर उसी दिन हम बहुत ख़ुशी ख़ुशी घर आये और डायरी लेखन का पहला पन्ना खोल के बैठ गए. अब पहली मुसीबत ये कि अगर सीधा सीधा कष्टों को लिख दिया जाए और घर में किसी ने, यानि मम्मी या भाई ने पढ़ ली तो या तो परेशान हो जायेंगे, या कुटाई हो जायेगी या के फिर भाई बहुत चिढ़ायेगा. तो उपाय ये कि अपने मन की बात लिखी जाए लेकिन कूट भाषा में. जैसे कि आज आसमान बहुत उदास था. आज सूरज को गुस्सा आया था. वगैरह वगैरह. लिखते हुए 'मैं' नहीं होता था, बस सारा कुछ और होता था. लिखने का पहला शुक्रिया इसलिए स्वर्गीय अमरनाथ सर को.

लिखने का सिलसिला स्कूल और कॉलेज के दिनों में जारी रहा. बहुत से अवार्ड्स वगैरह भी जीते. स्लोगन राइटिंग, डिबेट, एक्स्टेम्पोर...और इस सब के अलावा बतकही तो खैर चलती ही थी. उन दिनों कविता लिखते थे. जिंदगी का सबसे बड़ा शौक़ था कादम्बिनी के नए लेखक में छप जाना. इस हेतु लेकिन न तो कोई कविता भेजी कभी, न कभी तबियत से सोचा कि कैसी कविता हो जो यहाँ छप जाए. पढ़ने-सुनने वाले लोग बहुत ही दुर्लभ थे. दोस्तों को कुर्सी से बाँध कर कविता सुनाने लायक दिन भी आये. उन दिनों हम बहुत ही रद्दी लिखा करते थे. माँ अलग गुस्सा होती थी कि ये सब कॉपी के पीछे क्या सब कचरा लिखे रहता है तुम्हारा. उन दिनों भले घरों की लड़कियों की कॉपी के आखिरी पन्ने पर इश्क मुहब्बत शायरी जैसी ठंढी आहें भरना अच्छी बात तो थी नहीं. देवघर ने हमारी मासूमियत को बरकरार रखा तो पटना ने हमें आज़ाद ख्याल होना सिखाया. मेरी जिंदगी में जिन लोगों का सबसे ज्यादा असर पड़ता है, उसमें सबसे ऊपर हैं पटना वीमेंस कोलेज के कम्यूनिकेटिव इंग्लिश विद मीडिया स्टडीज(CEMS) के हमारे प्रोफेसर फ्रैंक कृष्णर. सर ने हमारी पूरी क्लास को सिखाया कि सोचते हुए बंधन नहीं बांधे जाने चाहिए...कि दुनिया में कुछ भी गलत सही नहीं होता...हमें चीज़ों के प्रति अपनी राय सारे पक्षों को सुन कर बनानी चाहिए. दूसरी चीज़ जो मैंने सर से सीखी...वो था गलतियां करने का साहस. टूटे फूटे होने का साहस. कि जिंदगी बचा कर, सहेज कर, सम्हाल कर रख ली जाने वाली चीज़ नहीं है...खुद को पूरी तरह जीने का मौका देना चाहिए. 

IIMC दिल्ली में चयन होना मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा मील का पत्थर था. इंस्टिट्यूट में पढ़ा लिखा उतना नहीं जितना आत्मविश्वास में बढ़ावा मिला कि देश के सबसे अच्छे मास कम्युनिकेशन के इंस्टिट्यूट में पढ़ रहे हैं. हममें कुछ बात तो होगी. ब्लॉग के बारे में पटना में पढ़ा था, लेकिन यहाँ और डिटेल में जाना. कि ब्लॉग वेब-लॉग का abbreviation है. दुनिया भर में लोग अपनी डायरी खुले इन्टरनेट पर लिख रहे थे. बस. वहीं कम्प्यूटर लैब में हमने अपना पहला ब्लॉग खोला. 'अहसास' नाम से. ये २००५ की बात है. ब्लॉग पर पहला कमेन्ट मनीष का आया था. मुझे हमेशा याद रहता. फिर ब्लॉग्गिंग के सफ़र में अनगिनत चेहरे साथ जुड़ते गए. उन दिनों मैं अधिकतर डायरीनुमा कुछ पोस्ट्स और कवितायें लिखती थी. हिंदी ब्लॉग्गिंग तब एक छोटी सी दुनिया थी जहाँ सब एक दूसरे को जानते थे. उन दिनों स्टार होना यानी अनूप शुक्ल की चिट्ठा चर्चा में छप जाना. अनूप जी के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से इंस्पायर होकर हमने कुछ पोस्ट्स लिखी थीं, जैसे किस्सा अमीबा का, वगैरह. ब्लॉग एग्रेगेटर चिट्ठाजगत में नए लिखे सारे पोस्ट्स की जानकारी मिल जाती थी. इस आभासी दुनिया में कुछ सच के दोस्त मिले. उनके मिलने से न सिर्फ लिखने का दायरा बढ़ा बल्कि बाकी चीज़ों की समझ भी बेहतर हुयी. फिल्में और संगीत इनमें से प्रमुख है. अपूर्व शुक्ल की टिप्पणियां हमेशा ब्लॉगपोस्ट से बेहतर हो जाती थीं. नयी खिड़कियाँ खुलती थीं. नयी बातें शुरू होती थीं. अपूर्व के कारण मैंने दुबारा वोंग कार वाई को देखा. और बस डूब गयी. बात फिल्मों की हो या संगीत की. यूँ ही प्रमोद सिंह का ब्लॉग रहा है. वहां के पॉडकास्ट न सिर्फ दूर बैंगलोर में घर की याद की टीस को कम करते थे बल्कि उसमें इस्तेमाल किये संगीत को तलाशना एक कहानी हुआ करती थी. इसके अलावा इक दौर गूगल बज़ का था. इक क्लोज सर्किल में वहां सिर्फ पढ़ने, लिखने, फिल्मों और संगीत की बात होती थी. मैंने इन्टरनेट पर बहुत कुछ सीखा.

तुम्हें एक किताब छपवानी चाहिए ये बात लोगों ने स्नेहवश कही होगी कभी. मगर ये किताब छपवाने का कीड़ा तो शायद हर किताब प्रेमी को होता है. मेरी बकेट लिस्ट में एक आइटम ये भी था कि ३० की उम्र के पहले किताब छपवानी है. तो जैसे ही हम २९ के हुए, हमने सोचा अब छपवा लेते हैं. बैंगलोर में कोई भी हिंदी पब्लिशर नहीं मिला और ऑनलाइन खोजने पर किसी का ढंग का ईमेल पता नहीं मिला. उन दिनों सेल्फ-पब्लिशिंग नयी नयी शुरू हुयी थी और बहुत दूर तक इसकी आवाज़ भी सुनाई पड़ रही थी. मेरा लेकिन इरादा क्लियर था. मुझे इसलिए छपना था कि पटना में मेरी किताब बिक सके...वहां तक पहुंचे जहाँ इन्टरनेट नहीं है. मुझे ऑनलाइन नहीं स्टोर में बिकने वाली किताब लिखनी थी. अभी भी लगता है कि जिस दिन किसी हिंदी किताब की पाइरेटेड कोपी देखती हूँ मार्किट में, उस दिन लगता है कि किताब वाकई बिक रही है. अब सवाल था कि किसी पब्लिशर तक जायें कैसे. IIMC जैसे किसी संस्थान से जुड़े होने का फायदा ये होता है कि हमें कुछ भी नामुमकिन नहीं लगता. उसी साल 'कैम्पस वाले राइटर्स' पर केन्द्रित हमारी alumni meet हुयी थी. गूगल पर अपने क्लोज्ड ग्रुप में मेसेज डाला कि एक किताब छपवानी है. मार्गदर्शन चाहिए. अगली मेल में पेंग्विन, यात्रा बुक्स और राजकमल के संपादकों के नाम और ईमेल पता थे. ये २१ अक्टूबर २०१३ की बात थी.  

मैंने पेंग्विन की रेणु आगाल को अपनी पांच छोटी कहानियां भेजीं. उन्होंने पढ़ीं और कहा कि कोई लम्बी कहानी है तो वो भी भेजो. हमने ब्लू डनहिल्स नाम से श्रृंखला लिखी थी. आधी कहानी इधर थी. बाकी को पूरी करके भेज दी. इस लम्बी कहानी का भार इतना था कि रेणु का हाथ टूट गया और पलस्तर लग गया. एक महीने के लिए. जनवरी २०१४ में कन्फर्मेशन आया कि मेरी किताब छपेगी और १० मार्च, जो कि कुणाल का बर्थडे है. उस दिन कॉन्ट्रैक्ट आया किताब का. तो हमारी लिस्ट पूरी हो गयी थी. ३० की उम्र में किताब छपवाने का. ऑफिस से रिजाइन मारे कि किताब लिखना है. अगस्त में मैनुस्क्रिप्ट देनी थी ५०,००० शब्दों की. तो बस. स्टारबक्स की ब्लैक कॉफ़ी और अपना मैक. काम चालू. 

तीन रोज़ इश्क - गुम होती कहानियां. मेरा पहला कहानी संग्रह है. इसमें कुल ४६ छोटी कहानियां हैं. आखिरी लम्बी कहानी, तीन रोज़ इश्क के सिवा सारी ब्लोग्स पर थीं. मगर अब आपको वही कहानियां पढ़ने के लिए किताब खरीदनी पड़ेगी. मुझे पहले इस बात का बहुत अपराधबोध था और इसलिए किताब के बारे में ब्लॉग पर कुछ खास लिखा नहीं था. लेकिन जिस दिन पहली बार पेंग्विन के ऑफिस में किताब हाथ में ली और अपना पहला ऑटोग्राफ दिया...समझ में आया कि ब्लॉग दूसरी चीज़ है...किताब में छपने की बात और होती है. वही कहानियां जिन्दा महसूस होती हैं. सांस लेती हुयी. इस डर से परे कि अब इनको कुछ हो जाएगा. कुछ कुछ वैसे ही जैसे कि अब मुझे मरने से डर नहीं लगता. कि अब मैं गुम नहीं होउंगी. अब मेरा वजूद है. कागज़ के पन्नों में सकेरा हुआ. 

इस शनिवार, 9 मई को मेरी किताब का लोकार्पण है. 4-7 बजे शाम को, दिल्ली के इन्डियन वुमेन्स प्रेस कोर(IWPC), 5 विंडसर प्लेस, अशोका रोड में. मेरे साथ होंगे निधीश त्यागी, अनु सिंह चौधरी और मनीषा पांडे. इन तीनों लोगों को ब्लॉग के मार्फ़त जाना है. फिर मुलाकातें अपना रंग लेती गयी हैं. अनु दी अपने बिहार से हैं और IIMC की सीनियर भी. जब बहुत उलझ जाती हूँ तो उनको फोनियाती हूँ...किसी परशानी के हल के लिए नहीं, उस परेशानी से लड़ने के ज़ज्बे और धैर्य के लिए. 'नीला स्कार्फ' और 'मम्मा की डायरी', दोनों किताबों को खूब खूब प्यार मिला है लोगों का.

निधीश जब आस्तीन के अजगर के उपनाम से लिखते थे तब ही उनसे पहली बार चैट हुयी थी. पिछले साल ३१ दिसंबर की इक भागती शाम पहली बार मिली...उनकी 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो' हाल फिलहाल में पढ़ी सारी किताबों में सबसे पसंदीदा किताब है. निड से बात करना लम्हों में जिंदगी की खूबसूरती को कैप्चर करना है. 

मनीषा से मिली नहीं हूँ. गाहे बगाहे पढ़ती रही हूँ उसे. किताब के सिलसिले में ही पहली बार फोन पर बात हुयी. उसकी आवाज़ में कमाल का अपनापन और मिठास है. दो अनुवाद, 'डॉल्स हाउस' और 'स्त्री के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है' खाते में दर्ज है. इन्हें पढूंगी जरूर. तीन रोज़ इश्क के जरिये इक और खूबसूरत शख्स को करीब से देखने और जानने का मौका मिलेगा. 

ब्लॉग से किताब के इस सफ़र में आप लगातार मेरे साथ रहे हैं. उम्मीद है ये प्यार किताब को भी मिलेगा. अगर इस शनिवार 9th May आप फ्री हैं तो इवेंट पर आइये. मुझे बहुत अच्छा लगेगा. एंट्री फ्री है. आप अपने साथ अपने दोस्तों को भी ला सकते हैं. इवेंट के प्रचार के लिए, फेसबुक इवेंट पेज है. इसे अपना ही कार्यक्रम समझिये. फ्रेंड लिस्ट में लोगों को इनवाईट भेजिए...कुछ को साथ लिए आइये. तीन रोज़ इश्क़ आप इवेंट पर खरीद सकते हैं. साथ में मेरा ऑटोग्राफ भी मिल जायेगा :) फिरोजी सियाही से चमकते कुछ ऑटोग्राफ देने का मेरा भी मन है.

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किताब अब तक बुकस्टोर्स में आ गयी है. इसके अलावा, तीन रोज़ इश्क़ खरीदने के लिए इन लिंक्स को क्लिक कर सकते हैं.

बाकी सब तो जो है...पहली किताब का डर...इवेंट की घबराहट...लास्ट मोमेंट में मैचिंग साड़ी खरीद कर उसके झुमके वगैरह का आफत...फिरोजी स्याही की इंक बोतल लिए फिरना वगैरह...लेकिन बहुत सा उत्साह भी है. जिन्होंने सिर्फ ब्लॉग पढ़ा है या किताब पढ़ी है उनको पहली बार देखने का उत्साह. तो बस ख़त को तार समझना और फ़ौरन चले आना...न ना...फ़ौरन नहीं. 9 तारीख को. हम इंतज़ार करेंगे.

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