12 December, 2015

एक अम्ल से भरा शीशे का मर्तबान है. जिसमें रूह गलती जाती.

लड़की आधी रात को पसीने में तर बतर उठती. कमरे में ग्रीन टी की अजीब तिक्त गंध घुली होती. जैसे न पिए जाने का बदला ले रही हो. उसे लिखने के लिए सन्नाटा चाहिए होता था. जिसमें किसी की साँसों का और आधी नींद के सपनों का शोर न हो. मोबाईल में कुछ बेसिरपैर के मेसेज आये हुए होते व्हाट्सएप्प पर. फेसबुक में भी कुछ ऐरे गिरे लोग कुछ बेसिरपैर की बातें लिख जाते. कुछ फालतू की तसवीरें होतीं जो बिलकुल ही कूड़ेदान में फेंकने के लिए होती. वह उस दस सेकंड की बर्बादी के लिए खुद को कोसती...उनलोगों को कोसती जो ये तसवीरें भेजना चाहते थे. सिगरेट की खराश गले में उतरी होती. वो नीम नींद में ही सिरहाने रक्खा बीड़ी का डिब्बा खोलती और माचिस की खिस खिस में नाराज़ होती कि घर के इस अजायबखेल में लाइटर गुमशुदा होना कब बंद होगा. ऐशट्रे खाली होती. उसे याद आता कि दरवेश कितने दिनों से घर नहीं आया है. आखिरी बार कब लगाया था उसके बालों में बादाम का तेल...जरा सी उसकी मीठी महक बाकी रही है....जरा सा त्वचा पर चिकनाहट का धोखा कोई. उसके अपने खुद के बाल उलझे हुए हैं. उसे याद नहीं आखिरी बार बालों में कंघी कब की थी...याद होनी चाहिए ज्यादा जरूरी चीज़ें कि जैसे आखिरी बार मन से खाना कब खाया था. 

शायरा आधी रात को पसीने में तरबतर उठती कि उसे लगता बातें ख़त्म हुयी जा रही हैं. वो बताना चाहती किसी को कि शिकागो में जब वो मोने की पेंटिंग के पास खड़ी थी तो वक़्त रुक गया था...स्पेस, टाइम...सब कुछ उलझ गया था और कि वह ऐसा महसूस कर रही है कि जैसे उसी वक़्त वहीं खड़ी है कि जब मोने पेंटिंग बना रहा था. मगर दुनिया भर के मर्द एक जैसे होते. वे उससे उसके कपड़ों के बारे में जानना चाहते. औरत जानती कि कपड़ों का सिर्फ पर्दा है. वे जानना चाहते हैं कि पर्दा उठा सकें. बढ़ती उम्र के साथ बातें उसे और बेज़ार करती जातीं और वो कड़वी तम्बाकू चबाते हुए कहना चाहती कि सारे मर्द एक जैसे होते हैं. वह अपने शरीर से बेसुध होती जाती मगर जाने कैसे इस बेसुधपने में एक अजीब आकर्षण होता. उसकी त्वचा की ताम्बई चमक मद्धम हो गयी थी...जाड़ों में तो अब उनमें दरारें पड़ जाती थीं. वो अपने नाखूनों से खुरच कर आड़ी तिरछी रेखाएं बनाती. वो अनजाने भी अपनी त्वचा पर सींखचे खींच रही होती. कुछ आदतें बड़ी जिद्दी होती हैं. न छूने देने की उसकी जिद उसकी त्वचा को ही नहीं जिंदगी को भी रूखा करती जा रही थी. वसंत बीत चुका था. बारिश ख़त्म हो गयी थी. जाड़ों के दिन थे. हाड़ कंपाने वाले जाड़ों के. उसे लेकिन किसी के बदन की गर्मी नहीं चाहिए होती. उसे बातें चाहिए होतीं. बातों को दिल की भट्ठी में झोंक कर वो उम्र भर लम्बी ठंढ काटना चाहती थी. दीवानेपन की भी क्या क्या कहानियां होतीं हैं. 

उसके अन्दर का किस्सागो कभी कभी पागल हो जाता. वो चीखना चाहती कि आखिर क्या रक्खा है इस बदन में. मेरी कहानियों को सुनो. मेरी आँखों और मेरे होठों को मत देखो. मेरे शब्दों से इश्क करो. मुझसे नहीं. ये जिस्म तो मिट्टी में मिल जाना है. मगर वे उसके शब्दों में उसका जिस्म तलाशते रहते. उसकी गंध. उसका इत्र. उसकी अभिमंत्रित आवाज़. उसे चूमना चाहते सड़क किनारे किसी पेड़ की ओट में. सीढ़ियों भरे गलियारों में. कला दीर्घाओं में. किताब के पन्नों में भी. जिस्म एक अम्ल से भरा शीशे का मर्तबान हो जाता जिसमें रूह गलती जाती. वो कहानियों को कपड़े पहनाती चलती. किरदारों को शर्म में डुबो डुबो आत्महत्या करने को मजबूर कर देती. रूमान की जगह भुखमरी लिखती. मुहब्बत की जगह फाके वाली दोपहर और विरह की जगह मौत लिखती. मगर फिर भी उसके किरदार संदल से गमकते. उसकी आँखें ध्रुवतारे सी चमकतीं. कहीं न कहीं छूटे रह ही जाते काढ़े हुए रूमाल...किसी कालर पर लिपस्टिक का दाग कोई या कि किसी के काँधे पर अलविदा की गंध. हाथ की रेखाओं में उग आता बदन सराय का नक्शा और हर मुसाफिर उसके जिस्म की झील में कपड़े उतार कर अपने सफ़र की सारी धूल धो देना चाहता. 

एक दिन उसके बदन में बड़े बड़े नागफनी के कांटे उग आये. तीखे और जहरीले. उसे छूना तकलीफदेह होने लगा. उससे हाथ मिलाने भर से ऐसे ज़ख्म उगते कि भरने में हफ़्तों लग जाते. वो यूँ तो बहुत खुश होती मगर उँगलियों में भी कांटे उग आये तो उसके लिए लिखना मुश्किल हो गया. वो जब तक एक पन्ना लिखती कटा हुआ काँटा फिर से पूरा उग आता. आखिर उसने कहानियां न लिखने का फैसला किया. ये उसके अन्दर दफ्न कहानियां थीं जो कांटे बनकर उसके जिस्म से उग आई थीं. यूं भी कहानियों ने उसके लिए हमेशा ढाल का काम किया था. इसी बीच एक रोज़ दरवेश आया. वो सो रही थी. दरवेश ने माथे पर स्नेह से हाथ रख कर दुलराया तो कांटे भी सो गए. दरवेश बहुत देर तक उसके सिरहाने बैठ कर दुआएं कहता रहा. खुदा मगर उन दिनों काफी व्यस्त था. अधिकतर दुआएँ बैरंग वापस लौट आती थीं. दरवेश ने एक एक करके लड़की के बदन से सारे कांटे तोड़े. हर ज़ख्म के ऊपर कविता का फाहा रखता और सिल देता. मगर काँटों का गुरूर था. वे भीतर की ओर उगते गए. लड़की ने अपनी तकलीफ किसी से नहीं कही. बस उसने किसी से भी मिलना जुलना बंद कर दिया. 

इसके बहुत बहुत रोज़ बाद शाम की हवा में क्लासिक अल्ट्रामाइल्ड्स की गंध घुलने लगी. लड़की की उँगलियों में उसका गहरा लाल लोगो उभरा. इक यायावर उसके दिल से गुज़र रहा था. उसे लड़की के ज़हरीले काँटों के बारे में कुछ पता नहीं था. जाते हुए उसने लड़की को बांहों में भींच लिया...जैसे यहाँ से कहीं न जाना हो आगे...लड़की के सीने के बीचो बीच धंसा था एक ज़हरीला काँटा...उसकी रूह को बेधता हुआ.

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