05 September, 2015

फेयरवेल डियर फाबिया, यू वेयर द बेस्ट कार एवर



"दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं." पहली बार लोगों को दो खांचों में बाँटना शायद इसी डायलॉग से शुरू किया था. लोग जिन्हें बाइक चलानी पसंद है...और लोग जिन्हें कार चलानी पसंद है. ऐसा भी कोई हो सकता है जिसे ये दोनों पसंद हों...या जिसे ये दोनों नापसंद हों ये नहीं सोचते थे. अब लगता है कि ऐसे भी लोग हैं जो पैदल चलना चाहते हैं...या पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते हैं...या साइकिल चलाते हैं. उन दिनों नहीं लगता था. राजदूत चलाने के बाद हम अपने आप को बहुत बड़े तुर्रम खां समझते थे.(बहुत हद तक अब भी समझते हैं). पटना में जब स्कूल आने जाने के लिए कुछ दोस्तों को स्कूटी मिली तो मम्मी बोली कि तुमको भी दिला देते हैं. हम जिद्दी...स्प्लेंडर दिला दो. स्कूटी नहीं चलाएंगे, लड़कियों की सवारी है. उन दिनों खुद को बेहतर जान भी तो रहे थे...लड़की होने का मतलब कमजोर होना...बाइक नहीं चलाना...सभ्य बनना...जबकि बाइक चलाना यानी आवारागर्दी करना...बिंदास होना...और जाने क्या क्या. तो इस चक्कर में स्कूल बस से ही स्कूल आते जाते रहे. बाइक के प्रति जितना प्यार था, कार के प्रति उतनी ही नाराज़गी भी थी. कार बोले तो डब्बा. छी. कौन चलाएगा. तुर्रा ये कि मैंने कार चलानी सीखी तक नहीं. के हम जिंदगी भर में कभी कार नहीं चलाएंगे. 

दिल्ली में अपनी दूसरी नौकरी में थी...२००७ में इन हैण्ड सत्ताईस हज़ार रुपये आते थे. होस्टल का किराया ढाई हज़ार था. मैं मारुती के शोरूम में जा कर अपने लिए वैगन आर देख आई थी. डाउनपेमेंट चालीस हज़ार रुपये और हर महीने कोई सात हज़ार की ईएमआई. शौक़ था कि अपनी खुद की नयी कार खरीद कर मम्मी को उसमें घुमाएंगे. शौक़ भी ऐसा कि कार सीखेंगे तो अपनी गाड़ी में ही...उधार की गाड़ी में नहीं. मगर कहीं बैठे किसी की नज़र लगनी थी. माँ के नहीं रहने के बाद न बाइक न कार का कोई शौक़ रहा. बैंगलोर आई तो जाने पहले के तेवर कहाँ गुम थे. अपने लिए काइनेटिक फ्लाईट खरीदी. के जिसमें जान बसने लगी. किसी को चलाने नहीं देती हूँ. सॉलिड पजेसिव. 

कुणाल बाइक के प्रति वैसे ही बेजार है जैसे मैं कार के प्रति. बैंगलोर के बारिश वाले मौसम में कार खरीदना जरूरी हो गया था. हमने सोचा कि वैगन आर लेंगे. के मैं चलाना सीखूंगी तो जाहिर है बहुत जगह ठोकुंगी ही गाड़ी को. अपनी पसंद की गाड़ी खोजते खोजते हम स्कोडा शोरूम में पहुंचे. वहां रेड कलर की फाबिया लगी हुयी थी. मालूम नहीं धूप का असर था कि क्या...हम दोनों को उससे पहली नज़र का प्यार हो गया. कुछ दिन तो बहुत चैन से कटे. मगर जब सासु माँ बैंगलोर आई तो हम दोनों कहीं भी जाने के लिए कुणाल पर डिपेंडेंट थे...कुणाल को ऑफिस में काम हुआ करता था बहुत बहुत सा. समझ आया कि बिना कार सीखे तो जिंदगी नहीं चलने वाली. मारुती ड्राइविंग स्कूल में कार सीखी. धीरे धीरे एक्सपर्ट हो गए. गाड़ी बहुत जगह ठुकी भी. हमने उन डेन्ट्स को वैसे ही रहने दिया. यहाँ कार अधिकतर मैंने ही चलायी. कुणाल हमेशा से उसे कहता भी पूजा की कार था. कार मेरे घर और मेरी तरह बेतरतीब रहती थी. रोड ट्रिप पर गए तो चिप्स के पैकेट, जूस के कार्टन, टोल की रसीदें...सब कार में. हम कितनी सारी लॉन्ग ड्राइव्स पर गए. 

ऑफिस की मीटिंग्स में मैं अपनी कार लेकर जाती थी. टाइटन की कितनी सारी मीटिंग्स में हम अपनी गाड़ी में गए थे...कि क्लाइंट सर्विसिंग वालों के साथ नहीं जायेंगे, वो कभी भी आपको डिच करके दूसरी मीटिंग के लिए चले जाते हैं. ऑफिस की आउटिंग में सब मेरी कार में क्यूंकि उस समय तक टीम में किसी के पास कार नहीं थी. देर रात की पार्टी के बाद लोगों को उनके घर छोड़ने जाना भी मेरा काम था. मैं हर पार्टी में designated ड्राईवर हुआ करती थी. सबने हमेशा कहा भी है कि लड़की होने के बावजूद मैं बहुत अच्छी गाड़ी चलाती हूँ. मुझे बैंगलोर की अधिकतर जगहों की कार पार्किंग पता थी. कुणाल से कहीं ज्यादा. मैं परफेक्ट पैरलल पार्क करती हूँ. इन फैक्ट कुणाल वैसी पार्किंग नहीं कर पाता जैसे कि मैं करती हूँ. एकदम स्मूथ. उसे आश्चर्य भी होता है.

हाँ लॉन्ग डिस्टेंस ड्राइविंग मैंने कभी नहीं की थी. हाइवे पर मुझे डर लगता था. हमारे रोड ट्रिप्स में सबसे ज्यादा साकिब और कभी कभी मोहित भी रहा है. बाकी की ड्राइविंग कुणाल की. मैं आगे की पैसेंजर सीट में गूगल मैप्स लिए सारथी का काम करती थी. जिन दिनों पेपर मैप्स हुआ करते थे, मेरे पास साउथ इंडिया का एक असल मैप था, जो कि हमेशा गाड़ी में पड़ा रहता था. इसी तरह बैंगलोर का एक मैप हमेशा गाड़ी में रहता था. मेरा स्पेस का सेन्स बहुत सही है...दिशायें...सड़कें...मुझे नींद में भी ध्यान रहता है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं. पोंडिचेरी हम कितने बार गए. कूर्ग. महाबलीपुरम. चेन्नई. जाने कितने शहर. जाने कितनी रोड ट्रिप्स.

बैंगलोर एयरपोर्ट मेरे घर से पचास किलोमीटर दूर है. आउटर रिंग रोड के बाद हाईवे शुरू हो जाता है. उस रास्ते पर मैंने खूब कार चलाई है. लोगों को एअरपोर्ट रिसीव करना और ड्राप करना मेरा फेवरिट काम था. कुणाल कभी शहर से बाहर गया था तो रात के डेढ़ दो बजे सुनसान सड़कों पर अकेले गाड़ी चलाने में भी बहुत मज़ा आता था. फुल वोल्यूम में म्यूजिक लगा कर. उड़ाते जाते थे बस. मैं एसी ऑन नहीं कर सकती थी. एक तो पिक-अप ख़राब होता था, बाहर का साउंड फीडबैक नहीं मिलता था और मुझे सांस लेने में तकलीफ भी होती थी. लास्ट ट्रिप में हम कूर्ग जा रहे थे. मैंने पहली बार हाईवे पर कार चलाई. पूरे तीन सौ किलोमीटर खुद चला के ले गयी. बहुत अच्छा लगा. कुणाल भी बोला कि हम बहुत अच्छा चलाते हैं हाईवे पर भी. हम आगे की रोड ट्रिप्स प्लान कर रहे थे. कि कुणाल आराम से पीछे सोयेगा...हम गाड़ी चलाएंगे...कहाँ कहाँ जायेंगे वगैरह वगैरह. मैसूर भी जाना है इस बीच बहुत दिन हमको. तो हम पूरी तरह कॉंफिडेंट थे कि खुद से आयेंगे जायेंगे.

वापसी में हम ही चलाने वाले थे, लेकिन कुणाल का मन कर गया...वैसे भी ८ लेन हाइवे था...उसमें कार चलाने में बहुत मज़ा आता है. चार के आसपास का वक़्त था...भूख लगी थी. कुछ दूर पर कॉफ़ी डे था. हम जाने का सोच रहे थे. एक स्पीडब्रेकर था...कुणाल ने कार धीमी की और एकदम अचानक से पीछे किसी गाड़ी ने फुल स्पीड में गाड़ी ठोक दी हमारी. कमसे कम 140 पर चली रही होगी. वो शॉक इतना तेज़ था कि कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है. चूँकि सीट बेल्ट लगाए हुए थे तो कोई मेजर चोट नहीं आई. एक्सीडेंट इतनी जोर का था कि गाड़ी आगे चलाने लायक नहीं थी. हमने एक टो करने वाले को बुलाया और टैक्सी कर के बैंगलोर वापस आ गए. 

वापसी में हम ही चलाने वाले थे, लेकिन कुणाल का मन कर गया...वैसे भी ८ लेन हाइवे था...उसमें कार चलाने में बहुत मज़ा आता है. चार के आसपास का वक़्त था...भूख लगी थी. कुछ दूर पर कॉफ़ी डे था. हम जाने का सोच रहे थे. एक स्पीडब्रेकर था...कुणाल ने कार धीमी की और एकदम अचानक से पीछे किसी गाड़ी ने फुल स्पीड में गाड़ी ठोक दी हमारी. कमसे कम 140 पर चली रही होगी. वो शॉक इतना तेज़ था कि कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है. चूँकि सीट बेल्ट लगाए हुए थे तो कोई मेजर चोट नहीं आई. एक्सीडेंट इतनी जोर का था कि गाड़ी आगे चलाने लायक नहीं थी. हमने एक टो करने वाले को बुलाया और टैक्सी कर के बैंगलोर वापस आ गए. 

उस वक़्त ये कहाँ सोचे थे कि कार अब कभी वापस आएगी ही नहीं. वरना शायद एक नज़र प्यार से देख कर अलविदा तो कहती उससे. अचानक ही छिन गया हो कोई. मगर एक्सीडेंट इसे ही कहते हैं. इन्स्युरेंस वालों ने जब हमारी फाबिया को टोटल लॉस डिक्लेयर कर दिया तो रो दी मैं. कितना सारा कुछ था...हमने तो कितने लम्बे सफ़र के सपने देखे थे. पापा कहते हैं चीज़ों से इस तरह जुड़ाव नहीं होना चाहिए. दोस्त भी कहते हैं, 'इट वाज जस्ट अ कार'...और मैं...जो कि दिल टूटने पर सम्हाल ले जाती हूँ खुद को...अजीब से खालीपन से भरी हुयी हूँ पिछले कई दिनों से. बात मैं उन्हें कभी समझा नहीं सकती. मैंने फिर से किसी को टेकेन फॉर ग्रांटेड लिया था. कुणाल ने पूछा...तुम चलोगी...मगर मुझसे नहीं होता. मैं नहीं गयी. यहाँ हूँ. अनगिन तस्वीरों में घिरी हुयी. आज कार के पेपर्स साइन हो गए. किसी और के नाम हो गयी गाड़ी...अब शायद वे उसके स्पेयर पार्ट्स करके बेच देंगे...बॉडी कोई कबाड़ी उठा लिए जाएगा. 

बच जाती हूँ मैं. गहरी उदास. डियर फाबिया. आई एम सॉरी कि मैंने तुमसे कभी कहा नहीं.
आई लव यू. तुम मेरी पहली कार थी...और मेरा पहला पहला प्यार रहोगी.
हमेशा. हमेशा. हमेशा.

1 comment:

  1. Can understand the feeling :) still remember the day when sold my first car. That feeling when car drove out of home to never come back. I hope i have the way with words like you have.

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