28 November, 2014

तुम्हारे इश्क़ में लड़की बग़ावत लिखती है


लिखना इन्किलाब का झंडा हाथ में थामे लड़की है जो दुनिया की आँखों में आँखें डाल कर कहती है, ख़बरदार जो मेरे दिल से उन यादों का एक पुर्जा भी मिटाना चाहा...आग लगा दूँगी...सब ख़ाक हो जाएगा...सारी कवितायें...सारी कहानियां...सारा इतिहास भस्म हो जाएगा इसी एक आग में...कम मत आंको इस आग की क्षमता को!

लिखना हर्फ़ हर्फ़ जमा करते जाना है मुहब्बत के खाते में बेनाम ख़त. लिखना खुद को यकीन दिलाना है कि मुहब्बत में बर्बाद हो जाने के बावजूद...खुद को पूरी तरह अपने प्रेमी के लिए बदल देने के बावजूद मेरा कुछ रह गया है. कुछ ऐसा जो कि हज़ार मुहब्बतों में टूट टूट बिखरने पर भी सलामत रहा है. मेरी शैली...मेरे बिम्ब...मेरा सब कुछ देखने का नजरिया. हाँ तुम मुझे कल को समझा दोगे कि गलत है मेरी आँखें...तुम्हारे दिए चश्मे से मैं देखने लगूंगी दुनिया को सिर्फ काले और सफ़ेद रंग में मगर मेरा मन मुझे फिर भी खींच कर समंदर किनारे बसे रंगरेजों के गाँव ले जाता रहेगा...मेरे कदम हर नक़्शे से भटक जायेंगे और अमलतास के जंगल में मैं भूल आउंगी तुम्हारा दिया हुआ चश्मा. हाँ, मुझे नहीं दिखेगा साफ़ साफ़ कुछ भी...हाँ, सब कुछ धुंधला होगा...हाँ, मैं पहचान नहीं पाऊँगी दोस्त और दुश्मन के बीच का फर्क...हाँ मुझे नहीं दिखेगा इश्क भी...कि वो दूर खड़ा होकर मेरी खिल्ली उड़ा रहा होगा. मगर मैं जाउंगी ऐसे जंगल...मैं जाउंगी ऐसे समंदर जिनमें मुझे जरा जरा डूबना आता हो. हाँ, मैं सीखूंगी फिर से सांस लेना...सांस...सांस...सांस..

तुम भूल जाओगे अपना क्लैरिनेट किसी केबिन में...खामोश हो जाएँगी मेरी शामें. मगर तुम्हें इससे क्या फर्क पड़ने लगा कि तुम अपने दोस्तों के साथ कहकहे लगा रहे होगे शहर के सबसे बदनाम बार में. मैं फिर से साध लूंगी संगीत के स्वर कि तुम्हें वाकई मेरे बारे में कुछ कभी पता नहीं था. पहले इस कागज़ के पन्ने पर सिर्फ तुम्हारा नाम लिखने को जी चाहता था...अब इसी कागज़ के पन्ने पर म्यूजिक अनोटेशन लिखने लगूंगी...इसी कागज़ के पन्ने पर मन की इस उहापोह को रंगने लगूंगी. ब्रश के सारे स्ट्रोक्स बेतरतीब होंगे...लेकिन जान, वे फिर भी बहुत खूबसूरत होंगे.

मुझे होमवर्क मिलेगा कि मैं तीन हज़ार बार लिखूं कि मैं तुम्हें बिसार दूँगी...कि मैं कई हज़ार सालों से मोह के बंधन में बंधी हुयी हूँ...समंदर किनारे किसी शिला पर मैं भी बैठूंगी...मगर वहां मैं नहीं लिखूंगी तुम्हारा नाम. लिखना बगावत होगी तब भी...अपने ही दिल की धड़कनों से...कि तुम्हारे नाम की आवाज़ के सिवा उसे और कोई आवाज़ अच्छी नहीं लगती...वो न झरनों के शोर में बहलता है न चेट बेकर के जैज़ से...न उसे समंदर की लहरों का संगीत कोई राहत दे पाता है. मैं ऊंचे पहाड़ों पर एक छोटा सा एक कमरे का घर बनाउंगी और हर सुबह चीखूंगी तुम्हारा नाम...अकेले...चुप पहाड़ों से...तुम तक मगर नहीं पहुंचेगा कोई भी आवाज़ का कतरा.

तुम मांगोगे मेरा पता...कि जिसपर कभी भेज सको चिट्ठियां...मैं मगर जानती हूँ न तुम्हें...इस अंतहीन इंतज़ार की यातना में जलना मंज़ूर नहीं है मुझे...इसलिए मैं कभी नहीं भेजूंगी तुम्हें अपने उस छोटे से एक कमरे के मकान का पता. तुम्हारी कोई भी बात मुझे याद नहीं रहती...यूँ भी मुझे सुन के कुछ याद नहीं रहता...तभी तो भूलने लगी हूँ अपना नाम भी. काश कि तुमने भी कभी चुपके से पहुँचाया होता कोई परचा मुझ तक...क्लास के सारे बच्चों के थ्रू गुज़रता...मेरी डेस्क तक पहुँचता तो मैं भी भींच के रहती उस नन्हे से पुर्जे पर...कि जिसपर लिखा होता...शाम मिलो मुझसे...स्कूल के पीछे वाली गली में...कल रात ही फोड़ा है बड़ी मुश्किल से उस लैम्पोस्ट का बल्ब...जरा जरा अँधेरे में देखूं तुम्हें...जरा जरा अँधेरे में छू के देखूं तुम्हारा रेशमी दुपट्टा...जरा सा तुम्हारी गर्दन के पास गहरी सांस लूं तो जानूं कि किस साबुन से नहाती हो तुम...कि तुम्हारे बालों में रह जाती है क्या गुलाबों की गंध...वो गुलाब जो तुम्हारे लिए चुराया करता हूँ पड़ोसी के गार्डन से हर रोज़...सुनो न री पागल सी लड़की...तुम्हारी मुहब्बत में दीवाना हुआ जा रहा हूँ...एक बार मिलो न मुझसे...एक आखिरी बार...उसी कोर्नर वाले लैम्पोस्ट के नीचे...मुझे भी सिखा दो कैसे जी लेती हो इतने आराम से...हँस लेती हो सहेलियों के साथ...नाच लेती हो सरस्वती पूजा के पंडाल में...गुपचुप खाने का कॉम्पिटिशन भी जीत जाती हो...मुझे भी सिखाओ न री लड़की...कि मैं तो सांस लेना भी भूलता जा रहा हूँ...

तुम्हें कविता कब पसंद थी...इसलिए जानां लिखना इन्किलाब है...तुम्हारी मुहब्बत में लिखे इन खतों पर कोई और मर मिटेगा मुझपर...तुम कभी जान भी नहीं पाओगे कि कितनी थी मुहब्बत...कितनी है मुहब्बत...तब तक मेरी जान...सांस सांस सांस. जरा थम के...जरा गहरी...स्विमिंग पूल के १४ फीट गहरे पानी में मारी है डाईव कि ऐसे ही एक लम्हें भी भूलती हूँ सांस...और ऐसे ही किसी लम्हे में मिटता है दायीं ऊँगली पर लिखा हुआ सियाही से तुम्हारा नाम...तुम्हारे नाम की अंगूठी नहीं गोदना है जिस्म पर...भूलती हूँ तुम्हें तो भूलने लगती हूँ साँस लेना...कि लिखना...कि अक्षर बगावत हैं...तुम्हारा नाम...इन्किलाबी है...कहता है मैं भूल नहीं पाऊँगी तुमको. कभी भी.

14 November, 2014

जब वो नहीं लिख रही होती खत…

वो रंगो से खुद को जुदा कर रही होती, हर ओर सिर्फ सलेटी रंग होता…काले सियाह और अप्रतिम श्वेत के बीच का सलेटी, कि जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं होती…एक एक करके फोटो अल्बम से हर खूबसूरत तस्वीर को ब्लैक ऐंड व्हाईट में बदल रही होती। उसकी किस्मत में कि उसे एक दिन प्रेम में जोगी भी हो जाना लिखा था…जब उसने अपने रंग बिरंगे परिधानों का त्याग किया तो दुनिया के सारे जुलाहों और रंगरेजों ने शोक मनाया कि उसके जैसा कोई नहीं रंगवाने आता था दुपट्टा…वह कितनी तो बातें करती सब से…दुनिया के सारे फलसफे उसे मुश्किल लगते थे। उसकी आँखों से देखो तो सब कितना आसान था, मगर दुनिया उस जैसों के लिये बनी नहीं है। 

चलती ट्रेन से कूद जाने के पहले उसे करने थे अपने सारे हिसाब बंद…बताना था सबके हिस्से में आया है कितने बटे कितने अंकों का प्यार। करने थे सारे पुराने बहीखाते क्लियर कि वह मुहब्बत के किसी किस्से में कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जा सकती थी। किसी की मुहब्बत का अहसान लिये नहीं जा सकती थी। यूँ तो यह सारी बातें अक्सरहाँ खतों में हो जाया करती हैं मगर कई बार खतों के जवाब आने में देर हो जाती है और फिलहाल लड़की के पास वक्त नहीं था। उसने दुनिया का नक्शा उठाया और तगादे के लिये बाकी लोगों को काले स्केच पेन से मार्क करने लगी। कभी कभी उसे घबराहट भी होती थी कि इतने सारे लोगों से कैसे कह पायेगी एक ही अलविदा। अलग अलग शहरों, देशों में बदलता जाता है विदा कहने का रंग भी। 

हिमाचल का इक शान्त सा गाँव था वह, नन्हा पहाड़ी गाँव, मासूम, प्यारा। हर ओर बर्फ गिरी थी। दूर दूर तक कोई रंग नहीं था कि उसकी आँखों में चुभ जाये। ग्लास में रंगहीन वोदका थी। मगर उस दीवाने लड़के की बातों में अब भी वही लाल रंग मौजूद था, प्रेम का, क्रान्ति का, घर में अब भी मार्क्स और चे ग्वेवारा की तस्वीरें थीं…हाँ उसकी आँखों में वो नीले समंदर की डुबा देने वाली गहराईयाँ नहीं थीं…उसकी आँखें एक उदास सियाह में बदल गयी थीं। ‘तुम मेरे साथ एक बार मौस्को चलोगी?, मेरा जाने कब से मन है मगर अकेले जाने का दिल नहीं करता।’ उसकी सुनती तो अलविदा के प्लान्स सारे पहले ही स्टौप पर धराशायी हो जाने थे। अनदेखे रूस की यादों में पुरानी फिल्म का साउंडट्रैक बहने लगा है…लारा सेय्स गुडबाई टु यूरी…इस मौसम में विदा कहना कितना मुश्किल होता है लेकिन अगर वह बर्फ पिघलने तक रूक जाती तो हर ओर इतने रंग के फूल खिल जाते कि उसके मन पर चढ़ जाते पक्के रंग, फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने मातम का काला चोला पहना है.

लड़के को उसके फितूर की कोई जानकारी नहीं थी. वह उसे बताता जा रहा था कि ऊंचे गंगोत्री के पास जो ग्लेशियर हैं ग्लोबल वार्मिंग से कितना असर पड़ रहा है उनपर. लड़के की बातें भी श्वेत श्याम होने लगी थीं अचानक. बस बचा था उसकी बातों का गहरा लाल रंग और उसकी आँखों की आग जो ख्वाबों में चुभ सकती थी. लड़की ऐसे ही सीखती न रंगों को अनदेखा करना...कहीं से तो शुरुआत करनी जरूरी थी. लड़की चाहती थी यादों के ब्लेड को तेज़ कर अपनी कलाईयों पे मार ले...बह जाने दे खून का सारा कतरा जो उसके नाम को चीखता है. लड़की सीख लेना चाहती थी उसको अपने आप से अलग कर देना. मगर ये सब इतना आसान थोड़े न था. लड़के ने चलने के पहले उसके माथे पर एक नन्हा सा चुम्बन टांका कि जिसमें जिंदगी भर की दुआएँ थीं...और मुहब्बत से उसकी आँखों में देखते हुए बोला...दस्विदानिया...रूस में ऐसा कहते हैं...फिर मिलेंगे. 

घुटने भर बर्फ में बस स्टॉप की ओर चलती हुयी लड़की को अचानक महसूस हुआ कि उसके हाथ बिलकुल सर्द पड़ गए हैं. उसने बैग की आगे की चेन से एक नीला दस्ताना निकला और अपने बायें हाथ में पहन लिया. दस्ताना जरा सा बड़ा था मगर उसकी गर्माहट सीधे दिल तक पहुँचती थी. उसे कोई पांच साल पुरानी सर्दियाँ याद आयीं...धूप में बैठ कर उनींदी आँखों से दस्ताने बुनना सीखना भी. चाचियाँ कैसे हंसती थीं कि उसके दास्ताने में अंगूठा था ही नहीं, बस पांच उँगलियाँ ही थीं. वूल्मार्क वाले निशान के गोले खरीद के लायी थी वो...गहरे नीले. खुद का तोहफा भी कोई वापस लेता है क्या? मगर उसने तो बस आधा सा ही खुद को समेटा है...इतना तो हक था उसका. उसे मालूम था कि जाने के बाद वो बहुत देर तक वो एक दस्ताना खोजता रहेगा...मगर जिंदगी में कुछ तो अधूरा कर जाने की चाहत थी...एक जोड़ी दस्ताने सही.

उसके जोग के काले कपड़ों पर एक नन्हा सा नीला दस्ताना भारी पड़ रहा था...जैसे हर अलविदा से ज्यादा चुभने वाला था इस मासूम मुहब्बत का दस्विदानिया. बारी बारी से हाथ बदल कर पहनती रही वो एक दस्ताना. हर बार जब गर्माहट दिल तक पहुँचने लगती थी उसे लगता था मौत तक जितनी जल्दी पहुँच जाए बेहतर. ये सफ़र उसके अन्दर हज़ार तूफानों की रोपनी कर रहा था...सीधी कतार में. 

वो जब नहीं लिख रही होती थी ख़त तो बाएँ हाथ में एक नीला दस्ताना पहने उन दिनों के ख्वाब बुनने लगती थी जब दोनों एक सड़क पर साथ साथ टहल रहे होंगे, एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए. लड़के ने दायें हाथ में दस्ताना पहना होगा...लड़की ने बाएँ...मगर उनके बिना दस्ताने वाले हाथ ज्यादा गर्म होंगे.
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सर्दियाँ आ गयीं मेरी जान...तुम कब आओगे?

07 November, 2014

कुछ छलावे भी कितने महँगे बिकते हैं


वो हँसते हुये कहता है मुझसे
अच्छा…तो तुम्हें लगता है तुम तलाश लोगी मुझे?
शहर के इस कोलाहल में…
गाड़ियों, लोगों और मशीनों के इस विशाल औरकेस्ट्रा में
तुम छीज कर अलग कर दोगी मेरी आवाज
बचपन में दादी से सीखी थी क्या चूड़ा फटकना?
———
मुझे कभी नहीं आता भूलना, फिर कैसे?
छुट्टियों में रह गया खिड़की की जाली पर
हफ्ते भर बिन पानी का प्यासा पौधा
टप टप बरसता है मनी प्लाँट पर भीगा नवंबर
मगर बचा नहीं पाता है मेरे आने तक आखिरी साँसें
———
तुम तो आर्टिस्ट हो
बनाते हो मुहब्बत की काली आउटर लाइनिंग
कैनवस पर चलाते हो इंतजार के स्ट्रोक्स
मुझे लगता है मैं तुम्हारा मास्टरपीस हूँ
कुछ छलावे भी कितने महँगे बिकते हैं

——— 
रूह बदलती है लिबास
मुहब्बत बदलती है नाम, चेहरे, लोग
मैं बदलती गयी उस लड़की में
जिससे तुम्हें प्यार नहीं होना था कभी

06 November, 2014

हमारे कातिल तलाश लेते हैं हमें

ईश्वर को कम पड़ गयी थी
एक बूंद स्याही
मेरी किस्मत में उसका नाम लिखने के लिये
---

मैं उससे बच बच के चलती रही
कसम से
दूर...दूर और दूर
मुहल्ला। शहर। देश। प्लैनेट
और कभी कभी तो जिन्दगी से भी

आँसुओं से धुलता गया
मेरे वापस लौटने का नक्शा
दिल हँसता रहा मेरी नाकामयाबी पर
 मेरी कोशिशों पर भी

मैं कहाँ रच पायी इतनी दूरी
कि इक जिद्दी, आवारा ख्याल 
खोल ना पाये विस्मृति के सात ताले

मेरे उदास चेहरे को हथेलियों में भर कर
उसने मेरे माथे पर रखा
इक आखिरी बोसा
जिसे मिटा नहीं पाया कोई इरेजर 

हर आकाशगंगा में होता है एक सूर्य
उसकी आँखों के रंग का  
इक नदी उसकी गुनगुनाहटों सी मीठी 
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स्याही की इक लाल बूंद से 
उसने मेरा वरण किया

तब से। 

अनंत के किसी भी क्षण 
मुझे नहीं आया उसके बिना जीना
मैं हर आयाम में होती हूँ अभिशप्त
उसके विरह में जलने के लिये

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