30 July, 2014

Je t'aime जानेमन


लड़की ने आजकल चश्मे के बिना दुनिया देखनी शुरू कर दी है जरा जरा सी. यूँ पहले पॉवर बहुत कम होने के कारण उसे चश्मा लगाने की आदत नहीं थी मगर जब से दिल्ली में गलत पॉवर लगी और माइनस टू पर पॉवर टिकी है उसका बिना चश्मे के काम नहीं चलता. यूँ भी चश्मा पहनना एक आदत ही है. जानते हुए भी कि हमें सब कुछ नहीं दिख सकता. मायोपिक लोगों को तो और भी ज्यादा मुश्किल है...आधे वक़्त पूछते रहेंगे किसी से...वो जो सामने लाइटहाउस जैसा कुछ है, तुम्हें साफ़ दिख रहा है क्या...अच्छा, क्या नहीं दिख रहा...ओह...मुझे लगा मेरी पॉवर फिर बढ़ गयी है या ऐसा ही कुछ. 

लड़की आजकल अपने को थर्ड परसन में ही लिखती और सोचती भी है. उसका दोष नहीं है, कुछ नयी भाषाएँ कभी कभार सोचने समझने के ढंग पर असर डाल सकती हैं. जैसे उसने हाल में फ्रेंच सीखना शुरू किया है...उसमें ये नहीं कहते कि मेरा नाम तृषा है, फ्रेंच में ऐसे कहते हैं je m'appele trisha...यानि कि मैं अपने आप को तृषा बुलाती हूँ...वैसे ही सोचना हुआ न...कि मेरे कई नाम है, वो मुझे हनी बुलाता है, घर वाले टिन्नी, दोस्त अक्सर रेडियो कहते हैं मगर अगर मुझसे पूछोगे तो मैं खुद को तृषा कहलाना पसंद करुँगी. हमें कभी कभी हर चीज़ के आप्शन मिलते हैं...जैसे आजकल उसने चश्मा पहनना लगभग छोड़ दिया है. इसलिए नहीं कि उसे स्पाइडरमैन की तरह सब साफ़ दिखने लगा है...बल्कि इसलिए कि अब उसे लगता है कि जब दुनिया एकदम साफ़ साफ़ नहीं दिखती, बेहतर होती है. जॉगिंग
 करने के लिए वैसे भी चश्मा उतारना जरूरी था. एक तो पसीने के कारण नाक पर रैशेज पड़ जाते थे उसपर दौड़ते हुए बार बार चश्मा ठीक करना बेहद मुश्किल का काम था...उससे रिदम में बाधा आ जाती थी. मगर इन बहानों के पीछे वो सही कारण खुद से भी कह नहीं पा रही है... जॉगिंग करते हुए आसपास के सारे लोग घूरते हैं...चाहे वो सब्जी बेचने वाले लोग हों...पार्क के सामने ऑटो वालों का हुजूम. सब्जी खरीदने आये अंकल टाइप के लोग या बगल के घर में काम करते हुए मजदूर. सड़क पर जॉगिंग करती लड़की जैसे खुला आमंत्रण है कि मुझे देखो. चश्मा नहीं पहनने के कारण उसे उनके चेहरे नहीं दिखते, उनकी आँखें नहीं दिखतीं...चाहने पर भी नहीं. बिना चश्मे के उसके सामने बस आगे की डेढ़ फुट जमीन होती है. उससे ज्यादा कुछ नहीं दिखता. ऐसे में वो बेफिक्री से दौड़ सकती है. उसके हैडफ़ोन भी दुनिया को यही छलावा देने के लिए हैं कि वो कुछ सुन नहीं रही...जबकि असलियत में वो कोई गीत नहीं बजा रही होती है.

जॉगिंग के वक़्त दिमाग में कुछ ही वाक्य आ सकते हैं...तुम कर सकती हो...बस ये राउंड भर...अगला कदम रखना है बस...अपनी रिदम को सुनो...एक निरंतर धम धम सी आवाज होती है लय में गिरते क़दमों की...तुम फ्लूइड हो...बिलकुल पानी...तुम हवा को काट सकती हो. सोचो मत. सोचो मत. लोग कहते हैं कि जॉगिंग करने से उनके दिमाग में लगे जाले साफ़ हो जाते हैं. उस एक वक़्त उनके दिमाग में बस एक ही ख्याल आता है कि अगला स्टेप कैसे रखा जाए. लड़की ने हालाँकि खुद की सारी इन्द्रियों को बंद कर दिया है मगर उसका दिमाग सोचना बंद ही नहीं करता. उसने अपने कोच से बात की तो कोच ने कहा तुम कम दौड़ रही हो...तुम्हें खुद को ज्यादा थकाने की जरूरत है. तब से लड़की इतनी तेज़ भागती है जितनी कि भाग सकती है...लोगों के बीच से वाकई हवा की तरह से गुजरती है मगर दिमाग है कि खाली नहीं होता. उसे अभी भी किसी की आँखें याद रह गयी हैं...अलविदा कहते हुए किसी का भींच कर गले लगाना...बारिशों के मौसम में किसी को देख कर चेहरे पर सूरज उग आना...कितनी सारी तस्वीरें दिमाग में घूमती रहती हैं. उसे अपनी सोच को बांधना शायद कभी नहीं आएगा.

फ्रेंच की कुछ चीज़ें बेहद खूबसूरत लगी उसे...कहते हैं...tu me manque...you are missing from my life...मैं तुम्हें मिस कर रही हूँ जैसी कोई चीज़ नहीं है वहां...इस का अर्थ है कि मेरी जिंदगी में तुम्हारी कमी है...जैसे कि मेरी जिंदगी में आजकल यकीन की कमी है...उम्मीद की कमी है...सुकून की कमी है...और हाँ...तुम्हारी कमी है. इतना सारा फ्रेंच में कहना सीख नहीं पायी लड़की. उसके लिए कुछ और फैसले ज्यादा जरूरी थे. देर रात पैरों में बहुत दर्द होता है. नए इश्क में जैसा मीठा दर्द होता है कुछ वैसा ही. मगर जिद्दी लड़की है...कल फिर सुबह उठ कर जॉगिंग जायेगी ही...याद और भी बहुत कुछ आता है न...चुंगकिंग एक्सप्रेस का वो लड़का...जो कहता है कि दिल टूटने पर वो दौड़ने चला जाता है...जब बहुत पसीना निकलता है तो शरीर में आंसुओं के उत्पादन के लिए पानी नहीं रहता. लड़की की हमेशा भाग जाने की इच्छा थोड़ी राहत पाती है इस रोज रोज के नियमपूर्वक भागने से. बिना चश्मे के दौड़ते हुए टनल विजन होता है. आगे जैसे रौशनी की एक कतार सी दिखती है...और वहां अंत में हमेशा कोई होता है. पागल सा कोई...शाहरुख़ खान की तरह बाँहें खोले बुलाता है, सरसों के खेत में...वो भागती रहती है मगर रौशनी के उस छोर तक कभी पहुँच नहीं पाती. कभी कभी लगता है कि किसी दिन थक कर गिरने वाली होगी तो शायद वो दौड़ कर बांहों में थाम लेगा.

भाषाएँ खो गयी हैं और शब्द भी. अब उसे सिर्फ आँखों की मुस्कराहट समझ आती है...सीने पर हाथ रख दिल का धड़कना समझ आता है या फिर बीपी मशीन की पिकपिक जो उससे बार बार कहती है कि दिल को आहिस्ता धड़कने के लिए कहना जरूरी है...इतना सारा खून पम्प करेगा तो जल्दी थक जाएगा...फिर किसी से प्यार होगा तो हाथ खड़े कर देगा कि मुझसे नहीं हो पायेगा...फिर उसे देख कर भी दिल हौले हौले ही धड़केगा...लड़की दौड़ती हुयी उसकी बांहों में नहीं जा सकेगी दुनिया का सारा दस्तूर पीछे छोड़ते हुए....लेकिन रुको...एक मिनट...उसने चश्मा नहीं पहना है...लड़की को मालूम भी नहीं चलेगा कि वो इधर से गुजर गया है...ऐसे में अगर लड़के को वाकई उससे इश्क है तो उसका हाथ पकड़ेगा और सीने से लगा कर कहेगा...आई मिस यू जान...Tu me manques. मेरी जिंदगी में तुम मिसिंग हो. हालाँकि लड़की की डेस्टिनी लिखने वाला खुदा थोड़ा सनकी है मगर कभी कभी उसके हिस्से ऐसी कोई शाम लिख देगा. मैं इसलिए तो लड़की को समझा रही हूँ...इट्स आलराईट...उसे जोर से हग करना और कहना उससे...आई मिस्ड यू टू. बाकी की कहानी के बारे में मैं खुदा से लड़ झगड़ लूंगी...फिलहाल...लिव इन द मोमेंट. कि ऐसे लम्हे सदियों में एक बार आते हैं.
*photo credit: George

24 July, 2014

लूसिफर. तुकबन्दियाँ और ब्लैक कॉफ़ी.

जरा जरा खुमार है. रात के जाने कितने बज रहे हैं. अब सिर्फ कहीं भाग जाना बचा है. मैं हसरतों से पोंडिचेरी नाम के छोटे से शहर को देखती हूँ. इस शहर में कुछ सफ़ेद इमारतें हैं छोटी छोटी, ऐसा मुझे लगता है कि फ़्रांस होता होगा कुछ ऐसा ही...यहाँ का आर्किटेक्चर फ्रेंच है. मैंने फ़्रांस को देखा नहीं है...सिवाए सपनों के. दुनिया में इकलौता ये शहर भी है जहाँ औरबिन्दो आश्रम में एक दुपहर श्री माँ के पदचिन्हों के पास खड़े होकर महसूस किया था कि माँ कहीं गयी नहीं है. मेरे साथ है. तब से बाएँ हाथ में एक चांदी की अंगूठी पहनती हूँ...उनके होने का सबूत. खुद को यकीन दिलाने का सबूत कि मैं अकेली नहीं हूँ.

सब होने पर भी प्यार कम पड़ जाता है मेरे लिए. हर किसी को जीने के लिए अलग अलग चीज़ों की जरूरत होती है. मुझे लोग चाहिए होते हैं. कभी कभी धूप, सफ़र और मुस्कुराहटें चाहिए होती हैं तो कभी सिर्फ हग्स चाहिए होते हैं. जीने के लिए छोटे छोटे बहानों की तलाश जारी रहती है. आज दो लोगों से मिली. जाने कैसे लोग थे कि उनसे कभी पहले बात की ही नहीं थी...साथ एक ऑफिस में काम करने के बावजूद. नॉर्मली मुझे कॉफ़ी पी कर नशा नहीं होता है मगर कुछ दिनों की बात कुछ और होती है. मैंने कहा कि मैं तुम्हें हमेशा लूसिफ़ेर के नाम से सोचती हूँ...उसने पूछा 'डू यू नो हू लूसिफ़ेर इज?' मैंने कहा कि शैतान का नाम है...फिर मैंने कहा कि कभी उसके नाम का कोई किरदार रखूंगी तो उसका नाम लूसिफ़ेर ही लिखूंगी. उसने मुझे बताया कि लूसिफ़ेर शैतान का बेटा है. मैंने कहा कि जब सच में कहानी लिखूंगी तो रिसर्च करके लिखूंगी. चिंता न करे. उसने बताया कि लूसिफ़ेर शैतान का बेटा है. मुझे कुछ तो ध्यान है कहानी के बारे में...पर ठीक ठीक मालूम नहीं है. मुझे वो अच्छा लगता है. जैसे कि मुझे शैतान अच्छा लगता है. शैतान के पास अच्छा होने की और दुनिया के हिसाब से चलने की मजबूरी नहीं होती है.

मैं जो लिखती हूँ और मैं जो होती हूँ उसमें बहुत अंतर नहीं होता है...होना चाहिए न? लिखना एक ऐसी दुनिया रचना है जो मैं जी नहीं सकती. एक तरह की अल्टरनेट रियलिटी जहाँ पर मैं खुदा हूँ और मेरे हिसाब से दुनिया चलती है.

बहरहाल बात कर रही थी इन दो लोगों की जिनसे मैं आज मिली. मैंने उनके साथ कभी काम नहीं किया था. उनके लिए मैंने एक गीत लिखा था. यूँ मैंने दुनिया में कुछ खास अच्छे काम नहीं किये हैं मगर ये छोटा सा गीत लिख कर अच्छा सा लगा. जैसे दुनिया जरा सी अच्छी हो गयी है...जरा सी बेहतर. मैं आजकल कवितायें भी नहीं लिखती हूँ. ऑफिस में कुछ कॉर्पोरेट गीत देखे तो वो इतने ख़राब थे कि देख कर सरदर्द होने लगा. और दुनिया में कुछ भी नापसंद होता है तो उसे बदलने की कोशिश करती हूँ...इसी सिलसिले में दो गीत लिखे थे...दोनों बाकी लोगों को बहुत पसंद आये...मेरे हिसाब से कुछ खास नहीं थे. मगर बाकियों को पसंद आये तो ठीक है. जैसे गीत हमें कोई बाहरी गीतकार ३० हज़ार रुपये में लिख कर दे रहा था उससे तो मेरे ये फ्री के गीत कहीं ज्यादा बेहतर थे. इतना तो सुकून था. तो थोड़ा सा इम्प्रैशन बन गया था कि मैं गीत अच्छा लिखती हूँ. गीत आज पढ़ कर सुनाया...ऐसा कभी कभार होता है कि अपना लिखा हुआ किसी को डाइरेक्ट सुनाने मिले...गीत सुनते हुए उनमें से एक की आँखों में चमक आ गयी...उसकी ख़ुशी उसके चेहरे पर दिख रही थी. उसे बहुत अच्छा लगा था. शब्दों से किसी के चेहरे पर एक मुस्कान आ जाए इतना काफी होता है...यहाँ तो आँखों तक मुस्कराहट पहुँच रही थी. इतना काफी था. मैंने उसके साथ कभी काम नहीं किया था...उसे अपनी लिखी एक कहानी भी सुनाई...और जाने क्या क्या गप्पें. जाते हुए उसने हाथ मिलाया और कहा 'इट वाज नाईस नोविंग यू'. बात छोटी सी थी...पर बेहद अच्छा सा लगा.

दोनों खुश थे. बहुत. उसका हग बहुत वार्म था...बहुत अपना सा. बहुत सच्चा सा. अच्छाई पर से टूटा हुआ विश्वास जुड़ने लगा है. शुक्रिया. मुझे अहसास दिलाने के लिए कि दुनिया बहुत खूबसूरत है...कि मुझमें कुछ अच्छा करने की काबिलियत है. नीम नींद और नशे में लिख रही हूँ. इस फितूर की गलतियां माफ़ की जाएं.

In healing others we heal ourselves.

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