16 December, 2014

पानी एक प्यासा प्रेमी है

पानी ने बना रखा है उसके बदन का नक्शा
भूलभुलैय्या में जानता है सही रास्ते
हर बार मुड़ता है सही मोड़ों पर 
पानी को याद हैं उसके सारे कटाव

फिसलपट्टी सा किलकता है
मग्गे से गिरता झल झल पानी
झरने से टपकता है टप टप

नदी में उतरती है लड़की
तो कस लेता है अजगरी आलिंगन में

उसे छू कर नीयत बदल जाती है पानी की भी
अटक जाना चाहता है, बालों में, आँखों में, काँधे पर
लड़की तौलिये से रगड़ कर मिटाती है उसके गीले बोसे
हेयर ड्रायर ऑन करती है तो सुलगता है पानी
पंख मिलते हैं मगर उड़ना नहीं चाहता भाप बन कर भी

पानी को इंतज़ार रहता है जाड़ों का
कि जब नल के बेसुर राग में सिहरती है लड़की
थरथरा जाता है पानी भी उसके रोयों से गुज़रते हुए
फर्श से उठाता है उसकी कतरनें
जाड़ों में बर्फीला पानी उसकी केंचुल हुआ जाता है

कवि की उँगलियों में कलम है
पानी की उँगलियों में उसका गोरा कन्धा
दोनों मांजते हैं अपने अपने हुनर को
कवि अपने रकीब को सलाम भेजता है
पानी अपने रकीब को लानतें

पानी कहता है मैंने छुआ है उसे
जहाँ तक तुम्हारी सोच ही जा सकती है बस

कवि कहता है मैं छू सकता हूँ उसका मन
पराजित पानी लड़की की आँखों से गिर आता है आँसू बन कर.

1 comment:

  1. "कवि कहता है मैं छू सकता हूँ उसका मन
    पराजित पानी लड़की की आँखों से गिर आता है आँसू बन कर."

    ऐसे ही अनायास आंसू सी बह जाती है कविता!

    बेहद सुन्दर!!

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