29 November, 2013

सियाही का रंग सियाह

उसे उदास होने का शौक लगा रहता...वो देखती साथ की दोस्तों को उदास आहें भरते हुए...गम में शाम की उदासी का जिक्र करते हुए...धूप में बादल को तलाशते और बारिश वाले दिनों में सूरज की गर्मी ढूंढते हुए. उसकी बड़ी इच्छा होती कि वो भी किसी के प्यार में उदास हो जाए...कोई उससे दूर रहे और वो उसकी याद में कवितायें लिखे लेकिन उसके साथ ऐसा होता नहीं. उसे किसी से प्यार होता तो वो उसे अपने दिल में बहुत सी जगह खाली कर के परमानेंट बसा लेती...फिर उसे कभी उस ख़ास को 'मिस' करने का मौका नहीं मिलता.

उसके इर्द गिर्द बहुत सुख थे इसलिए वो दुःख के पीछे मरीचिका सी भागती...उसे दुःख में होना बहुत ग्लैमरस लगता. इमेज कोई ऐसी उभरती कि करीने से लगा मस्कारा थोड़ा थोड़ा बह गया है...काजल की महीन रेखा भी थोड़ी डगमगा रही है कि जैसे हलके नशे में काजल लगाया गया हो. चेहरे पर के मेक-अप की परतों में रात को नहीं सोने वाले काले गड्ढे ढक दिए गए हैं...कंसीलर से छुपा लिया है टेंशन के कारण उगे मुहांसों को भी...और इतने पर भी अगर कमी बाकी रह गयी तो एक बड़ा सा काला चश्मा चढ़ा लिया कि कुछ दिखे ही ना. फीके रंग के कपड़े पहनना कि आसपास आती रौशनी भी उदास दिखे. चटख रंग के कपड़े उदासी को पास नहीं फटकने देते. 
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तारीखों का चकमक पत्थर है, घिसती हूँ तो कुछ चिंगारियां छूटती हैं...हाथ छुड़ा के भागती है कोई लड़की दुनिया की भीड़ में कि उसे मालूम है कि जब जंगल में आग लगती है तो किसी मौसम से कोई फर्क नहीं पड़ता. उसने भारी बरसातों में जंगल जलते देखे हैं...धुआं इतना गहरा होता है कि देख कर मालूम करना मुश्किल होता है कि आसमान का काला रंग जंगल से उठ रहा है या जंगल का सियाह रंग बादलों से बरस रहा है.
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कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
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एक लड़की थी...बहुत दिनों से कहानी लिखने की कोशिश कर रही थी पर उसके किरदार पूरी जिंदगी जीने के पहले ही कहानी के पन्नों से उठ कर कहीं चले जाते थे. उसे लिखते हुए कभी मालूम नहीं होता किस किरदार की उम्र कितनी होगी. वो हर बार बस इतना ही चाहती कि कहानी का अंत कम से कम उसे मालूम हो जाए मगर उसके किरदार बड़े जिद्दी थे...अपनी मनमर्जी से आते थे अपने मनमाफिक काम करते थे और जब उनका मूड होता या जब वे बोर हो जाते, लड़की से अलविदा कहे बिना भी चले जाते. यूँ गलती तो लड़की की ही थी कि वो ऐसे किरदार बनाती ही क्यूँ थी...मगर बहुत सी चीज़ों पर आपका हक नहीं होता...वो आपके होते हुए भी पराये होते हैं.
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मेरी उँगलियों में तुम्हारी सिगरेट की गंध बसी हुयी है, मेरी शामों में तुम्हारा रूठ कर जाना...मेरी बरसातों में हरा दुपट्टा ओढ़े एक लड़की भीगती है...ठंढ की रातों में मुंह से सफ़ेद धुआं निकलता है तो स्कूल ड्रेस के लाल कार्डिगन की याद आती है. मौसमों के पागल हो जाने के दिन हैं और मैं पूरे पूरे दिन भीगते हुए गाने सुनना चाहती हूँ.

मैं समंदर में एक कश्ती डाल देना चाहती हूँ...मैं तूफ़ान की ओर बढ़ती हूँ और तूफ़ान कदम समेटता है...मैं देखती हूँ उस लड़की को जो मुझसे एकदम अलग है...मुझे उस लड़की से डर लगता है...उस लड़की से किसी को भी डर लगता है. वो जाने किस नींद से जागने लगी है...वो लड़की कितनी गहरी है कि प्यार का एक बूँद  भी नहीं छलकता उसकी अंजुरी से...उस लड़की में कितना अंधकार है कि हर रौशनी से दूर भागती है. वो कितनी डिसट्रक्टिव है...उसमें कितना ज्यादा गुस्सा है. मैं उसकी इच्छाशक्ति को देखती हूँ तो थरथराती हूँ. देखती हूँ कि दुर्गा अवतार से काली बनना बहुत मुश्किल नहीं होता.

तांडव करते हुए सबसे पहले जो टूटता है वो अभिमान है...

2 comments:

  1. शीर्षक ही इतना बहेतरीन है कि क्या कहा जाए … बहुत अच्छा।

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  2. जितनी परतें विस्तार में टूटती हैं, उससे भी अधिक सिकुड़न में चटख जाती हैं।

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