28 November, 2013

नीले कोट की सर्दियाँ कब आएँगी?

कभी कभी लगता है सब एकदम खाली है. निर्वात है. कुछ ऐसा कि अपने अन्दर खींचता है, तोड़ डालने के लिए. और फिर ऐसे दिन आते हैं जैसे आज है कि लगता है लबालब भरा प्याला है. आँख में आंसू ऐसे ही ठहरे रहते हैं कोर पर और खूब खूब सारा रो लेने को जी चाहता है. मन भरा भरा सा लगता है. कुछ ऐसा कि लगता है विस्फोट हो जाएगा. जगह नहीं है इतने कुछ की.

बहुत शिद्दत से एक सिगरेट की तलब महसूस होती है. पैकेट निकाल कर सामने रखा है. इसमें ज़िप लॉक टेक्नोलॉजी है कि जिससे सिगरेट हमेशा फ्रेश रहे. मालूम नहीं कितनी असरदार है तकनीक. एक सिगरेट निकाल कर खुशबू महसूस करती हूँ उसकी. अच्छी ही लगती है. याद नहीं ये वाला पैकेट कितने दिन पहले ख़रीदा था. सिगरेट के पैकेट पर कभी एक्सपायरी डेट दिखी हो ऐसा याद नहीं. हाँ मेरी एक्सपायरी डेट जरूर लिखी दिखती है. स्मोकिंग सीरियसली हार्म्स यू एंड अदर्स अराउंड यू. इसलिए अगर पीना है तो ऑफिस से बाहर सड़क पर टहलते हुए पीनी पड़ेगी. टहलने लायक एनर्जी है ऐसा महसूस नहीं हो रहा है मुझे. सोच रही हूँ किसी से पूछूं, अगर कोई एकदम ही रैंडम में सिगरेट पीता है, जैसे कि साल के ऐसे किसी दिन तो भी उसके कैंसर से मरने के चांसेस रहते हैं. गूगल कुछ नहीं बताता.

Right now i'd give anything for just the right to smoke here, right at my table...but well...there are the rules.

उदासियाँ अकेले नहीं आतीं, अपने साथ मौसम का मिजाज भी लाती है, गहरा सलेटी...जिसमें धूप नहीं उगती. कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा. आज खाना भी ठीक से नहीं खाया. सुबह कुक देर से आई. उसके आते आते बिना ब्रेकफास्ट किये ऑफिस जाने का मूड हो चुका था. कभी कभी लगता है कि भूख कोई चीज़ नहीं होती है. मूड ख़राब हो तो अच्छा खाना भी खाया नहीं जाता और गंध से ही उबकाई आती है. सुबह कुछ काम करना था, मेल्स वगैरह. थोड़ा और काम.

लंच कोई तरह से अन्दर धकेला...कि खा लेना जरूरी है समय पर. फिलहाल उदासी एकदम गहरी नदी की तरह है और उबरने का कोई तरीका नहीं दिख रहा. न कुछ पढ़ने का दिल कर रहा है न लिखने का. फिल्म देखने का भी कोई असर नहीं. अन्दर अन्दर भीगना और रिसना जैसा कुछ. जैसे सारी दीवारें सीली हैं और छूने से डर लगता है. एक कहानी लौट लौट कर याद आ रही है आदमखोर इमारतों में बंद रूहों को आज़ाद कर दो. लगता है वैसे ही किसी अस्पताल के कमरे में भर्ती हूँ सदियों से. न कोई मिलने वाला आया है, न डॉक्टर इलाज की कोई आखिरी तरीख बताते हैं.

मर जाने के सारे तरीके बेअसर साबित हुए हैं. इतना थका हुआ सा लगता है कि मर जाने की भी सारी प्लानिंग करनी मुश्किल लग रही है. उस रास्ते पर जाने के लिए बहुत टेक्नीकल होना पड़ता है. बहुत सी और चीज़ें सोचनी पड़ती हैं. अभी सिर्फ और सिर्फ उसकी याद आ रही है. एक वो ही थी न जिसको दिन में कभी भी फ़ोन करो समझ जाती थी कि सब ठीक नहीं है. उसके बिना जीने की आदत क्यूँ नहीं लगती. छः साल हो गए उसे गए हुए. अब भी ऐसे किसी दिन उसे खोजना बंद क्यूँ नहीं करती. कितना भागती हूँ उससे. उसकी कहीं फोटो नहीं रखी है फिर भी खुले आसमान के नीचे खड़े होने पर लगता है, वो है कहीं. देख रही है हमको.

१८ घंटे लगातार काम करने की कैपेसिटी नहीं है मेरी. थक जाती हूँ. सीढियां चढ़ती उतरती भागती. खाने का होश नहीं. कभी कभी कुक के नहीं आने से बहुत इरीटेशन होती है. मैं बिना खाए रह भी जाऊं...कुणाल के लिए घर का खाना नहीं होता है तो इतनी गिल्ट फीलिंग होती है कि समझ नहीं आता क्या करूँ. कल रात भी बाहर खाया है. मुझसे घर सम्हालता क्यूँ नहीं. आज उन सारी लड़कियों से बड़ी जलन होती है तो तरतीब से सजाया हुआ घर रख लेती हैं. पति का ख्याल रखती हैं. बच्चे बड़े करती हैं. मैं कुछ तो नहीं करती ख़ास. एक लिखने के अलावा मेरा और किसी काम में मन भी तो नहीं लगता.

लॉन्ग हॉलिडे...मेंटल पीस के लिए. हफ्ते भर. महीने भर. साल भर. जिंदगी भर. समंदर किनारे लेटे रहे गीली रेत पर. मुझसे और कुछ होता क्यूँ नहीं. आज लिरिक्स भी लिखने हैं. थक गयी हूँ. कन्धों में दर्द हो रहा है. सर में दर्द. दो दिन से घर का बना खाना नहीं खाया है. मैं बाकी लोगों की तरह मैनेज क्यूँ नहीं कर पाती? कैसे कर लेता है कोई, घर ऑफिस सब कुछ अच्छे से. मैं कहाँ फंस जाती हूँ. मौका मिलते लिखने लगती हूँ...अभी कायदे से इस वक़्त मुझे नहा कर तैयार होना चाहिए. आज एक जरूरी मीटिंग है. थोड़ा अपनी शक्ल पर ध्यान दूँगी तो बुरा नहीं होगा किसी का. पर मुझे फिलहाल यही सोच के सर दर्द है कि कौन से कपड़े आयरन करूँ. पीच कलर की एक शर्ट है. वही पहनती हूँ.

दिमाग बर्रे का छत्ता बना हुआ है. सिगरेट. कहाँ है सिगरेट. मैं एडिक्ट की तरह बात करती हूँ, जबकि मेरा पैकेट हमेशा कोई और ख़त्म करता है. आखिरी सिगरेट किस जन्म में पी थी याद नहीं मगर बैग में चाहिए जरूर. ब्रांड को लेकर ऐसी जिद्दी कि और कुछ नहीं पी सकती. मेरा दिमाग ख़राब है. उफफ्फ्फ्फ़....कोई लाओ रे कहीं का मौसम...कहीं की बारिश...कोलेज का बेफिकरपन...मम्मी की डांट...दोस्तों से झगड़ा...जीने के लिए जरूरत है एक अदद खुद की. किसी डब्बी में बंद करके भूल गयी हूँ. घर की भूलभुलैय्या की चाबी कहाँ गयी? 

4 comments:

  1. "उदासियाँ अकेले नहीं आतीं, अपने साथ मौसम का मिजाज भी लाती है, गहरा सलेटी...जिसमें धूप नहीं उगती."

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (30-11-2013) "सहमा-सहमा हर इक चेहरा" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1447” पर होगी.
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.

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  3. सच में … कुछ ऐसा … या इस जैसा हम सब कि जीवन में होता है .... कुछ बेहतरीन पलों का इन्तेजार … :) बहुत खूब

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  4. जीभर कर जीवन का जमा पानी उलीचा, तब कहीं जाकर अपना आधार मिला। जितना सिमटेंगी, उतना विस्तार सहज हो जायेगा, नियन्त्रित भी, अपना भी।

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