30 September, 2013

तीन रिंग माने फॉरगेट मी नॉट

फोन की घंटी बजती रहती है लगातार...ऑफिस की बेजान दीवारों के सिवा कोई नहीं सुनता. लेट नाईट शिफ्ट्स इल्लीगल हो गयी हैं मगर लेट नाईट नींद न आने पर किसी ऑफिस के लैंडलाइन पर फोन करना अभी भी इलीगल नहीं हुआ है. याद की बेतरह सतरें होती हैं. ब्लैंक काल्स के आखिरी कुछ दिन बचे हैं. मोबाईल फोन की दुनिया में लैंडलाइन ओब्सोलीट होकर ख़त्म होने की कगार पर ही है. जिस दुनिया में उसने इश्क करना सीखा था, उस दुनिया की आखिरी कुछ निशानियों में से था लैंडलाइन. ये मिस काल्स के पहले की दुनिया थी. जहाँ सिर्फ संख्याओं का मोर्स कोड चलता था. वो लड़की जिसे चार में से दो घटाने के लिए भी उँगलियों का इस्तेमाल करना होता था, उसे साढ़े तीन रिंग पर फोन काटना भी आता था और जवाबी ढाई रिंग सुनकर समझना भी आता था कि छत पर ठीक ढाई बजे दोपहर में कपड़े पसारने हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लू चल रही है कि सूरज मनमानी पर उतरा है. उसकी बाईक उसी समय गुज़रेगी उधर से. बस एक लम्हा ही तो मिलेगा उसे. झीने दुपट्टे के पार से उसे देखेगी तो कोई गर्मी उसे छू भी सकेगी भला. नीम की ठंढी छाँव जैसी थी उसकी नज़र. जिस रोज़ आता, सारे दुपट्टों का रंग सतरंगी हो जाता था.

उस वक़्त कितने लोग शामिल थे उनके मिलने की साजिश में. मोहल्ले के परचून की दूकान वाली दीदी. उसे खुल्ले पैसे के बदले जिस दिन डेरी मिल्क देती, उसकी शामों में मिठास घुल आती. फिर अक्सर कुएं का पम्प ख़राब हो जाए वो ऐसा मनाती रहती. भगवान भी उन दिनों उसके साथ था उसपर कुछ तो गर्मी का मौसम मेहरबान था. अक्सर पम्प एयर ले लेता. फिर उसके घर कोई बुतरू दौड़ाया जाता, गर्मी में वो भागते हुए आता. अक्सर खाली बदन होता था. सांवले रंग पर पसीना कैसा चमकता था. वो पम्प की नली में कुएं से पानी भर रहा होता और लड़की किनारे से पुदीना के पत्ते तोड़ रही होती उसके लिए शरबत बनाने के लिए. दुपट्टा कमर में बांधे सिलबट्टे पर पुदीना पीसती. जल्दी जल्दी शरबत बनती. स्टील के बड़े से गिलास में शरबत लिए लौटती. बाल्टी से पानी बराती उसके लिए. वो हाथ मुंह धोता, कोई गमछा नहीं होता तो अक्सर उसके दुपट्टे में ही हाथ मुंह पोंछता. शरबत पी कर उसके चेहरे पर तरावट आ जाती और लड़की के चेहरे पर लाली. फिर पूरी रात दुपट्टा गले में डाले यूँ सोती जैसी उसकी बाँहें हों. कैसी नींद आती, कैसे सपने आते, कैसा लजाया सा दिन गुज़रता फिर.

गर्मी के दिन कितने तो लम्बे होते थे और लम्बे दिनों के कितने काम उसके हिस्से आता था. बाग़ जा कर आम के टिकोले तुड़वाना. लड़की अपना दुपट्टा फैलाये टिकोला लोकने के लिए तैयार रहती थी. अचार के लायक आम जुट जाते थे तो झोले में भर कर एक किनारे रख देते थे दोनों. वो चापाकल चलाता जाता, लड़की पानी के छींटे मारती चेहरे पर. क्रम बदलता और लड़का हाथ मुंह धोता. दरबान चाचा की चारपाई पर बैठ जाते. लड़की अपने दुपट्टे की छोर पर लगी गाँठ खोलती और नमक निकालती. उसकी हथेली में नमक होता और दोनों एक एक टिकोला दांत से काट कर खाते. दरबान चाचा से उनके बच्चे का हाल पूछते. लड़का थोड़ा ज्यादा बात करता उनसे, काकी उसे बहुत मानती थी तो अक्सर थोड़ा सा आम पन्ना भी बना देती. लड़की वहां बैठी ऐसा महसूस करती जैसे जिंदगी ऐसी ही रहेगी हमेशा. हर साल आम का मौसम ऐसे ही आएगा. अचार डाला जाएगा और दोनों काकी से ऐसे ही बात करते रहेंगे. कुछ साल में वो अपने बच्चों को भी यहाँ लेकर आएगी. तब तक वो नानी से अचार बनाना भी सीख लेगी. ऐसा सोचते सोचते वो अक्सर खो जाती थी तो लड़का उसकी चोटी खींच कर या चुट्टी काट कर दुनिया में वापस लौटा लाता था. वापसी में झोले का एक एक डंडा पकड़े हुए दोनों चलते रहते. अक्सर कोई डुएट गाना गाते रहते. कोई भी तो चिंता नहीं होती उन दिनों सिवाए इसके कि अचार बनाने के लिए अच्छी धूप निकले.

उस वक़्त उन लोगों ने लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशन जैसा कुछ सुना नहीं था. कोलेज के आखिरी दिनों उन्होंने सोचा भी कहाँ था कि अपने अपने कोलेज में टॉप करना उनके लिए कितनी बड़ी सजा लेकर आएगी. प्रिंसिपल के कहने पर लड़की ने स्कोलरशिप के लिए अप्लाई कर दिया था और लड़का भी पीएचडी करने के लिए बड़े शहर के कोलेज का फॉर्म ले आया था. उन्हें लगता था कि गर्मी की छुट्टियाँ जिंदगी भर ऐसी ही रहेंगी. मगर बड़े शहर बड़े बेरहम होते हैं, लोगों को इतनी दूर कर देते हैं कि महीने भर लम्बी छुट्टियाँ भी दूरी को पाट नहीं पातीं. दोनों अलग अलग शहर में रेडीमेड अचार खाते हुए बचपन के टिकोलों के लिए तरसते रहते. लड़की को करीने से साड़ी पहननी आ गयी थी और लड़का कुरते में बहुत ही ज्यादा हैंडसम लगता था. कभी कभार साइबर कैफे में वो वेब चैट करते. लड़की किसी से कह नहीं सकती लेकिन उसका दिल छटपटाता कि साड़ी के खूबसूरत पल्लू से उसके माथे का पसीना पोंछ सके. उसके किसी दुपट्टे से लड़के की खुशबू नहीं आती थी आजकल. सुबह बस में सफ़र करते हुए दुनिया भर के अनजान लोगों की भेदती नज़रें छलनी करतीं मगर वो बचे हुए पच्चीस रुपयों से एसटीडी कॉल करती रोज़. लड़का भी लोकल ट्रेन में आधी नींद में झूलता हुआ उसके माथे पर झूल आई लट को उठा कर उसके कान के पीछे खोंस देने के ख्वाब देखता रहता.

दिन, महीने, साल ऐसे भागते थे जैसे किसी और के हिस्से की उम्र उन्हें जीनी है. छुट्टियों में घर आते तो पूरा मोहल्ला उन्हें घेर कर बैठा रहता. लड़कियां उसके जैसी बनना चाहतीं, लड़कों का वो रोल मॉडल हो चुका था. फुर्सत से बैठ कर एक दूसरे के दुःख सुख सुनने के लम्हे मिलते ही नहीं थे. माँ-चाची-रिश्तेदारों की अलग बातें रहती थीं. छोटी सी सैलरी के छोटे छोटे सुख थे. माँ के लिए साड़ी लाना. नानी के लिए इम्पोर्टेड चाकू कि जिससे आम काटने में आसानी हो. कभी कभी देर रात माँ बाल में नारियल तेल लगा रही होती तो उसका दिल करता कि फूट फूट कर रो पड़े. उसे नहीं चाहिए था इतना बड़ा जहान. उसे नहीं बनना था सबका रोल मॉडल. वो तो बस गर्मी की छुट्टियाँ चाहती थी. सबके पास रहना चाहती थी. ऐसा ससुराल चाहती थी जो मायके के पास हो कि जब दिल करे भाग कर मम्मी के पास आ जाए. ये कैसी विदाई हो गयी थी उसकी. न डोली चढ़ी. न पापा के गले लग कर रोई और पूरे शहर ने पराया कर दिया. साल की एक छुट्टियाँ मिलती थीं. पिछली बार तो ट्रेन पर चढ़ते हुए ही उससे मिलना हो पाया. उसका बक्सा उठा कर ऊपर वाली बर्थ पर रख रहा था. लड़की ने कैसे रोका खुद को...दिल उससे लिपट कर रो देना चाहता था. बेइन्तहा. कहना चाहता था कि सब छोड़ कर भाग जाने का दिल करता है. मगर अब वो लड़की थोड़े रही थी...बच्ची नहीं थी. एक औरत से गंभीरता की उम्मीद की जाती है. रॉ सिल्क की साड़ी पहने हुए उसका व्यक्तित्व भी तो गरिमामयी लगता था. टूट नहीं सकती थी वो. नहीं कह सकती थी कि अकेलापन सालता है उसे. लड़का माथे पर आई नन्हीं बूंदों को सफ़ेद रुमाल से पोंछता है. एक लम्हा देखता है उसे. रोकता क्यूँ नहीं है. अपनेआप से पूछता है.

वो भागती हुयी आई है अगली बार. स्टेशन पर वही आया है उसे लेने. नानी की तबियत ख़राब सुनी थी तब उसे मालूम नहीं था कि नानी उसके आने का इंतज़ार नहीं कर पाएगी. भीगे हुए घर से अभी अभी सबके शमशान जाने की गंध आ रही थी. उसे सम्हालना नामुमकिन था. वो किसी को बता नहीं सकती कि क्या क्या खो जाने के लिए रो रही थी. नानी के जैसा अचार बनाना नहीं सीख पाने के लिए. हर गर्मी टिकोले नहीं तोड़ पाने के लिए. आम के उस पेड़ से लिपट पर अपनी शादी में नहीं रोने के लिए. क्या क्या छूट गया था. हमेशा के लिए. क्या हासिल हो गया था ऐसा. नानी के हाथ की बुनी गर्म मफलर लपेटे हुए घर के कोने में चुप सिसक रही थी. उसके बचपन की सारी चाबी नानी ही तो थी. उसके पसंद की सारी सब्जियां...उसके मन का सारा प्यार...उसकी सारी बदमाशियां. गिनती के दिन की छुट्टियाँ भूल गयी वो. नानी के अलावा कोई कैसे नहीं देख पाता था उसकी आँखों में उसे टूटते हुए. अब किसके सीने से लग कर रोएगी लड़की. लड़के के साथ सालों साल का रिश्ता टूट रहा था. एक आम के अचार की बात थी. बस. रिश्ता ही क्या था और उससे.

लौट आई थी. देर रात फोन करती लड़के को. घंटी देर तक बजती रहती. कोई उठाता नहीं. उसे कहाँ मालूम था लड़के की शिफ्ट्स बदल गयी हैं. टेक्नोलोजी भी उसे वैसी ही अबूझ लगती थी जैसे बचपन में संख्याएँ. नेट पर गूगल करने बैठी. लड़के का नाम सर्च में डाला तो एक ब्लॉग का लिंक आया. बड़ा खूबसूरत ब्लॉग था. बचपन में आम के पेड़ पर लगे झूले की तस्वीर ने उसका ध्यान खींचा. उसने दो चोटियाँ कर रखी थीं और झूले को धक्का देता लड़का खड़ा था पीछे. ये तस्वीर तो कब की एल्बम से खो गयी थी उसकी. यहाँ चुरा कर रखी है जनाब ने. उसने पढ़ना शुरू किया तो सोचा भी नहीं था उसके नाम इतने ख़त पूरी दुनिया को दिखा कर लिखे गए हैं. हर पोस्ट पर उसका जिक्र, कहीं उसके नीले दुपट्टे पर लगे कांच से चेहरा छिल जाने वाली शाम...डिटॉल से टीसता याद का हर पन्ना. कतरे कतरे में पूरा बचपन और जवानी संजोयी हुयी. रात रात भर पढ़ती रही और सोचती रही प्यार का इतना गहरा दरिया और कहने को सिर्फ आँखें.

सुबह उनींदी थी. रात भर जागी हुयी आँखों में नींद से ज्यादा इश्क था. घर पर छुटकी को फोन किया और उसके शहर का पता जुगाड़ने को कहा. जितनी देर में छोटे से मोहल्ले में उसका पता जुगाड़ा छुटकी ने उतनी देर में वो पैक कर चुकी थी. छोटा सा बैग लेकर एयरपोर्ट जाने के लिए टैक्सी की. टिकट कटाया और सपनों के शहर में अपने राजकुमार पर हक जताने निकल पड़ी. उसके घर का कॉलबेल बजाते हुए उसे जरा भी फ़िक्र नहीं हुयी.
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लिखना ये चाहती हूँ कि लड़के ने खोला था दरवाज़ा और उसका एक कमरे का घर ऐसा था जैसे सदियों से लड़की के इंतज़ार में रुका हो. घर की दीवारों पर आम के पेड़ की अनगिन तसवीरें थीं. कुछ बचपन के बनाए हुए कार्ड्स से बनी हुए मॉडर्न आर्ट जैसी पेंटिंग्स थीं. एक बड़े से फ्रेम में उसकी बचपन की वो फोटो थी जिसमें वो दुल्हन बनी हुयी है घाघरा चोली में. वो लड़के से कहती है...मुझसे शादी कब कर रहे हो? इसके अगले दिन दोनों घर वापस लौटते हैं. जो पहला मुहूर्त मिलता है उसमें शादी की डेट पक्की होती है. उनकी शादी में पूरा मोहल्ला लाइटों से सज जाता है. सारे लोग आपस में बात करते हैं कि कैसे उनकी लव स्टोरी में उन्होंने सबसे जरूरी किरदार निभाया. दोनों अपने छोटे शहर वापस आ जाते हैं और मिल कर एक आर्गेनिक अचार बनाने की फैक्ट्री खोलते हैं जिससे शहर के अनेक लोगों को रोजगार मिलता है. उनका प्रयास उन्हें कई सारे अवार्ड दिलाता है. उनके दो बच्चे होते हैं, एक लड़की और एक लड़का. हैप्पी एंडिंग.
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कहानी ऐसी नहीं होती है न. सच्चाई कहती है कि दरवाज़ा किसी शॉर्ट्स और स्पैगेटी टॉप पहने हुए लड़की ने खोला होगा जो सिर्फ लड़के की रूम पार्टनर रही होगी. मगर उसे देखते हुए लड़की का दिल ऐसे टूटेगा कि मेरी कलम की कोई सियाही उसे भर न सकेगी. समझ का कोई लोजिक उसे नहीं समझा पायेगा कि बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं. वो लौट जायेगी फिर किसी घर में कभी वापस न जाने के लिए. सब जानते हुए कॉल्स की गिनती ठीक करते हुए. तीन रिंग माने आई लव यू. तीन रिंग माने आई मिस यू. तीन रिंग माने फॉरगेट मी नॉट. 

6 comments:

  1. दिलकश .खासकर यह साढ़े तीन रिंग्स फ़ोन की .वापिस ढाई रिंग्स .और कपडे सुखाना चाहे लू चल रही हो .......... सुपर्ब

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  2. बहुत खुबसूरत। दिल वही अपने छोटे से गाँव लौटने को करता हैं , परतु जिन्दगी के चक्रव्यूह में पीछे जाने का रास्ता पता नहीं होता। अहा। । ठंडी गहरी सांसे लेता हूँ। ।

    "दिल ढूंढ़ता हैं फिर वही " सुनने का जी कर रहा हैं। ।विदा पूजा जी। .

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  3. क्या कहूँ, समझ नहीं पा रहा, बहुत सुन्दर, आपको पढ़ते हुए ज़िन्दगी से भेंट करने जैसा होता है, कहा से लाती हैं इतनी सोचें?

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  4. फुटकर सी फैलती एकमुश्त जिन्दगी..

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  5. कहानियाँ अक्सर हकीकत से अच्छी होती हैं आपकी कहानी ने फिर से यही साबित कर दिया काश कुछ कहानियाँ हकीकत भी बनती

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  6. पढना शुरू किया आँखें नम थीं, अंतिम शब्दों तक पहुँचते हुए मन हो रहा है खूब रोयें...!!!
    लिखती रहो इन एहसासों को यूँ हीं कि शब्दों की पहुँच बहुत दूर तक होती हैं!

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