14 September, 2012

क्राकोव डायरीज-७-ये खिड़की जिस आसमान में खुलती है, वहाँ कोई खुदा रहता है?

'I see dead people.'
-from the film-Sixth Sense
---
आज ऑफिस से घर लौटते हुए एक मोड़ पर ऐसा लगा कि कोई बुढ़िया है, कमर तक झुकी हुयी. मैंने रिव्यू मिरर में देखा...वहाँ कोई नहीं था. मैं उस बारे में सोचना नहीं चाहती. जो वाक्य दिमाग में अटक गया वो सिक्स्थ सेन्स फिल्म का था...मुझे कोई अंदाजा नहीं कि क्यूँ. आज रात बैंगलोर में अचानक बारिश शुरू हो गयी. मुझे मालूम नहीं क्यूँ. जिंदगी में जब 'मालूम नहीं क्यूँ' की संख्या ज्यादा हो जाती है तो मैं चुप हो जाती हूँ और जवाब तलाशने लगती हूँ. 
---
औस्वित्ज़-बिर्केनाऊ की आखिरी कड़ी लिखने बैठी हूँ...दिल की धड़कनें बेहद तेज रफ्तार हैं...जैसे मृत्यु के पहले के आखिरी क्षण से खींच कर लाया गया है मुझे. 
---
बिर्केनाऊ एक श्रम शिविर था...इन शिविरों को यातना शिविर या मृत्यु शिविर कहने से शायद लोगों में शक पैदा हो जाता कि इन शिविरों का मूल उद्देश्य क्या है. होलोकास्ट इतने योजनाबद्ध तरीके से कार्यान्वित किया गया था कि सबसे नयी तकनीक...पंचिंग कार्ड का इस्तेमाल करके हर शिविर में आने, रहने और मरने वाले लोगों का पूरा बहीखाता तैयार किया गया था. उन्नत तकनीक के कारण हिटलर की फ़ौज के लिए ज्यु आबादी को ढूँढना भी आसान हुआ था. 

बिर्केनाऊ में काम करने के लिए आये कैदियों को पहले शावर कमरे में भेजा जाता था. उनके बाल उतारे जाते थे और उन्हें पहनने को कपड़े और जूते दिए जाते थे. बिना ऊनी मोजों के लकड़ी के जूते जो अक्सर सही फिटिंग के भी नहीं होते थे और उनमें चलना बेहद तकलीफदेह होता था. बिर्केनाऊ में हर कदम इतना सोचा समझा था कि व्यक्ति जल्द से जल्द मर जाए. 

तीन लेवल के बंक बैरक
बिर्केनाऊ में औरतों के बैरक अभी तक सही सलामत हैं क्यूंकि ये ईंटों के बने हैं. बैरक में लोगों के सोने की जगह होती थी. ईंटों और लकड़ियों से बाड़ जैसे बंक बेड्स बनाये गए थे. लगभग छः फीट बाय चार फीट का एक सेक्शन होता था. एक सेक्शन में पाँच से सात औरतों को सोना पड़ता था. बैरक में तीन लेवेल्स होते थे...और उनपर पुआल बिछी रहती थी. बेहद ठंढी जगह होने के बावजूद ईमारत को गर्म रखने का कोई इंतज़ाम नहीं था. अक्सर बारिशें होती रहती थीं और छत टपकती रहती थी. चूँकि फर्श भी कच्चा होता था इसलिए कीचड़ बन जाता था. निचले तले पर सोने वाली औरतों को चूहों का खौफ रहता था. बिर्केनाऊ के चूहे बेहद बड़े और माँसाहारी थे. वे सोती हुयी औरतों को कुतर खाते थे...कभी हाथ का मांस नुचा होता था कभी पैर का...कभी चेहरे का.

इन बैरकों के साथ कोई छेड़खानी नहीं की गयी है. वे अभी भी वैसे के वैसे हैं. ऊपर वाले लेवल पर एक खिड़की होती थी. मैं वहाँ खड़ी सोच रही थी...कि यहाँ जो औरतें सोती हैं वो रात को खिड़की से ऊपर देख कर क्या सोचती होंगी...क्या उनके मन में भगवान या किसी ऐसी शक्ति का ख्याल आता होगा. अपने बच्चों को कौन सी कहानियां सुनाती होंगी...क्या बच्चे परियों पर यकीन करते होंगे? क्या कोई माँ अपने बच्चे को झूठे ख्वाब दिखाती होगी कि ये सब कुछ दिनों की बात है फिर सब कुछ नोर्मल हो जाएगा. नोर्मल क्या होता है? बिर्क्नाऊ में पैदा हुए बच्चे और अन्य छोटे बच्चे जो इन कैम्पस में रहते थे उन्हें मालूम ही नहीं था कि लोगों का 'नाम' भी होता है. जन्म के समय से दागे गए ये बच्चे सिर्फ संख्या को पहचानते थे. 

बिर्केनाऊ के निर्माण के एक साल तक वहाँ किसी तरह के शौचालय या नहाने की व्यवस्था नहीं थी. बारिश होती थी तो लोग नहा लेते थे. एक आम दिन ३ बजे शुरू होता था. ठीक समय के बारे में लोग एकमत नहीं हैं. तीन बजे लोग उठते थे और नित्य कर्म निपटाते थे. हर कैदी को आधा घंटा निर्धारित किया गया था. इससे ज्यादा समय लगने पर वे सजा के हक़दार होते थे. तीन बजे से सात बजे तक रोल कॉल चलती थी. ये सबसे अमानवीय अत्याचारों का वक्त होता था. एसएस गार्ड्स कैदियों को अक्सर घंटों खड़े रहने बोल देते थे...तो कभी उकडूं बैठ कर दोनों हाथ ऊपर उठाये रखने का निर्देश जारी कर दिया जाता था. अगर किसी कैदी की मृत्यु हो गयी है तो भी उसे रोल कॉल में माजूद होना होता था. मृत कैदी बिना कपड़ों के होता था और उसे दो कैदी कन्धों पर उठाये रखते थे. अगर रोल कॉल में कोई एक कैदी भी नहीं मिल रहा होता था तो बाकी सारे कैदी तब तक खड़े रहते थे जब तक खोया हुआ कैदी मिल नहीं जाता. 

रोल कॉल के बाद खाना मिलता था और लोग काम पर लग जाते थे. खेतों में दिन भर काम किया करते थे. हर कैदी का अपना काम का कोटा होता था. शाम को सजाएं दी जाती थीं. अगर किसी ने अपने कोटे से कम काम किया है...या साथी कैदी की मदद करने की कोशिश की है...या दिन में एक बार और बाथरूम गया है तो कैदियों को सजा मिलती थी. सजा अक्सर मृत्युदंड ही होती थी. इसके अलावा कैदियों को भूखे मारना जैसी भी सजाएं थीं. लोगों को दिन में ७०० कैलोरी से अधिक का खाना  नहीं मिलता था. एक आम इंसान की खाने की कम से कम १००० कैलोरी की जरूरत होती है. जर्मन ज्यु आबादी को बिना ढंग का खाना दिए और दिन भर काम करवा कर थकान और भूख से मारना चाहते थे और उसमें वे बेहद सफल हुए थे. श्रम शिविर में आने के तीन से चार महीनों के अंदर लोग मर जाते थे. 

बहुत लोग आत्महत्या करने की कोशिश में बाड़ पर खुद को फ़ेंक देना चाहते थे पर अक्सर गार्ड अपने वाच टावर से पहले ही उन्हें गोली मार दिया करते थे. बिर्नेकाऊ के इन्सिनेरेटर में जब लोगों को जलाने की जगह नहीं बचती थी तो लोगों को खुले में जलाया जाता था. कैदियों और आसपास के कई गाँव वाले दुर्गन्ध से जान जाते थे कि इन शिविरों में क्या चल रहा है मगर किसी के पास कोई उपाय नहीं था. जब कुछ कैदियों ने बाहरी दुनिया को बताने की कोशिश की कि बिर्केनाऊ जैसे कैम्पस में हज़ारों की संख्या में यहूदियों की हत्या हो रही है तो बाहरी दुनिया ने इसे अतिशयोक्ति कह कर नकार दिया. 

बिर्केनाऊ और लगभग चालीस अन्य छोटे कैम्पस का उद्देश्य था कि कैदी वाकई जानवरों जैसे हो जाएँ, हर इंसानियत से परे. बिर्केनाऊ में जिन्दा रहने के सबसे बेसिक इंस्टिंक्ट्स की जरूरत थी. सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट. इन शिविरों में रहने वाले लोगों में किसी तरह की मानवीय भावना नहीं बचती थी. कुछ दिन बाद वे किसी भी तरह जिन्दा रहना चाहते थे...अपने साथी का सामान झपट लेना, लोगों का खाना छीन कर खा लेना, किसी की मदद नहीं करना. छः महीने तक जिन्दा रहते कैदियों में बेहद हताशा और फिर उदासीनता भर जाती थी. उनकी आँखों में जिंदगी की कोई चमक नहीं रहती थी. 

जब सोवियत सैनिकों ने बिर्केनाऊ में प्रवेश किया तो उन्हें लगा कि वे कैदियों को आजाद कर रहे हैं तो कैदी खुश होंगे...मगर वहाँ रहने वाले लोग किसी भी भावना को महसूस करने लायक बचे ही नहीं थे. उनमें कोई उम्मीद नहीं थी...न जीने का कोई उद्देश्य था. वे पूरी तरह हारे हुए लोग थे. 

बिर्केनाऊ कैम्प से छुड़ाए गए अधिकतर लोग कुछ महीनों के अंदर मर गए थे. मगर जो बाकी बचे सिर्फ और सिर्फ अपनी जिजीविषा के कारण. साहस...उम्मीद के खिलाफ जा कर भी जीने का साहस... जीवन की अदम्य लालसा...ये एक बीज की तरह होती है...शायद आत्मा के अंश में गुंथी हुयी...कि सब हार जाने के बाद भी खुद को जोड़ लेती है. अंग्रेजी में एक बड़ा खूबसूरत फ्रेज है...The indomitable human spirit.

शिविर के बैरक्स में घूमते हुए हालात वैसे ही थे जैसे उन दिनों रहे होंगे जब यहाँ अनगिन कैदी काम करते होंगे...आसमान काले बादलों से पूरा घिर गया था...दिन में अँधेरा था और उदासी थी. हम अपनी गाइड के पीछे चुप चाप चल रहे थे. बहुत तेज बारिशों के कारण अधिकतर लोग भीग गए थे...भीगने की शिकायत बेहद तुच्छ  लग रही थी...किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा. जिस रास्ते हम अंदर गए थे...उसी रास्ते वापस आ रहे थे. वो एक लंबा रास्ता था जिसके आखिरी छोर पर मृत्यु द्वार था...डेथ गेट. आखिरी कहानियां कुछ उन लोगों की थी जिन्होंने इतने मुश्किल हालातों में अपना आत्म-सम्मान और इंसानियत नहीं खोयी...अपने छोटे छोटे तरीकों से लोगों ने मौत और बदतर जीने के हालातों में भी दुनिया को औस्वित्ज़ के बारे में बताने की कवायद जारी रखी. 

हम जब बिर्केनाऊ के दरवाजे से बाहर आ रहे थे तो बादल छंट गए थे और धूप निकल आई थी. जैसे वाकई सब कुछ अतीत था और पीछे छूट गया था. मुझे इतिहास कभी पसंद नहीं रहा...मुझे समझ ही नहीं आता था कि जो बीत गया उसमें लोगों को इतना इंटरेस्ट क्यूँ रहता है. अब मैं समझती हूँ कि इतिहास को पढ़ना इसलिए जरूरी है कि हम उन गलियों से सबक ले सकें और उसे दोहराने से बच सकें. 

मैं नहीं जानती कि वो लोग कैसे थे...हाँ उनका दर्द जरूर समझ आता था...और सिर्फ समझ नहीं आता...घुल आता है जिंदगी में. औस्वित्ज़ जाना मेरे लिए जिंदगी को बदल देने वाला अनुभव है. कुछ चीज़ें उपरी सतह पर नज़र आ रही हैं...कुछ बवंडर लहरों के नीचे कहीं फॉल्ट लाइन्स में उठ रहे हैं. मुझे लगता था कि मनुष्य की डिफाइनिंग क्वालिटी होती है उसकी प्यार करने की क्षमता मगर मैंने जितना कुछ नया देखा उससे ये सीखा कि प्यार से भी ऊपर और सबसे जरूरी भाव है 'करुणा'. आज के दौर में बेहद नज़र अंदाज़ कर देने वाला भाव है...लेकिन Kindness is the most important of all human values. 
---
शब्द कभी पूरे नहीं पड़ते...भाषा का दोष है या भाव का...या शायद कोई भाषा बनी ही नहीं है जिसमें बयान किया जा सके...इसलिए...चुप. चुप. चुप. इस जगह की हवा में. मिट्टी में. पानी में. रूहें हैं. दर्द है. पोलैंड कहता है...यहाँ आओ...इतने कम लोग कैसे उठाएंगे दुःख का इतना बोझ. हम सब थोड़ा थोड़ा दर्द समेट लाते हैं उस मिट्टी से...फिर टुकड़ा टुकड़ा बांटते हैं उसे. दर्द की फितरत है. बांटने से घटता है.




---
मैंने औस्वित्ज़-बिर्केनाऊ में ज्यादा तसवीरें नहीं खींची...ये एक आधे मिनट का विडीयो है...बिर्केनाऊ का विस्तार देखने के लिए.  
---

13 comments:

  1. sabse nazdeek example ''shawshank redemption" karke movie hai uski hi hai. jsime protagonist apne dost se kehta hai 'Hope is a very dangerous thing my friend'. kaise log honge jo guarding karte honge aur raaton ko neend kaise aati hogi

    ReplyDelete
  2. भयावह, मृत्यु के सानिध्य में जीवन बिताना, भावनायें भी सहम कर छिप जाती होंगी।

    ReplyDelete
  3. भयानक , मैने आज ही इस बारे में पढा बाकी पिछला पढने के लिये दोबारा आउंगा पर आपने ऐसा खाका खींचा है कि किसी फोटो की जरूरत नही

    आभार

    ReplyDelete
  4. दृश्यों को सजीव कर देने वाला और रोंगटे खड़े कर देने वाला लेख...

    ReplyDelete
  5. गज़ब की जानकारी धन्यवाद्

    ReplyDelete
  6. कबसे इंतज़ार था इस किश्त का | चलो पूरा हुआ | इस पूरी श्रंखला की पोस्ट्स पढ़ने के बाद मन एक अजीब से नेगेटिव ख्यालों से भर गया है | क्यूँ हुआ ये सब ? और आज भी किसी न किसी रूप में तो होता ही आ रहा है न ? हम कब रुकेंगे ? पता नहीं !!!

    खैर, बहुत दिनों बाद एक बार फिर आपको पढ़कर बहुत अच्छा लगा !!!

    ReplyDelete
  7. सॉरी, पढा नहीं जायेगा :-(
    ये बताने के लिये बिना पढे कमेंट कर रहा हूँ...।

    ReplyDelete
  8. Jaisa aapne kaha ki sabd pure nahi padte hai, kya kahe... Shayad ye sab dekhne sunne aur padne ke baad se samjh me aata hai jeevan kitna sundar hai, asan hai hamara aur hum uski keemat nahi samajhte

    ReplyDelete
  9. तू बड़ी हो गयी है अचानक जैसे। इसका भी एक वक्त होता हो शायद। पता नहीं। कहीं, कुछ मिसिंग है...खैर।
    --
    पिछले दिनों वॉलमार्ट के जर्मन चैप्टर की केस स्टडी पढ़ रहा था। ये वॉलमार्ट की असफलता का पहला अध्याय है। तूने भी पढ़ा हो शायद, जयश्री जेठवानी के हुक्मशाही के दिनों में।
    ये वो दौर था जब वॉलमार्ट के लोग डिस्काउंट रिटेलिंग में सफलता के नए नए आयाम गढ़ रहे थे। साथ ही उनके ही द्वारा कुछ फॉर्मूले में प्रतिपादित किए जा रहे थे जो इस व्यवसाय में सफलता के लिए अहम थे। मसलन ग्राहक को देखते ही मुस्कुराते हुए ग्रीट करना और पूछना कि कैसे आप उसकी सहायता कर सकते हैं। या फिर उसकी अपेक्षाओं को पढ़ते हुए समय से पहले ही उस सेवा देना। तमाम सूत्र जो कुछ यूरोपियन और लैटिन देशों में वॉलमार्ट की सफलता का आधार बने थे। लेकिन ताज्जुब कि यही फॉर्मूले जर्मनी में कंपनी की असफलता की बुनियाद बन गए। केस स्टडी कहती है कि असफलता की मुख्य वजह थी कल्चरल डिफ्रेंस। मुस्कुराकर स्वागत करने को जर्मन ग्राहक ने आफेंसिव माना। उसकी उम्मीद भांपकर उसे चीजें सुझाने को उसने अतिक्रमण करार दिया। हॉवर्ड की ये स्टडी कहती है कि जर्मन आमतौर पर रिजर्व होते हैं, अगर आप वहां व्यवसाय करने जा रहे हैं तो ये याद रखें।
    केस स्टडी पढ़ते हुए क्राकोव डायरीज के कई हिस्से भी जहन में उभरते रहे, बार बार। सोचता हूं कि होलोकॉस्ट का दंश कितना गहरा था कि एक संस्कृति आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी उससे उबर नहीं सकी थी। मुमकिन है ये उनका मौन रह जाना था जो उन्हें हमेशा के लिए मौन कर गया हो। मैं मानता हूं वॉलमार्ट की असफलता के पीछे और भी आर्थिक वजहें जिम्मेदार रही होंगी, लेकिन ये इशारा भी तो कम नहीं।

    ReplyDelete
  10. poora padha ...aur jo sabse khas tha wo tha prem se jyada karuna jaruri hai....ajeeb hai pooja aap prem ki galiyon se bhatak kar karuna tak pahunch gai hain aur dono hi vidhaon me aap behtareen lagi....aur aapki is karuna ne jo drashya khinch wo behtareen hain

    ReplyDelete
  11. mere pas bhi shabd nahi h..shayad karuna prem or dard aisi cheeze h jinhe mahsus karne k liye shabdo se jyada maun ki jarurat hoti h

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...